बुधवार, फ़रवरी 21, 2018

ग़ज़ल

"दिल में जगह बना लेगा एक-एक शेर"


4 फरवरी 2018 को भवेश दिलशाद की पांच चुनिंदा ग़ज़लों को सौतुक.कॉम ने साहित्य खंड में प्रमुखता से प्रकाशित किया। इन ग़ज़लों पर दिल्ली निवासी युवा कवि, कथाकार एवं बारीक़बीं समीक्षक श्रीमति अनिता मंडा लिखित आलेख विशेष रूप से ब्लॉग के लिए प्राप्त हुआ है, जो यहां प्रस्तुत है -


ग़ज़ल इसलिए भी लोकप्रिय विधा है कि इसे गाया जा सकता है। हिंदी छंदों में जहाँ भक्तिकाल में साहित्य अभिव्यक्ति चरम पर रही, तो छंद एक तरह से भक्ति रचनाओं के लिए रूढ़ हो गये। तो आमजन ने जिस विधा में अपने हृदय के भाव कहे वो ग़ज़ल ही थी, यही कारण है कि भारत में ग़ज़ल अपने आगमन से लेकर ख़ुसरो, कबीर से होती हुई मीर ग़ालिब से समृद्ध होती हुई आती है, उसमें हृदयानुभूतियां अपने चरम पर हैं।

ग़ज़ल बहुत बारीकियों वाली विधा है, इसे साध लेना सहज नहीं है। आजकल जितनी ज्यादा मात्रा में ग़ज़ल लिखी जा रही हैं, उतनी शायद ही कभी लिखी गई हों, लेकिन सोचने वाली बात यह है कि वह ग़ज़ल है भी या नहीं। क्योंकि सिर्फ व्याकरण निभा देना भर ग़ज़ल नहीं है।

ग़ज़ल क्या है? इसका जवाब हमें भवेश दिलशाद की ग़ज़लों में मिलेगा। इनकी ग़ज़लों से साल भर से परिचय है मेरा और सुखद बात यह कि दिलशाद जी आज की गलाकाट प्रतियोगिता से बाहर हैं। इनकी ग़ज़लों में जो बात मिलती है, वह साधना के बिना नहीं आ सकती। खानापूर्ति के लिए शेर कहकर संग्रह निकालना होता तो शायद अब तक दस-बारह ग़ज़ल-संग्रह भवेश जी के भी आ चुके होते। पर एक-एक शेर आपके ज़ेह्न में जगह बना ले, ऐसा लक्ष्य शायर का लगता है और कहना पड़ेगा कि इसमें इन्हें क़ामयाबी भी मिली है।

ग़ज़ल में मुझे जो बात सबसे अधिक अपनी तरफ़ अधिक खींचती है वह है, इसकी मारक क्षमता। दो मिसरों में ऐसी बात कह देना कि वह आपके दिल में जगह बना ले, यह ग़ज़ल में ही सम्भव है। भवेश दिलशाद जी की ग़ज़लों में यह मारक क्षमता, वक्रता है कि आप बरबस 'वाह' कह दें। कहन की ऊंचाई इन्हें भीड़ से अलग करती है।

दिलशाद जी की शायरी जदीद तेवर लिए हुए है, और यही कारण है कि कुछ शेर कई जगह कोट किये हुए भी पढ़ने को मिल जाते हैं। बिना उपदेशक हुए भी बड़ी बात कह जाने का हुनर आप इस शेर में देखिए -

जड़ की मज़बूती ज़मीं में गड़े रहने में है
यूं न मेआर हवाओं में उछालो अपने।

ख़ुद्दारी की एक ख़ुश्बू जो इंसानी किरदार को महकाती है देखिए -

अब तो हम छीन के लेंगे जो हमारे हक़ हैं
भीख में फेंके हुए आप उठा लो अपने।

कहन में नवीनता किसी भी लेखक, शायर के लिए कसौटी है, इसे बरक़रार रखना बहुत मेहनत वाला काम है, जैसे किसी कहानी के पचास तरीके कहने के हो सकते हैं, वैसे ही एक शेर में शायर किस तरह चमत्कार पैदा करता है उसका एक उदाहरण देखिए -

वो जो दिलशाद था अक्सर ये कहे था बेशर्म
देखना है तुम्हें मल्बूस हटा लो अपने।

सरल भाषा की पहुँच ज़्यादा लोगों तक होती है, उस पर बात भी सबसे जुड़ी हो तो क्या कहने, एक नया मुहावरा सा जुड़ता यहाँ दिख रहा है - 

और कुछ दिन देखता जा देखता रह जाएगा
सूख जाएगी नदी ये पुल खड़ा रह जाएगा।

वर्तमान हालात को बताता हुआ एक शेर जिसमें लफ़्ज़ों का इस्तेमाल भी क़ाबिले-ग़ौर है, देर तक ज़ेह्नो-दिल में ठहरने वाला मफ़हूम है -

गोलमेज़ें जब उठेंगी बात करके प्यास पर
बिसलरी की बोतलों का मुंह खुला रह जाएगा।

शायर के दर्द ज़माना कब समझा है, जो चैन आम इन्सां को हासिल है, वो उसकी बैचेन रूह को कहाँ, यही तो कबीर अपने अंदाज़ में कह गये थे, यही आज भी सच है -

कहके शब-बा-ख़ैर सब सो जाएंगे और रात भर
इक ग़ज़ल के साथ शायर जागता रह जाएगा।

शायर अपनी चेतना से आने वाले वक़्त की दस्तक को समझता है, और बाकियों को भी चेताना चाहता है, ओर इसे ज़रा भी रूखापन लाये बिना कह देना आसान बात नहीं –

हादसे की चाप है दिलशाद साहिब ये ग़ज़ल
जो समझ लेगा वो शायद कुछ बचा रह जाएगा।

यह शेर पढ़ते हुए मुझे पता नहीं क्यों साहिर याद आ गये। एक पर्दे के पीछे पोशीदा नग्न दुनिया की हक़ीक़तें जो टीस एक संवेदनशील मन में पैदा करती हैं वही यहाँ हो रही हैं। पीठ पीछे के कारोबार बताने की ज़रूरत ही नहीं कि हर कोई आज इनका कितना शिकार है, सब कोई अपने दर्द में डूबा इस शेर से जुड़ता है और यही जुड़ाव शायरी का फैलाव है। आमजन तक पहुंच है।

ये हसीन चेहरों के इश्तहार ज़िंदाबाद
और जो पीठ पीछे हैं कारोबार ज़िंदाबाद।

कुछ बगावती तेवर की झलक वो भी तंज़ की नोक पर देखिए क्या असर लेकर आई है –

बोलो कि लोग ख़ुश हैं यहां सब मज़े में हैं
ये मत कहो कि ज़िल्ले-इलाही नशे में हैं।

आम बोलचाल की भाषा में, बिना कोई भारी भरकम शब्द रखे अपनी बात कहने का हुनर बहुत मश्क़ चाहता है, किस नाज़ुकी से इंसानों के बीच की दूरियां यहाँ बताई गई हैं क़ाबिले ग़ौर है -

मेरी मुश्किलों से तुझे है क्या तेरी उलझनों से मुझे है क्या
ये तक़ल्लुफ़ात से मिलने का जो भी सिलसिला है ये ठीक है।

भवेश दिलशाद ने ग़ज़ल में ग़ज़लियत बरक़रार रखी है। नज़ाकत, मासूमियत को बरक़रार रखते हुए भी नई सोच, नये लहजे को आज़माया है। ये ग़ज़लें अदबी ज़हाँ में अपना ख़ास मुक़ाम बनाएंगी। अपने तजरुबात और मश्क़ से शायरी को जिस मेयार तक लाये हैं वो आसान बात नहीं है। यही वजह है कि इनकी ग़ज़लें सीधे दिल की ज़मीं पर जड़ें जमा लेती हैं। यही सलीका, यही अंदाज़, यही ज़दीद खयालात इन्हें नई ऊँचाइयाँ देंगे।

(लेख साभार) - अनिता मंडा

ग़ज़लों से रूबरू होने के लिए दिये गये 👇 स्क्रीनशॉट पर क्लिक करें..


Screenshot from Sautuk.com

रविवार, फ़रवरी 18, 2018

समालोचना

कविता क्यूं ज़रूरी है? क्यूं लिखी जाये? - 2


कवि होने का दंभ नहीं बल्कि कवि होने के कर्तव्य का निर्वहन श्रेयस्कर है। वास्तव में, कवि का कर्तव्य निर्वहन और कविता का प्रयोजन लगभग समानार्थी हैं। कविता की उपयोगिता क्या है? क्यों चाहिए किसी समाज को कविता? इन प्रश्नों के मूल में इसी तलाश की ज़रूरत है कि कविता और उसका प्रयोजन क्या है..।


image source: Google search

काव्य के प्रयोजन को लेकर भारतीय परंपरा में प्राचीन समय से ही विचार हुआ है और निरंतर जारी है। हर समय में, समयानुकूल विमर्श होता रहा है और कुछ ऐसे तथ्य प्रकट हुए हैं जिन्हें हर समय याद रखा जा सकता है या जो हर समय के लिए वैसे ही रहेंगे यानी मूल्य की तरह स्थापित हुए हैं। काव्य के प्रयोजन को लेकर विभिन्न विद्वानों के विचारों पर एक दृष्टि -

  • आचार्य वामन - आनन्द और कवि की कीर्ति। (काव्यालंकारसूत्रवृत्ति)
  • कुन्तक - चित्त को आनन्द देना एवं धर्मादि की सिद्धि। (वक्रोक्तिजीवितम्)
  • मम्मट - यश, संपत्ति, सामाजिक व्यवहार की शिक्षा, उच्च कोटि का आनन्द, उपदेश। (काव्यप्रकाश)
  • कुलपति - यश, संपत्ति, आनन्द। (रस रहस्य)
  • सोमनाथ - कीर्ति, आनन्द, लोकमंगल एवं उपदेश। (रसपीयूषनिधि)
  • भिखारीदास - तपफल, संपत्ति, यश एवं आनन्द। (काव्य निर्णय)
  • आचार्य रामचन्द्र शुक्ल - काव्य या कवि कर्म के लक्ष्य को क्रम से तीन भागों में बांट सकते हैं - शब्द विन्यास द्वारा श्रोता का ध्यान आकर्षित करना, भावों का स्वरूप प्रत्यक्ष करना, नाना पदार्थों के साथ उनका प्रकृत संबंध प्रत्यक्ष करना। मेरी समझ में काव्य का अंतिम लक्ष्य तीसरा है। श्रोता के संबंध में यदि विचार करें तो पहले दो विभागों के कारण कविता केवल आनन्द या मनोरंजन की वस्तु प्रतीत होती है। (रस मीमांसा)
  • आचार्य नन्ददुलारे वाजपेयी - काव्य का प्रयोजन आत्मानुभूति ही है। ...वह काव्य भी काव्य ही है जिसमें अनुभूति और अभिव्यक्ति की पूर्ण एकरूपता न हो, जिसमें कवि अपनी अनुभूति के प्रकाशन का उपयुक्त और आदर्श माध्यम प्राप्त करने में असफल रहा हो। पर वह रचना काव्य नहीं है, जिसमें वास्तविक अनुभूति का ही अभाव हो। (आधुनिक साहित्य)


काव्य प्रयोजन अथवा उद्देश्य अथवा लक्ष्य को समझने के लिए आधुनिक साहित्य के शीर्ष रचनाकारों के विचारों के अनुशीलन से कुछ और तथ्य भी स्पष्ट होते हैं। भारतेंदु ने आनन्द एवं लोकरंजन के साथ ही साहित्योद्देश्य के रूप में समाज-संस्कार एवं देश वत्सलता की चर्चा की है। समाज की कुरीतियों के विरुद्ध एवं देश की उन्नति के पक्ष में संदेश प्रसारित करना उनकी दृष्टि में साहित्य का परम लक्ष्य है। उनके परवर्ती जयशंकर प्रसाद जी ने भी आनन्द के अतिरिक्त इसी समाज संस्कार को महत्वपूर्ण माना है। प्रसाद जी के शब्दों में –
“काव्य से नैतिकता की सिद्धि केवल उस हद तक होती है कि पाठक अथवा प्रेक्षक अधिक संवेदनशील बनता है और इस प्रकार उसमें जीवन के उच्चतर मूल्यों के ग्रहण करने की क्षमता जागरूक होती है।“

मोहन राकेश कहते हैं –
“कोई भी उच्चकोटि की कलाकृति सचमुच उच्चकोटि की तभी होती है जब वह कई स्तरों पर प्रभावित करने की क्षमता रखती है। जो रचना केवल तथाकथित बुद्धिजीवियों को प्रभावित करती है, उसमें उतनी ही कमी है, जितनी उसमें जो सस्ता मनोरंजन करती है।“

इसी बात को आगे बढ़ाते हुए जगदीशचंद्र माथुर का कथन है – “कौन ऐसा लेखक होगा जिसकी कलम पर सामाजिक समस्याएं सवार न होती हों, अनजाने या डंके की चोट पर। ...मेरी धारणा है कि कभी-कभी मानसिक और सामाजिक रोगों का जितना ही हास्यास्पद रूप दिखाया जाता है, उतना ही अधिक उसके निदान की ओर समाज का ध्यान आकृष्ट होता है।“

इस अध्ययन के बाद निष्कर्षतः कहा जा सकता है कि आनन्द कविता का परम उद्देश्य है। न केवल कवि के लिए बल्कि श्रेाता अथवा पाठक के लिए भी जो रचना आनन्द का स्रोत बनती है, वह कविता है। यश, धन, कीर्ति आदि को कविता के बाह्य प्रयोजनों के रूप में समझना चाहिए जिसकी चर्चा अनेक विद्वानों ने अपने-अपने दृष्टिकोण से की भी है। ये गौण उद्देश्य हैं या यों कहा जाये कि ये उद्देश्य कवि के नहीं होते, यह कविता एवं कवि के लिए समाज उपलब्ध करवाता है। आनन्द के अलावा कविता के जो प्रमुख उद्देश्य माने जा सकते हैं, वे समाज एवं मानवता के उच्चतर मूल्यों के प्रति सतर्कता एवं जागरूकता हैं।

अब इसका अर्थ यह नहीं निकाला जा सकता कि कविता समाज में परिवर्तन की संवाहक होती है अथवा साहित्य कोई क्रांति लाता है। ऐसा अपवादस्वरूप हुआ हो तो ठीक है, लेकिन साहित्य या कविता इस प्रकार के परिवर्तनों और क्रांतियों में एक अहम रोल अदा ज़रूर करती हैं। वास्तव में, कविता या साहित्य मनोवैज्ञानिक रूप से समाज को तैयार करने का काम करती है। वह समाज के अंतस में उतरकर कभी एक भूमिका, कभी एक रूपरेखा या कभी एक घटना के उपरांत एक उपसंहार का माहौल बना सकती है। मूलतः कविता जो एक सृजन है, वह समाज या अन्य मनुष्यो के भीतर जो कुछ जोड़ती है, विभिन्न रासायनिक एवं मानसिक क्रियाओं के बाद, उसी के दूरगामी परिणाम के रूप में कोई परिवर्तन या क्रांति जैसी घटनाएं दृष्टिगोचर होती हैं।

एक पहलू है अनुभूति और अभिव्यक्ति को लेकर। इस संदर्भ में नंददुलारे वाजपेयी का पूर्ववर्णित लेख पठनीय है जिसमें उन्होंने कई प्रश्नों एवं बिंदुओं का उचित विवेचन किया है। अनुभूति सबके पास है, परंतु सब कवि नहीं हैं बावजूद इसके कि अभिव्यक्ति भी सबके पास है। इस संबंध में समाधान करते हुए वाजपेयी जी संकेत रूप में बहुत कुछ समझाते हैं। प्राकृतिक, वैज्ञानिक या रासायनिक, कारण जो भी हैं, यह तो है कि अनुभूति व अभिव्यक्ति होने के बावजूद अन्य व्यक्तियों एवं कवियों में अंतर है। वास्तव में, इसी भेद को समझना और अभिव्यक्ति में जो पूर्णरूपेण सक्षम नहीं हैं, उनकी भावनाओं, संवेदनाओं, कल्पनाओं अथवा अनुभवों को शब्द देना ही कवि का कर्तव्य है। इसी कर्तव्य का पालन कवि को निष्ठा एवं सतर्कता के साथ करना चाहिए। सच्चे, मौलिक एवं उपयुक्त शब्द अनुकूल अर्थों की परतों के साथ सौंपना कवि की ज़िम्मेदारी है। या यों कहूं कि कविता समाज के मनोभावों की सामूहिक भाषा होती है। कविता भावना व संवेदना के स्तर पर लोगों को आपस में जोड़ती है। इस प्रकार कविता के ये लक्ष्य महान होते हैं जो सृष्टि में सृजन के आनन्द के उत्प्रेरक होते हैं। जो इन महान लक्ष्यों को समझते हुए, कर्तव्य निर्वहन करते हुए, वास्तव में सृजन करता है, वह कवि है और उसका ऐसा सृजन कविता है।

अंततः कविता जीवन के लिए है। जीवन को व्याख्यायित करने के लिए है। जीवन को समझने-समझाने के लिए है, न कि जीवन के किसी एक पक्ष के प्रति राग-द्वेष उत्पन्न करने के लिए। जीवन के तमाम पहलुओं की तरह, कविता के भी कई कोण होने चाहिए। कविता पहले है, कविता का शास्त्र बाद में। कवि की प्रतिभा से कविता जन्मती है जो शास्त्रों में परिवर्तनों का कारण बनती रहती है। कविता गणित नहीं है, मात्र गणना के आधार पर नहीं है। कविता विज्ञान नहीं है, कुछ रासायनिक नियमों के आधार पर नहीं है। कविता कोरा दर्शन भी नहीं है और कविता केवल संगीत भी नहीं है। कविता व्यापक है, अद्भुत है, जीवन की तरह ही विचित्र है और नित-नूतन है क्योंकि कविता सृजन है, सृजन का अनुकरण नहीं है।

समालोचना

कविता क्यूं ज़रूरी है? क्यूं लिखी जाये?


थोड़े पहले समय की तुलना में, पिछले कुछ समय से देखा जा रहा है कि क्रिकेट बहुत ज़्यादा खेला जा रहा है, कमोबेश हर खेल, फिल्में ज़्यादा संख्या में बन रही हैं, प्रधानमंत्री जी की यात्राओं की संख्या ज़्यादा हो गयी है और इसी तरह कविता की पुस्तकों का प्रकाशन एवं कविता का सृजन भी थोक के भाव हो रहा है। जब ऐसा कोई भी कार्य अपेक्षा अथवा ज़रूरत से ज़्यादा होता है तो गुणवत्ता और स्मरणीयता पर विचार किया जाता है। उसे उपयोगी माना जाता है, जिसमें इस प्रकार के गुण हों।


कुछ समय पहले तक हैरानी रहा करती थी कि इतने कवि कैसे पैदा हो रहे हैं? तकनीक के इस दौर में क्या कविता की कोई तकनीक रूपी कुंजी हाथ लग गयी है, जिसे समझ लिया और बन गये कवि..! भाषा विज्ञान की तरह क्या कोई काव्य विज्ञान भी अस्तित्व में आ गया है? इन तमाम हैरानियों से दो-चार होते हुए शोध और अध्ययन करना शुरू किया तो गुत्थियां कुछ सुलझीं और कुछ समझ बढ़ी। उस यात्रा का संक्षेप प्रस्तुत कर रहा हूं।

image source: Google search

कवि होना क्या कोई ईश्वर प्रदत्त कृपा है या प्राकृतिक रूप से उत्पन्न किसी प्रतिभा विशेष का कोई परिणाम? कविता एवं कला के संदर्भ में आपने इस विषय पर पहले कुछ सुना-पढ़ा ज़रूर होगा। कुछ पश्चिम विचारकों की राय यह है कि कविता में 10 फीसदी प्रकृति प्रदत्त प्रतिभा का योगदान होता है जबकि 90 फीसदी परिश्रम अथवा अभ्यास का। अब यहां विचारणीय यह है कि 10 फीसदी का पता कैसे चले और प्रश्न यह है कि पता चल भी जाये तो 90 फीसदी परिश्रम अथवा अभ्यास कौन करता है, इसका पता कैसे चले? ऐसा नहीं है कि इन सवालों के उत्तर नहीं हैं। इसके लिए आप पश्चिमी काव्य सिद्धांतों का अनुशीलन कर सकते हैं और उलझते-सुलझते हुए किसी संतोषजनक बिंदु तक पहुंच भी सकते हैं। चूंकि मेरा अध्ययन भारतीय काव्य व काव्यशास्त्र तक रहा है, इसलिए मैं उसके हवाले से कुछ पहलुओं को उकेरना चाहता हूं।

हमारे समय के प्रतिष्ठित एवं लोकप्रिय कवि गोपालदास नीरज का एक दोहा चर्चित हुआ है -

आत्मा के सौंदर्य का शब्द रूप है काव्य
मानव होना भाग्य है, कवि होना सौभाग्य

नीरज स्वयं श्रंगार के कवि के रूप में एक सुदीर्घ यात्रा कर चुके हैं इसलिए स्वाभाविक है कि पहले चरण में वह आत्मा के सौंदर्य का उल्लेख कर रहे हैं। सौंदर्य की परिकल्पना कालिदास से होते हुए अंग्रेज़ी साहित्य के रोमांसिज़्म दौर तक पहुंचती है, जहां वर्ड्सवर्थ और शैली जैसे कवियों के नाम मिलते हैं और फिर हिन्दी साहित्य के मध्यकाल से होती हुई छायावादी काव्य तक पहुंचती है। इस परिदृश्य से इतर, मैं सौंदर्य शब्द को सतत परिष्कार रूप में ग्रहण करना चाहता हूं। आत्मा के परिष्कार की अवधारणा ग्रहण करने से बात अपनी पूरी प्राचीनता के साथ उत्तर आधुनिक समय के संदर्भों से भी जुड़ जाती है।

अब दोहे की दूसरी पंक्ति पर विचार करें। भाग्य की अवधारणा से स्पष्ट हो जाता है कि नीरज जी किसी ईश्वरीय शक्ति की कृपा को स्वीकार कर रहे हैं। ‘कवि होना...’ होना- यह शब्द संकेत है कि कवि होता है, बनता नहीं है। जैसे आप मानव होते हैं, मानव रूप में जन्मते हैं, आप मानव बनते नहीं हैं। यह और बात है कि किसी प्रकरण में मानवीय गुणों का लोप होना पाया जाये। अंततः बात भाग्य और सौभाग्य की। नीरज जी मंच के कवि ज़रूर रहे हैं लेकिन उनकी गंभीरता किसी शक़ के दायरे में नहीं रही। उन्होंने ऐसा कहा है तो यह कोई हवा-हवाई गल्प तो नहीं होगा। वह किस रहस्य तक पहुंचे हैं? कौन सा सत्य उनके सामने खुल गया है, जिसके कारण वह कवि होने को सौभाग्य निरूपित करने को विवश हुए हैं?

यश, धन, कीर्ति एवं स्वीकार्यता, यह सब नीरज जी को कविता के माध्यम से प्राप्त है। तो क्या इसलिए वह ऐसा कह रहे हैं? यदि हां तो यह सब कुछ तो किसी और को कविता के अलावा व्यापार, विज्ञान या अन्य माध्यमों से भी प्राप्त हो सकता है। ऐसे में, इसके पीछे कोई रहस्य अवश्य है जिसे खोजना चाहिए। विचार की धारा में बहते-उतरते हुए एक सत्य का मोती हाथ लग गया है। इस सत्य का उद्घाटन भाषा स्वयं कर रही है। प्रतिभा या ज्ञान के अनेक क्षेत्रों पर दृष्टि डालें - संगीत, शिल्प, गणित, विज्ञान, दर्शन, चिकित्सा, लेखन आदि। ज्ञान के इन क्षेत्रों के लिए भाषा में उपर्युक्त शब्दों में कर्म प्रधान शब्द ही मौलिक हैं। इन मौलिक शब्दों से कर्ता शब्द बनते हैं जैसे संगीतज्ञ, शिल्पी, गणितज्ञ, वैज्ञानिक, दार्शनिक, चिकित्सक, लेखक आदि। अर्थात मूल में ये ज्ञान है जो इन्हें प्राप्त कर रहा है, समझ रहा है या इनका अनुशीलन कर रहा है, वह उस क्षेत्र का अनुयायी या कर्ता कहला रहा है। केवल एक शब्द है - 'कवि'। कवि शब्द से कविता या काव्य शब्द बन रहा है। कविता से कवितज्ञ या काव्य से काव्यज्ञ शब्द नहीं बन रहे हैं। थोड़ी उर्दू और थोड़ी अंग्रेज़ी जानता हूं और आश्चर्यचकित रह गया हूं कि यह रहस्य इन दोनों भाषाओं में भी छुपा हुआ है। POET से POETRY बन रहा है और शायर से शायरी। PHILOSOPHY, SCIENCE, ART आदि शब्दों से PHILLOSPHER, SCIENTIST एवं ARTIST जैसे कर्ता शब्द बनते हैं। उर्दू में भी फ़न से फ़नकार, फ़ल्सफ़ा से फ़ल्सफ़ी और अरूज़ से अरूज़ी जैसे शब्द बनते हैं। अर्थात कविता के संदर्भ में, कर्म नहीं कर्ता मौलिक है, प्रधान है।

कवि जो सृजित कर रहा है, वह कविता है। अन्य में ऐसा नहीं कहा जा सकता कि गणितज्ञ जो सिद्धांत दे रहा है, वह गणित है या दार्शनिक जो उद्घाटन कर रहा है वह दर्शन है। यहां स्थिति भिन्न है। गणित, दर्शन व अन्य ज्ञान प्रकृति में रहस्य रूप में ही सही, पहले ही विद्यमान है। जो इस ज्ञान तक पहुंच रहा है वह ज्ञानी है। मात्र कवि ही एक ऐसी प्रतिभा है जो पहले से विद्यमान किसी ज्ञान का रहस्योद्घाटन नहीं कर रहा है। वह रच रहा है, वह सृजन कर रहा है। संभवतः इसी कारण शास्त्रों में शब्द को ब्रह्म माना गया है क्योंकि शब्द में रचने का, सृजन कर पाने का गुण है। अस्तु, कवि होना सौभाग्य है क्योंकि कवि एक मौलिक सर्जक है। मानव होना भाग्य है क्योंकि मानव भी प्रजनन के माध्यम से रचना करता है, जो अन्य जीव भी करते हैं लेकिन इस सृजन के अतिरिक्त एक और सृजन कवि करता है जो अन्य कोई जीव नहीं करता।

इस भूमिका के बाद स्वतः स्पष्ट है कि कवि वह है जो इस विराट् बोध को प्राप्त कर चुका है। कवि वह है, जो रच पा रहा है, सृजन कर पा रहा है। यदि पूर्व में हो चुकी रचना को ही किसी और प्रकार से अभिव्यक्त किया जा रहा है, तो वह कविता नहीं है। रचने का ढोंग संभव भी नहीं है। रचना एक वास्तविक क्रिया है। प्रसव वेदना की तरह ही, एक वेदना वहन कर ही रचना संभव है। अर्थात कविता वह है, जो एक वास्तविक रचना है। यह रचना पाठक अथवा श्रेाता तक पहुंचकर उसके भीतर भी कुछ नया जोड़ती है। जो किसी और के अंतस में कुछ योग नहीं करती है, वह कविता नहीं है। पुनःश्च कवि होना सौभाग्य है परंतु, सौभाग्य का दंभ श्रेयस्कर नहीं है, कर्तव्य बोध एवं निर्वहन श्रेयस्कर है।

क्रमशः