शुक्रवार, अक्तूबर 27, 2017

आलेख

आदिशक्ति के अस्तित्व पर पौरुष का संकट


यह आलेख वर्ष 2003 में महिला उत्पीड़न से जुड़ी एक खबर के बाद एक समाचार पत्र के संपादकीय पृष्ठ पर प्रकाशन हेतु लिखा गया था। हालांकि इस आलेख में कुछ संशोधन किये गये हैं लेकिन घटनाओं का उल्लेख 2003 के अनुसार ही रखा गया है।


शक्ति और रोशनी का रिश्ता कई परतों का है। जब शक्ति से अंधेरों का सीना चीरकर रोशनी की तरफ बढ़ा जाता है और रोशनी की हिफ़ाज़त की जाती है तब शक्ति हितकारी होती है। वैयक्तिक स्तर से वैश्विक स्तर तक। जब उसी शक्ति से रोशनी पर काबिज़ हो जाया जाता है और रोशनी का व्यापार किया जाता है, तब रोशनी की शक्ति काम करती है। रोशनी ख़ुद शक्ति बन जाती है और मनुष्य की शक्ति को अंधेरों की अतल गहराई में डुबो देती है। रोशनी का स्वभाव ही फैलना है, क़ैद उसे किया नहीं जा सकता। भलाई इसी में है कि इस प्रकार का प्रयास किया न जाये। ये तथ्य शायद वैदिक काल या उससे पहले ही समझ लिये गये होंगे अन्यथा शक्ति को न तो दैवीयता मिलती, न ही उसकी आराधना की परंपरा चलती। सूर्य-चन्द्र भी देव माने गये और प्रकाश के विभिन्न पुंजों का महत्व भी रूपायित किया गया।

भारतीय सभ्यता और हिंदू संस्कृति-धर्म में शक्ति एक देवी की तरह पूजी गयी। अर्थात् उसका स्वरूप स्त्री के रूप में ग्रहण किया गया। सनातन काल में स्त्री को श्रद्धा तथा उन्नत गुणों से सम्पृक्त निष्ठा का भोग लगाया गया। उसे भाग्यलक्ष्मी, कुलवधू, स्वामिनी, राजमाता और गुरुमाता आदि सम्मानजनक सम्बोधन दिये गये। धीरे-धीरे युग बदलते चले और आदिशक्ति पर आदिब्रह्म किसी प्रकार हावी होता चला गया। आदिब्रह्म का युग चल पड़ा और उसकी पीढ़ियां पैदा होने लगीं। पहले ब्रह्मा, विष्णु, महेश फिर गणेश, राम, कृष्ण आदि नाना रूपों में उसकी लीलाएं निरन्तर चलायमान रहीं। इस समय शक्ति सुषुप्तावस्था में थी या किसी तपस्या में लीन... या कहीं और... लेकिन वह लुप्तप्राय होने लगी। एक मज़ेदार प्रश्न यह है कि आदिब्रह्म और आदिशक्ति में सम्बन्ध क्या था, पिता-पुत्री, माता-पुत्र या पति-पत्नि? चूंकि, शक्ति तो आदि थी इसलिए उनके पिता की कल्पना नहीं की जा सकती। इसके लिए एक कथा का सहारा लिया जाता है, मनु और श्रद्धा की कथा।

आदिब्रह्म और आदिशक्ति को पति-पत्नि इसलिए नहीं माना जा सकता क्योंकि मनु तो श्रद्धा क्या इड़ा के आगे भी असहाय रहे। मनु और श्रद्धा का एक पुत्र था मानस, जिसकी पूर्ण व्याख्या नहीं मिलती। हो सकता है कि यही मानस खुराफ़ाती निकला हो और आदिब्रह्म के वेश में प्रकट हो गया हो। शैशवावस्था में इस मानस ने परम्पराएं गढ़ीं, फिर किशोरावस्था में इन प्रथाओं का पोषण शुरू किया तथा युवावस्था या कलियुग तक आते-आते मानस मनुष्य इतना अधम हो गया कि लाचारों पर बलारोपण करने को अपना पौरुष कहने गला और अधमता की इस सीमा में वह पुरुष कहाया। तो, कलियुग की शब्दावली में आदिब्रह्म-पुरुष और आदिशक्ति-स्त्री कहलाये।

निर्लज्जता की पराकाष्ठा यह कि पुरुष शोषक की भांति स्त्री को शोष रहा है, भोग रहा है और बातें वैदिक युग करने से चूक भी नहीं रहा। तोते की तरह अनवरत रटता-रटाता जा रहा है कि "यत्र नारयस्तु पूज्यन्ते, रमन्ते तत्र देवता"। हालांकि अति व्यापक पुरुष समुदाय का एक अंश कुछ समय से इन कुप्रथाओं के विरोध में खड़ा हुआ है और सुधारवादी तथा नितान्त सात्विक दृष्टिकोणों के माध्यम से स्त्री को प्रतिष्ठित करने में जुट गया है।

लेकिन इस अंश की असफलता आज भी सिद्ध करती है कि व्यापक पुरुष की प्रवृत्ति स्थूलाकार है। वर्तमान के परिप्रेक्ष्य में कुछ दिनों तक यह अंशमात्र प्रभावी भूमिका में रहता है लेकिन "सौ सुनार की एक लोहार की" को साबित करता हुआ स्थूल, अपनी एक चोट से यह जता देता है कि "कुत्ते की पूंछ कभी सीधी हो नहीं सकती"

अभी सुनने में आया कि किसी सर्वेक्षण के अनुसार भारत में एक दिन में लगभग 15 लाख स्त्रियां, पुरुषों द्वारा गंभीर रूप से प्रताड़ित की जाती हैं। यों, प्रताड़ना का आंकड़ा कुल जनसंख्या का अस्सी से नब्बे प्रतिशत का है। सती प्रथा का जोर अपेक्षाकृत कम हुआ है, दहेज के विरुद्ध समाज चैतन्य हुआ है, स्त्री की अशिक्षा का रवैया शिथिल हुआ है, स्त्री आत्मनिर्भरता की जागरूकता आयी है... कितने सार्थक वाक्य हैं ना..? आंकड़ा पिछले वर्ष यदि नब्बे प्रतिशत का था और इस वर्ष घटकर अस्सी प्रतिशत पर आ गया तो उपरोक्त निष्कर्ष निकाल लिया गया। प्रश्न यह है कि ऐसी चेतना किस काम की जो केवल दस प्रतिशत पर ही दम तोड़ देती है?

इन्हीं सब अच्छी बातों के बीच देखने में आता है - तंदूर कांड, पटना-तमोली कांड, शिवानी हत्याकांड, मुरैना का बादामी बलात्कार कांड तथा मधुमिता हत्याकांड और स्विस राजनयिक के साथ बलात्कार। कचनोंधा में बादामी पर बलात्कार किया गया और उसके द्वारा पुलिस कार्यवाही करने पर उसे ज़िन्दा जला दिया गया। शोषित-पीड़ित यदि ज़ुल्म के विरुद्ध आवाज़ उठाये, न्याय मांगे तो ज़िन्दा जला दिया जाये और कभी पुरुष अथवा शक्तिशाली आदिब्रह्म के मनचाहे शोषण का शिकार बने। जो बादामी के साथ हुआ, स्विस महिला के साथ हुआ, वह चुनौती है हर स्त्री के लिए और कलंक है पौरुष पर।

महिला दिवस हर वर्ष मनाया जाता है, महिलाएं जुटती हैं और उत्थान की बातें करती हैं। कल्पना चावला जैसी स्त्रियों पर गर्व कर उन्हें श्रद्धांजलि दी जाती है। सब झूठ लगता है, अभिनय, औपचारिकता। खामोश रहना अच्छा है लेकिन ज़ुल्म के खिलाफ जुर्म है। समय-समय पर होने वाली बादामी की मौत मजबूर करती है, पौरुषता पर लज्जित होने को। लेकिन स्त्रियों का भी कर्तव्य बनता है कि वे इरादा करें, आदिशक्ति बनने का। जान लें कि राम को भी शक्ति-पूजा करना पड़ी थी।

स्त्रियों को यह भी जान लेना चाहिए कि यह भी एक छद्मोक्ति ही है कि अस्तित्व का सिद्धांत पश्चिम से आया। यह गीता है। स्त्री के अस्तित्व के लिए लड़ाई का समय है और स्त्री को अपना गौरव वापस हासिल करने के लिए दृढ़ संकल्पित होना ही पड़ेगा।

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें