मंगलवार, अक्तूबर 31, 2017

सिनेमा

बेनेगल बाबू के सिनेमा के 50 साल


70 के दशक में हिंदी सिनेमा में जिस धारा को कला सिनेमा या समानांतर सिनेमा या नयी धारा का सिनेमा संबोधित किया जा रहा था और जिस पर कला जगत में विभिन्न सिरों से तेज़ी से विमर्श हो रहा था, बेनेगल बाबू उस दशक में उस विमर्श के केंद्र बिंदुओं में शुमार थे और आने वाले लगभग दो दशकों तक वह इस श्रेणी के सिनेमा के शीर्ष कलाकारों में सक्रिय रहे।


गुरुदत्त के खानदान से ताल्लुक रखने वाले श्री श्याम बेनेगल का अगर कोई परिचय हो सकता है तो यह हो सकता है कि एक दर्जन फिल्मों के नाम ले लिये जाएं और आपसे कह दिया जाये कि इनके फिल्मकार हैं श्याम बेनेगल। कुछ लोग ऐसे होते हैं जो अपने नाम से ज़्यादा अपने काम से जाने जाते हैं। भले ही, हिंदोस्तान के सिनेप्रेमियों में से कुछ ने बेनेगल बाबू का नाम न सुना हो या ठीक से परिचित न हों लेकिन उनकी फिल्मों और पुरस्कारों की फेहरिस्त जानने के बाद किसी को भी यह यक़ीन हो ही जाएगा कि एक ऐसे कलाकार का ज़िक्र हो रहा है जिसकी कला का लोहा दुनिया मानती है।

Shyam Benegal.image source: Google

1967 में बेनेगल बाबू ने पहली डॉक्युमेंट्री फिल्म बनायी थी "क्लोज़ टू नेचर"। डॉक्युमेंट्री से उनका प्रेम यूं समझिए कि अगले 40 साल यानी 2007 तक बेनेगल बाबू ने तीन दर्जन से अधिक डॉक्युमेंट्री फिल्में बनायी हैं। उनके द्वारा निर्देशित पहली फीचर फिल्म "अंकुर" 1973-74 में बनी थी। दो दर्जन से ज़्यादा फीचर फिल्मों का निर्देशन करते हुए बेनेगल बाबू एक साथ वृत्तचित्रों और टेलिविज़न के परदे पर भी काम करते रहे। यह उनकी बहुमुखी प्रतिभा और अभिव्यक्ति की कला के प्रति उनकी लगन और जुनून का स्पष्ट प्रमाण है। 

डॉक्युमेंट्री से पहले बेनेगल बाबू ने शॉर्ट फिल्में भी बनायी थीं। यह उनका फिल्म अभ्यास माना जा सकता है और यह भी उल्लेखनीय है कि वह एक एडवरटाइज़िंग फर्म के साथ जुड़े रहे थे जो विज्ञापन फिल्में बनाने के व्यवसाय में सक्रिय थी। यानी कि बेनेगल बाबू की फिल्मकार के रूप में प्रतिष्ठित होने की भूमिका पहले से ही तैयार हो चुकी थी।

बेनेगल बाबू एक जाग्रत फिल्मकार रहे और एक बड़े फलक पर कहा जा सकता है कि फिल्म के माध्यम से वह सामाजिक चिंतक, विश्लेषक एवं सुधारक की भूमिका का निर्वहन करते रहे। बेनेगल बाबू के सिनेमा के कई आयाम हैं जिन पर सार्थक चर्चा हो चुकी है और होती रही है। बेनेगल बाबू के सिनेमा ने वास्तव में भारत के सिनेमा में एक अपूर्व योगदान दिया है और अब तो यह भी कहा जा सकता है कि उनकी एक लीगेसी है। उनसे प्रेरित होकर फिल्में बनाने वाले कलाकारों की सूची भी बड़ी है।

एक ओर बेनेगल बाबू के सिनेमा पर सत्यजीत रे, ख़्वाजा अहमद अब्बास और बिमल राय जैसे पूर्ववर्ती फिल्मकारों का प्रभाव रहा वहीं, राजनीतिक रूप से वह पंडित जवाहरलाल नेहरू से प्रभावित रहे। न केवल नेहरू पर वृत्तचित्र का निर्माण उन्होंने किया बल्कि नेहरू की चर्चित किताब "दि डिस्कवरी ऑफ इंडिया" को एक टीवी शो "भारत एक खोज" के रूप में ढाला जो एक कालजयी टीवी रचना सिद्ध हुई। नेहरू से प्रभावित होने का अर्थ बेनेगल बाबू के संदर्भ में यह नहीं माना जा सकता कि वह एक कलाकार के रूप में कांग्रेस पार्टी के प्रवक्ता की तरह रहे। समय-समय पर उन्होंने कांग्रेस की आलोचना भी की और अपनी फिल्मों में कटाक्ष भी किये। वह हमेशा 1975 के आपातकाल को देश की बेहद चिंताजनक घटना मानते रहे और इसे लोकतंत्र के लिए शर्मनाक समय करार देते रहे।

(2007 में भवेश दिलशाद द्वारा किया गया श्री श्याम बेनेगल का साक्षात्कार पढ़ने के लिए निम्नांकित शीर्षक पर क्लिक करें।)

"अब लोकतंत्र में साझेदारी ज़रूरी: श्याम बेनेगल"


बेनेगल बाबू की निष्ठा विचारपरक रही, न कि व्यक्ति या संगठनपरक, ऐसा कहा जा सकता है। बहरहाल, सिनेमा में 50 सालों की बेहद सार्थक एवं कामयाब यात्रा पूरी कर चुके बेनेगल बाबू का योगदान अविस्मरणीय रहेगा। यूं भी कहा जा सकता है कि सिनेमा की यात्रा की अनोखी घटना है कि उसने बेनेगल बाबू जैसा एक हमसफ़र पाया। तमाम सिनेप्रेमियों और मुझ जैसे मुरीदों की ओर से इस महान और सशक्त कलाकार को लाल, नीला, हरा और हर रंग का सलाम।

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