मंगलवार, मार्च 31, 2020

ग़ज़ल

समकालीन ग़ज़लों के 11 बेहतरीन मतले


इस दौर के 85 शायरों की एक-एक ग़ज़ल को शामिल करता शेरी मजमूआ है 'समकालीन ग़ज़लकारों की बेहतरीन ग़ज़लें'. युवा शायर केपी अनमोल इस मजमूए के संकलक हैं, जो राजस्थान के किताबगंज प्रकाशन से शाया हुआ है. इसी संकलन में शुमार ग़ज़लों से चंद मतलों का इंतख़ाब.


इस संकलन में नाचीज़ की भी एक ग़ज़ल का शुमार है, जिसके लिए भाई अनमोल का शुक्रियादा करना लाज़िमी है. यह एक मोह रहता ही है कि अपना क़लाम हर कागज़ पर दर्ज हो जाए इसलिए इसे संजीदगी से न लें (यानी यहां नाचीज़ के मतलों के इंतख़ाब को रस्म अदायगी ही समझें). इस मजमूए पर विस्तार से बात तो शायद फिर कभी कर सकूं लेकिन यहां दो तीन ज़ावियों पर मुख़्तसर अपनी राय ज़रूर रखूंगा और फिर तमाम मुंतख़ब मतलों पर अपनी एक छोटी सी राय भी.

Book Cover of "Behtareen Ghazlein".
अव्वल तो ये कि भाई अनमोल की कोशिश को सौ में सौ नंबर देने के बावजूद इस संकलन की सीमाओं को दरकिनार मैं नहीं कर सका. शायर होने के साथ जैसे कोई समीक्षक या मद्दाह बन जाया करता है, वैसे ही मैं शुरू से नुक़्ताचीं या नक़्क़ाद यानी आलोचक ज़्यादा रहा हूं इसलिए फ़ितरतन वो नुक़्ते ज़्यादा देखता हूं, जो सुनने पढ़ने वाले को अपने लिए थोड़े सख़्त भी लग सकते हैं, लेकिन उनका मक़सद आगे और बेहतरी का ही होता है.

एक तो भाई अनमोल को 'ग़ज़लकारों' लफ़्ज़ की बनावट को समझना चाहिए. शायरों या क़लमकारों शब्द यहां ज़्यादा उचित होते क्योंकि ग़ज़लकार एक जबरन बनाया हुआ शब्द है, इसमें कोई मौलिकता या सार्थकता नहीं है. दूसरी बात, इस संकलन की भूमिका पढ़ने के बावजूद इस संकलन का मक़सद साफ़ नहीं होता कि क्यों इस किताब की ज़रूरत थी या पड़ी या क्यों यह किताब शाया की गयी. यह शायद मेरी हद्दे-अक़्ल भी हो सकती है. बहरहाल, कुछ ज़रूरी समकालीन शायरों के नाम इस संकलन में छूट जाने के बावजूद जितने नाम शुमार हुए हैं, उनमें से कई को ज़रूरी क़रार दिया जा सकता है और इसके लिए भाई अनमोल तारीफ़ के हक़दार हैं.

एक तरफ, जहां ग़ज़लकार लफ़्ज़ से मैं मुत्तफ़िक़ नहीं हूं, वहीं समकालीन लफ़्ज़ के लिए इस किताब को तैयार करने वाली टीम को मुबारकबाद देना चाहता हूं. ये ठीक हुआ कि इस लफ़्ज़ की जगह हिंदी/उर्दू या नये लफ़्ज़ का इंतख़ाब नहीं किया गया. ऐसा होता तो संकलन बेहद सीमित सोच के टैग से ग्रस्त हो जाता. बहरहाल, अब आपके और बेहतरीन मतलों के बीच से हटता हूं, लेकिन बीच-बीच में बना रहता हूं.

सितारे हार चुकी थी सभी जुआरी रात
बस एक चांद बचा था सो वो भी हारी रात.
- भवेश दिलशाद

हादसा कौन सा हुआ पहले
रात आयी कि दिन ढला पहले.
- ऐन इरफ़ान
(इस मजमूए का शायद सबसे असरदार मतला मुझे यही लगा. एक बहुत बारीक़ पार्टिशन के दो पहलुओं से ख़ूबसूरत शेर निकालने पर शायर को भरपूर दाद बेसाख़्ता देना पड़ती है.)

कैसे आहें भर रहे थे एकदम चुप हो गये
वास्ता तेरा दिया तो सारे ग़म चुप हो गये.
- आसिफ़ अमान सैफ़ी

जो नंगे पांव कांटों पर मचलना सीख जाते हैं
वो अपने दौर से आगे निकलना सीख जाते हैं.
- अशोक वर्मा
(जदीद शायरी में ऐसे शेर कम नहीं हैं, फिर भी यह मतला एक ख़ास अदा और हुनर की बानगी के तौर पर रचाव पैदा करता है.)

न कोई शाख़ भी इतनी घनी है
कि जितनी छांव तुमने मांग ली है.
- हेमंत शर्मा मोहन

ये पत्तियों पे जो शबनम का हार रक्खा है
न जाने किसने गले से उतार रक्खा है.
- केपी अनमोल

ये धूप गिरी है जो मेरे लॉन में आ कर
ले जाएगी जल्दी ही इसे शाम उठा कर.
- स्वप्निल तिवारी
(अनमोल और स्वप्निल दोनों के मतलों की ज़ुबान किस क़दर नाज़ुक है और यह नाज़ुकी है भी कितनी एक जैसी. बहरहाल, अनमोल का मतला रवायती होने के बावजूद रस से सराबोर है तो स्वप्निल का मतला संपन्न और संतुष्ट वर्ग की सत्ही चिंता को ख़ूबसूरती से बयान कर रहा है.)

मेरी चाहत है कि इक दिन मुझे हैरान करे
मैं उसे भूल गया हूं ये दिल ऐलान करे.
- तरकश प्रदीप

ये कहकर ले गये बच्चे पिता की जान किस्तों में
खरीदेंगे नयी दुनिया इन्हीं आसान किस्तों में.
- प्रबुद्ध सौरभ

जाने वाले कब लौटे हैं क्यों करते हैं वादे लोग
नासमझी में मर जाते हैं हम-से सीधे सादे लोग.
- श्रद्धा जैन
(इस मजमूए में शायराएं गिनी चुनी ही शामिल हुई हैं और जहां तक बात मतलों के इंतख़ाब की रही है, तो श्रद्धा का यह मतला इसलिए नहीं चुना गया कि किसी शायरा का मतला भी चुनना था, बल्कि इसलिए कि यह मतला ख़ुद इसरार करता है कि मुझे चुनो. मीर या नज़ीर से होते हुए कहन का जो अंदाज़ इब्ने-इंशा और हबीब जालिब के यहां भी दिखता रहा, उस अंदाज़ की ये फ्रेज़िंग बरबस ध्यान खींचती है और शेर का मफ़हूम फिर क़ायल कर ही लेता है.)

आख़िरश, एक हुस्न-ए-मतला भी...

बताओ कैसे कहां तुमने कल गुज़ारी रात
उठायी सूद पे या क़र्ज़ पर उतारी रात.
- भवेश दिलशाद

सोमवार, मार्च 30, 2020

कला

मृत्यु सत्य है, लेकिन अंतिम?


नेल्सन मंडेला के जीवित रहते उनकी मौत को दर्शाने वाले एक चित्र पर बड़ा विवाद हुआ था. कला के अपने तर्क थे और लोक के अपने. इस पूरी स्थिति से उपजा एक संक्षिप्त आलेख.


Mandela's painting by Damaso. (Image : The Guardian)

प्राचीन काल से अब तक हमारे पास जीवन का जितना साहित्य और इतिहास है, उतना ही मृत्यु का. समय-समय पर कला की विविध विधाओं ने मृत्यु को अपने ढंग से परिभाषित किया है. कविता, चित्रकारी, संगीत, रंगमंच और लगभग हर विधा के कलाकारों ने यह विषय छुआ है. एक तथ्य यह भी है कि कला हो या विज्ञान, दोनों ही मृत्यु को सत्य मानते तो हैं, लेकिन अंतिम नहीं. क्योंकि, कला उसके बाद की कल्पना कर सकती है और विज्ञान अब तक यह साबित नहीं कर सका है कि मृत्यु के बाद कुछ नहीं होता. यानी देह तो कुछ ही समय में अपनी सभी गतियों से मुक्त हो जाती है, लेकिन क्या मन या प्राण या चेतना (या अन्य कई नाम) भी नष्ट हो जाते हैं? यदि हां, तो कैसे और नहीं तो क्यों? इस उलझन में विज्ञान भी अब तक उलझा है क्योंकि बायोलॉजिकली हर प्राणी की मृत्यु निश्चित है, लेकिन हाइड्रा यहां भी एक अपवाद है. बायोलॉजी भी इसे अमर कहने के लिए अब तक बाध्य है. कुल मिलाकर, सत्य तो माना जा सकता है, लेकिन अंतिम नहीं. अब तक.

कला और विज्ञान के अलावा, मृत्यु को लेकर धर्म का हस्तक्षेप भी हमेशा से रहा है. लगभग हर धर्म में मृत्यु का विश्लेषण, विश्वास व मत के आधार पर किया गया है और, इससे संबंधित सभी नीतियां व विधियां भी बतायी गयी हैं. धर्म और कला के कुछ धड़े हमेशा से मृत्यु को अंतिम न मानते हुए पुनर्जन्म और मृत्योपरांत जीवन की व्याख्या करते रहे हैं. यहां से विज्ञान की मुश्किलें और बढ़ी हैं. चेतना के अस्तित्व के अलावा, चेतना की उत्पत्ति और प्रकृति को लेकर भी विज्ञान के पास पर्याप्त या सर्वमान्य तर्क नहीं हैं. इसी भ्रम की स्थिति के कारण हज़ारों साल के मानव इतिहास में मृत्यु अब तक सहज स्वीकार की वस्तु नहीं बन सकी है. नये समय के चर्चित चिंतक ओशो ने मृत्यु को उत्सव का क्षण तक कहा, फिर भी मनुष्य अपने विश्वासों, अंधविश्वासों और अविश्वासों के कारण मृत्यु को अंतिम एवं जीवन के परम सत्य के रूप में स्वीकार नहीं कर सका है.

विभिन्न संस्कृतियों और परंपराओं में मृत्यु को लेकर अनेक प्रकार की रीतियां एवं मन:स्थिति देखी जाती है. भय, दुख, चिंता, पीड़ा जैसे मनोविकार और अपशकुन, सामाजिक खेद व कर्मकांड जैसे चलन मृत्यु से जुड़े हैं. दुनिया के हर कोने में मृत्यु की कामना या कल्पना उस व्यक्ति के लिए की जाती है, जिससे दुर्भावना, वैमनस्य या शत्रुता जुड़ी हो. यह एक सार्वभौमिक भावबोध है इसलिए कोई यदि किसी अपने के लिए मृत्यु की कल्पना करता है तो उसे सहज नहीं लिया जाता.

जिस बात पर चर्चा करना है, उसके लिए इतनी भूमिका तो ज़रूरी थी ही. आजकल अफ्रीका में ज़्यादातर लोग एक चित्रकार पर नाराज़ हैं क्योंकि उसने अपने चित्र के माध्यम से अफ्रीका के पूर्व राष्ट्रपति एवं महान नेता नेल्सन मंडेला की मृत्यु का दृश्य उकेरा है. कई लोग चित्रकार की आलोचना करने में लग गये हैं, वहीं चित्रकार का अपना नज़रिया है. कुछ दिनों पहले बीबीसी की रिपोर्ट में कहा गया था कि अफ्रीका में मंडेला की मृत्यु को किसी अभिशाप से कम नहीं समझा जाएगा. अफ्रीकी इस सच को स्वीकार करने में सहज नहीं हैं कि मंडेला मृत्यु की ओर हैं और वह खुद को मंडेला के बगैर अनाथ महसूस करेंगे. रिपोर्ट में यह भी कहा गया था कि प्रार्थनाएं जारी हैं और अफ्रीकी सार्वजनिक तौर पर यह बात करने से कतरा रहे हैं कि मंडेला वाकई मरने वाले हैं. यह उनके लिए दु:स्वप्न है.

चित्रकार यिउल दामासो ने इसी रिपोर्ट के तथ्यों से आहत होकर अफ्रीका के लोगों को अपने चित्र के ज़रिये समझाने की कोशिश की है कि मंडेला एक महान मनुष्य हैं, लेकिन मनुष्य ही हैं... इसलिए एक दिन अफ्रीका और दुनिया को उनकी मौत का दृश्य देखने के लिए खुद को तैयार और मज़बूत करना चाहिए. इस चित्र में मंडेला का पोस्टमार्टम होते दिखाया गया है, साथ ही, मंडेला को अर्धनग्न चित्रित किया गया है. इस कारण भी इस चित्र को अशोभनीय करार दिया जा रहा है. वास्तव में, यह चित्र 17वीं सदी के कलाकार रैम्ब्रैंट वैन रीन के एक प्रसिद्ध चित्र 'दि एनाटमी लेसन ऑफ डॉक्टर निकोलस टल्प' की तर्ज़ पर उकेरा गया है और इस चित्र में दिखने वाले शव के स्थान पर मंडेला को दर्शाया गया है.

चित्रकला में नग्नता हमेशा से ही कलाकारों को आकर्षित करती रही है. विंची, माइकलेंजेलो से लेकर एमएफ हुसैन और तैयब मेहता तक चित्रकारों ने नग्नता को परिभाषित किया है. विक्टोरियन व क्लासिकल दौर की पेंटिंग में सौंदर्य बोध या वासना चित्रण के लिए नग्नता का प्रयोग किया जाता रहा. फिर समाज की कड़वी सच्चाइयों के लिए दुनिया भर के चित्रकारों ने इसे दर्शाना शुरू किया. धार्मिक और परंपरागत जीवन शैली को चित्रित करने के लिए ​भी चित्रकारों ने नग्नता को कैनवास पर उतारा. सब-सहारन अफ्रीका और तीसरी दुनिया के कई देशों के आदिवासियों के नग्न चित्रों को एक समय में काफ़ी कीमत मिली. सभ्य समाज ने आदि समाज की नग्नता को कभी मात्र मनोरंजन समझा तो कभी यथार्थ बोध. धीरे धीरे चित्रकला में नग्नता बहस का विषय बनी और कलाकारों ने इसे अभिव्यक्ति की शैली के तौर पर कलाकार की स्वतंत्रता कहा.

वास्तव में, एक अत्यंत सूक्ष्म लकीर है, जिसके एक तरफ नग्नता कला है और दूसरी तरफ, अश्लीलता. जिन कलाकारों ने इस सूक्ष्मता को समझा, उन्होंने नग्नता की वक़ालत तो कर दी लेकिन इससे उन्हें भी बहाने और तर्क मिल गये, जिन्हें वास्तव में कला से कोई लेना देना नहीं था, बल्कि सिर्फ़ सस्ती ख्याति और व्यवसाय से सरोकार था.

ख़ैर, दामासो के इस चित्र में नग्नता के नाम पर उंगली उठाना कला के दृष्टिकोण से जायज़ नहीं है. हां, यदि लोगों की भावनाएं आहत हुई हैं, तो कलाकार की आलोचना की जा सकती है, लेकिन फिर एक नयी बहस का सूत्रपात होता है कि इस आलोचना से कलाकार की भावना भी तो आहत होती है. यदि लोग कलाकार की भावना नहीं समझ सकते तो कलाकार के लिए कितना ज़रूरी है कि वह लोगों की भावना को समझे. इस मुद्दे पर एक तर्क यह भी है कि यदि कला लोकमंगल के लिए नहीं है तो उसका औचित्य क्या है. तर्क-वितर्क और वाद-विवाद कितना भी हो, फिर भी प्रश्न शायद बना रहेगा कि कला के लिए साध्य क्या है, लोक या सत्य. चूंकि पूर्ण सत्य निश्चित तौर पर अब तक अबूझ है इसलिए यह प्रश्न भी बड़ा है कि लोक का सत्य यदि भ्रम है, तो कलाकार को सही अर्थों और दिशा का अनुसंधान करने का अधिकार है या नहीं. यदि विज्ञान इस खोज के लिए स्वतंत्र है तो कला के लिए सीमाएं और अनुशासन क्यों और कहां तक?

(यह लेख साल 2010 में एक अख़बार के संपादकीय पेज के लिए उस समय के मुद्दे पर केंद्रित एक त्वरित टिप्पणी के तौर पर लिखा गया था, जो किसी कारणवश अप्रकाशित ही रहा.)

शनिवार, मार्च 28, 2020

एक ग़ज़ल

फ़ैज़ : ख़्वाब और उम्मीद के बीच एक उदासी!


क्या ज़िंदगी के एक दौर में फ़ैज़ की शायरी निराशा और हताशा की तर्जुमानी हो गयी थी? बरसों से शायरी के आशिक़ यही कह और समझ रहे हैं कि फ़ैज़ इन्क़िलाब, उम्मीद और हौसले का शायर था इसलिए यह सवाल और अहम हो जाता है. परतें खुलेंगी तो सवाल यह भी उठेगा कि जोश और जज़्बे का एक शायर कितना और क्यों मायूस हो जाता है.


Faiz Ahmed Faiz. (Image Source : Poetry4Ever.Com)

“ज़ालिम के ख़िलाफ बग़ावत किया जाना लाज़िमी है. सही और ग़लत की इस जंग में, ख़ामोशी न सिर्फ़ बेईमानी और ख़ुद मरकज़ी (स्व-केंद्रित) नज़रिया है बल्कि नमकहरामी भी है... इन्क़िलाब किसी लिफ़ाफ़े में नहीं आता है.”

फ़ैज़ का नाम आते ही न सिर्फ़ ये तक़रीर बल्कि ऐसे बेशुमार मिसरे और नज़्मों के बेहिसाब बोल याद आते हैं, जो साबित करते हैं कि फ़ैज़ अपने वक़्त में लोगों के दिलों में एक लौ जगा रहा था. ज़ालिमों यानी ज़ुल्म की हर तरह की सत्ता के ख़िलाफ़ आवाज़ उठा रहा था और सबको समझा रहा था कि 'बोल कि लब आज़ाद हैं तेरे...'

ज़ुल्म की सियह और डरावनी रात में सच, हक़ और इंसाफ़ की सुब्ह 'हम देखेंगे', ऐसी उम्मीद देने वाले शायरों में एक नाम था फ़ैज़. लेकिन एक पूरी ग़ज़ल मुक़द्दमा दायर करती है कि फ़ैज़ एक दौर में नाउम्मीदी की गिरफ़्त में रहे. यही नहीं बल्कि इस मुक़द्दमे में मुल्ज़िम के खिलाफ़ गवाहों की भी कमी नहीं.

हर सम्त परेशान तेरी आमद के क़रीने
धोके दिये क्या क्या हमें बादे-सहरी ने.

जिस सुब्ह के ख़्वाब देखे-दिखाये थे, उसके नख़रे हैं कि ख़त्म होने का नाम नहीं ले रहे. वो सुब्ह आकर भी नहीं आती, हर बार तरह तरह के धोके दिया करती है. अस्ल में, यह बेहतरीन ग़ज़ल 1965 में शाया हुए मजमूए दस्ते-तहे-संग में शामिल है. इस वक़्त तक फ़ैज़ करीब 54 साल की उम्र के थे और कई तरह की उथल पुथल से गुज़र चुके थे. इस वक़्त के आसपास के कुछ वाक़िआत के ज़िक्र से पहले एक शेर में दर्ज एक और एहसास यूं है :

हर मंज़िले-ग़ुर्बत पे गुमां होता है घर का
बहलाया है हर गाम बहुत दर-ब-दरी ने.

अब ये शेर न सिर्फ़ शायर या अवाम का कलाम समझा जाये बल्कि इसे उसी सुब्ह की तरफ़ से इक़बालिया बयान भी समझा जाना चाहिए. वो सुब्ह ख़ुद भी भटक रही है? दर-ब-दर होती सुब्ह भी तो हक़दार की तलाश में है और उसे सिर्फ़ मक्कार, झूठे या अदाकार मिल रहे हैं इसलिए किसी न किसी बहाने से वह हर बार चली जाती है. यही ज़ाविया फ़ैज़ ने कभी यूं दर्ज किया था :

तुम आये हो न शबे-इन्तिज़ार गुज़री है
तलाश में है सहर बार-बार गुज़री है.

1958 में पाकिस्तान में पहली बार सेना ने तख़्ता पलट किया था और जनरल अयूब ख़ान ने तानाशाही का दौर शुरू किया था. पाकिस्तान टाइम्स को कुर्क कर दिया गया था, जिसके एडिटर फ़ैज़ हुआ करते थे. उसके बाद अभिव्यक्ति की आज़ादी और दूसरे मानवाधिकारों को कुचलने का सिलसिला शुरू हुआ. एक केस में किसी तरह फंसाकर फ़ैज़ को जेल में डाल दिया गया था. यहां तक की कहानी तो फ़ैज़ के शायर के लिए बड़ी कारगर साबित हुई. ज़िन्दानामां और दस्ते सबा जैसे यादगार मजमूए फ़ैज़ के जेल के दिनों की शायरी है, जो शोहरत और इज़्ज़त पा चुकी है.

दूसरी तरफ, ख़तरा या ख़ौफ़नाक मंज़र ये था कि अख़बार, साहित्य और एक पूरा सिस्टम बतौर एंटीथीसिस तैयार हो चुका था, जो तानाशाही का पैरोकार बन चुका था. ज़ुल्म के ख़िलाफ़ आवाज़ उठाने के बजाय ज़ालिम के सुर में सुर मिलाने वाला एक सिस्टम. पाकिस्तान में उन दिनों पत्रकारिता के ज़वाल को लेकर फ़ैज़ ने ख़ुद कहा था :

“एक तो ये कारोबार हो चुका है, दूसरे ये लोग डर चुके हैं और तीसरे इस पेशे में जो फ़ख़्र का जो एहसास था, वो अब खो चुका है.”

क़लम के किरदार की इस गिरावट को अगर आप सिर्फ़ उस एक समय की बात समझ रहे हैं तो आप न इतिहास से वाक़िफ़ हैं और न ही वर्तमान से. तानाशाह सबसे पहले आवाज़ और क़लम को ही अपनी कठपुतली बनाने की कोशिश किया करते हैं. बहरहाल, यहां से ग़ज़ल के अगले दो शेरों की ज़मीन तैयार होती है :

थे बज़्म में सब दूदे-सरे-बज़्म से शादां
बेकार जलाया हमें रौशन नज़री ने.
मयख़ाने में आजिज़ हुए आज़ुर्दा-दिली से
मस्जिद का न रक्खा हमें आशुफ़्ता-सरी ने.

ये निराशा, हताशा और माथाफोड़ मजबूरी का एहसास बहुत मानवीय है. कोमल सपनों और कठोर हक़ीक़तों के बीच भावुक योद्धाओं के साथ हुआ करता है कि किसी लमहे या दौर में उन्हें घोर निराशा घेर लिया करती है. 'राम की शक्तिपूजा' में निराला ने राम के निराश मन को बेहद कारीगरी के साथ उकेरा था. वही, बीटल्स के भंग हो जाने के बाद जॉन लैनन ने अपने एक गीत में कहा कि अब वो 'ड्रीमर' नहीं रहा.

दस्ते-तहे-संग में यही ग़ज़ल नहीं बल्कि और भी कलाम है, जो फ़ैज़ की वैचारिक मनोदशा और मानवीय टूटन के एहसासात की गवाही दर्ज कराता है. देखिए : दर्दे-शबे-हिज्राँ की जज़ा क्यों नहीं देते / खूने-दिले-वोशी का सिला क्यों नहीं देते... तेरे ग़म को जाँ की तलाश थी तेरे जाँ-निसार चले गए / तेरी रह में करते थे सर तलब सरे-रहगुज़ार चले गए... कब ठहरेगा दर्द-ए-दिल, कब रात बसर होगी / सुनते थे वो आएंगे, सुनते थे सहर होगी... इसके अलावा मजमूए की पहली ग़ज़ल है 'जमेगी कैसे बिसाते यारां', इसकी रदीफ़ है 'बुझ गये हैं'. एक उदासी और टूटन इस रदीफ़ से किस कदर बयां होती है, जब मिसरा आता है 'किरण कोई आरज़ू की लाओ कि सब दरो-बाम बुझ गये हैं'.

तो क्या यह कहना मुनासिब है कि शायरी के इस दौर में फ़ैज़ पूरी तरह से नाउम्मीदी के शिकार हो चुके थे? अगर इस सवाल का जवाब 'हां' है भी, तब भी यह कहना मुनासिब नहीं है कि अब तक फ़ैज़ की एक झूठी तस्वीर गढ़ी गयी है और उन्हें इन्क़िलाब और हौसले का शायर क़रार दिया जाता रहा. इसे एक दौर और शायर का एक दर्दमंद व जज़्बाती तेवर कहना ही वाजिब है, जहां जोश का एक शायर यहां तक टूट गया है कि कहता है : कब तक अभी रह देखें ऐ क़ामाते-ज़नाना / कब हश्र मुअय्यन है तुझको तो ख़बर होगी.

बावजूद इसके, ऐसा नहीं है कि फ़ैज़ ने अपनी फ़िक़्र और वैचारिक ज़मीन छोड़ दी हो क्योंकि ऐसा होना ऐन मुमकिन नहीं दिखता. ख़ुद फ़ैज़ ने ही फ़रमाया था : 'मैं ऐसे किसी फ़नकार, मुसव्विर या मौसीक़ीकार को नहीं जानता जिसकी कोई विचारधारा या अपने वक़्त को लेकर कोई साफ रवैया/सोच न हो.' फ़ैज़ ने साफ़ तौर पर माना था कि जब शायर अपनी ज़ात के साथ एकाकार हो जाता है, तभी बेहतरीन शायरी कर पाता है. तो फिर इस दौर के बारे में किस तरह सोचा जाये? यह मायूसी और उदासी फ़ैज़ के शायर के तेवर का कौन सा पहलू बयान करती है?

“विचारधारा के लेंस से शायर दुनिया को देखता है. मेरी भी अपनी एक विचारधारा है... लेकिन इसका मतलब यह नहीं होता है कि शायर को हर वक़्त अपनी विचारधारा की राजनीति के बारे में ही बात करना चाहिए.” फ़ैज़ की ये तक़रीर बहुत वाजिब है और शायर बतौर इन्सान कई रंग अपनी ज़िंदगी में महसूस करता है और जीता है इसलिए हर लम्हा एक ही रंग में रंगा हो, यह इंसाफ़ की बात नहीं है. जिसके बहाने से बात यहां तक आ गयी है, उस ग़ज़ल का मक़्ता यूं है :

ये जामा-ए-सदचाक बदल लेने में क्या था
मोहलत ही न दी फ़ैज़ कभी बख़्या-गरी ने.

एक कामयाब और बेहतरीन अंदाज़ के शेर के साथ ग़ज़ल मुकम्मल होती है. अपनी मायूसी का ख़ुलासा भी यहां कर देती है कि पूरी ज़िंदगी विचार और सोच को देने में गुज़र गयी इसलिए ज़ख़्म या हादसों की इस ज़िंदगी को तब्दील करने के बारे में सोचने का ख़याल तक न आया. ये मक़्ता क़ौल है कि फ़ैज़ के जोश और इख़्लास के तेवर मुर्दा या जाली नहीं थे. सिवाय इसके, फ़ैज़ के इस मक़्ते में जीवन का पूरा फ़ल्सफ़ा है, जो संस्कृत के उस श्लोक की झलक देता है कि 'आत्मा शरीर रूपी लिबास बदलती है' और मीर के उस बयान की परछाईं भी दिखाता है कि 'दैर में बैठा कश्का खेंचा कबका तर्क इस्लाम किया'.

बात का एक पहलू ये भी है कि अचानक इसी वक़्त ऐसा क्यों हुआ कि फ़ैज़ ने इस रंग की शायरी की? तो ऐसा है नहीं. अचानक नहीं हुआ. इसकी भी एक भूमिका तैयार थी. 1947 में जब बंटवारा हुआ तब फ़ैज़ ने 'सुब्हे-आज़ादी' नज़्म में साफ़ कहा था कि 'यह दाग़-दाग़ उजाला, यह शब गज़ीदा सहर / वो इंतज़ार था जिसका यह वो सहर तो नहीं...' यही विडंबनाएं समय के साथ जब और बढ़ती चली गयीं तो शायर का मन भी और रंजीदा होता चला गया, बिल्कुल माना जा सकता है. लेकिन यह मन हार गया हो, ऐसा नहीं है. फ़ैज़ के आख़िरी सालों यानी 1978 में जो मजमूआ शाया हुआ 'शामे-शह्‍रे-याराँ', उसमें एक ग़ज़ल का शेर यूं है :

रवाँ है नब्ज़े-दौराँ, गार्दिशों में आसमाँ सारे
जो तुम कहते हो सब कुछ हो चुका, ऐसे नहीं होता.

“जेल में रहने के बावजूद उन्होंने उम्मीद नहीं छोड़ी थी. उनकी शायरी डार्क नहीं है, निराशा से भरी हुई नहीं है... इसमें नाटकीय भावुकता नहीं है.” अदाकार, थिएटर कलाकार और दास्तानगो दानिश हुसैन की बात समग्रता में मान ली जाना चाहिए क्योंकि इससे पहले भी शायरी के क़द्रदानों और नुक़्ताचीनों ने फ़ैज़ को इस इल्ज़ाम से बरी किया है कि उनकी शायरी 'निराशावादी' रही. और आख़िरश, मेरी नज़र में फिर वही बात है कि कमोबेश फ़नकारों की ज़िंदगी में तरह तरह के दौर आया करते हैं. हर दौर को शिद्दत के साथ जीना फ़नकार के वजूद का सरमाया है और समझना यह भी चाहिए 'निराशावाद' कोई इल्ज़ाम नहीं है बल्कि शायरी में एक किस्म का रस और कॉंटेंट है.

Beyond The Review

PARASITE: एशियाई संकटों और साहित्य परंपरा की फिल्म


होना तो हमें परस्पर आश्रित था (मानें न मानें हैं ही) लेकिन हम परजीवी बन जाते हैं, तो कई तरह की समस्याएं खड़ी होती हैं. दूसरी तरफ, परजीवी बन जाने के कारणों में भी कई समस्याएं हैं. बॉंग जून हू निर्देशित 2019 की कोरियाई फिल्म पैरासाइट ने ऑस्कर समेत कई पुरस्कार समारोहों में झंडे गाड़ दिये हैं इसलिए चर्चा में है. इसके इतर यह फिल्म इतने पुरस्कार न भी जीतती, तो भी यह उन चुनिंदा और कालजयी फिल्मों में शुमार होती, जिनमें समय का एक बड़ा सच कला के जीवंत सांचों में शाहकार बन जाता है.


Movie Poster of Parasite. (Image Source : LWLies.com)

अगर आपसे कहा जाये कि फिल्म अमीर-ग़रीब के बीच के अर्थात वर्ग संघर्ष पर आधारित है, तो यह ज़्यादा संक्षेप हो जाता है और आप कहानी की आत्मा तक नहीं पहुंचेंगे. कुछ यूं समझें -

"यह फिल्म एक ग़रीब परिवार और एक अमीर परिवार की कहानी है. ग़रीब परिवार के सदस्य पहले रोज़ी रोटी और फिर लालच के चलते अमीर परिवार के यहां नौकरी हासिल करते हैं, बग़ैर ये बताये कि चारों ही एक परिवार हैं. ये जानते हुए भी कि कभी इन अमीरों की दौलत उन्हें हासिल नहीं हो सकती, ये उस दौलत से खरीदे गये साज़ो-सामान के ज़रिये अय्याशी की हसरतें पूरी करते हैं. उधर, अमीर परिवार का जीवन इन गरीबों के बग़ैर चल नहीं सकता, लेकिन इनकी ग़रीबी से एक चिढ़ भी बनी हुई है. बहरहाल, ग़रीब परिवार की जान पर तब बन आती है जब ख़ुलासा होता है कि इस बंगले में एक गुप्त तहख़ाना है, जिससे उनके पूर्ववर्ती नौकरों यानी एक और ग़रीब परिवार की कहानी के राज़ छुपे हैं. फिल्म तनाव से इस क़दर जूझती है कि एक के बाद एक चार क़त्ल होते हैं और पहले ग़रीब परिवार का मुखिया यानी एक क़ातिल हमेशा के लिए अपने परिवार से जुदा और दुनिया के लिए ग़ायब हो जाता है."

इस फिल्म की जो समीक्षाएं पश्चिम में हुई हैं, उनमें इसे 'ट्रैजिकॉमिक' कहा गया है. किसी ने इसे शेक्सपियरियन क्लाइमेक्स ज़्यादा माना है बजाय हिचकॉकियन क्लाइमेक्स के. दूसरी समीक्षाओं में 'लेयर्ड' शब्द का बहुधा प्रयोग है, जो यह साबित करता है फिल्म में कई परतें हैं. उधर, ख़ुद फिल्म निर्देशक जून हू ने कई तरह से अपनी इस चर्चित फिल्म की कहानी और विचार को लेकर चर्चाएं करते हुए इस फिल्म को 'स्टेयरवे मूवी' यानी 'सीढ़ियों के ज़रिये' कहानी कहती फिल्म माना है. कोरिया के पहाड़ीनुमा शहर के वातावरण में ग़रीब परिवार की रिहाइश जहां सड़क के नीचे एक बेसमेंट में है, वहीं अमीर परिवार पहाड़ीनुमा शहर की ऊंचाई पर बसे इलाके में स्थित बंगले में रहता है. पुलों, सड़कों के बीच कई सीढ़ियां हैं. बेसमेंट और सड़क के बीच कई सीढ़ियां हैं. और उस बंगले से तहख़ाने में उतरती कई सीढ़ियां हैं. ये वर्गों और वर्ग संघर्ष का रूपक फिल्म में कलात्मक तरीक़े से गढ़ती हैं. लेकिन ऐसा क्यों है? क्या सिर्फ़ ऐसा ही है? पश्चिमी फिल्म रिव्यू और फिल्म निर्देशक हू के इस रूपक के अलावा हम इस फिल्म पर कोई बात नहीं कर सकते? बेशक़ कर सकते हैं अगर हम अपनी ज़ाती समझ का इस्तेमाल करें.

एशिया की समस्याएं और संघर्ष

अमेरिका, यूरोप यानी पश्चिम पुरस्कार, यश, धन और बड़े अवसर देते हैं इसलिए उनका कहा सुनने की रिवायत रही है. होता भी है कि किसी आंचलिक फिल्म का फिल्मकार अपनी फिल्म की किसी सत्ह की तुलना पश्चिमी समाज या परिस्थितियों की किसी सत्ह के साथ कर यह जताता है कि उसने कामयाब मेटाफर रचा है. लेकिन, बात निज संसार की समझ की है. एशिया के गिने-चुने मुल्क़ों को अगर छोड़ दिया जाये, तो ज़्यादातर या तो प्रगतिशील हैं या फिर तथाकथित 'थर्ड वर्ल्ड'. फिर इस 'थर्ड वर्ल्ड' में थर्ड क्लास की कितनी परतें हैं, इसका अंदाज़ा तक पश्चिम के बस की बात नहीं.

Movie Still of Parasite. (Image Source : CinemaBlend.Com)

एशिया के कई देशों की मूलभूत समस्या यह रही है कि वे लंबे समय तक ग़ुलामी के शिकार रहे हैं. औपनिवेशिक साम्राज्यों की लूट के शिकार होने के बाद इन अधिकतर देशों की दूसरी समस्या यह रही है कि आर्थिक विकास की दौड़ में इनकी रफ़्तार और इनकी सफलता को उन पैमानों पर आंका जाता है, जो इनके हैं ही नहीं, न इनके हिसाब से उचित लगते हैं. कहीं लोकतंत्र की बहाली के लिए जंग जारी है, कहीं मानवाधिकारों के लिए तो कहीं अभिव्यक्ति की आज़ादी के लिए. सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक जैसे तमाम मोर्चे अधिकतर एशियाई देशों में समस्याओं के भी पर्याय हैं.

दक्षिण कोरिया की बात करें तो दूसरे विश्व युद्ध के अंत में जापान ने जब समर्पण किया, उसके बाद कोरिया की स्वाधीनता की राह बनी. इसके बाद अपने आंतरिक संघर्षों से कोरिया जूझा और दोफाड़ हुआ. उत्तर और दक्षिण कोरिया के बीच तनाव के साथ ही, विश्व स्तर पर अपने विकास के लिए एक संघर्ष करते दक्षिण कोरिया में लोकतंत्र के लिए लंबी बहस छिड़ी तो 'कड़ी सेंसरशिप' के कारण अभिव्यक्ति की आज़ादी के लिए भी कलाकारों ने संघर्ष किया. दक्षिण कोरियाई सिनेमा का ये करीब 70 साला सफर देखा जाये तो इनके मूल स्वरों में कोरिया में जापानियों का दौर, कोरियाई युद्ध और आंतरिक संघर्ष के मुद्दे साफ उभरते दिखायी देते रहे हैं. बेसिरपैर की सेंसरशिप ख़त्म होने के बाद 90 के दशक के बाद दक्षिण कोरियाई सिनेमा में एक पुनर्जागरण काल देखा जाता है.

जून हू निर्देशित ताज़ा फिल्म पैरासाइट कोरियाई सिनेमा के इसी दौर की एक श्रेष्ठ कलात्मक कृति है. अपनी कहानी, पटकथा, संवाद, संगीत और छायांकन के माध्यम से यह फिल्म अनेक प्रकार के आंतरिक संघर्षों और वैश्विक चिंताओं को ज़ाहिर करती है.

अमीरी-ग़रीबी की खाई का नैरेटिव

इस मुद्दे पर फिल्म बनाना, कहानी लिखना या नाटक खेलना अपने आप में चुनौतीपूर्ण भी है और जोखिम भरा भी. अस्ल में, हम आम जनजीवन में जो दृश्य हर जगह पसरे हुए देखते हैं, उन्हें संपूर्ण सार्थकता, चौंकाते संदर्भों, आकर्षक कल्पनाशीलता और अनेक स्तरों का समायोजन कर एक जस्टिफाइड संदेश के साथ किसी कलाकृति में उतारना बेहद मुश्किल काम है. यह काम बेहद संजीदगी से पैरासाइट कर दिखाती है.

एक-एक पाई के लिए रोज़ाना संघर्ष करते एक युवक को एक संपन्न परिवार के आलीशान बंगले में जाकर एक टीनेजर लड़की का पढ़ाने का मौका मिलता है. वह उस संपन्नता की चकाचौंध के मोहपाश में बंधता है और एक-एक कर उस युवक की बहन और मां-बाप उस परिवार में विभिन्न नौकरों के तौर पर आ जाते हैं. संपन्न परिवार को यह भनक तक नहीं कि ये चारों एक ही परिवार के सदस्य हैं. इतनी कहानी से आप लालच का मनोविज्ञान तो साफ़ समझ सकते हैं, लेकिन एक बारीक़ नज़र रखें तो दक्षिण कोरिया ही नहीं बल्कि एशिया के कई देशों की एक साझा समस्या को भी भांप सकेंगे.

Movie Still of Parasite. (Image Source : NationalReview.Com)

बेरोज़गारी की समस्या बेहद भयावह और रोज़गार के वातावरण, भुगतान और परिस्थितियों को लेकर भी कई तरह के संकट हैं. दक्षिण कोरिया के युवाओं या मिलेनियल्स के बीच ऐसी समस्याओं को लेकर एक शब्द बेहद प्रचलित है, 'हेल चोज़ुन' या 'हेल कोरिया'. रोज़गार संबंधी समस्याओं को लेकर एक पूरा जहन्नुम है. ऐसे जहन्नुम में अगर एक मामूली से झूठ से कुछ वक़्त की राहत मिलती है, तो इसे समाज का नैतिक पतन कहना कहां तक उचित है? यह अक्षम राजनीति से उपजी सामाजिक स्थिति की विकृति क्यों न मानी जाये?

इस फिल्म में सामाजिक-आर्थिक मोर्चे पर जो दूसरा संकट उभारा गया है, वह भी एशिया के कई देशों का हाले-हालिया है. अमीरी और ग़रीबी के बीच बेहद चौड़ी खाई. ग़रीबी इतनी कि एक परिवार सड़क के नीचे उस बेसमेंट में रह रहा है, जिसके रोशनदान में शराबी पेशाब कर रहे हैं और बारिश होती है तो वह बेसमेंट इस तरह भर जाता है कि फिर इस परिवार को अपना आशियाना नये सिरे से बसाने की जद्दोजहद करनी पड़े. उधर, अमीरी इतनी कि एक परिवार को अपने ही भीमकाय बंगले के गुप्त ठिकानों का पता नहीं और उन्हें अपने ग़रीब नौकरों की मौजूदगी में एक बदबू परेशान करती है.

यह तो पटकथा की बात है, फिल्म के तक़रीबन हर फ्रेम में फिल्मकार ने सामाजिक आर्थिक संकट के नैरेटिव को ख़ासी तवज्जो दी है, ग़ालिबन फिल्म इसी स्तंभ पर टिकी है. अलबत्ता, फिल्म दूसरे कुछ और ज़रूरी पहलुओं को भी नज़रअंदाज़ नहीं करती.

सीढ़ियां ऊपर से ज़्यादा नीचे की तरफ़!


Creative of Parasite. (Image : Medium.com)
दक्षिण कोरिया हो या एशिया के और कथित प्रगतिशील/पिछड़े मुल्क़, हर दीये तले अंधेरा कुछ ज़्यादा ही है. निर्माण के नाम पर वर्टिकल तरक़्क़ी के अंधेपन में हम यह देख भी नहीं पा रहे कि ज़मीन से आसमान की तरफ़ हम कम जा रहे हैं, ज़मीन से पाताल की तरफ़ ज़्यादा गिर रहे हैं. पैरासाइट अपनी परतों में विकास के दो भयानक नतीजों 'प्रॉपर्टी बाज़ार का कपट' और 'लोन शार्क्स की क्रूरता' के डरावने दृश्य देती है.

जो परिवार बंगले में झूठ से घुस आया है, उससे पहले घर में एक हाउसकीपर सालों से थी. उस औरत ने अपने पति को खूंखार साहूकारों से बचाने के लिए बंगले के गुप्त तहख़ाने में सालों से छुपा रखा. संपन्न परिवार जब छुट्टियों पर गया है, तब नौकर परिवार के सामने यह औरत आती है और कहती है कि उसे इतनी जल्दबाज़ी में नौकरी से निकाला गया कि वह अपनी एक ज़रूरी चीज़ लेना ही भूल गयी. जब यह औरत इस बंगले में दाख़िल होकर तहख़ाने में अपने पति से मिलती है, तब उसका राज़फ़ाश होता है और नाटकीय ढंग से उस औरत के सामने भी यह राज़फ़ाश होता है कि चारों नौकर एक ही परिवार हैं, जो झूठ बोलकर इस घर में अय्याशी कर रहे हैं.

इसके अलावा बाद में इसी बंगले में चार क़त्ल होते हैं. मनहूस घोषित हो जाने के बाद भी इस घर को अनजान विदेशियों को बेच दिया जाना दर्शाया गया है. इन तमाम प्रसंगों को लेकर फिल्मकार एक मतलबी दुनिया का चित्र रचता है. ऐसी दुनिया, जहां हर कोई दूसरों का खून चूसकर अपनी तरक़्क़ी का हामी है. झूठ, लालच, हवस, नफ़रत और मौक़ापरस्ती जैसे हथियार हैं, जो वैश्वीकरण के बाज़ार में विकास का सिक्का चला रहे हैं. पैरासाइट का फिल्मकार इस पूरी व्यवस्था के लिए भी सीढ़ियों का अनूठा रूपक बांध गया है, क्योंकि ज़्यादातर दृश्यों में सीढ़ियां उतर रही हैं, चढ़ती हुई बहुत कम हैं.

क्लाइमेक्स दर्शन है या एक और समस्या?

जून हू निर्देशित पैरासाइट का अंत चर्चा का विषय बन गया है. किसी के लिए अबूझ, किसी के लिए दार्शनिक तो किसी के लिए एक और समस्या का इशारा. इसे थोड़ा समझना ज़रूरी है.

हालात कुछ ऐसे बनते हैं कि तहख़ाने में बंद कर दिया गया आदमी छूटता है और उस नौकर परिवार की हत्या पर उतारू हो जाता है. पहले लड़के को मारता है और फिर लड़की पर जानलेवा हमला करता है. फिर वह परिवार उस आदमी को मारता है और मरने, मारने और बचाने के शोरगुल के बीच अमीर परिवार का मुखिया जब नाक बंद कर ग़रीबी की उसी बदबू का आभास कराता है तो नौकर परिवार का मुखिया उसे भी मार डालता है. लेकिन ऐसा हुआ क्यों?

ये ख़ून ख़राबा फिल्मकार की मनावैज्ञानिक पकड़ दर्शाता है. ग़रीबी, दुत्कार, धिक्कार, गालियां और दुख ही दुख जब जीवन भर सहा जाता है तो एक दबाव के बाद वह हिंसा में ही व्यक्त होता है... फिर वह बदले के रूप में हो, अपराध के रूप में या घिनौने कृत्यों के रूप में. क़त्ले-आम के इन दृश्यों पर किसी तरह फिल्म ख़त्म हो सकती थी. लेकिन यह एकस्तरीय या लीनियर अंत कहलाता और फिल्म साफ तौर पर ट्रैजडी कहलाती.

ऐसा न करते हुए फिल्मकार इसके बाद कुछ दृश्य जोड़ता है. नौकर परिवार का मुखिया ग़ायब है. बेटी मर चुकी है. जानलेवा हमले के बेटा ब्रेन इंजरी का इलाज करवाने के बाद ठीक होता है और इसी बीच इस बेटे और मां पर जालसाज़ी का मुक़द्दमा भी चलता है. ठीक होने के बाद बेटा अपने पिता की तलाश करता है, जिसका किसी को कुछ पता नहीं. तहख़ाने से बंगले के एक बल्ब का कनेक्शन है. उस बल्ब को स्काउट कोडिंग में जलता-बुझता देख लड़का समझ जाता है कि उसके बाप ने ख़ुद को बंगले के उसी तहख़ाने में बंद किया हुआ है. वह अपने पिता से मन ही मन कहता है कि एक दिन वह बेहद अमीर होकर यह बंगला खरीदेगा और अपने पिता को मुक्त कराएगा.

कुछ समीक्षकों का मत है कि नौकर पिता ने हत्या के जुर्म में ख़ुद को जेल की सज़ा दे दी है. ये भी कहा जा रहा है कि यह आजीवन कारावास है क्योंकि उसके बेटे के पास कभी इतनी दौलत नहीं होगी. समस्या यह है कि दक्षिण कोरिया (तक़रीबन पूरे एशिया) में आर्थिक विषमताएं इस तरह की हैं कि जो ग़रीब पैदा होगा, वह ग़रीब ही मरेगा. चमत्कार लाखों में एक हो तो हो. वहीं, कोई कह रहा है कि इस फिल्म के सीक्वल में वह बेटा किसी किस्म के जीवट या करिश्मे से इस बंगले तक पहुंचेगा और अपने पिता को छुड़ाएगा. लेकिन, विचारणीय है कि अपने अपराध बोध से दबा और अपने मामूली लालचों का वीभत्स अंजाम देख चुका लड़का क्या अब किसी अनैतिक या जोखिम भरे रास्ते का रुख कर सकेगा?

Parasite Director Bong Joon Ho with Cast. (Image Source : Metro.Co.UK)


भारतीय और एशियाई साहित्य की परंपरा

पैरासाइट के अंत को आशावाद के तौर पर भी समझा जा सकता है कि 'वो सुब्ह कभी तो आएगी'. दक्षिण कोरिया हो या भारत या एशिया का कोई अन्य देश, वास्तव में जहां बुनियादी मुद्दों पर संघर्ष हैं, वहां इस तरह का आशावाद बेमानी नहीं है. घुप अंधेरे और लंबी काली रात में सुब्ह की कल्पना भी शायद ताक़त दिया करती है. अपने पिता को काली कोठरी से आज़ाद करवाने की बेटे की इच्छा यथार्थ के धरातल पर दिवास्वप्न मात्र हो, लेकिन एक आशा का संचार करती है.

वास्तव में, पैरासाइट कोई अनोखी फिल्म नहीं है बल्कि पूर्ववर्ती कुछ एशियाई फिल्मों का नवीनतम संस्करण कही जानी चाहिए. चेतन आनंद निर्देशित नीचा नगर को याद करना चाहिए. थीम की सत्ह पर ये दोनों फिल्में काफ़ी समान दिखती हैं लेकिन पैरासाइट बेशक़ 60-70 बरस आगे का सिनेमा मालूम होता है. हयातुल्लाह अंसारी की कहानी 'नीचा नगर' रूसी लेखक मैक्सिम गोर्की की कहानी 'लोअर डेप्थ्स' पर आधारित थी अर्थात 20वीं सदी के मध्य में रूस भी कमोबेश इसी तरह के सामाजिक आर्थिक संकट से जूझ रहा था. या 2017 की फिल्म 'बियॉण्ड द क्लाउड्स' का पहला शॉट, जिसमें स्कायस्क्रेपर्स के बीच बने एक पुल पर दौड़ती महंगी गाड़ियों को दर्शाते हुए कैमरा नीचे उतरता है और पुल के नीचे बेतहाशा ग़रीबी की इबारत बिछी हुई है. तो, जिसे जून हू 'स्टेयरवे मूवी' कह रहे हैं, वह कोई हालिया पैदा हुआ विचार नहीं बल्कि एशियाई साहित्य की एक परंपरा का नया चरण है और इससे यह नहीं समझना चाहिए कि पैरासाइट में कुछ भी मौलिक नहीं है.

मौलिकता के बावजूद फिल्मांकन और साहित्य के नज़रिये से पैरासाइट आपको कई तरह की रचनाएं याद बरबस दिलाती चलती है. किसी स्तर पर साहिर की वो नज़्म 'रहने को घर नहीं है सारा जहां हमारा', तो किसी जगह फ़ैज़ की नज़्म 'हम देखेंगे', तो कहीं ईरानी काव्य की कुछ झलकियां और कहीं रूसी साहित्य के किसी शाहकार का अक़्स आपके ज़ेह्न में उतर सकता है. अलावा इनके, वियतनाम, बर्मा, फलीस्तीन और चीन से आती रही ग़रीबी, आंदोलनों, दमन और अभिव्यक्ति की आज़ादी की मांग संबंधी ख़बरों के साथ ही कुछ चित्र भी पैरासाइट में घुले-मिले लगते हैं, लेकिन पहली नज़र में नज़र आना मुश्क़िल है.

आख़िर में बात पैरासाइट के अंत की, तो जिसे पश्चिमी समीक्षक 'ट्रैजिकॉमिक' या 'हिचकॉकियन' जैसे नये शब्दों में समझाने का जतन कर रहे हैं, उसके लिए हिंदी साहित्य में सुखांत, दुखांत के साथ ही प्रसादांत के सिद्धांत के रूप में बेहतर व्याख्या पहले से है. इस फिल्म के क्लाइमेक्स को हमें प्रसादांत समझना चाहिए. वैसे इस फिल्म की विषय वस्तु के हिसाब से इसका ज़ॉनर तय करने में भी समीक्षक उत्सुक दिख रहे हैं. डार्क कॉमेडी, कॉमेडी थ्रिलर, सोशल सटायर आदि शब्दों में इस फिल्म को समझाने की कवायद हो रही है, लेकिन यह सिर्फ़ समीक्षकों का काम है, इससे फिल्म देखने और उसका आनंद लेने में कोई फ़र्क नहीं पड़ता.

अंतत: हमें इस फिल्म के बहाने सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक और मनावैज्ञानिक समस्याओं पर विचार करना चाहिए. एशिया के पूरे परिदृश्य को समझते हुए इत्तिहाद क़ायम कर किसी हल के लिए साझा कोशिश करना चाहिए. और समझना चाहिए कि इस ब्रह्मांड में हर कण एक दूसरे से संबद्ध है और अन्योन्याश्रित संबंध के कारण ही सृष्टि की रचना हुई है. ग्लोबलाइज़ेशन के दौर में हमें पूरी दुनिया को ग्लोबल मार्केट के तौर पर कथित 'विकसित' करना है या पूरी दुनिया को एक घर की तरह समझने के संस्कार आगे बढ़ाने हैं. लोकतंत्र, आज़ादी, विकास जैसे तमाम जुमलों के पीछे जो हक़ीक़त है, उसे बेहतर करने के लिए कोई कलाकृति किस स्तर पर आपको आंदोलित कर सकती है, इसका अंदाज़ा किसे है? इसलिए हर श्रेष्ठ कलाकृति से रूबरू होना ही चाहिए.

(यह समीक्षात्मक आलेख न्यूज़ 18 हिंदी के लिए लिखा गया था, जो 17 फरवरी 2020 को वेबसाइट पर प्रकाशित हुआ था. hindi.news18.com से साभार यह आलेख यहां अविकल प्रस्तुत किया जा रहा है.)

भूमिका

सकोरों में भरे गंगाजल से छलछलाते गीत


'ज़िन्दगी ठहरी नहीं है' का अगला संस्करण है 'अभी दूर चलना है'. विगत संग्रह के आमुख के तौर पर मैंने राही जी के काव्य की भावभूमि, विचारभूमि के साथ ही भाषा, शिल्प और प्रदेय को लेकर चर्चा की थी. इस बार कुछ अलग पहलुओं पर बात करने की चेष्टा. राहीजी के प्रस्तुत गीत संग्रह के मद्देनज़र मुख्यत: तीन कोणों इमेजरी, वैचारिक समृद्धि और नॉस्टैल्जिया, के माध्यम से इस 'त्रिकोणीय गीत संग्रह' को सामने रखने का मन है.


इमेजरी. बिम्ब शब्द मैं जानबूझकर इस्तेमाल नहीं करना चाहता. एक तो यह शब्द दुरुपयोग के चलते बहुत कम समय में घिसा हुआ शब्द हो चुका है और दूसरे, इमेजरी शब्द में मुझे बिम्ब के साथ ही इमैजिनेशन यानी कल्पना का पुट भी शामिल लगता है इसलिए ये ज़्यादा विस्तृत है. राही जी के काव्य में इमेजरी हालांकि मुख्य तत्व नहीं कहा जा सकता है लेकिन जितनी मात्रा और गुणवत्ता के साथ है, उसका सानी समकालीन गीत काव्य में मिलना मुश्किल है.

Cover Image of Book By Y.N. Rahi.
दृष्टांत कम करने से बात ज़्यादा हो सकती है और इस संग्रह को पढ़ने का रचाव भी ज़्यादा रह सकता है. इमेजरी के लिए एक पंक्ति देखें :

'फिसल रहे हैं शब्द अधर से/जाने क्या कहने का मन है.'

अभिव्यक्ति की पूर्णता का सार सटीक भाषा और सार्थक बिम्ब में निहित है. काव्यानुशील पाठक यक़ीनन 'बहते शब्द', 'गिरते शब्द', 'रिसते शब्द', 'सुलगते शब्द', 'मचलते शब्द' या 'होंठों पर अटके शब्द' जैसे कई प्रयोग पढ़ चुके होंगे. ये 'फिसल रहे शब्द' एक नयी और अलहदा किस्म की इमेजरी है. जैसे मन में कहने को कुछ है, कहने वाले शब्दों का मन कुछ और है लेकिन द्वार रूपी अधर पर एक फिसलन सी है, कि शब्द पूरी तरह बयान नहीं बन रहे बल्कि लड़खड़ाते हुए निकल रहे हैं. 'जाने क्या कहने का मन है', शब्दों के फिसलने से यह सवाल उपज रहा है और एक भ्रम, संशय तथा कुंठा की स्थिति बन रही है. यहां से यह इमेजरी अपनी कल्पनाशीलता की मदद से समाज की कई स्थितियों को इंगित करती है. पारिवारिक विघटन से लेकर राजनीतिक संकट तक और धार्मिक आडंबरों से लेकर काव्य के पतन तक यही फिसलते हुए शब्द ही ज़िम्मेदार दिखते हैं कि 'मन की बात' भी भ्रामक और संदेहास्पद हुई जा रही है.

इस तरह की कुछ और बेहतरीन इमेजरीज़ आपको राही जी के काव्य में अचानक किसी मोड़ पर अचंभित करती हुई मिलेंगी. ख़ासियत यह भी कि ऐसी हर इमेजरी अलग से जड़ी या मढ़ी हुई नहीं होगी, वह कविता के प्रवाह में इतनी सहजता और अनायास होगी कि बहुत मुमकिन है कि पहली नज़र में आप उसे पकड़ भी न सकें.

'गाल नोंच लें आसमान के', आपने कभी कविता में ऐसा फ्रेज़ पढ़ा है? 'गीत कहां से लाएं' शीर्षक वाले गीत के दूसरे अंतरे में 'बलात्कार' या 'बलात छल' का अघोषित चित्रण पढ़ें. आसमान के गाल नोंचने की बात अनायास एक प्रवाह में आती है लेकिन अगर आप कविता के गंभीर पाठक हैं तो यहां रुकेंगे. फिर देखेंगे कि बलात्कार की कोई भूमिका बनाए बगैर, इस शब्द के प्रयोग के बगैर कैसे एक पूरा अंतरा इस दृश्य को रच रहा है. फिर आप समझेंगे कि यह बलात्कार किसी नवयौवना के साथ अत्याचार का ही नहीं, बल्कि प्रकृति के साथ, समूची मानवता के साथ होने वाला बलात्कार है. इसकी खिन्नता का चरम बिंदु है आसमान के गाल नोंच लेना. लहूलुहान करने वाली कथित दिव्य व्यवस्था को नोंच लेने की इस खिन्नता में हिंसा नहीं, प्रतिरोध और आत्मरक्षा का चरम अधिक है.

अहिंसा को सूक्ष्म सूत्रों तक परिभाषित करने वाले महात्मा गांधी के शब्द भी याद कीजिए कि आत्मरक्षा और प्रतिरोध प्राणिमात्र का नैसर्गिक अधिकार है. राही जी के काव्य को जब आप गंभीरता से समझेंगे तो उसमें आपको गांधीवादी दर्शन के प्रामाणिक सूत्र दिखायी देंगे. अपने जीवन में नितांत सरल, सहज और सभी के प्रति अति उदार राही जी स्वयं एक निश्छल मन हैं. स्वाभाविक तौर पर उनके काव्य में यही गुण स्पष्ट रूप से हैं और व्यवस्था के लाख विरोध के बावजूद उनके काव्य में आपको भड़काऊ नारेबाज़ी, विद्वेषपूर्ण उक्तियां या किसी का चरित्र हनन करने की चेष्टा करने वाली कोई बात नज़र नहीं आएगी. राही जी के काव्य में प्रतिरोध और व्यवस्था विरोध मौजूद है लेकिन नैतिकता के साथ. झंडों और डंडों के बगैर. यह उनके काव्य का गांधीवादी दर्शन के प्रति सहज झुकाव है और बहुत मुमकिन है कि वह स्वयं कभी इस तरह के प्रचार या विज्ञापन में शामिल नहीं रहे हों. लेकिन, पाठकों और आलोचकों को राही जी के काव्य में इस दर्शन के अनुशीलन के बिंदुओं पर गहन चिंतन करना चाहिए.

'पांचजन्य बन गयी बांसुरी', यह सामाजिक प्रवृत्तियों के हिंसा के प्रति झुकाव का एक अद्भुत प्रतीक है. हमारे समाज में पिछले कुछ समय में समरसता कितनी खत्म हुई है, खोखले नारों को लेकर हिंसा कितनी बढ़ गई है, मॉब लिंचिंग जैसे शब्द क्यों ईजाद हुए हैं और सड़क चलते लोग पहले से ज़्यादा कितने आक्रामक हैं... कृष्ण के किस प्रतीक को समाज का आदर्श होना था और कौन सा प्रतीक समाज में घर कर रहा है, जो युद्धभूमि के लिए था? समाज ही युद्धभूमि क्यों बनता जा रहा है? इन तमाम पहलुओं पर विचारें कि एक सभ्य गीत ने क्या इससे बड़ा और बेहतर प्रतीक आपको सौंपा है! क्या इस एक पंक्ति में आपको महात्मा के उस कथन की गूंज सुनाई देती है 'आंख के बदले आंख का क़ाएदा पूरी दुनिया को अंधा कर देगा'?

भावभूमि के साथ ही राही जी की विचारभूमि बेहद समृद्ध है. जीवन के 93 वसंत और 93 शरद देख चुके एक गीतकार से सहज अपेक्षा भी होनी चाहिए.

'अंधे वर्तमान से पूछो/क्या देखे हैं कल के सपने', इस गीत की इस पहली पंक्ति को पढ़ते हुए मेरे मन में सवाल उठा कि वर्तमान को अंधा क्यों कहा गया? वही हमारे समय की विडंबना यहां भी है कि किसी के पास कोई दृष्टि नहीं, जो दिखाया जा रहा है, उस पर आंख मूंद कर भरोसा किया जा रहा है. दृष्टि के बगैर स्वप्न क्या होगा? एक और विसंगति की ओर इशारा. लेकिन, क्या बस यही? इतना ही? मुझे याद आता है इतिहास. सदियों में कितनी बार यही स्थितियां रही हैं. 'कल के सपने' हमने क्या देखे? ये बड़ा सवाल है. महात्मा गांधी के सपनों का भारत तो दूर हम कलाम के विज़न 2020 से भी कोसों दूर खड़े हैं. वर्तमान को अंधा कहने वाली इस एक पंक्ति में ओशो की उस दार्शनिक स्थापना की भी गूंज सुनायी देती है कि 'समय दो ही प्रकार का है, भूत और भविष्य. वर्तमान समय का नहीं शाश्वत का हिस्सा है, जो हमेशा था, हमेशा रहेगा.'

राही जी के संपूर्ण काव्य पर एक से ज़्यादा शोध किये जाने की संभावनाएं हैं, लेकिन अकादमियों और यूनिवर्सिटियों की दुकानदारी कुछ इस तरह की है कि उन कवियों या कृतियों पर शोध होते हैं, जिन्हें कविता का 'क' यानी ककहरा तक हासिल नहीं हुआ. मैं राही जी के गीतों का पाठक हूं, उनके साथ बैठकर उनके गीतों को सुना, गुना और समझा है. एक आमुख, एक आलेख या एक समीक्षा में उनके गीतों को समेट पाना मेरे लिए संभव नहीं है. अंतत: मैं इस संग्रह के गीतों की एक और ख़ासियत नॉस्टैल्जिया पर संक्षेप में और चर्चा करना चाहता हूं.

अतीत की यादें, गीतों का प्रिय विषय रही हैं. शहर के बरक़्स गांव, मिलों के बरक़्स खेत और बिल्डिंगों के बरक़्स नदी व पहाड़ जैसे विषय गीतों में हम और आप बरसों से पढ़ रहे हैं. राही जी के गीत इन मायनों में परंपरावादी करार दिए जा सकते हैं लेकिन, परंपरा से जुड़कर भी यहां राही जी का सृजन कितने अलग आयाम छूता है, यह समझना आपको फिर हैरत में डालेगा. राही जी के नॉस्टैल्जिया की सबसे बड़ी विशिष्टता उनकी समृद्ध देशज भाषा का संस्कार और उनकी अनुभूतियों का अनोखापन है. यहां यादों के बक्से से बेकार की या फटी-पुरानी या सड़ी-गली चीज़ें नहीं निकल रहीं, बल्कि जेब घड़ी, दस्तावेज़ी चिट्ठियों, हाथ के कढ़े रूमाल और इत्र की शीशियों की तरह कुछ ऐसा हाथ लग रहा है, जो रुचिकर है, प्रीतिकर है और विरासत है.

An Image of Published Preface by Bhavesh Dilshaad.

'सकोरों में भरी गंगाजली सा छलछलाता मन', नॉस्टैल्जिया की इस तरह की अनेक पंक्तियां अतीत के प्रसंगों को छूती हुई वर्तमान की विडंबनाओं को रेखांकित करते हुए एक आध्यात्मिक संदेश तक आपको देंगी. मिट्टी के शरीर में एक द्रवित यानी तरल प्रवाहित मन. ये हुआ करता था, अब नहीं है लेकिन होना तो चाहिए. हम प्रकति के खिलाफ़ हैं. क्यों हैं? एक एक पंक्ति से विचार की कई परतें उघड़ जाएं तो नॉस्टैल्जिक कविता परंपरावादी होने से बच जाती है. प्रकृति और मौसम केंद्रित जो गीत इस संग्रह में हैं, उनमें यादों का संसार भी है, परंपरा, दर्शन और समसामयिक चिंतन भी. वृद्धाश्रम भेज दिये गये एक पिता का पुत्र के नाम पत्र रूपी एक गीत है, जो हिन्दी के गीति काव्य में एक नया और शानदार प्रयोग साबित हो सकता है. ये तमाम गीत धरोहर हैं, सहेजिए.

आख़िरश, राही जी के प्रस्तुत संग्रह में आपको कटाक्ष करते गीत मिलेंगे लेकिन सशस्त्र प्रहार करते नहीं, विचार करते गीत मिलेंगे लेकिन अकर्मण्य नहीं, भूली बिसरी यादें समेटते गीत मिलेंगे लेकिन वर्तमान और भविष्य से मुंह फेरकर खड़े नहीं और जो गीत मिलेंगे, उन्हें आपको हर बार पढ़ने पर कुछ नया मिलेगा क्योंकि इनमें अभिव्यक्ति से गहन अनुभूतियां और संवेदनाएं छुपाकर रखी गयी हैं. गहरे उतरिए तो एक पूरा भाव व विचार संसार आपका इंतज़ार कर रहा है.

श्रद्धेय राही जी के पिछले गीत संग्रह के लिए औघड़ समझ के हिसाब से कुछ लिख पाने का दुस्साहस उनके स्नेह और वरदहस्त के कारण ही संभव हो सका था. इस बार भी मैंने राही जी से स्वयं कहकर कुछ अपने मन की कह देने का अधिकार ले ही लिया है. 'ज़िन्दगी ठहरी नहीं है' संग्रह से 'अभी दूर चलना है' तक के बीच हुआ ये कि पेशेवराना हालात के सिलसिले में भोपाल से मैं दिल्ली चला आया, लेकिन मोबाइल फोन वार्ता और साल में भोपाल के संक्षिप्त प्रवासों के दौरान राही जी के दर्शन हर बार करने का सिलसिला तो रहा. उनके गीत सृजन की निरंतरता से वाकिफ़ रहा और फोन पर अनेक ताज़ा गीत उनकी बूढ़ी मगर उत्साही आवाज़ में सुनने की ख़ुशनसीबी भी मुझे हासिल हुई. इस संग्रह के प्रकाशन की तैयारी के साथ वह लगातार रच रहे हैं और अचरज की बात तो हिन्दी गीत जगत के लिए यह हो सकती है कि शायद उनका सर्वश्रेष्ठ आना अभी बाकी है. इस प्रणम्य संग्रह का भरपूर स्वागत कीजिए और फिर कह रहा हूं, राही जी के सृजन का समुचित मूल्यांकन आलोचकों को खुले दिल से कर आने वाले इतिहास के एक बड़े आरोप से बच लेना चाहिए.

(दीवाली 2019 पर प्रकाशित गीत संग्रह 'अभी दूर चलना है' (यतींद्रनाथ राही कृत) के लिए लिखी गयी भूमिका यहां अविकल प्रस्तुत की गयी है.)

सिनेमा

BEYOND THE CLOUDS : माजिद मजीदी का यादगार क्राफ्ट


'बियॉण्ड द क्लाउड्स' ग्लोबल सिनेमा है क्योंकि यह मुंबई के एक वर्ग विशेष की कहानी है जिसे हिंदी, तमिल और अंग्रेज़ी भाषाओं के ज़रिये कई प्रांतों व देशों के कलाकारों के साथ एक ईरानी फिल्मकार के नज़रिये से परदे पर उतारा गया है.


Still From The Movie Beyond The Clouds. (Image Source: Firstpost.Com)

पहले दृश्य में एक पुल यानी फ्लाईओवर है, जिस पर महंगे और चमचमाते चार पहिया वाहन दौड़ रहे हैं. इसी हल्के शोर में फ्लाईओवर के आसपास महानगर की चकाचौंध के नज़ारे हैं. फ्लाईओवर के एक किनारे एक गाड़ी रुकती है और एक युवक बाहर निकलकर फ्लाईओवर की दूसरी तरफ से सीढ़ियां उतरता है. कैमरा अब फ्लाईओवर के नीचे धीरे धीरे उतरता है और इस संपन्नता के नीचे दिखती है दूसरी दुनिया, जो ग़रीबी, अभाव और त्रासदी भोग रही है. बियॉण्ड द क्लाउड्स यहां से शुरू होती है, जहां विकास का अर्थ फ्लाईओवर बनाकर नीचे की समस्या को छुपा देना भर है.

काफी समय के बाद ऐसी फिल्म दिखी है जो कई परतों और पहलुओं को अपने भीतर समेटे हुए है. तो अब हाल यह है कि "कहां से छेड़ूं फसाना कहां तमाम करूं". किस सिरे से बात शुरू की जाये और किस सिरे पर खत्म? और ऐसी फिल्मों पर बात शुरू करने में एक जोखिम यह भी है कि "बात निकलेगी तो फिर दूर तलक जाएगी". बहरहाल, मायने समझते हैं ऐसी फिल्म के, जिसे आज नहीं तो कल वर्ल्ड क्लासिक्स में शामिल किया ही जाएगा.

बियॉण्ड द क्लाउड्स ग्लोबल सिनेमा है क्योंकि यह मुंबई के एक वर्ग विशेष की कहानी है जिसे हिंदी, तमिल और अंग्रेज़ी भाषाओं के ज़रिये कई प्रांतों व देशों के कलाकारों के साथ एक ईरानी फिल्मकार के नज़रिये से परदे पर उतारा गया है. एक कलाकार और कलाकृति की सफलता इसमें भी है कि वह क्रूर सच्चाइयों को कितने असरदार ढंग से दर्शकों को सौंप सकता है. इस पैमाने पर बेशक यह फिल्म, इस फिल्म के कलाकार और फिल्मकार माजिद मजीदी पूरी तरह कामयाब हुए हैं.

बियॉण्ड द क्लाउड्स, इस फिल्म के शीर्षक में सिम्बॉलिज़्म इतना ज़बरदस्त है कि सोचते ही यह खूबसूरत लगने लगता है. फिल्म में बारिश, चांद और होली के रंगों को मैटाफर यानी रूपक के तौर पर इस्तेमाल किया गया है जो डायरेक्टर की मैच्योरिटी दर्शाता है. जीवन के अनेक और अद्भुत रंगों की झांकी बन जाती है यह फिल्म जिसमें प्रेम, नफ़रत, गुस्सा, विनम्रता, बदले की भावना, परोपकार और पाप व पुण्य जैसी विरोधाभासी भावनाएं अपने जीवन्त रूप में उतरती हैं. बियॉण्ड द क्लाउड्स वह सिनेमा है जिसकी ज़रूरत है और रहेगी.

चिल्ड्रन ऑफ हेवन के लिए माजिद मजीदी चर्चित एवं प्रशंसित रहे हैं. बियॉण्ड द क्लाउड्स एक स्तर पर, मजीदी की इसी फिल्म का विस्तार या एक और डायमेंशन कही जा सकती है. बियॉण्ड द क्लाउड्स की कहानी के किरदार देखकर दर्शक समझते हैं कि ये भी "चिल्ड्रन ऑफ हेवन" हैं बस हैं "हैल यानी जहन्नुम" में. हो सकता है कि कुछ लोग कहें कि बाहर के कलाकारों को भारत में नकारात्मकता ही दिखती है या वे भारत के बदहाल और वीभत्स रूप को ही उकेरते हैं. लेकिन देखा जाये तो यह कहानी दुनिया के बहुत से हिस्सों की हो सकती है, कम से कम जो विकासशील या तीसरी दुनिया के हिस्से हैं, उनकी तो यकीनन. खुद मजीदी भी यह बात स्वीकार चुके हैं.

Another Still From The Movie Beyond The Clouds. (Image : IMDB.Com)

माजिद मजीदी का सिनेमा वास्तव में वह सिनेमा है जो जीवन की सच्चाइयों की कहानी कहता है और झूठा आदर्शवाद नहीं गढ़ता. भावनाओं और एहसासों की ज़मीन पर वहां तक सफ़र करता है, जहां तक मुमकिन है. इस सिनेमा की परिपक्वता और सफलता इसी में है कि यह धर्म, भाषा, सीमा और नस्ल जैसे तमाम भेदों के परे मानवीयता का पैरोकार है और सेन्सेशनल न होते हुए सेन्सिबल है. मसलन, बियॉण्ड द क्लाउड्स की कहानी पर अगर बॉलीवुड की कोई कमर्शियल फिल्म बनती तो वह एक्शन, थ्रिलर और सनसनीखेज़ हो सकती थी.

बियॉण्ड द क्लाउड्स.. यह शीर्षक बार-बार कहता है कि इसे खोला जाये. ये कौन से बादल हैं जिनका ज़िक्र करना ज़रूरी है? अस्ल में, इस फिल्म को कई तरह से समझा जा सकता है. सामाजिक एवं राजनीतिक सिरे से इसे देखा जाये तो इस शीर्षक में क्लाउड्स का अर्थ मुमकिन है पाखंड या दिखावा. विकास, समाजवाद और इस तरह के तमाम नारों का जो दिखावा है, उसके परे एक और दुनिया है. यानी भारत में कई भारत हैं, एक दुनिया में कई दुनियाएं हैं. नारे बादलों की तरह छाये हुए हैं लेकिन उसके पीछे एक और सच है और यही है बियॉण्ड द क्लाउड्स.

मानवीय भावनाओं और साइकोलॉजी के सिरे से इस फिल्म को समझा जाये तो हमारे मन और चेतना पर भी कई किस्म के बादल छाये हुए हैं. इन बादलों के पीछे है इंसानियत. धीरे-धीरे ये बादल छंटते हैं और एक इंसानी मन नज़र आता है. तो यह है बियॉण्ड द क्लाउड्स. मजीदी का कारनामा यही है कि वह बादलों के छंटने की प्रक्रिया को बारीकी से समझते और दर्शाते हैं. इस पूरे सिलसिले में एक तुलना भी की जा सकती है, स्लमडॉग मिलेनियर के साथ इस फिल्म की. स्लमडॉग में ये सब कुछ है लेकिन थोड़ी थोड़ी कसर के साथ. भावनाओं का विस्तार पूरी मानवता के स्तर तक नहीं हो पाता. निजी राय में, मजीदी की यह फिल्म डैनी बॉयल की फिल्म से आगे निकल जाती है.

आलोचना का भी एक पहलू है. मजीदी का सिनेमा बेशक कामयाब और सार्थक है लेकिन उनको चाहने वाले दर्शक उनसे कुछ और की उम्मीद भी करते हैं. होता यह है कि हर फिल्मकार के मन की एक केंद्रीय धुरी होती है. वह उसी पर घूमता हुआ दुनिया देखता है. लेकिन महान कलाकार केंद्रीय धुरी और केंद्रीय भाव का अंतर समझते हैं. एक भाव, विचार या संवेदना पर ही नहीं टिकते. मजीदी खुद सत्यजीत रे जैसे महान फिल्मकारों से प्रभावित रहे हैं तो भविष्य में उनसे यह उम्मीद की जा सकती है कि वह खुद को और शिद्दत से एक्सप्लोर करेंगे और कुछ और नायाब फिल्में सौंपेंगे.

फिल्म के बाकी पहलुओं पर एक ओवरव्यू कुछ ऐसा है कि सभी अभिनेता नैचुरल और प्रतिभावान हैं. विशेष रूप से मालविका मोहनन ने बाज़ी मार ली है. सिनेमटोग्राफर अनिल मेहता ने कैमरे से करिश्मा किया है. एआर रहमान का संगीत उनके स्तर के अनुरूप प्रभावी नहीं है. विशाल भारद्वाज के हिंदी संवादों में फ्लो है और विषय व किरदारों के लिहाज़ से सटीक हैं. कहानी कहने-सुनने लायक है और पटकथा लगभग मैच्योर है. मजीदी के निर्देशन में बियॉण्ड द क्लाउड्स एक यादगार क्राफ्ट है. इसके ज़रिये वह भारतीय सिनेमा के इतिहास में सम्मान के साथ हमेशा याद किये जाएंगे.

(यह समीक्षा न्यूज़18 हिंदी के लिए लिखी गयी थी, जो वेबसाइट पर 22 एप्रिल 2018 को प्रकाशित हुई थी. hindi.news18.com से साभार इस लेख में एक अंश और यहां जोड़ा गया है.)

भूमिका

शोर के सन्नाटों में आवाज़ के गीत


वस्तुतः राही जी की काव्य यात्रा से गुज़रना एक जीवन, विशेषकर एक कवि जीवन और कवि मन को समझने की यात्रा करने जैसा है। राही जी के काव्य के माध्यम से हम समझते हैं कि कवि मन परिवर्तन अथवा प्रगति का हामी होता है।


हिन्दी कविता पिछले कुछ दशकों में एक बड़े परिवर्तन की साक्षी भी रही है और पक्षधर भी। यह परिवर्तन कविता की भाषा, शिल्प, भावभूमि, विचारभूमि एवं अंतर्वस्तु के संयोजन आदि अनेक स्तरों पर दिखायी देता है। एक बड़ा परिवर्तन, जो कविता की अंतर्वस्तु में हम महसूस कर सकते हैं, वह है नवयथार्थवाद की पक्षधरता के कारण कल्पनाशीलता का लोप अथवा भारी कमी। अब कवि कल्पनाशील कम है, यथार्थ चित्रण के माध्यम से सत्योद्घाटक अधिक। इसी कल्पना और यथार्थ के द्वंद्व के बीच श्रद्धेय राही जी का काव्य खड़ा है, जो कहीं विस्मित करता है, कहीं अभिभूत तो कहीं विचारमग्न।

Cover Image of The Book by Y.N. Rahi.
 वस्तुतः राही जी की काव्य यात्रा से गुज़रना एक जीवन, विशेषकर एक कवि जीवन और कवि मन को समझने की यात्रा करने जैसा है। राही जी के काव्य के माध्यम से हम समझते हैं कि कवि मन परिवर्तन अथवा प्रगति का हामी होता है। उनका एक गीत है – ‘मौसम’, जिसकी कुछ पंक्तियां उद्घोष कर रही हैं -

“मौसम तो आता है, तुमको,/कभी पूछकर कब आया है?
... पथ के पर्वत अवरोधों से/तूफानों के कदम रुके कब
किसके रोके रुक पाये हैं/चले मचलकर ज्वार कभी जब
गति में है कल्याण जगत का/यह परिवर्तन है, माया है।“

यह गति और परिवर्तन की अविरल धारा राही जी के इन गीतों में केंद्रीय अंतर्निहित वस्तु है। इसी के इर्द-गिर्द राही जी की अनेक मनोभावनाएं इन गीतों में गूंजती हैं। इस गति और परिवर्तन की दिशाहीन आपाधापी के बीच एक शोर जन्म लेता है। शोर भी ऐसा कि आवाज़ तक दूभर हो जाये। जब ऐसा होता है तो कवि अपने एकाकीपन को महसूसता हुआ इस महाशोर में उपजे सन्नाटों की चीन्हता है। परिवर्तन के गीत गाती इस कृति का मूल तत्व यही महाशोर और सन्नाटा है। महाशोर, महामौन के बीच एक आवाज़ की तलाश में राही जी के गीत संघर्ष कर रहे हैं। मैं, इन गीतों को शोर से उपजे सन्नाटों में आवाज़ के गीत कहना चाहता हूं, जिनकी प्रतिध्वनियां इस संग्रह में बार-बार भिन्न-भिन्न रूपों में हैं। कुछ पंक्तियां उदाहरणार्थ -

“सन्नाटे हैं/महाशोर है ... किसकी यहां कौन सुनता है”
“कुछ तो सुनें/किसी को समझें ... कुछ सोचें, कुछ बोलें बतियाएं”
“कहां गये संवाद मौन के/नयनों की भाषा के दर्पण ... कलम खड़ी रह गयी ठगी सी/शब्द हो गये कितने बौने?”
“शब्द गूंगे हैं अधर पर/मौन के ताले जड़े हैं”
“सिर उठे हैं संशयों के/चीखते कोलाहलों में”

वास्तव में, यह कोलाहल दृश्य मात्र नहीं, अपितु कवि की वेदना और संवेदना की वह भूमि है, जहां से कवि के सृजन का पल्लवन हो रहा है। गीतों की इस विषयवस्तु की पूर्वपीठिका के तौर पर राही जी पिछला गीत संग्रह सौंप चुके हैं – ‘कांधों लदे तुमुल कोलाहल’ शीर्षक से। मेरी दुष्टि में, कोलाहल के स्वर एवं विभिन्न संस्करण प्रस्तुत संग्रह के गीतों में अधिक हैं, अधिक प्रासंगिक हैं। वर्तमान संदर्भों में, नारों, प्रदर्शनों, विरोधों का शोर है तो दूसरी तरफ, अनीतियों, व्यभिचारों, आडंबरों का। एक ओर, संस्कृति, संस्कारों एवं सभ्यताओं का संदेश शोर बन चुका है तो दूसरी ओर, निरर्थक विकासशीलता एवं अस्वाभाविकता के कारण एक कोलाहल हर ओर व्याप्त है। कहा जा सकता है कि इन सामाजिक, सांस्कृतिक एवं वैश्विक संदर्भों में, मनुष्य के सामने मनुष्यता के लोप का संकट समय की सबसे बड़ी चिंता है, जिसे अदम गौंडवी ने इस तरह व्यक्त किया था-

“माफ़ कीजै सच कहूं तो आज हिंदोस्तान में
कोख ही ज़रख़ेज़ है एहसास बंजर हो गया।“

राही जी यूं व्यक्त करते हैं -

“मर गयीं संवेदनाएं, आदमीयत मर गयी है
और हम नवजागरण के गीत गाये जा रहे हैं”

इन पंक्तियों से कवि सीधे-सीधे नवजागरण एवं नवयथार्थवाद की नारेबाज़ी को शोर करार दे रहा है। इन गीतों का कवि समाज के समानांतर साहित्य की तथाकथित धाराओं के पतन का भी साक्षी है। इस पतनोन्मुखी समय में प्रगतिशीलता का हामी कवि यदा-कदा नैराश्य में डूबता है। इस शोर में दम घुटता सा महसूस करता है। राही जी इस निराशा को कई बार दर्ज करते हैं -

“गाओ गीत सुभाषित लिख दो/दुनिया नहीं बदलने वाली।“

परन्तु, यह निराशा कवि की किन्हीं क्षणों की एक मनोदशा मात्र है। इन पंक्तियों से राही जी को निराशावादी कवि करार दिया जाना उचित नहीं है। यह संकेत है कि कवि इस युग में टूटन का अनुभव करता है। कवि अपने कर्तव्य-बोध का निर्वहन करता हुआ, उष्मा, आशा एवं सृजन का संदेश देता हुआ, इस हताशा को व्यक्त करने से स्वयं को रोक पाता भी नहीं, रोकना चाहता भी नहीं। इस निराशा के बरक़्स इस संग्रह में कम से कम दो गीत – “भिन्नता ओढ़े खड़े हैं”, एवं “कुछ सोचें कुछ समझ विचारें”, पाठक को आश्वस्त करते हैं कि कवि की वैश्विक आशावादी दृष्टि क्या है और वह मनुष्य में किस प्रकार की सृष्टि का अनुसंधान चाह रहा है।

“वे मुतमइन हैं कि पत्थर पिघल नहीं सकता
मैं बेक़रार हूं आवाज़ में असर के लिए।“

आवाज़ में असर की दुआ के क़ुबूल होने की घड़ी को देखने के लिए बेक़रार इन गीतों का कवि दुनिया के भयावह शोर के प्रति चिंतित है परन्तु, वह अपने भीतर की आवाज़ को सुन पा रहा है। वह अपने आप से संवाद कर पा रहा है, अपनी आत्मा का अनुभव कर पा रहा है। यही इन गीतों की चैतन्यता का कारण भी है और हासिल भी।

An Image of Preface by Bhavesh Dilshaad.

राही जी के इन गीतों में ‘स्व’ के प्रति कोई मोह नहीं है। ध्यान से देखें तो इन गीतों में अनेक वस्तुओं की विराट् सत्ता का अनुभव है जैसे महाशोर, महामौन, महाप्रलय, महानाश, महाउदय, महाकल्प, महातम, महानगर आदि। कवि सूक्ष्म अवलोकन कर पा रहा है इसलिए उसे ये सभी सत्ताएं स्थूलाकार दिख पा रही हैं। वह अपने ‘स्व’ का भी सूक्ष्म अवलोकन कर पा रहा है इसलिए अपनी सत्ता को विराट् के समक्ष अकिंचन अनुभव कर रहा है। देखिए -

“तुम कोई ईसा, कोई सुकरात गांधी तो नहीं
एक पिद्दी सी कलम है, भाव इतना खा रहे हो।“

यह अपनी सत्ता के प्रति निर्मोही भाव है जिसे कवि ने कई बार आवाज़ दी है जैसे पूर्ववर्णित पंक्तियां – “दुनिया नहीं बदलने वाली” या “…और हम गीत गाये जा रहे हैं”। इन शब्दों में कबीर के अकिंचन संदेश का सार भी है। वैसे, काव्य परंपरा के लिहाज़ से राही जी के गीतों में तुलसी की छाया अधिक है। तुलसी की अनेक काव्योक्तियों को राही जी वर्तमान संदर्भों एवं आज की भाषा में गढ़ने की चेष्टा करते हैं। एक दृष्टांत -

“नज़र अपनी, समझ अपनी, हृदय की भावना अपनी
किसी के हेतु पत्थर है, किसी को देवमूरत है।“

राही जी के काव्य में कवि मन की स्वाभाविकता अथवा नैसर्गिकता के दर्शन अभिभूत करते हैं। प्रकृति पर रचे गये अपने गीतों में राही जी भारतीय दर्शन एवं अध्यात्म परंपरा के विचारों को पोसते हैं और कुछ रहस्यों को खोलते हैं। इस संग्रह में श्रंगार गीतों की संख्या अपेक्षाकृत कम है, सांध्य गीतों की अधिक। आयु के 91 बरस पार की अवस्था में यह स्वाभाविक भी है। इस अवस्था को ‘बचपन का पुरागमन’ कहा गया है। ऐसे में स्मृतियों की बहुलता इन गीतों में है। सांध्य गीतों में निराशा, हताशा का भाव कम है जबकि सार्थक जीवन जीने का आनंद एवं गुण-दोषों की स्वीकारोक्ति अधिक है। हां, इन गीतों में एक सदी में हुए सामाजिक/पारिवारिक पतन के प्रति क्षोभ एवं चिंता ज़रूर स्पष्ट है। इन गीतों में नॉस्टैल्जिक टोन बोझिल नहीं है। इन गीतों में युवा पाठकों के लिए उस विश्व का दर्शन है, जिसका कोई दृश्य उनकी कल्पना में नहीं है इसलिए नॉस्टैलजिया इन गीतों को आकर्षक एवं पठनीय बनाता है।

मैं, पहले भी कई बार यह उल्लेख कर चुका हूं कि राही जी इसलिए भी प्रणम्य हैं क्योंकि इस अवस्था में भी वह हिंदी गीत कविता में भाषा, प्रतीक, बिम्ब एवं शिल्प प्रयोगों में युवा कवियों की अपेक्षा अधिक नव्यता लाये हैं। यह सब उनका प्रदेय है। उनके गीतों में भाषा के प्रति कोई संकीर्णता नहीं है। अंग्रेज़ी, उर्दू, देशज आदि शब्दों के साथ वह प्रांजल भाषा का भी प्रयोग करते हैं। वास्तव में, वह जीवंत एवं काव्यानुकूल भाषा को तरजीह देते हैं। मिथकीय प्रयोग पूरी सार्थकता के साथ हैं, जो कविता का नये आयाम देते हैं।

मैं ग़ज़ल का शायर हूं, लेकिन गीतकारों की गोद में खेला हूं और युवावस्था तक गीत के सान्निध्य में रहा हूं। कोई दावा नहीं है कि मैं गीत के क्षेत्र में कोई हस्तक्षेप रखता हूं लेकिन राही जी जैसे कवियों के सान्निध्य से गीत को समझने की समझ विकसित करने का लाभ ज़रूर लेता हूं। फिर कहना चाहता हूं कि पिछले कुछ दशकों की हिंदी कविता में राही जी के सृजन के प्रदेय का उचित मूल्यांकन किया जाना चाहिए। हमारे समय के सर्वाधिक महत्वपूर्ण गीत कवियों की प्रथम पंक्ति में राही जी का स्थान है, यह मेरा विचार है। आलोचना अपना धर्म निभाये और व्यक्तिगत संबंधों, पक्षपात एवं स्वयंभू मठाधीशों के चंगुल से बाहर निकलकर राही जी के सृजन का मूल्यांकन केवल साहित्यिक निकष पर करे, इसी अनुरोध के साथ, मेरा विश्वास है कि शोर की महात्रासदी में अपनी आवाज़ बनाते इन गीतों का राही जी कृत यह संग्रह हिंदी कविता प्रेमियों के लिए उपयोगी एवं संग्रहणीय है।

(वसंत 2018 पर प्रकाशित गीत संग्रह 'ज़िन्दगी ठहरी नहीं है' (यतींद्रनाथ राही कृत) के लिए यह भूमिका लिखी गयी थी, जिसका अविकल पाठ यहां प्रस्तुत किया गया है.)