शुक्रवार, अक्तूबर 20, 2017

सिनेमा

दो फिल्में - दूसरी नज़र से दो कमेंट्स


फिल्म समीक्षाएं नहीं है ये। फिल्मों पर कोई लेख भी नहीं कहा जा सकता इन्हें। फिल्म देखते हुए या देखकर एक दर्शक के मन में उठने वाले भाव की संज्ञा दी जाये तो भी उचित नहीं होगा। फ़िलहाल इन्हें कमेंट्स कहते हैं। बाद में कोई नाम मिल गया तो देखा जाएगा। इन कमेंट्स के ज़रीये फिल्मों के विचार का एक सारांश समेटा हुआ दिखता है, फिल्मों की कथावस्तु की रूपरेखा मिलती है और कहीं फिल्म को लेकर एक स्तर पर समझ भी दिखायी देती है।


तपेश के कमेंट में काव्यात्मकता है और यह कमेंट पढ़ना हमेशा मुझे सुखद आश्चर्य लगता रहा कि किसी फिल्म को ऐसे ढंग से भी बयान किया जा सकता है। कविता जैसी लय, रवानी तो है ही इस कमेंट में, साथ ही कई और तत्व भी भावना व विचार के स्तर पर समेटे गये हैं। कम शब्दों में ज़्यादा कहता हुआ यह कमेंट साहित्य के पाठकों और सिनेमा के दर्शकों दोनों के लिए उपयोगी होगा, ऐसा विश्वास है। दूसरा कमेंट मैंने ही लिखा है इसलिए उसके बारे में कोई विवेचना नहीं। इन दो कमेंट्स से गुज़रकर आप जो महसूस करें, वो साझा करें तो आगे इस प्रयास को जारी भी रखा जा सकता है और कुछ सुधार भी संभव हो सकते हैं।

फिल्म - रेनकोट 2004
निर्देशक - रितुपर्णो घोष
टिप्पणी - तपेश सक्सेना

Raincoat poster. image source : google

वह रिश्ता एक उतरन की तरह ही था। खूंटी पर टंगा दिखा तो पहन लिया। कहते हैं कि नज़र से नज़र की डोर बड़ी पक्की होती है। उस रोज़ दायरे में कांच भी था लेकिन डोर साबुत थी। एहसास की बूंदें जब गिरती हैं तो आवाज़ नहीं होती, बस लिबास भीग जाता है। बहुत कोशिश की कि इस डोर पर लिबास सुखा लूं। मगर अंदाज़ा न था बारिश होती ही रहेगी। वैसे भी मां कहती थी कि बारिश में नये कपड़े मत पहना कर। लेकिन, एक बात तो उसने भी नहीं कही थी या शायद मेरे ही सुनने में नहीं आ पायी कि लिबास तो डोरी पर डालकर सुखाये जो भी सकते हैं लेकिन रेनकोट तो वहीं बाहर दरवाज़े पर ही उतारने का रिवाज है। उन्हें निचोड़ा भी नहीं जाता। शायद निचोड़ने से फट जाते होंगे। खूंटी पर वहीं बाहर ही एक रिश्ता टंगा है। जो बारिश रुके तो शायद सूख जाये। और अगर सूखे तो अपना वजूद ढंक लूं उससे।

फिल्म - बॉम्बे वेलवेट 2015
निर्देशक - अनुराग कश्यप
टिप्पणी - भवेश दिलशाद

Bombay Velvet poster. image source : Google

बॉम्बे वेलवेट का अर्थ है मखमली महानगर ! इस शीर्षक में दो शब्दों मखमली और महानगर को दो मिले-जुले रूपकों में देखता और खोजता हूं। यह जो मखमली कालीन है, यह आडंगर है, एक परदा है जो कई लाशों को ढांकता है। जिन लाशों पर मखमली कालीन बिछाया गया है, वो समाजवाद, आदर्शवाद, सच्चाई और निर्बल वर्ग की लाशें हैं। राजनीति के सहयोग से पूंजीवाद ने हत्याएं करवायीं और ये हत्याएं कीं कुछ निराधार महत्वाकांक्षाओं वाले चरित्रों ने, जो अवसरवादी भी थे लेकिन कुछ मानव भी। बाद में इन्हें अपराधी कहा जाने लगा जबकि इन लाशों पर बिछे कालीनों पर खड़ा है स्वार्थी, भावशून्य एवं अमानुष पूंजीवाद।

इकाइयां जब एकत्रित होती हैं तब एक बड़ी संख्या बनती है लेकिन विकास की तथाकथित धारा इस एकत्रीकरण या एकता के विचार की नहीं बल्कि बलि के विचार की पक्षधर है। सैकड़ों छोटे-छोटे गांवों की बलि से महानगर बनते हैं। गांवों की एकता से नहीं। कुर्बान होते हैं गांव, कस्बे और संपन्न होता है नगर, नगर का एक वर्ग विशिष्ट। तो इकाइयों की बलि से बना महानगर, लाशों को ढांकते हुए एक मखमली कालीन पर खड़ा भी और उस कालीन का समर्थक भी है। यही है बॉम्बे वेलवेट।

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