बुधवार, अक्तूबर 11, 2017

आलेख

रोज़ ज़िंदा हो जाता है, रोज़ मर जाता है मंटो


लोकतंत्र के दर्शन पर उंगली नहीं उठायी जा सकती लेकिन भारत में व्यावहारिक व्यवस्था के जिस रूप को लोकतंत्र कहा जाता है (संभवतः दुनिया के हर बड़े लोकतांत्रिक देश में), वह एक धोखा है। लोकतंत्र का मूलभूत दर्शन ही है कि बहुमत का तंत्र। भारत की बात करें, तो हम देखते हैं कि यह झूठ है, फरेब है। बहुमत गरीबों, मध्यम वर्ग का है, किसानों, श्रमिकों का है लेकिन तंत्र गिने-चुने पूंजीपतियों के हाथ में है। दिखावे के लिए इस बहुमत के तथाकथित हित की नीतियां बनती हैं लेकिन उनसे फायदा अल्पमत के पक्ष को होता है। इस भूमिका के परिप्रेक्ष्य में आप मंटो के लेखन को इस व्यवस्था के विरोध का बीज निरूपित कर सकते हैं।


मंटो की आवाज़ उन लोगों के पक्ष में थी जो तिरस्कृत थे, बहिष्कृत थे और एक तरह से उस समय के भारत के बहुमत का प्रतिनिधित्व करते थे। मंटो ने अपने अफ़सानों में इस वर्ग की नंगी सच्चाइयों को उघाड़कर रख दिया था। सलमान रश्दी जब मंटो को "लो-लाइफ फिक्शन" का लेखक कहते हैं तो उसका अर्थ यही है कि मंटो भारत के जिस बहुमत का लेखक था, वह लोक एक बहुत मामूली जीवन जी रहा था। इसे गोर्की के दिये शब्द "पीपल ऑफ लोअर डेप्थ" से बेहतर समझा जाना चाहिए। "निचली गहराई" ज़्यादा व्यापक शब्द है और मंटो इस निचली गहराई को अपने अफ़सानों में एक गूढ़ एवं सार्थक तत्व बनाने का काम करता है।

मंटो पर आरोप लगे कि सभ्य समाज की या शालीन कही जाने वाली नारियों की उपेक्षा करते हुए उसने वेश्याओं या उन नारियों को अपने अफ़सानों के केंद्र में रखा जो बलात्कार जैसे घिनौने कृत्यों से पीड़ित हैं। या उन्हें, जो समाज के खिलाफ जाकर एक आज़ादाना रवैया अख़्तियार करती हैं और मर्यादाओं को तोड़ती हैं, यानी आवारा औरतें। यह आरोप छह बार कोर्ट तक पहुंचा भी लेकिन मंटो को कभी दोषी नहीं पाया गया क्योंकि कहीं न कहीं समाज के अवचेतन में इतना तो तय था कि पीड़ित के हक की बात करना उचित है। यह कथ्य एक इन्क़िलाब का सूचक था, जो मंटो के अफ़सानों में आवाज़ पा रहा था। अफ़सोस कि शायद इन्हीं अवधारणाओं को पोसने वाला प्रगतिशील आंदोलन भी तब मंटो को समझ नहीं सका और प्रगतिशील लेखक संघ और मंटो एक-दूसरे के आमने-सामने नज़र आये।

SAADAT HASSAN MANTO. Source - Google (Edited version)

मंटो ने कुछेक मौकों पर प्रगतिशील उर्दू लेखक संघ की खिंचाई भी की। वास्तव में, मंटो व्यक्तिवादी ज़्यादा था और अपने अनुभव के सत्य पर विश्वास करने वाला लेखक, इसलिए उसे अहमवादी भी करार दिया गया। उसके तमाम लेखन में आप विचार या ख़याली करामात के स्थान पर अनुभव की सच्चाइयां पाएंगे। उसके क़िरदार वास्तविक हैं। उसके अफ़सानों में लेखक अपने क़िरदारों से अलग नहीं है। लेखक अपना किसी किस्म का भाव-विचारातिरेक थोपने की कोशिश नहीं कर रहा है। यह लेखन प्रेमचंद के कुछ अफ़सानों के मेयार की याद दिलाता है, जहां लेखक अपने क़िरदार की पीड़ा को महसूस करता है, उससे गुज़रता है और उस पूरे वातावरण को अपने भीतर सोखकर जो आंसू रोता है, जो ख़ून उगलता है, वही अलफ़ाज़ की शक्ल में हम पढ़ते हैं।

अनुभव की इसी लेखकीय यात्रा को मद्देनज़र रखते हुए राजेंद्र यादव, मंटो को बीसवीं सदी का सबसे प्रामाणिक लेखक तक करार देते हैं। राजेंद्र बाबू के शब्दों में मंटो की प्रासंगिकता हर सदी में, हर समय में रहेगी। वह मंटो को साहित्य में स्त्री विमर्श का पहला सूत्र भी निरूपित करते हैं। इस तथ्य में एक कमाल का पेंच यह भी है कि मंटो ही हिन्दुस्तानी साहित्य में संभवतः इकलौता लेखक है जिसने बिना कोई उपन्यास लिखे, सिर्फ कुछ कहानियों के बूते ही स्त्री विमर्श और कई स्तरों पर संवाद एवं विमर्श का माहौल रच दिया। यह बड़ी घटना इसलिए है क्योंकि तब तक ऐसा नहीं हुआ था कि बिना उपन्यास लिखे कोई लेखक बड़ा कथाकार घोषित हो जाये।

मंटो के "कम शब्दों" से लेकर "ज़्यादा पन्नों" वाले अफ़सानों तक एक और विषय कई बार मंटो का केंद्र बिंदु दिखता है और वह है - विभाजन या जिसे सांप्रदायिक चेतना की भावभूमि कहा जा सकता है। 1912 में जन्मा मंटो, 1947 में हुए विभाजन जनित दंगे, क्या इतना ही तारतम्य है मंटो के लेखक के इस केंद्र बिंदु का? मंटो की पूर्वपीठिका में दंगे हैं, बचपन में, नौजवानी में फ़साद हैं और 47 में तो हैं ही। 1893 में गुजरात के सौराष्ट्र में हिंदू-मुस्लिम दंगों का उल्लेख मिलता है जिसमें अस्सी लोग मारे गये थे। यह मंटो की पूर्वपीठिका है। 1929 में "पठानी दंगे" हालांकि शुरुआत में मज़दूर यूनियन के दंगे थे, लेकिन बाद में इनमें सांप्रदायिकता का रंग घुल ही गया। इस फ़साद में 106 लोगों के मारे जाने का उल्लेख मिलता है और यह नौजवान मंटो की आंखों के सामने हो रहा था। मंटो ने खुद भी लिखा है कि पहली बंबई यात्रा के दौरान यानी 1936 से 41 के बीच वह दो बार हिन्दू-मुस्लिम दंगों का साक्षी रहा। तो, यह सांप्रदायिकता मंटो के जीवन के समानांतर चलती हुई मंटो के लेखन में कहीं "प्रस्थान बिंदु" तो कहीं "ठहराव बिंदु" के रूप में नज़र आती है। एक स्थायी भाव के तौर पर, यह मंटो ही नहीं, बल्कि उनके कई समकालीन लेखकों के रचनाकर्म में समानांतर अविरल धारा के रूप में विद्यमान है।

कुल जमा 42 साल 8 महीने की उम्र जीने वाले, इस कम वक़्त में से कुल 19 बरस लेखन को देने वाले मंटो ने भरपूर ज़िंदगी जी थी। ढेर सारे तजरुबात और सच्चाइयों को देखा था। कुछ शौक पाले थे, कुछ ऐब और कुछ बेढंगे ढब। हल्के-गाढ़े, जलते-बुझते तमाम रंगों से लबरेज़ था मंटो के ज़हनो-दिल का प्याला। इन्हीं रंगों से तस्वीरें बनाता रहा, कैनवास को रंगता रहा मंटो। एक ऐसे मुसव्विर का अंत उतना ही दिलचस्प था, जितना उसका सफ़र। जब लाहौर में 1955 में मंटो आख़िरी सांस ले रहा था, उसकी लिखी फिल्म "मिर्ज़ा ग़ालिब" मुंबई के सिनेमा हॉल में हाउसफुल चल रही थी।

मंटो रोज़ ज़िंदा होता है, रोज़ मर जाता है। कभी मुक्तिबोध की कविता में मंटो का अफ़साना नज़र आता है, कभी मंटो के लफ़्ज़ों के आईने में फ़ैज़ की नज़्म नज़र आने लगती है। कभी शराब के सुर्ख़ प्याले में मंटो की लाल आंखें दिखती हैं, तो कभी सिगरेट के धुएं में मंटो का ग्रे चेहरा बन जाता है। मंटो एक ऐसा लमहा है जो हर रोज़ अब तक गुज़रता है और तब तक गुज़रता रहेगा, जब तक वक़्त मुंजमिद न हो जाएगा। मुहब्बत मंटो, इन्क़िलाब मंटो, ज़िंदाबाद मंटो।

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