शनिवार, दिसंबर 23, 2023

Beyond The Review

'युद्ध-यात्रा' विमर्श : हमारे युद्ध और युद्धों की हमारी यात्रा


(यह लेख 16 दिसंबर 2021 को न्यूज़18 हिंदी की वेबसाइट पर प्रकाशित हुआ था, जिसे भोपाल से प्रकाशित 'देशबंधु' ने भी संपादकीय पन्ने पर जगह दी थी. यह लेख धर्मवीर भारती कृत 'युद्ध यात्रा' की समालोचना के साथ ही विमर्श के बिंदु उठाता है.)



पाकिस्तान दुनिया का संभवत: पहला और इकलौता ऐसा देश था, जो एक धर्म के आग्रह या ज़िद के आधार पर बना, कमलेश्वर ने ‘कितने पाकिस्तान’ में इसकी गंभीर और ठोस विवेचना की थी. यह पश्चिमी पाकिस्तान से जुड़ा विमर्श था. पूर्वी पाकिस्तान में इस्लाम यानी धर्म के बरक्स बांग्ला यानी सभ्यता अधिक दृढ़ थी. जड़ों से जुड़कर जब विचार का पल्लवन होता है, तो क्रांति होती है और ऐसा ही एक मोड़ ठीक पचास साल पहले इतिहास में आया था.

“अपने भाषण में शेख मुजीब ने स्पष्ट कहा कि पाकिस्तान का हमारे लिए कोई विशेष अर्थ नहीं. वह भी अन्य विदेशी राष्ट्रों की तरह एक विदेशी राष्ट्र है. बांग्लादेश पूर्ण स्वतंत्र राष्ट्र है, जहां प्रजातांत्रिक पद्धति चलेगी और मज़हब के आधार पर कोई भेदभाव नहीं होगा.”

यह दक्षिण एशिया में धर्मनिरपेक्ष लोकतंत्र के लिए ऐतिहासिक क्षण था. 25 मार्च 1971 को पश्चिम पाकिस्तान के ऑपरेशन सर्चलाइट से एक युद्ध शुरू हुआ था, जिसे भारत-पाकिस्तान के बीच तीसरा युद्ध भी कहा जाता है, और मुक्ति संग्राम भी. उसी साल 16 दिसंबर को संग्राम की परिणति यह थी कि बांग्लादेश एक मुक्त राष्ट्र के तौर पर घोषित हुआ.

एक शिशु के जन्म के लिए नौ माह का गर्भ और असहनीय प्रसव पीड़ा होती है और जब एक राष्ट्र को जन्म लेना हो, तो यह पीड़ा पूरी मानवता एक विराट् स्तर पर महसूसती है. यहां अमानुषिकता के विरुद्ध मानवता का संघर्ष इतिहास रचता है. उस समय के अनेक सृजनधर्मियों ने चीन्हा था कि वह इतिहास का गर्भकाल था. धर्मवीर भारती ने न केवल उस काल को दर्ज करने का बीड़ा उठाया, बल्कि उनकी जिजीविषा और दृष्टि थी कि संग्राम को आंखों देखकर देश-दुनिया तक पहुंचाया जाये. उन्होंने निश्चय किया कि वह आंखों को कैमरा व शब्दों को स्क्रीन बना देंगे.

धर्मयुग के संपादक के रूप में ख्यातिलब्ध भारती ने युद्ध के मोर्चे पर जाकर, सैनिकों, मुक्तिवाहिनी के जवानों, सेना के आला अफसरों आदि के साथ संग्राम के अंतिम 10 से 15 दिन जिस तरह गुज़ारे, उसी का शब्द चित्र है ‘युद्ध यात्रा’. 1971 और 1972 में ये तमाम बातें धर्मयुग के पन्नों पर छपी थीं, जिन्हें नये सिरे से पुस्तकाकार 2020 में उस समय प्रकाशित किया गया, जब समूची मानवता एक वायरस जनित हालात के विरुद्ध युद्ध कर रही थी, भारत में बांग्लादेशियों की मौजूदगी और बेदखली को लेकर शासन व नागरिकों के बीच संघर्ष थे, भारत और चीन के बीच सीमा पर तनाव की स्थिति थी और भू-राजनीति बता रही थी कि चीन किस तरह बांग्लादेश को भारत के विरुद्ध इस्तेमाल कर सकता है. अघोषित युद्ध काल में बीते युद्ध की यात्रा के पन्नों से बिंधने पर कहीं मन में रह जाता है कि बाहरी युद्ध अलग है, भीतरी युद्ध बहुत अलग.

“भारतीय होने के नाते आज सारे संसार के समक्ष मैं सर ऊंचा करके पूछ सकता हूं कि है कोई ऐसा देश, जिसके जवानों ने बिना अपना कोई स्वार्थ आरोपित किये अपने बन्धु देश की मुक्ति के लिए उसकी धरती को अपना रक्तदान किया हो?”

भारती उस युद्ध की यात्रा में इस भाव को खोज सके, तत्कालीन मुक्तिवाहिनी के ​मुस्लिम और हिंदू जवान बन्धुत्व के भाव को जी सके, वे हज़ारों भारतीय सैनिक रक्तदानी हो सके, तो इसका एक बड़ा कारण यही था कि युद्ध केवल बाहरी स्तर पर लड़ा जा रहा था, भीतरी नहीं. हालांकि ‘सूरज का सातवां घोड़ा’ के लेखक भारती इस युद्ध यात्रा में राष्ट्रीय व अंतरराष्ट्रीय राजनीति, अर्थशास्त्रीय समीकरणों और तत्कालीन विदेश नीति जैसे बिंदुओं पर न तो मुखर दिखते हैं और न ही इनके संकेत देने में दरियादिली दिखाते हैं. जहां आग और धुएं, लाशों और धमाकों के बीच भारती को ‘क़ायदे आज़म जिन्ना’ लिखा हुआ कोई बोर्ड दिखायी देता है; या जहां ‘मां काली की क़सम, बोलो नारा ए तक़बीर’ जैसा मिला-जुला नारा सुनायी देता है; और जहां-जहां भारतीय होने के नाते जंग के लड़ाकों की वीरगाथा वर्णित है, वहां ‘गुनाहों का देवता’ वाले भारती का रोमांसिज़्म अधिक नज़र आता है.

जॉर्ज बर्नार्ड शॉ पहले और दूसरे विश्वयुद्ध के बीच युद्धों को जिस तरह एक प्रोफेशन और सोल्जर को एक प्रोफेशनल की तरह स्थापित कर चुके थे, उस दृष्टिकोण के सामने यह संग्राम कथा वाक़ई किसी रोमांचक फ़िल्म की पटकथा से कम नहीं दिखती. गुलेल से हेलीकॉप्टर ध्वस्त कर देने या एक हंसोड़-से ग्रामवासी का अपनी सेना के लिए दुश्मन सेना से मार खाकर भी संदेश ले आना-ले जाना, जैसे क़िस्से पटकथा में रोचकता बनाये चलते हैं. पुस्तक के रूप के बारे में हिंदी में ‘रिपोर्ट’ लिखा गया है और अंग्रेज़ी में ‘ट्रैवलॉग’. भूलवश या अनजाने हुआ हो, लेकिन सच है कि यह पुस्तक दोनों शैलियों का मिश्रण है. रिपोर्ताज के पैमाने पर इसमें कमियां निकलेंगी और केवल यात्रा वृत्तांत के पैमाने पर भी. मिश्रण के रूप में यह पुस्तक उदाहरण बन जाती है.

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युद्धों के वृत्तांत या रिपोर्ताज पहले भी लिखे जाते रहे हैं. 1965 के भारत-पाकिस्तान युद्ध के संदर्भ में शिवसागर मिश्र के ‘लड़ेंगे हज़ार साल’ को भुलाया नहीं जाना चाहिए. इसका शीर्षक ही मनुष्य की ‘युद्धवृत्ति’ और ‘युद्धनियति’ का सूचक है. रिपोर्ताज को तो युद्ध की ही उपज माना गया. रेणु ने दूसरे विश्वयुद्ध के संदर्भ में धर्मयुग में ही लिखा था : “गत महायुद्ध ने चिकित्सा के चीर-फाड़ विभाग को पेनसिलिन दिया और साहित्य के कथा विभाग को रिपोर्ताज.” ‘नेपाली क्रांति कथा’ के लेखक का यह वाक्य इतना दूरदर्शी था कि फिर साहित्य में रिपोर्ताज का पल्लवन कथा शैली में होता रहा और इसमें युद्ध जैसी स्थितियों की कहानी कहना श्रेयस्कर रहा.

जब हमारी खोज प्रेम की ही होती है, तो हम कहानी युद्ध की क्यों कहते हैं? क्या शांति का मार्ग युद्ध से बचकर संभव नहीं है? ऐसे अनेक शाश्वत प्रश्न खड़े हो जाते हैं, जब हम युद्ध की किसी भी कथा या यात्रा से रूबरू होते हैं. भारती भी इस यात्रा के अंतिम पन्नों तक आते-आते युद्ध के दृश्यों से हताहत अनुभव कर एक पूरे पन्ने में लिख पाते हैं कि युद्ध किसी भी लक्ष्य के लिए हो, कोई भी करे, रक्त गाथा निर्दोष बच्चों, विवश औरतों और सभ्यता की नींव को पुख़्ता करने वाले किसानों, शिल्पियों, कामगारों की छाती पर ही लिखी जाती है. भारती जहां लिखते हैं, “किसी ने यह क्यों नहीं लिखा कि परम घृणा भी कहीं हमें अपनी घृणा के लक्ष्य से बड़े रहस्यमय ढंग से जोड़ जाती है?” या जहां वह अमानुषिक प्रवृत्ति को समझने के लिए उस विचार प्रक्रिया के भीतर न पैठ पाने की बेचैनी दर्शाते हैं, वहां ‘अंधा युग’ के भारती के उन शब्दों के दर्शन होते हैं, जो आपको हाथ पकड़कर चिंतन तक ले जाते हैं.

युद्ध पर चिन्तन की आवश्यकता हमेशा रही है, हमेशा रहेगी. और यह वाक्य लिखते हुए वह कवि मन बहुत व्यथित होता है, जो ‘जंग तो ख़ुद ही मसअला है एक, जंग क्या मसअलों का हल देगी?’ कहने का हामी रहा है. यह सच है कि युद्ध होते रहेंगे लेकिन हमें इसे भी सच बनाना होगा कि हम युद्ध के विरुद्ध आदर्शों के लिए जीवट नहीं मरने देंगे. हम कहेंगे :

तू और करता रहेगा तरह-तरह की जंग
मैं वहशतों से सौ फ़ीसद निकल भी जाऊंगा
तू सरहदों को वतन मानता रहेगा दोस्त
इधर मैं प्यार में बेहद निकल भी जाऊंगा

शेख मुजीब ने भुट्टो के उस इसरार को ख़ारिज कर दिया था कि पाकिस्तान और बांग्लादेश के बीच कुछ विशेष संबंध बने रहें ताकि पाकिस्तान की परिकल्पना और उसके आधार पर औचित्य का प्रश्न न खड़ा हो. यह प्रसंग भारती ने पाकिस्तान के प्रति घृणा से भरे एक भारतीय हृदय के साथ इस तरह लिखा कि मुजीब का इनकार एक सामूहिक घृणा हो या उसकी निजी विजय हो. यहां ‘कनुप्रिया’ सिरजने वाले भारती का कवि हृदय किस अवकाश पर चला गया? एक सृजनधर्मी मन और मानवीय मूल्यों के पैरोकार भाव को यहां क्यों लक़वा मार गया? बाहरी स्तर पर लड़ा जा रहा युद्ध भीतर कैसे घुसपैठ कर गया?

“कौन सा है वह उद्देश्य, लक्ष्य या धर्म, जिसके पीछे हम लड़ें? कौन सी है वह नैतिकता, जो हमें आज भी परस्पर लड़ने की आज्ञा दे सकती है?… क्यों नहीं समझता मनुष्य अपना स्वार्थ, जो सबका स्वार्थ हो?”

तब जबकि पश्चिम पाकिस्तान से बांग्लादेश की मुक्ति का संग्राम संपन्न हो चुका था, मन-हृदय मुक्त क्यों नहीं हुआ? ‘तूफ़ानों के बीच’ रिपोर्ताज में रांगेय राघव की तरह भारती ने उपरोक्त मानुषिक और प्राकृतिक प्रश्नों को तवज्जो क्यों नहीं दी? भारती की ‘युद्ध यात्रा’ इन अर्थों में महत्वपूर्ण है कि यह चिन्तन के लिए उकसाने और बहस के लिए आमंत्रित करने वाली कृति है.

गुरुवार, दिसंबर 21, 2023

सिनेमा

शैक्षिक मूल्य और हिन्दी सिनेमा


यह मूल्यों का समय है भी या केवल विकास का ही है? हर समय के अपने सच होते हैं और अपने प्रश्न. समाज, कला या जीवन... बाज़ार आपके घर ही नहीं, आपके मन-मस्तिष्क, अवचेतन तक पैठ चुका, तब आप मूल्यों के प्रश्न खड़े करना ही चाहते हैं. सिनेमा क्या, अन्य अधिकतर क्षेत्रों की तरह शिक्षा के क्षेत्र में भी 'अवमूल्यन' स्थापित सत्य है. शिक्षा का बाज़ार बड़ा है. विमर्श जारी हैं, छिटपुट प्रयास भी. शिक्षा नीति में जब तक मूल्य के बजाय प्रणाली, सरकारी तथ्यों (कंटेंट) और उपकरणों को ही तरजीह मिलेगी, चिंताएं तो रहेंगी.


Satyakam Movie Still Credit youtube

"अब कोई कहता है कि देश विकसित हो रहा है, तो कहता है कि मशीनें इतनी आ गयीं.. हम पूछते हैं आदमी कितना अच्छा हुआ? कोई बताता नहीं, कैसे बताएगा क्योंकि आदमी तो अच्छा हुआ नहीं ना!"

एक साक्षात्कार में महादेवी वर्मा जी द्वारा जतायी गयी यह चिंता 35 साल बाद भी कितनी समीचीन है. अब सवाल यह है कि क्या शिक्षा तंत्र की कोई उपलब्धि नहीं रही? तुरंत मन में दर्शन, विज्ञान, गणित, तकनीक, कला आदि क्षेत्रों के कई महापुरुषों के नाम आ जाएंगे और दावा कि भारतीय शिक्षा ढांचे ने ही ये उत्पाद दिये. समझने की बात यह है कि एक लंबी उम्र में सुख और गौरव के कुछ क्षण तो होते ही हैं, मूल्यांकन एवं विमर्श समग्र पर होता है.

यही कसौटी हिन्दी सिनेमा के लिए भी है. तक़रीबन 100 साल की उम्र वाले हिन्दी सिनेमा में मूल्यपरक तस्वीरें कितनी बनीं या उनका हिस्सा कितना रहा? हिन्दी सिनेमा में कुछ ही सही, यक़ीनन सार्थक श्रेणी के चित्र बने हैं. इधर बाज़ार, मूल्यहीनता और सस्ते मनोरंजन की ज़बरदस्त गिरफ़्त में रहने के आरोप हमेशा इस उद्योग पर रहे हैं. महात्मा गांधी की तीखी प्रति​क्रिया के कारण भी संभवत: यही थे. जब बोलती फ़िल्मों की शुरूआत को एक दशक भी पूरा नहीं हुआ था, तब गांधी ने सिनेमा को सामाजिक बुराई कहकर सिरे से ख़ारिज कर दिया था. तब कुछ जागरूक फ़िल्मकार सिनेमा के पक्ष में खड़े हुए थे.

"सिनेमा एक कला है, अभिव्यक्ति का एक माध्यम है इसीलिए कुछ (या अधिकांश) फ़िल्मों के आपत्तिजनक होने के कारण इसकी निंदा करना उचित नहीं है. आख़िरकार, किताबों की निंदा इसलिए नहीं की जा सकती कि उनमें पोर्नोग्राफी के ग्रंथ भी शामिल हैं."

ख़्वाजा अहमद अब्बास ने खुली चिट्ठी में गांधी जी से सिनेमा के प्रति उदारवादी रवैया अपनाने की गुज़ारिश करते हुए पुरज़ोर तर्क देकर सिनेमा की संभावनाएं बतायी थीं. इस चिट्ठी में अब्बास ने कुछ अमेरिकी और भारतीय फ़िल्मों का उल्लेख कर दावा किया था कि 'ये कठोरतम नैतिक मानदंडों के लिहाज़ से भी अद्वितीय फ़िल्में' रहीं. मूल्यों के मानदंडों पर अगर सिनेमा को याद कीजिए तो वी. शांताराम, अब्बास और बिमल रॉय जैसे फ़िल्मकारों के कई चित्र सामने रील की तरह चलने लगते हैं.

एक स्त्री के स्वयं के उद्धार की कहानी (सामाजिक मुद्दों को छूते हुए) के रूप में 'आदमी' रही हो या एक बूढ़े से ब्याह दिये जाने के बाद एक किशोरी का रूढ़ि विरोध दर्शाने वाली 'दुनिया न माने' हो, जाति व्यवस्था की सामाजिक रूढ़ि को चुनौती देती 'अछूत कन्या' हो या ईमानदारी के मूल्य को स्थापित करने वाली 'परख' हो... शुरूआती दौर से ही सिनेमा निर्माण का एक बड़ा वर्ग व्यवसाय को तरजीह भले दे रहा था, लेकिन उपर्युक्त फ़िल्मों ने एक समानांतर धारा बनाने का बीड़ा उठाया था, जिसका कारवां किसी रेस में शामिल हुए बग़ैर अपनी गति से चलता रहा. कभी बहकते, कभी दहकते तो कभी महकते हुए.

गांधी के नाम ख़्वाजा अहमद अब्बास का पत्र. Credit Google

शैक्षिक मूल्यों को स्थापित करने वाली फ़िल्में बेशक और बननी चाहिए थीं लेकिन बाज़ार की दौड़ में मुनाफ़े के चक्र हावी रहा. जिससे सर्जरी की संभावना थी, सिनेमा के उस माध्यम को केवल एनिस्थीसिया बनाकर छोड़ दिया गया.

शिक्षा और सिनेमा विषय आधारित लेख में जयप्रकाश चौकसे जी लिखते हैं, "असली चिंता की बात यह है कि हमारी शिक्षा भी अमेरिकन प्रणाली से प्रेरित है.. अब शिक्षा अच्छा मनुष्य नहीं, सफल आदमी रच रही है". प्रकारान्तर से महादेवी को दोहराते इस सूत्र से समझना चाहिए कि शिक्षा ही नहीं, विकास की भारत की अवधारणा ही पश्चिम से प्रेरित है. अच्छे मनुष्य बनाम सफल आदमी का रूपक यही है कि भारत में कलात्मक या उपयोगी नहीं, 'कमाऊ' सिनेमा रचा जा रहा है. विडंबना क्या है? 'अच्छा' व्यवस्था में 'कमाऊ' नहीं है.

शिक्षा संबंधी सिनेमा विषय पर लेखों को खोजें तो ढेर सारी फ़िल्मों के नाम मिलते हैं, शांताराम निर्मित फ़िल्म 'बूंद जो बन गयी मोती', सत्येन बोस निर्देशित 'जागृति', भालेराव पेढारकर की फ़िल्म 'वंदे मातरम आश्रम' से लेकर प्रकाश झा निर्मित 'आरक्षण' जैसी फ़िल्मों की चर्चा चौकसे जी करते हैं. अन्य लेखों में इम्तिहान, ब्लैक, तारे ज़मीन पर, थ्री इडियट्स, मुन्नाभाई एमबीबीएस, निल बटे सन्नाटा जैसी फ़िल्मों तक का उल्लेख मिलता है, जो बेशक सार्थक ​फ़िल्में हैं.

महत्वपूर्ण यह समझना है कि शिक्षा जगत से जुड़े संदर्भ, पात्र या विषय कई फ़िल्मों में रहे हैं, हो सकते हैं, लेकिन शैक्षिक मूल्यों की थीम किन फ़िल्मों की रही है. शैक्षिक मूल्यों के लिए उस सिनेमा की ओर देखना होगा, जो श्रेष्ठ मनुष्य-श्रेष्ठ समाज की कल्पना/विचारभूमि पर खड़ा हो. ऐसी शिक्षा जो युद्धभूमि में आकर परीक्षा दे सके और ऐसा सिनेमा जो 'युद्धकाल' में शिक्षित होने के लिए प्रेरणा बन सके.

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'सत्यकाम', नारायण सान्याल के उपन्यास पर ऋषिकेश मुखर्जी निर्देशित यह फ़िल्म शैक्षिक मूल्य के लिहाज़ से अव्वल दर्जे की कही जानी चाहिए. यह उस विचार को केंद्र में रखती है, जहां से कोई सत्यजीवी पैदा हो सकता है. इसी संबंध में, वी. शांताराम की कालजयी फ़िल्म 'दो आंखें बारह हाथ' को याद किया जाना चाहिए. कहानी भले एक क़ानूनी प्रयोग की हो, इसकी मूल भावना में विचार और संदेश निहित हैं. कैसे एक जेलर कुछ अमानुषों को मनुष्य बनाता है, इस तरह के शिक्षा मूल्यों की खोज निरंतर करनी होगी, शोध के ज़​रीये उसका विषय विस्तार भी.

मुझे याद है बचपन में, साल में एक बार फ़िल्म दिखाने के लिए स्कूल की तरफ़ से टॉकीज़ ले जाया जाता था. तब जो फ़िल्में दिखायी जाती थीं, वो तथाकथित बाल फ़िल्में होती थीं. बालकों को मनोरंजन सुलभ हो और कोई संदेश मिल जाये, इसका भी ध्यान फ़िल्म चयन के समय स्कूल रखता था. इस पूरे अभ्यास में शैक्षिक मूल्य का कोई ध्येय सिद्ध हुआ हो! मुझे ख़याल नहीं. यह ख़याल करना तो होगा क्योंकि अब तो टीवी, वीडियो, ओटीटी, ऑनलाइन कंटेंट से जुड़े शिक्षा ढांचे में फ़िल्म और अधिक प्रासंगिक है.

शिक्षा पर विमर्श, सिनेमा पर विमर्श समय के साथ विकसित हुए हैं, तो बाज़ार से छुटकारे की ओर क़दम उठाने होंगे. 'विकास के राजनीतिक नारे' से इतर बेहतर मनुष्य के विमर्श पर ऊर्जा लगानी होगी. बेहतरी के लिए मूल्य चुकाने होंगे. फिर बक़ौल महादेवी, "राजनीति शक्ति चाहती है, त्याग नहीं. कर्तव्य से जो मिलता है वह महत्व का है."

(यह वक्तव्य वेब पत्रिका शब्द सृष्टि के फरवरी 2022 अंक में प्रकाशित हुआ था.)

व्यंग्य

साहित्य का 'लूडो'


ऐसे तो लूडो एक indoor खेल रहा, लेकिन इस 'तकनीकिया' दौर में कहीं भी खेलिए, क्या indoor, क्या outdoor! आप किसी साहित्य सम्मेलन में खुद को outsider पा रहे हैं, तो वहीं खुद को एक जज़ीरा बनाकर अपनी हथेली से ही आप outreach हो सकते हैं! मंज़र देखिए कि आप हथेली पर अपने दोस्तों के साथ लूडो खेल रहे हैं और ध्यान ही नहीं है कि आपकी आंखों के सामने साहित्य का लूडो कैसे खेला जाता है!


Dices Image Credit : gotpoem via google search

देखिए, चौकोर बिसात वाले लूडो में चार ख़ेमे होते हैं : लाल, पीला, हरा, नीला (इसे झंडों वाली विचारधाराओं का प्रतीक न समझें, ख़ामख़ा कसरत होगी). चारों ख़ेमों में चार-चार गोटियां होती हैं. हर ख़ेमे की गोटियां अपनी चाल अलग चलते हुए अपने वर्ग के मोहरों को सपोर्ट भी करती चलती हैं और दुश्मन ख़ेमों के वर्गों को पीटती हुई भी (इसे मार्क्सवादी वर्ग संघर्ष की परिकल्पना न समझें तो मामला सुलझा रहेगा). सबके अपने रास्ते हैं, जो आपस में कहीं टकरा भी जाते हैं और अपने-अपने रास्तों से सबकी अपनी-अपनी मुक्ति (सांप्रदायिक दुनिया का रूपक न समझें, तो चैन मिलेगा) भी है.

इतना global खेल है, तो साहित्य इससे अछूता क्यों रहे? साहित्य के लूडो की अपनी बिसात है, अपने ख़ेमे हैं, अपने वर्ग और वर्ग संघर्ष. बड़ा दिलचस्प खेल नज़र आता है. कौन सा लाल है, कौन सा पीला...? ख़ैर, बताये क़ाएदे के मुताबिक़ साहित्य के लूडो की कथा का श्रीगणेश करते हैं, बोलिए : ॐ इद‌मान्नं, इमा आपः इद‌म‌ज्यं, इदं ह‌विः, ॐ य‌ज‌मान‌, ॐ पुरोहित, ॐ राजा, ॐ क‌विः...

'पट्टेदार' से बिस्मिल्लाह करते हैं. साहित्य के लूडो में इस ख़ेमे का आकर्षण वैसा ही है, जैसे बच्चे लूडो खेलते वक्त 'मेरी लाल, नहीं मेरी लाल गोटी' करते हैं. यहां पहला वर्ग शैक्षणिक सिस्टम का है. जैसे कुलवाद है कि अगर आप रीडर, लेक्चरर, प्रोफेसर हैं (इंग्लिश विभाग के हिंदी या उर्दू साहित्यकार की औक़ात बढ़ जाती है) तो साहित्यकार होंगे ही. यूनिवर्सिटी के संचालक या कुलपति हो गये तो महान साहित्यकार होना पड़ता है.

दूसरा वर्ग बाइज़्ज़त मठाधीश है. यहां वो विशिष्ट आबादी होती है, जो प्रकाशन, प्रचार, पहुंच, पुरस्कार और मूल्यांकन जैसे तमाम घोड़ों की लगाम अपने हाथ में रखती है. कोई बड़ा-सा साहित्यिक क़िला इनकी बपौती होता है. इन्हें अक्सर 'दादा' जैसे संबोधनों से पुकारा जाता है, लेकिन ये अंडरवर्ल्ड के 'भाई' जैसे होते हैं. तीसरा वर्ग अकादमी वालों का होता है. यहां साहित्यकार का सरकारी पालन पोषण तो होता ही है, बग़ैर इनके नवाज़े कोई भी साहित्यिक मुश्किल से बड़ा हो पाता है.

इस ख़ेमे की चौथी गोटी साहित्यिक पत्रिकाएं या किताबें छापती है. छोटी-मोटी संस्थाएं बना लेती है. ये ज़्यादातर 'स्वयंभू' श्रेणी होती है. वैसे यह शब्द कइयों को अपनी आग़ोश में लेता है. साहित्य के लूडो में पट्टेदार ख़ेमा ज़्यादातर group game खेलता है और जीत सुनिश्चित रखता है, कैसे? सिर्फ़ समझना पड़ता है क्योंकि यह बताने वाले को पाप लगता है. बोलिए : ॐ अंगीक‌रण, शुद्धिक‌रण, राष्ट्रीक‌रण, ॐ मुष्टीक‌रण, तुष्टिक‌रण‌, पुष्टिक‌रण...

अगर कविता या कहानी की किताब album ज़्यादा नज़र आये या फिर सोने चांदी के बेलबूटे हों, तो समझिए बात 'मालदार' ख़ेमे की है. इस ख़ेमे के साहित्यकारों को हर उस शख़्स ने महान बताया होता है, जिसके autograph के लिए आप मन्नतें करते हैं. इस ख़ेमे के पहले वर्ग में स्वाभाविक तौर पर व्यापारी, उद्योगपति, फाइव स्टार अस्पताल या इंस्टीट्यूट चलाने वाले सभी पुण्य प्रतापी समाजसेवी शामिल होते हैं.

दूसरा वर्ग अफ़सरों का होता है. ख़ास वो होते हैं, जिनके रिटायर होने में लंबा वक़्त हो. ये जिस दिन साहित्य का सफ़र शुरू करते हैं, उसके अगले दिन सा​हित्यिक सम्मेलनों की अध्यक्षता बाहैसियत वरिष्ठ साहित्यकार करते पाये जाते हैं. प्रकारान्तर से इस वर्ग में प्राइवेट प्रैक्टिस करने वाले डॉक्टर, इंजीनियर, सीए जैसे कुशल नामदार भी जुड़ते हैं. नेता वर्ग में रेंज और वैरायटी होती है. गांव-कस्बे में सरपंच से लेकर अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर प्रधानमंत्रियों तक इस गोटी का​ विस्तार है. इनके भव्य 'साहित्य' के साथ 'मीन काम्फ' ओह सॉरी यानी 'मेरी कहानी' bestseller और चर्चित जैसे मार्केटिंग शब्द जुड़े होते हैं.

लूडो की पहुंच देखिए! वैसे खेल है तो एक गोटी तो अखाड़े की होना ही चाहिए. मालदार ख़ेमे में बाबा, स्वामी, पीर, हज़रत टाइप शब्दों से पुकारे जाने वाले दिव्य साहित्यकार लूडो को ग़ज़ब आध्यात्मिकता से सराबोर करते हैं. इनका संदेश यही होता है 'न कोई गोटी पिटती है, न कोई पीटती है, गीता उठाकर देखिए, हर कविता पहले से लिक्खी है!' बोलिए : ॐ डॉल‌र, ॐ रूब‌ल, ॐ पाउंड, ॐ साउंड, ॐ साउंड, ॐ साउंड...

कालजयी, award winning, चमत्कारी और स्थापितों की दुनिया के साथ संघर्ष की दुनिया भी है, तभी तो खेल रोमांचक है. 'दावेदार' ख़ेमे में पहला दावा पत्रकार पेश करते हैं. क़लमजीवी होते हैं, तो पैरेलल साहित्य जगत खड़ा करने का शौक़ इन्हें होता है. साहित्य को मंच देना कर्तव्य होता है, तो चुपके-से ख़ुद भी चढ़ जाते हैं. ये सूचनात्मक और खोजी साहित्य के हामी होते हैं पर साहित्यकार होने का नुस्ख़ा कभी-कभी ही खोज पाते हैं.

दूसरी कलाओं से जुड़े नामों की अपनी एक गोटी है. ख़ास तौर से​ फ़िल्मी दुनिया में 'दो मिनट की शोहरत का तामझाम' रखने वाले साहित्य की दुनिया में अमिट छाप छोड़ने के लिए कोई भी जोड़-तोड़ करने से नहीं चूकते. संघर्ष तो उनका भी कम नहीं जो लोहे-लकड़ी पर सफ़ेद चादर चढ़े मंचों से काग़ज़, क़लम, दवात वाले मंचों पर दलील पेश करते हैं. चूहे-बिल्ली वाला खेल ये है कि श्रोता वाली गोटी के पास पाठक, तो पाठकों वाली गोटी के पास श्रोता न पहुंचे, यह अंतर्युद्ध चलता है.

संघर्ष करने वाली एक गोटी असंगठित क्षेत्र की है. ये अचानक कहीं से भी प्रकट हो जाते हैं और कहते हैं कि साहित्य के लूडो में हम भी पांसा फेंकेंगे. दावेदार अस्ल में, एक तरफ लूडो के रोमांच को नये मोड़ देते हैं, तो दूसरी तरफ़, कमोबेश safe point या गोटी डबल करने की जुगत में दिखते हैं. बोलिए : ॐ गुट‌निरपेक्ष, स‌त्तासापेक्ष जोड़‌-तोड़‌, ॐ छ‌ल‌-छन्द‌, ॐ मिथ्या, ॐ होड़‌म‌होड़...


अब जो बचा हुआ ख़ेमा है, उसके नाम के साथ 'दार' प्रत्यय जुड़ता नहीं है क्योंकि फ़ितरतन ये सब कुछ disown करने वाले होते हैं. बेशक, पहली गोटी का नाम नैसर्गिक उर्फ़ क़ुदरती है. ये जन्म घुट्टी में ही पद्य या गद्य पिये होते हैं. इन्हें तारीफ़ें तो हर जगह भरपूर मिलती हैं, लेकिन और कुछ के लिए मुक़द्दर भरोसे होते हैं.

इस ख़ेमे का दूसरा और तीसरा वर्ग बाक़ी ख़ेमों से बनता है. जिन्हें अपने ही आगे न आने दें, वो... और जो अपने वर्ग में अपवाद हों, वो इस ख़ेमे में विनम्र भाव से रहते हैं. चौथी गोटी सूफ़ी, संत और फ़कीर टाइप नामों से जानी जाती है. भव्यता, दिव्यता, भौतिकता से परे इस गोटी के खुलने की नौबत ही बहुत कम आ पाती है. इस ख़ेमे में दो प्रमुख लक्षण हैं : अव्वल तो यह दुनियावी ढंग से 'कुशल' व 'practical' नहीं होता. दूसरा, साहित्यकार को ज़िंदा रहने के लिए कुछ काम करना ही होता है, तो यह ख़ेमा सोये किसी के भी साथ, इसका ख़्वाब और सुब्ह साहित्य ही होता है.

इस ख़ेमे का कोई नाम या रंग नहीं है, फिर भी आप चाहें तो जानदार, बेदार या हक़दार जैसा नाम सोच सकते हैं. राज़ यही है कि यह ख़ेमा खेल में रहते हुए भी खेल के मोह में नहीं रहता. या तो यह ध्यानमग्न रहता है या फिर खरा-खरा बोलने में क़तई हिचकता नहीं. बाज़ी जो भी हो, इसकी मुक्ति तय होती है. बोलिए : ॐ ध‌रती, ध‌रती, ध‌रती, व्योम‌, व्योम‌, व्योम‌, व्योम‌... ह‌रिः ॐ त‌त्स‌त, ह‌रिः ॐ त‌त्स‌त।।

लूडो का मूल नियम है कि अलौकिक, प्रतिस्पर्धी या निर्मोही, किसी भी अखाड़े की कोई भी गोटी हो, खुलती तभी है जब पांसे में 'छह' आये. विडंबना यह है कि अब तो निल बटे सन्नाटे भी लूडो के माहिर हैं. 'तकनीक' और 'बाज़ीगरी' से अक्सर नियमों की धज्जियां ऐसे उड़ती हैं कि 'game-over' हो जाता है. ख़ेमों की नफ़रत और ताक़त की सियासत का खेल ऐसा हो जाता है कि इस लूडो में साहित्य ही 'outsider' नज़र आता है.

(यह व्यंग्य देवास से प्रकाशित होने वाली मासिक पत्रिका अर्बाबे-क़लम में 2021 में प्रकाशित हुआ था.)

आलेख

बजट भाषण में 'कविता' के सियासी कारण


यह लेख आम बजट 2021 के परिप्रेक्ष्य में लिखा गया था, जो भोपाल से प्रकाशित दैनिक समाचार पत्रों देशबंधु और सुबह सवेरे के संपादकीय पृष्ठ पर प्रकाशित हुआ था. इस लेख से एक विमर्श पैदा हुआ. उसी 3 फरवरी को एक फेसबुक लाइव पर इसे लेकर चर्चा भी हुई थी, वह भी आप यहां नीचे दी गयी तस्वीर पर क्लिक करके पॉलिटिकल पांडे के फ़ेसबुक पेज पर देख सकते हैं.



मुक्तिबोध साहित्यिकों के साथ आपसी चर्चाओं में अक्सर कहा करते थे 'तुम्हारी पॉलिटिक्स क्या है पार्टनर?' तब इसे दोस्ताना मिज़ाज में एक कवि का गंभीर प्रश्न समझा जाता था. अब? कवियों की सियासत एक अलग बात है, लेकिन सियासी उल्लू सीधा करने के लिए 'कविता' को टूल बनाना एक अलग प्रोपैगैंडा है. 1 फरवरी 2021 को भारतीय संसद में वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण जी ने बजट भाषण का आगाज़ रबींद्रनाथ ठाकुर की कविता से किया. लेकिन ख़बर के पीछे गूंज इस सवाल के जवाब में छुपी है कि रबींद्रनाथ की ही कविता क्यों चुनी गयी?

यह सवाल अटपटा न लगे इसलिए ज़रा अपनी याददाश्त पर ज़ोर डालिए. निर्मला जी के पिछले दो बजट भाषणों के टेप मिल जाएंगे, सुनिए. पहले भी निर्मला जी भाषण में काव्य पंक्तियां बख़ूबी पिरोती रही हैं. बजट भाषणों में तक़रीबन आधा दर्जन बार कविताएं कोट कर चुकीं निर्मला जी पहले कभी 'रबींद्रनाथ टागोर' से शब्द उधार लेने नहीं गयी थीं. और पहले जिनसे, जो शब्द उधार ले रही थीं, तब क्या उनकी ज़रूरत नहीं थी?

इस बार बजट भाषण में रबींद्रनाथ की कविता आना बहुत स्वाभाविक था ही. आपने ग़ौर से देखा हो तो भाजपा को पिछले कुछ महीनों से रबींद्रनाथ इस क़दर याद आ रहे हैं कि कहीं नाथूराम गोडसे की याद का रिकॉर्ड न टूट जाये! यहां तक कि निर्मला जी के रबींद्र काव्य संदेश पाठ के दौरान लग रहा था जैसे गुरुदेव स्वयं किसी छद्म छवि में वहां विराजमान हों! सोशल मीडिया पर आप इस छवि के बारे में 'भेस धरे टैगोर का...' जैसे सुसंस्कृत काव्य भी पा सकते हैं. तो, यह कहना क्या ज़रूरी है कि किस विश्व भारती, किस विश्वरूप और किस निजविश्व के मुहावरे किस तरह गढ़े जा रहे हैं...

चर्चा यह समीचीन है कि लोक की एक साइकी होती है, जिसे बनाया भी जाता है और जिसमें घर भी किया जाता है. 'राम-राम' जपने से पाप धुलें या नहीं, लेकिन यह भ्रम ज़रूर पैदा किया जा सकता है कि जाप करने वाला साधु ही है. इसे मनोविज्ञान में आप मॉब साइकोलॉजी और इनसेप्शन जैसे​ सिद्धांतों से समझते हैं और समाज के राजनीति शास्त्र में हिटलरी सिद्धांतों से. इसी सैद्धांतिक ज़मीन से आधार को बल देने के लिए कई किस्म के बयान दिये जाते रहे हैं. वित्तीय मामलों में जब कविता का आश्रय लिया जाये, तो सजग पाठक को कान खड़े रखना चाहिए क्योंकि लक्ष्मी और सरस्वती का समवेत स्वर स्वाभाविक नहीं होता.

निर्मला जी के पिछले बजट भाषण भी समय, पार्टी की निजी ज़रूरत और छवि निर्माण के अनुरूप ही काव्योक्तियां चुनते रहे हैं. आपको याद करने या तलाशने का कष्ट न हो इसलिए यहीं देखिए :

हमारा वतन फले-फूले शालीमार बाग़-सा
हमारा वतन डल झील में खिले कंवल-सा
नौजवानों के गर्म लहू जैसा
मेरा वतन, तेरा वतन, हमारा वतन
दुनिया का सबसे प्यारा वतन

यह काव्यांश दीनानाथ नदीम से निर्मला जी ने उधार लिये थे. 2019 में केंद्र सरकार ने कश्मीर को छोटा-सा केंद्रशासित प्रदेश बना दिया था. ऐसा करने के लिए हज़ारों वर्दीधारी कश्मीर में तैनात किये गये थे. यही नहीं, तबसे वहां संचार और सूचनाओं पर जो नियंत्रण किया गया, सो अब तक लगातार बहाल नहीं हुआ. उन पूरे संदर्भों को ध्यान में रखते हुए आप समझिए कि 2020 में निर्मला जी ने कश्मीरी कवि के शब्द क्यों चुने थे!


नदीम साहब 20वीं सदी के रिवायती कवि थे. साहित्य अकादमी से सम्मानित नदीम साहब 1988 में इंतक़ाल फ़रमा गये थे. पंडितों को खदेड़े जाने, आतंकवाद पनपने और उसके बाद की अस्थिर व अत्याचारी फ़िज़ा 1990 के आसपास से कश्मीर की पहचान बनती जाती है. तो नदीम सा​हब उस कश्मीर के थे ही नहीं, जिसे हम आज जानते हैं. फिर 2020 में उस कश्मीर की कविता को किसी भाषण में लाना, जिसे 40-50 बरस पहले किसी कवि ने किसी ख़ुशगवार पल में कलमबंद किया हो, क्या मायने रखता है?

यह एक आत्मरति है. समकालीन कश्मीरी काव्य उठाकर देखिए, न आंख से ख़ून निकल पड़े तो आप पत्थर. लेकिन पत्थरों की हक़ीक़त में कंवल की याद या तो सब्ज़बाग़ होती है या दुख. आत्मगौरव और इतिहास का सिर्फ़ वो रुख़ दिखाने का टूल होता है, ​जो आपकी नज़र के अनुकूल है. इसी 'अनुकूल' को निर्मला जी के भाषणों में बार-बार आवाज़ मिलती रही है.

यक़ीन हो तो कोई रास्ता निकलता है
हवा की ओट भी लेकर चराग़ जलता है

दीनानाथ कौल नदीम का नाम लेकर उनकी कविता कोट करने वाली निर्मला जी ने 2019 में जब बजट भाषण में यह शेर पढ़ा था, तब शायर का नाम नहीं बताया था. बदायूं में पैदा हुए, हल्दवानी में पढ़े और अलीगढ़ में पढ़ते-पढ़ाते रिटायर हो गये मंज़ूर हाशमी का नाम भाषण में नहीं आया था. यक़ीनन भाषण में यह नाम 'अनुकूल' वाली फ़िलॉसफ़ी के दायरे में नहीं था.

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पिछले दोनों भाषणों में निर्मला जी तमिल साहित्य को भी कोट करती रही हैं. 'निर्मला उवाच' में प्राचीन कवि थिरूवल्लूवर का प्रसंग भी बहुत रोचक और सामयिक है. प्राचीन तमिल दार्शनिक और कवि के ग्रंथ थिरूकुरल से इन अंशों को कोट करते हुए निर्मला जी ने एक आदर्श देश की कल्पना बताई थी :

'पिन्नी इन्मय, सेल्वम, विलइवु, इन्बम, एमम... यानी देश को बीमारियों से मुक्त रहना चाहिए, संपन्न होना चाहिए, कृषि में उन्नति, सुख व आनंद, और सुरक्षा समुचित होना चाहिए.'

समय पर ध्यान दें, 1 फरवरी 2020 के भाषण में यह कोट था. वैश्विक महामारी का पहला केस भारत में आ चुका था. उसके बाद तो... मौजूदा और हालिया स्थितियों के मद्देनज़र भी आप इस सिद्धांत के पैमाने पर देश की उन्नति के लिए सरकार को आंक सकते हैं. बहरहाल, यह सूत्र बताने के बाद तुरंत निर्मला जी ने इस तरह​ के दावे भी कर दिये थे कि 'महामहिम प्रधानमंत्री जी' के नेतृत्व में देश ने यह चरम आदर्श पा लिया और हाथी निकलने के बाद जो पूंछ रह गयी है, वो तो चुटकी बजाने की बात है. इसके बाद, समझदार गूगल सर्च इस तरह की खबरें बता रही थी कि निर्मला जी ने अपने भाषण में महामहिम का नाम कितनी बार लिया.

कालिदास ने कहा था : 'जैसे सूरज पानी से वाष्प लेता है और फिर वर्षा के तौर पर लौटाता है, वही धर्म राजा का है.' टैक्स के संदर्भ में इसे भी निर्मला जी ने कोट किया था. यहां कुछ विचार बिंदु हैं, जिन्हें छोड़िएगा मत. कालजयी और लोक काव्य के रचयिता कालिदास राजकवि भी थे, यह भूलना नहीं चाहिए. दूसरे, राजतंत्र के आदर्श को लोकतंत्र में क्या 'जस का तस' अंगीकार किया जाना चाहिए? तीसरे, जनता की दृष्टि राज्य के लिए जो हो, ​लेकिन जब आप स्वयं की तुलना राजा से कर रहे होते हैं, तो लोकतंत्र में विश्वास कितना रह जाता है?

'राम नाम की लूट है, लूट सके तो लूट...' साइकी को समझना होगा. सजग श्रोता, ख़बरदार पाठक और जागरूक नागरिक की तरह सुनना, पढ़ना और बोलना होगा. यह सवाल करते रहना होगा कि 'इस लोकतंत्र में तुम्हारी पॉलिटिक्स क्या है पार्टनर?'

Beyond The Review

SCOOP : पत्रकारिता के सरोकारों पर बड़े सवाल


एशियन एज के लिए ईस्टर्न एज, मिड-डे के लिए न्यूज़ डे और मुंबई मिरर के लिए सिटी मिरर जैसे नामों का इस्तेमाल तो तकनीकी बात है पर जिग्ना वोरा के रोल के लिए 'जागृति पाठक' नाम चुनना, नामों के प्रति लेखकीय समझ और आग्रह दिखाता है. यह कितना सार्थक और रूपक गढ़ता हुआ नाम है. अस्ल किरदारों के लुक की बात हो या फिर फैक्ट्स और फिक्शन का तालमेल बिठाना, कॉेसेप्ट और कहानी के लेखन में बारीक़ विवरण हमेशा कारगर साबित होते हैं. कलात्मक सार्थकता, विमर्शों की प्रधानता, विषय को साहस के साथ उठाने और अपने क्राफ़्ट की बुनाई के साथ ही यह चित्र किन समस्याओं और चिंताओं के लिहाज़ से विमर्श में आता है?


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पत्रकारिता पर हमले होना कोई नयी बात नहीं है. यह होता रहा है. सत्ताओं को निर्भीक एवं ईमानदार पत्रकारिता हमेशा ख़तरा लगती रही है. युद्ध हो, आपातकाल या सत्ता के वर्चस्व को बचाये रखने की चुनौतीपूर्ण स्थिति. पत्रकारों पर हमले हों या पत्रकारिता के मूल्यों के संकट, युद्धग्रस्त इलाकों से लेकर भारत तक चर्चा बनी हुई है. लोकतंत्र की स्थापना के बड़े उद्देश्यों में एक यह था कि 'अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता' सुनिश्चित करवायी जा सके. भारतीय लोकतंत्र राज्य के 75 सालों बाद क्या स्थिति है? तीन तरह की तस्वीरें हैं. एक सत्ता द्वारा निर्भीक पत्रकारिता का दमन, दो मुख्यधारा की पत्रकारिता का सत्ता का पक्षधर हो जाना (यह एक प्रकार की घात ही है) और तीन, पेशेवर बाध्यताओं के चलते पत्रकारों का मोहरा बन जाना.

'अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता' के आदर्श का उल्लंघन होने पर पहली स्थिति का विरोध किया जाना उचित है. दूसरी स्थिति चाटुकारिता और अवसरवाद की है, जिसकी निंदा ही की जा सकती है और तीसरी पेचीदा है. ऐसा कभी पत्रकार पर दबाव के कारण होता है, कभी पत्रकार की अनभिज्ञता तो कभी महत्वाकांक्षा के कारण भी. इस पक्ष को एक कसी हुई पटकथा और एक आत्मकथात्मक आख्यान के माध्यम से एक वेब सीरीज़ का विषय बनाया गया है, जो 2023 में चर्चित और प्रासंगिक भी रही है.

अंडरवर्ल्ड के साथ मुंबई (महाराष्ट्र) पुलिस के रिश्तों/साठ-गांठ को लेकर क़िस्से, थ्योरीज़ और अफ़वाहें कम नहीं रहीं. इस संबंध में किसी ने जड़ तक जाकर पड़ताल की और बड़े ख़ुलासे किये तो वह थे, खोजी पत्रकार ज्योतिर्मय डे, जिनकी हत्या 2011 में कर दी गयी थी. कहते हैं जे. डे ने उस 'डार्क अलायन्स' का पर्दाफ़ाश कर दिया था, जिसे छुपाने के लिए पूरा 'सिस्टम' हर वक़्त मुस्तैद रहता था. एक तरफ जे. डे क्राइम रिपोर्टिंग के मेयार को उठा रहे थे, नये बेंचमार्क बना रहे थे, तो दूसरी तरफ़ 'मीडिया' में तब्दील हो रहा 'जर्नलिज़्म' ब्रेकिंग और एक्सक्लूसिव की अंधी दौड़ में तमाम नैतिकताओं को बेचने के लिए उतावला हो रहा था. इसी बीच, उस दौर में कई टकराव और थे. संगठित अपराध, अख़बारों और पुलिसिंग के इसी समय को क़रीने से दर्ज करती हुई वेब सीरीज़ है, स्कूप.

21वीं सदी के दूसरे दशक से सोशल मीडिया भारत में ज़ोर पकड़ने लगा था, स्मार्ट फ़ोन की सेल भी; 2010 में क़रीब 5.70 लाख पर्यटक कश्मीर पहुंचे जबकि 2011 में! ​तब तक बीते 22 सालों में ऐसा किसी बरस नहीं हुआ था कि 10 लाख से ज़्यादा टूरिस्ट कश्मीर गये हों; 2008 के आतंकी हमले में दाऊद इब्राहीम और उसके गिरोह की तरह-तरह की भूमिका को लेकर थ्योरीज़ चल रही थीं; छोटा राजन गैंग और डी-कंपनी के बीच टकराव बना हुआ था. संगठित अपराध सिस्टम के ख़िलाफ़ चुनौती बन चुका था; इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के कारण पत्रकारिता के नये मायने स्थापित हो रहे थे और प्रिंट मीडिया के नये संकट भी.

क़रीब एक युग पहले के मीडियाई दौर से एक महत्वपूर्ण कहानी लेकर आती है हंसल मेहता निर्देशित 'स्कूप'. जब तथ्यपरक से ज़्यादा ख़बर का सनसनीख़ेज़ होना ट्रेंड बना था, जब तथ्यों की खोजबीन व पड़ताल नहीं, अहम थी खलबली पैदा कर देने वाली ख़बर पेश कर देने की हड़बड़ी. जब मैनेजमेंट के दबाव में पत्रकार अपनी भूमिका भूल रहे थे. 'स्कूप' में पत्रकारिता को लेकर स्पष्ट मत है - "एक कहे कि बारिश हो रही है और दूसरा कहे कि नहीं, तो मेरा काम दोनों को कोट कर देना भर नहीं है. मेरा काम है कि मैं कमबख़्त खिड़की खोलूं और देखकर बता दूं कि फ़ैक्ट क्या है." यह कहा इसलिए गया क्योंकि कथानक इसकी उलट स्थितियों से बुना जा रहा है.

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'स्कूप' में लेखक और निर्देशक का माउथपीस कैरैक्टर है मूल्यों पर अड़ा हुआ एक संपादक. अधपकी ख़बरों को ख़ारिज करता हुआ. लोकतंत्र के चौथे स्तंभ और उसके कर्णधारों के पतन पर आंसू बहाता हुआ. मुख्य पात्र है इस संपादक की टीम में एक महिला क्राइम रिपोर्टर. 'एक्सक्लूसिव' की रेस में ख़ुद को स्थापित करने की होड़ में. पुलिस और अपराध जगत में अपने सूत्रों को साधती हुई. कुछ मूल्य बचाती हुई पर पत्रकारिता के सिद्धांतों के बजाय शोहरत चुनती हुई. दुनिया उसकी इस तेज़ रफ़्तार कामयाबी को उसके चरित्र के साथ किस तरह बांच रही है, यह नज़रअंदाज़ करती हुई. कई किरदारों की भरपूर कहानी कहती 'स्कूप' के इस केंद्रीय पात्र का नाम है जागृति पाठक.

क्या-क्या बयान करती है 'स्कूप'?

'बिहाइंड बार्स इन भायखला : माय डेज़ इन प्रिज़न' किताब में पूर्व पत्रकार जिग्ना वोरा ने जिस तरह आपबीती बयान की, उसी पर आधारित 'स्कूप' वास्तव में, जागृति के सफ़र की कहानी है. खोजी पत्रकार जयदेब सेन उर्फ़ दादा (जे. डे का सिनेमाई किरदार) की हत्या के षडयंत्र में जागृति को आरोपी बनाया जाता है और उसे कई महीने जेल में रहना पड़ता है. फिर तमाम तकलीफ़ों के बाद वह कोर्ट से राहत पाती है. यह चित्र स्त्री विमर्श के कुछ पहलू भी छेड़ता है.

आदमियों के समझे जाने वाले काम में तेज़ी से नाम के साथ दुनियादार रवैये से पूंजी भी जोड़ रही, अपने पति से तलाक़ ले रही, अपने बच्चे और मां, नाना-नानी आदि को पाल-संभाल रही, एक गुपचुप एक्स्ट्रा मैरिटल अफ़ेयर कर रही, अपराधियों व पुलिस अफ़सरों के बीच से अपना काम निकलवा रही और प्रोफ़ेशनल लाइफ़ में न जाने कितने लोगों को अपना 'राइवल' बना रही जागृति को जेल जाने पर 'क्या पाया क्या खोया' के साथ ही यह अहसास भी होता है कि उसने 'क्या सही किया क्या ग़लत'. हमदर्द के नाम पर उसके साथ उसके परिवार के अलावा सिर्फ़ एक आदमी, उसका संपादक. और उसके ख़िलाफ़? वो अपराधी, जिनके एक्सक्लूसिव इंटरव्यू के लिए वह मरी जा रही थी; वो पुलिस अफ़सर, जो उसके ज़रिये अपना एजेंडा सेट करवाते रहे थे; और वो मीडिया, जो उसे कल तक हाथो-हाथ ले रहा था.

क्या है इस विमर्श की फ़िल्मी परंपरा?

माइकल क्वेस्टा निर्देशित 2014 की फ़िल्म 'किल द मेसेंजर' की थीम से प्रभावित दिखती 'स्कूप' को देखते हुए अनेक फ़िल्मों के दृश्य या संदर्भ यादों में कौंधने लगते हैं. मसलन, जेल में किसी मासूम को क़दम-क़दम पर किस तरह प्रताड़नाएं झेलना पड़ती हैं, भंडारकर ने अपनी फ़िल्म 'जेल' में दिखाने की कोशिश की थी. 'स्कूप' में नयापन यह है कि यह महिलाओं की जेल के वो दृश्य लेकर आती है, जो पहले न के बराबर देखे गये (श्रीराम राघवन निर्देशित 'एक हसीना थी' भी याद कीजिए). अस्ल में, 'स्कूप' के कई तत्व पिछली कई फ़िल्मों या चित्रों की याद तो दिलाते हैं लेकिन अपने विचार, विस्तार, प्रभाव या गढ़न में नयापन भी रखते हैं.

'किल द मेसेंजर' की तरह यह सिनेमा भी बड़ा प्रश्न उठाता है कि मीडिया को किस तरह 'यूज़' किया जाता है. बिली विल्डर निर्देशित 'ऐस इन द होल' का विषय भी यही है. किस तरह मीडिया रिपोर्टिंग को तोड़-मरोड़कर रैटिंग के चक्कर में 'न्यूज़' को कॉर्पोरेटिया प्रोडक्ट बनाता है और कैसे सच से परे नैरैटिव रचने का खेल खेला जाता है, विल्डर इसे बख़ूबी दिखा पाये हैं. 'स्कूप' का एक संवाद है - "हम सस्ती हेडलाइन्स के लिए मौत को भी बेचते हैं. पाठकों को हम उपभोक्ता बना चुके हैं... पहले होता था कि पत्रकारिता अच्छी हो तो उसका विवादास्पद होना तय था, अब उल्टा है. विवादास्पद हो तभी अच्छी पत्रकारिता है."

दि इनसाइडर और एब्सेन्स ऑफ़ मलाइस जैसी क्राइम रिपोर्टिंग आधारित हॉलीवुड फ़िल्मों के बहुत मामूली प्रभाव भी 'स्कूप' में नज़र आते हैं. रैटिंग और नैरैटिव के खेल के प्रति समझ पैदा करने में रामगोपाल वर्मा की फ़िल्म रण ने भी एक स्तर पर कोशिश की थी. एक और क्राइम रिपोर्टर की संस्मरणों पर आधारित टीवी शो 'टोक्यो वाइस' 2022 में आया पर भारत में उतना चर्चित नहीं रहा. यह शो जापान के 'यकूज़ा' (संगठित अपराधियों) की सिस्टम के साथ मिलीभगत का पर्दाफ़ाश करने की भयानक कहानी अनूठे ढंग से बुनता है.

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रमेश शर्मा निर्देशित और सराही गयी फ़िल्म 'न्यू दिल्ली टाइम्स' (1986 में प्रदर्शित) पहली हिंदी फ़िल्म थी, जिसने सियासत और जुर्म की मिलीभगत और उसमें मीडिया को इस्तेमाल किये जाने का षडयंत्र हिंदी दर्शकों को संभवत: पहली बार दिखाया था. जिस तरह इस फ़िल्म के मुख्य पात्र पत्रकार विकास पांडे को समझ आता है (किल द मेसेंजर में गैरी को कुछ अलग ढंग और मोड़ पर) कि अनजाने ही सिस्टम ने उसको अपने एजेंडे के लिए इस्तेमाल कर लिया, उसी तरह स्कूप में भी जागृति पाठक को यह बात तो समझ में आती ही है, यह पछतावा भी उसे होता है कि एक पत्रकार की तो नहीं लेकिन उसने पत्रकारिता की हत्या ज़रूर की. वास्तव में, पत्रकारिता उस असहज लेकिन समाजोपयोगी सच को सामने लाने का नाम है, जिस पर परदे या मुलम्मे चढ़ाये जा रहे हों. होता यह है कि सच इकहरा नहीं होता इसलिए जाने-अनजाने पक्षधरता ही उभरकर आती है और नैरैटिव रचने वाली पॉलिटिक्स यहीं अपने पैर जमा लेती है.

'स्कूप' में जागृति के ख़िलाफ़ ही मीडिया एकजुट होकर कथित 'मसालेदार' ख़बरें बेचता है और उसकी चारित्रिक हत्या पर उतारू हो जाता है. 'मीडिया ट्रायल' संबंधी इस तरह के संकेत 'किल द मेसेंजर' में भी हैं. ये दोनों ही चलचित्र सुरक्षा एजेंसियों की अंतर्राष्ट्रीय अपराध जगत के साथ मिलीभगत के विषय को प्रमुखता से उठाते हैं. समाज और सिस्टम के निगेटिव्स से भरे दोनों ही चित्रों में पॉज़िटिव है, कठिन समय में परिवार का साथ बने रहना. कुछ हद तक अवास्तविक भी लगता है लेकिन एक उम्मीद देना ज़रूरी भी है. एक इत्तेफ़ाक और भी. उस समय क्लिंटन और मोनिका लेवेंस्की सेक्स कांड के चलते गैरी वेब के महत्वपूर्ण ख़ुलासे विमर्शों और जनता के बीच पुरज़ोर ढंग से नहीं पहुंच सके. इधर, अन्ना हज़ारे के आंदोलन की आंधी के दौर में जे. डे की हत्या और जिग्ना के जेल जाने की घटनाएं चर्चा में टिक ही नहीं सकीं.

इस फ़िल्म के निर्माण के तकनीकी पक्ष पर भी विस्तार से चर्चा की आवश्यकता है. संक्षेप में, निर्देशक हंसल मेहता, जागृति का पात्र निभाने वाली करिश्मा तन्ना और संपादक इमरान के किरदार में ज़ीशान अय्यूब के साथ अन्य अनेक अभिनेता तारीफ़ के हक़दार हैं. संवादों के लिए करन व्यास, पटकथा के लिए अरुण सिंह चौधरी और एडिटर अमितेश मुखर्जी को भी सराहा जाना चाहिए. हालांकि जिग्ना की किताब से कुछ अहम वाक्यों/विवरणों को संवादों व पटकथा में और शामिल किये जाने की गुंजाइश बनी रही. मृणमयी और मिरत का उत्कृष्ट अडेप्टेशन यक़ीनन हंसल के प्रभावी निर्देशन के लिए बेहद उपयोगी साबित हुआ. कलात्मक सार्थकता, विमर्शों की प्रधानता, विषय को साहस के साथ उठाने और अपने क्राफ़्ट की बुनाई के लिए इस तस्वीर की याद आती रहेगी. यह वेब सीरीज़ तब तब भी याद आएगी जब पत्रकारिता पर हमले होंगे या पत्रकारिता अपने स्वार्थों के लिए अपने मूलभूत चरित्र से समझौता करती दिखायी देगी.