शनिवार, अक्टूबर 28, 2017

चिट्ठी

परवीन शाक़िर के नाम एक ख़त

मेरे एहसास की तर्जुमानी करतीं तुम


यह चिट्ठी 13 अक्टूबर 2005 को लिखी गयी थी और इसके कुछ ही बाद मध्य प्रदेश साहित्य अकादमी की पत्रिका "साक्षात्कार" में इसका प्रकाशन हुआ था।


नाम सुना था और कुछेक अशआर भी, लेकिन धुंधले हो चुके थे। पिछले दिनों एक शाम अचानक पढ़ने को मिलीं तुम्हारी ग़ज़लें और नज़्में। मुरीद के सिवाय क्या होना था इख़्तियार में। सोचा तुम्हें ख़त लिखूं, कभी मुलाक़ातें हों, बातें हों और हो सके तो कुछ और भी। बस, बेतरह तुम्हारे तसव्वुर में रात ढलने लगी।

Parveen Shakir. image source: Google
सोच भी ली थी, ख़त लिखने की तरतीब, एक तरक़ीब कह लो। लिखता तो शायद यूं लिखता कि मेरे एहसास की तर्जुमानी करतीं तुम्हारी ग़ज़लें, नज़्में पढ़ीं। सोचा कि कुछ बात कर लूं, फ़िलहाल ख़त के ज़रीये ही। बात करने लगा तो बात निकलती ही गयी जैसे चादर हटा के बर्फ़ की लहराने लगे हों हर्फ़ और तुम्हारी ग़ज़लों का तआस्सुर ये कि इन हर्फ़ों ने मेरा लिहाज़ भी रखा जैसे सूरज की शह पे तिनके भी बेबाक़ हो गये। चाहो तो ख़ता कह देना लेकिन ये क़तई नहीं कि बच्चे हमारे अहद के चालाक हो गये। यक़ीन मानो मैं तुम्हारे अलफ़ाज़ से इतना मुतास्सिर हुआ कि तुम्हारे हुस्न का क़ायल हो गया। जी में आया कि तुम फ़ौरन हिंदोस्तान चली आओ और ये भी ऐतबार था मुझे कि अगर ऐसा हो जाये तो फिर तुम्हारी रिफ़ाक़त के लिए, मौसमे-गुल मेरे आंगन में ठहर जाएगा

हालांकि हम पहले कभी नहीं मिले। फिर भी न जाने क्यूं मुझे लगता है जैसे हम एक ही रूह के टुकड़े हों। हमारे आंगन अलग सही मगर उन पर एक ही बादल बरसता हो, हमारी प्यासी प्यास अलग सही लेकिन समंदर उतना ही चाहिए हो और जैसे मुझ पर एहसान करती हवा तेरी ख़ुश्बू का पता करती है। इन्हीं सब बातों के बीच मेरी दीवानगी ने तुमसे एक रिश्ता सा क़ायम कर लिया। एक पुल जिसके दोनों सिरे किसी धुंध में ग़ायब हों, यही ख़्वाहिश कि मैं वो सिरा तलाश लूं और तुम ये। एक डर तो रहता ही है सो था कि आख़िर किसकी तलाश पूरी हुई है। इन्हीं ख़्वाहिशों को लिये कितने बुलंदो-बाला शजर ख़ाक हो गये। बस, इसी तरह शब ढल गयी।

अगली शाम फिर तुम्हारी ग़ज़लों और नज़्मों की महफ़िल सजी। मैं कभी मुस्कुराया, कभी उदास हुआ, कभी तुम हो गया तो कभी रूह तक आ गयी तासीर मसीहाई की। आज तुम्हारी तस्वीर भी देखने को मिली। यक़ीन मानो तुम्हारी शायरी से कम ख़ूब नहीं लगी। तुम्हारा ही मिसरा याद आया चांद भी ऐन चैत का उस पे तेरा जमाल भी। सोचने लगा कि बख़्शने वाले ने तुम्हें सब कुछ बख़्शा। ऐ क़ाश कुछ कमी छोड़ देता। कम से कम तुम्हारे जैसे मासूम फूल को दुख न बख़्शता। लेकिन, वो तुमसे बहुत पाकीज़ा मुहब्बत करता होगा, इसीलिए तो फूल के सारे दुख ख़ुश्बू बनकर बह निकले हैं। यक़बयक़ महसूस हुआ कि ये मैं क्या कह रहा हूं? अगर ऐसा होता तो ये ख़ुश्बू कैसे बिखरती और मुझे कैसे महकाती। और फिर इस महरूमी के क्या मायने होते मेरे लिए, मुआफ़ करना शायद ये मेरी ख़ुदगर्ज़ी ही है। लेकिन ये बहुत बड़ा सच ही मानो कि मेरे लिए तुम्हारे वजूद का हर पहलू लाज़िमी है, ख़ास है और रहेगा।

ख़ैर, मेरी बातें छोड़ो। आगे सुनो, रात हुई और बिस्तर पर तुम्हारे एक शेर की सलवटें उभरने लगीं बिछा दिया था गुलाबों के साथ अपना वजूद/वो सो के उठे तो ख़्वाबों की राख उठाउंगी। हर सलवट पर बतौर औरत तुम्हारी पाकीज़गी, संजीदगी, समर्पण और मासूमियत मुझे साफ़ दिख रही थी। मैं तुम्हारा क़ायल हो रहा था। सांसों की जगह ग़ज़ल भरतीं तुम अपनी ही नज़्मों के बदन में ढलकर मेरे आसपास थीं उस वक़्त। मैं चाहता रहा कि मेरी निगाहें तुम्हारे चेहरे पर ग़ज़ल लिखती जाएं मगर... कुछ देर बाद उठा तो खिड़की पर चांद ने दस्तक दी। तुम्हारे ख़यालों में डूबा मैं उसे तकने लगा कि अचानक एक बादल ने उसे पूरा ढांक लिया। तब एक और खुलासा हुआ मुझ पर कि इतने घने बादल के पीछे/कितना तनहा होगा चांद। तुम समझ सकती हो कि बादल और चांद के मायने क्या थे मेरे लिए। मालूम नहीं था सिर्फ़ एक ध्यान रहा कि शायद पाकिस्तान में भी रात हो रही होगी और एक बज रहे होंगे। मेरे होंठों की लर्ज़िश से आवाज़ ये निकली सोता होगा मेरा चांद। कहीं नींद न टूट जाये, मैंने तड़पकर अपने लबों पर उंगली रख ली। लेकिन मजबूरी शायद इसी को कहते हैं कि मैं अपने बोलते हुए तसव्वुरात पर उंगली नहीं रख पाया। अपने अहवाल का ज़िक्र ज़रूरी तो नहीं लेकिन कहे बगैर रह नहीं पाउंगा तुम्हारा शेर ऐसे मौसम भी गुज़ारे हमने/सुब्हें जब अपनी थीं शामें उसकी। और रात का इज़ाफ़ा समझाने की बात तो नहीं। ये कोई शिक़ायत नहीं क्योंकि मेरी नींद ये सोचकर टूट चुकी थी कि किस तरह कटती हैं रातें उसकी। थोड़ी देर बाद अधूरी नींद में नीम ख़्वाबीदा आंखों में तुम्हारा ही ग़ुमान उतरने लगा। फिर दिन हो गया और दुनियावी मसाइल मुझे अपने आग़ोश में लेने लगे।

शाम ढली और मुझे ख़बर नहीं थी कि एक सदमा मुझे आज झेलना होगा। तुम्हारा लाइफ़ स्कैच पढ़ने को मिला। आख़िर तक पहुंचा और अंदर-अंदर कुछ चटकने की आवाज़ों की तासीर मेरी पलकों ने बयान की। काश, 1994 के कैलेंडर में 26 दिसंबर की तारीख़ ही नहीं होती। काश ऐसा होता, काश वैसा होता... इस शाम बड़ा मन था कि तुमसे मुलाक़ात होगी, और बातें होंगी मगर..! अजीब तर्ज़े-मुलाक़ात अबकि बार रही/रवायतन ही सही कोई बात तो करते। मेरा एक सुनहला सपना धुंधला हुआ है। इरादा करता हूं कि इसे अंधेरों या ग़र्द की चादर के पीछे गुम नहीं होने दूंगा। वादा करता हूं कि जो सपना देख लिया था तुमसे मिलने का, बातें करने का और हो सके तो कुछ और का भी, उसे पूरा करने की कोशिश ताउम्र करता रहूंगा। मैं देख रहा हूं कि तुम "वहां" एक नीली झील के पास खड़ी हुई पानी में अपना अक़्स देख रही हो और हैरान हो रही हो कि क्या-क्या दिख रहा है। मुझे भी वहां आना नसीब हो कभी, वहीं मेरे उस सुनहले सपने की ताबीर हो। तुम्हारी क़सम अबसे मैं एक नेक इंसान बनने की राह पर ही क़दम रखूंगा क्योंकि अब मैं सब कुछ बर्दाश्त कर सकता हूं लेकिन ये क़तई नहीं कि मैं "वहां" न आ सकूं जहां तुम हो।

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दिलशाद

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