शुक्रवार, अक्तूबर 20, 2017

सिनेमा

ख़ुदा के लिए... बोल... या रब !


2014 में रिलीज़ हुई फिल्म "या रब" पर केंद्रित यह आलेख उसी साल लिखा गया था। उस समय यह एक-दो पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित हुआ था लेकिन चूंकि यह आलेख फिल्म के बहाने कुछ मुद्दों को केंद्र में रखता है इसलिए इसका समय अभी शेष है, शायद।


अक्सर होता है कि समाज उस बात या कलाकृति को नकार देता है या अपनाने से कतराता है, जो उसको कवे सच और उसकी कुरूपता से रूबरू कराती है। यह वही समाज है जो सुकरात को ज़हर देता है, ईसा मसीह को सलीब, कबीर को सज़ा, मीरा को विष का प्याला, दारा शिकोह को मौत और प्रेमचंद को अभावग्रस्त जीवन देता है। फिर एक बदलाव आता है और यही समाज सुकरात को सच का मुहाफ़िज़, ईसा को मसीहा, कबीर को महात्मा, मीरा को जोगन, दारा शिकोह को संस्कृति का सिपेहसालार और प्रेमचंद को कलम का सिपाही कहकर नवाज़ता है।

यह समाज समय पर जागने का हामी रहा होता तो शायद किसी कृष्ण, ईसा, पैगंबर, नानक, कबीर, विवेकानंद का जन्म ही नहीं होता। यह समाज सत्य से आंखें नहीं चुराता तो शाश्द अनेक कालजयी कलाकृतियों की रचना ही नहीं होती। आज के समय में हमारे देश में सुधार और बदलाव की लहर ज़रूर है लेकिन सोच ख़ारिज है। विद्रोह की बातें हैं लेकिन कोई सुनिश्चित लक्ष्य नहीं है। हर चेहरा, अपना ही चेहरा है, तो किसको कलंकित कहें? ऐसी अनेक विसंगतियां हैं इसलिए साहित्य, चित्र, सिनेमा, नाटक आदि कलाओं में कुछ ज़रूरी तेवर रह-रहकर सामने आते हैं, जो होते तो हैं समाज के लिए लेकिन अक्सर सिर्फ कुछ बुद्धिजीवियों या फिर गिनती के जागरूकों तक ही पहुंच पाते हैं। शायद यह भी एक विडंबना ही है।

Ya Rab poster. image source : Google

ऐसी ही एक मिसाल और दिखी जब हाशिये पर रिलीज़ हुई फिल्म या रब। फिल्म को एक बड़ी वितरक कंपनी मिलने के बावजूद न तो इस फिल्म को सिनेमाघरों में शो मिल सकें न दर्शक। प्रचार के व्यापार के इस दौर में कई बार अपेक्षित विचार को मंच नहीं मिल पाता। अपना ही एक शेर याद आता है:

एक ने भी अनमोल न समझा
बाज़ार में जब क़ीमत न रही।

आपको याद होगा, कुछ चार-पांच दशक पहले सार्थक सिनेमा की एक धारा प्रवाहित हुई थी। इस धारा को फिर कला सिनेमा कहा जाने लगा। यह सिनेमा विदेशों में तो प्रशंसित होता रहा लेकिन अपने ही देश में दर्शकों को तरसता रहा। जैसे ही यह आरोप लगने लगा कि कलात्मक सिनेमा भारत में असफल सिद्ध होता है, वैसे ही इसे कला सिनेमा के स्थान पर समानांतर सिनेमा कहा जाने लगा। चूंकि ऐसे आरोप हमारे सिस्टम को लचर घोषित करते हैं इसलिए संभव है कि कला सिनेमा को कला सिनेमा न कहने की सिफारिश या दबाव सिस्टमजनित ही रहा हो।

गुरुदत्त की प्यासा ने समाज के इस दोगले सोच का पर्दाफाश किया और फिल्म असफल रही। एक शायर और एक वेश्या को समाज की ऐसी औलाद के रूप में प्रस्तुत किया गया जिसे समाज अपना मानना नहीं चाहता, धिक्कारता है। इससे पहले भी बिमल राय, चेतन आनंद, केए अब्बास, वी शांताराम, सत्यजीत रे जैसे फिल्मकारों ने कुछ ऐसी फिल्मों का निर्माण किया था जिन्हें कला सिनेमा के बीज रूप में समझा जा सकता है। 80 के दशक के बाद कला सिनेमा के निर्माण में एक गतिरोध सा दिखायी देता है और फिल्मकार भी इस तथ्य से सामंजस्य बिठाते दिखते हैं कि वे मात्र कुछ पुरस्कारों या विदेशों में प्रदर्शन के लिए इस प्रकार के सिनेमा का निर्माण करते हैं, अपवाद अवश्य हैं।

इस संदर्भ में फिल्म या रब भी सिर्फ कुछ ही लोगों तक पहुंच पायी। एक बात स्पष्ट कर दूं कि अगर फिल्म की संरचनागत एवं शिल्पगत कलात्मकता का विश्लेषण किया जाये तो यह फिल्म कला सिनेमा की कड़ी में शुमार नहीं की जा सकती। इस दृष्टिकोण से फिल्म में अनेक ख़ामियां नज़र आती हैं। अर्थात, फिल्ममेकिंग के नज़रिये से यह कोई यादगार फिल्म नहीं है। फिर भी, इस फिल्म की चर्चा इसलिए ज़रूरी है क्योंकि यह फिल्म एक संवेदनशील मुद्दे पर सार्थक बहस करती है। आप इसके पक्ष या विपक्ष में हो सकते हैं लेकिन इस मुद्दे को छोड़ा नहीं जा सकता। मुद्दा है इस्लाम में प्रगतिशीलता का, आत्मघाती मानव बमों का, आतंकवाद से धर्म की संलिप्तता का और युवा नस्ल को धर्म के गलत सबक़ देकर गुमराह करने का। फिल्म के कुछ संवाद ऐसे पहलुओं पर एक सकारात्मक सोच का मार्ग प्रशस्त करते हैं।

वास्तव में, हसनैन हैदराबादवाला निर्देशित यह फिल्म उस अंदाज़ की फिल्म है, जो पाकिस्तान के फिल्मकार शोएब मंसूर ने अपनी दो फिल्मों ख़ुदा के लिए और बोल से क़ायम किया है। इन दोनों ही फिल्मों में इस्लाम को लेकर उन पहलुओं पर चर्चा की गयी है, जिन पर खुलकर बात करने में भी लोग डरते और कतराते हैं। क़ुरआन की कुछ पंक्तियों की ग़लत या अधूरी व्याख्या कर युवाओं को बरगलाया जाता है। ये मुद्दे भी इन दो फिल्मों में उठाये गये थे। संभवतः सिनेमा के माध्यम से इस्लाम में प्रगतिशीलता के विचार का सूत्रपात इतने मुखर तरीके से करने का यह पहला प्रयास था इसलिए पाकिस्तान में मंसूर की इन दोनों ही फिल्मों को उचित प्रतियसाद नहीं मिला, उल्टे विरोध प्रदर्शन हो गये। कमोबेश यह हमारे महाद्वीप की ही विडंबना है। महाद्वीप ही क्यूं, शायद पूरे विश्व में ही ऐसा होता है। हमारे वैश्विक समाज में पैगंबर का कार्टून बनाने वाले चित्रकार के खिलाफ क़त्ल का फ़तवा जारी करने के क़ायदे हैं लेकिन एक मज़हब की ग़लत व्याख्या कर उसको दुनिया के सामने मज़ाक बना देने वाले धर्म के तथाकथित ठेकेदारों के विरुद्ध एक स्वर तक नहीं फूटता ! अदालतें ख़ामोश रह जाती हैं !

शोएब मंसूर के अंदाज़ में बनायी गयी हसनैन की फिल्म या रब में एक संवाद है: हिंदू आतंकवाद, मुस्लिम दहशतगर्दी या क्रिश्चियन टैरेरिज़्म जैसे शब्द बेमानी हैं, कोई धर्म आतंकवाद का साथ नहीं देता बल्कि कुछ लोग अपने फ़ायदे के लिए ये गुनाह करते हैं। यह बात समझने की है कि धर्म, जाति, भाषा, वर्ग आदि के आधार पर आप मनुष्य की शराफ़त या चरित्र की पैमाइश नहीं कर सकते। ऐसे कुछ और सार्थक संवाद इस फिल्म को विशेष और सोच-विचार की वस्तु बनाते हैं। यह प्रश्न लंबे समय से बना हुआ था कि आतंकवाद में इस्लामी देशों की संलिप्तता पर मुस्लिम बुद्धिजीवी मुखर क्यों नहीं होते? वे इस्लाम की अनुचित धार्मिक व्याख्याओं के प्रचार का विरोध क्यों नहीं करते? मंसूर और हसनैन की फिल्मों को इसलिए भी सराहा जाना चाहिए क्योंकि उन्होंने अपनी फिल्मों के ज़रीये ऐसे प्रश्नों का सार्थक उत्तर डंके की चोट पर प्रस्तुत करने का बीड़ा उठाया।

अंततः यही लगता है कि अपने देश में अभी तो शिक्षा के नाम पर अक्षर ज्ञान कराने का ही काम चल रहा है, पता नहीं हम जागरूक कब तक हो पाएंगे? सरकारी आंकड़ों में नहीं, हक़ीक़त में। अक्षर ज्ञान, शिक्षा और जागरूकता के अर्थ अलग-अलग हैं, इन्हें समझने की ज़रूरत बनी हुई है। ठीक उसी तरह, जिस तरह आवश्यक फिलमें, कालजयी साहित्य, श्रेष्ठ कलाकृतियों के उचित मूल्यांकन की ज़रूरत बनी हुई है। जब हम जागरूक होंगे, शायद तब उचित मूल्यांकन भी हो सकेंगे।

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