सोमवार, जनवरी 22, 2018

नोट्स

निराला की प्रतिनिध काव्य रचनाएं: अध्ययन


वसंत पंचमी का अर्थ एक ज़माने से मेरे लिए निराला जयंती ही रहा है। तो, इस मौके पर आलेखनुमा यह अध्ययन एक बार फिर स्मरण हो रहा है। कॉलेज के दिनों में निराला और ‘राम की शक्ति पूजा’ के संबंध में जुटाये ये नोट्स, एक अभूतपूर्व कवि और कालजयी रचना को समझने में मदद कर सकते हैं।


Sooryakant Tripathi Nirala. image source: Google

1933 में जब ‘मतवाला’ का प्रकाशन हुआ, तब निराला ने उसके लिए दो पंक्तियां लिखीं -

“अमिय गरल शशि सीकर रविकर राग-विराग भरा प्याला
पीते हैं जो साधक उनका प्यारा है यह मतवाला।“

किन्तु, न ‘मतवाला’ इन पंक्तियों को सार्थक करता था, न हिन्दी का और कोई तत्कालीन पत्र। इन पंक्तियों के योग्य थी केवल निराला की कविता, जिसमें एक ओर राग-रंजित धरती है – “रंग गयी पग-पग धन्य धरा”, तो दूसरी ओर, विराग का अंधकारमय आकाश है – “है अमा निशा उगलता गगन घन अंधकार...”।

कवि जो कुछ लिखता है, उसे पहले कल्पना में ही देखता है, इसीलिए कल्पना को त्याग कर कविता रचना संभव नहीं, किन्तु एक कल्पना वह होती है जिसमें कवि यथार्थ जीवन को देखता है, औरों की तुलना में अधिक गहरायी से देखता है। दूसरी कल्पना वह होती है जो यथार्थ को धुंधला कर देती है, उस पर खूबसूरती का मुलम्मा चढ़ाती है। निराला की कल्पना इस धरती से दूर कोई मनोरम अपार्थिव लोक नहीं रचती। वह पृथ्वी की दृढ़ आकर्षण-शक्ति से बंधी हुई है -

“बुझे तृष्णाशा विषानल झरे भाषा अमृत निर्झर,
उमड़ प्राणों से गहनतर छा गगन लें अवनि के स्वर।“

इस धरती के सौंदर्य से निराला का मन बहुत दृढ़ता के साथ बंधा है। आकाश में उड़ने वाले रोमांटिक कवियों और धरती के कवि निराला में यही अन्तर प्रमुख है।

पृथ्वी का गुण है गन्ध। अपने सबसे परिष्कृत सुखद रूप में यह गन्ध फूलों के माध्यम से सुलभ होती है। जैसे कीट्स ने ‘नाइटिंगेल’ और शैली ने ‘स्काईलार्क’ पक्षियों को अमर कर दिया, वैसे ही जुही, बेला या नर्गिस का नाम लेते ही निराला का स्मरण हो जाता है। चांदनी रात, मलयानिल, उपवन, सर-सरित, गहन गिरि-कानन - इन सबके केंद्र में ‘जुही की कली’। गंगा के कगार, आकाश में नक्षत्र, चंद्रमा, विश्व का तारतम्य सघन - इन सब का केंद्र ‘नर्गिस’। धरती पर लू के झोंके, आकाश में जलता सूर्य, चारों ओर धूल, कवि का अशांत मन और इन सबके केंद्र में ‘वनबेला’। निराला को फूलों से ऐसा ही प्रेम था। प्रकृति के केंद्र में धरती की सुगंध।

निराला उल्लास और विषाद के ही कवि नहीं, संघर्ष और क्रांति के कवि भी हैं। प्रेमचंद और निराला का ऐतिहासिक महत्व यह है कि उन्होंने समझा कि भारतीय स्वधीनता आंदोलन की धुरी है – ‘किसान क्रांति’। साम्राज्यवाद के मुख्य समर्थक सामन्तों के खिलाफ ज़मीन पर अधिकार करने के लिए किसानों का संघर्ष।

अनेक छायावादी कवियों के गंभीर लेखन के विपरीत निराला की रचनाओं में हास्य और व्यंग्य की मात्रा काफी है। इस तरह की रचनाओं में ‘कुकुरमुत्ता’ का स्थान अन्यतम है। छायावाद के विरोधियों, जनता को धोखा देने वाले राजनीतिज्ञों, देश की प्रगति रोकने वाले तरह-तरह के निहित स्वार्थों पर निराला व्यंग्य करते ही थे। किन्तु, ‘कुकुरमुत्ता’ जैसी रचनाओं में वह कुछ छायावादी मान्यताओं पर भी व्यंग्य करते हैं जो उन्हें प्रिय थीं, यद्यपि उन्हें संशय की निगाह से वह पहले भी देखते थे। ‘कुकुरमुत्ता’ ब्रह्म के समान अनेक रूप धारण करता है। वही विष्णु का सुदर्शन चक्र है, यशोदा की मथानी है, सुबह का सूरज और शाम का चांद है। भास-कालिदास ने उसमें गोते लगाये हैं और हाफ़िज़, रबींद्रनाथ किनारे खड़े देखते रहते हैं। ‘कुकुरमुत्ता’ अगर ब्रह्म के समान व्यापक न होगा तो उसमें कोई गोते कैसे लगाएगा? उसके किनारे खड़े होकर टुकुर-टुकुर ताकेगा कैसे? ‘कुकुरमुत्ता’ में प्रच्छन्न व्यंग्य स्वयं निराला की ब्रह्म संबंधी विचारधारा पर आश्रित है।

ब्रह्म और माया वाले सिद्धांत के प्रति निराला के मन में संशय बहुत पहले से था। इस संशय की श्रेष्ठ अभिव्यक्ति उनकी ‘अधिवास’ कविता में है। “कौन तम के पार, रे कह” - इस तरह के गीतों में सच्चिदानंद ब्रह्म का पक्ष छोड़कर अंधकार, शून्य या प्रकृति को एकमात्र सत्य मानकर निराला उससे संसार और मनुष्य का संबंध जोड़ते हैं। अधिकांश प्रकाश-प्रेमी छायावादी कवियों की तुलना में निराला की रचनाओं में प्रकाश से अधिक अंधकार है। ‘राम की शक्तिपूजा’ उनकी सबसे ओजपूर्ण रचना है और उसमें अंधकार भी अन्य कविताओं की अपेक्षा अधिक है।

‘राम की शक्तिपूजा’, जैसे उदात्त काव्य और ‘कुकुरमुत्ता’ जैसी व्यंग्य-हास्य रस की रचना में आकाश-पाताल जैसा अन्तर है, फिर भी इनकी एक सामान्य विचारभूमि है। राम के मन में जो संशय है – “स्थिर राघवेन्द्र को हिला रहा फिर फिर संशय” - इस संशय का संबंध कहीं उस संशय से भी है जिसे निराला ने ‘अधिवास’ में प्रकट किया था। राम ब्रह्म हैं, माया ब्रह्म की शक्ति है, वेदान्ती का लक्ष्य माया का आवरण पार करके ब्रह्म तक पहुंचना होता है, ब्रह्म शक्ति की पूजा क्यों करें? यदि मान लें कि राम मनुष्य हैं या मानव चरित कर रहे हैं तब प्रश्न होगा कि मनुष्य ब्रह्म की पूजा न करके माया की पूजा क्यों करता है? इस प्रश्न का उत्तर स्वयं निराला के इस प्रश्न से मिलेगा – “कौन तम के पार, रे कह...”। इसलिए रावण से युद्ध में पराजित होकर संशयचित्त राम शक्ति की साधना करते हैं।

कालिदास और रबींद्रनाथ के काव्य संसार में मन को लुभाने वाली रंगीली है, उसमें करुणा की नीलिमा भी है किन्तु निराला के काव्य-लोक का अंधकार उसमें नहीं है। उस अंधकार से परिचित हैं भवभूति और शेक्सपियर। कालिदास, रबींद्रनाथ की काव्य परंपरा और भवभूति-निराला की काव्य परंपरा में यही मौलिक अंतर है।

‘कुकुरमुत्ता’ के प्रारंभिक वर्णनात्मक अंश के बाद – “अबे सुन बे गुलाब” से ‘कुकुरमुत्ता’ का भाषण आरंभ होता है। गुलाब को रूमानी कविता का प्रतीक मानकर निराला की तर्क श्रंखला की परिणति वहां होती है जहां कुकुरमुत्ता कहता है -

“ख़्वाब में डूबा चमकता हो सितारा
पेट में डण्ड पेलते चूहे, ज़बां पर लफ़्ज़ प्यारा”

तर्क की दूसरी श्रंखला में बिम्बों की प्रधानता है जिनके द्वारा ब्रह्म के समान ‘कुकुरमुत्ता’ अपनी विराट सर्वव्यापी सत्ता की घोषणा करता है। निराला वक्तृत्वकला का उपयोग हास्य-व्यंग्य के लिए, वीर भावना जगाने के लिए, परस्पर विरोधी लगने वाले उद्देश्यों की सिद्धि के लिए कर सकते हैं। हिंदी में यह कला अन्यत्र दुर्लभ है। ‘पेशोला की प्रतिध्वनि’ जैसी रचनाओं में प्रसाद का वार्णिक मुक्तछंद निराला के अनुकरण पर लिखा गया है, वक्तृत्वकला भी निराला से प्रेरित है।

निराला के भावतत्व को उनकी मेधा पूर्व निश्चित सीमाओं में बांधे रहती है। मेधा उनकी भावभक्ति से पराभूत नहीं होती। पूरी कविता में सुघर स्थापत्य का सौंदर्य - जिसके तीन श्रेष्ठ उदाहरण हैं – ‘तुलसीदास’, ‘सरोज-स्मृति’ और ‘राम की शक्ति-पूजा’।

शेक्सपियर के नाटकों की तरह एक है बाह्य संघर्ष, दूसरा मुख्य पात्र का आंतरिक संघर्ष। कला दोनों की अविच्छिन्न एकता प्रदर्शित करने में है। ‘तुलसीदास’ रीतिवादी श्रंगारपरक संस्कृति से संघर्ष करते हैं किंतु इस संस्कृति के अनुकूल संस्कार उनके अपने मन में हैं -

“बंध के बिना, कह, कहां प्रगति?
गतिहीन जीव को कहां सुरति?
रति-रहित कहां सुख? केवल क्षति-केवल क्षति!”

इस तर्क योजना से उन्हें मुक्त कराती है रत्नावली।

‘सरोज-स्मृति’ में ऐसी मुक्ति कवि के लिए संभव नहीं है। निराला के मन का द्वंद्व श्रंगार और वैराग्य को लेकर नहीं, जीवन संघर्ष की सफलता और असफलता को लेकर है -

“कन्ये मैं पिता निरर्थक था
कुछ भी तेरे हित न कर सका।“

बहुत सीधे-सादे ढंग से निराला ने अपने मन की ग्लानि व्यक्त की है। इस ग्लानि के आगे उन्होंने आत्मसमर्पण कर दिया हो, तो उसे मानसिक द्वंद्व की संज्ञा देना गलत होगा। निराला के मन में एक ओर तीव्र ग्लानि है, दूसरी ओर अपनी साहित्यिक सिद्धि में प्रबल विश्वास भी है। “मैं कवि हूं, पाया है प्रकाश” आदि कविता की आरंभिक पंक्तियों में उन्होंने यह विश्वास प्रकट किया है। ग्लानि और इस विश्वास में द्वंद्व है।

शोक-गीत हिंदी में तो कम ही लिखे गये हैं। यूरोपीय भाषाओं में ऐसा शायद ही कोई प्रभावशील गीत हो जिसे कवि-पिता ने अपनी पुत्री के निधन पर लिखा हो। मित्र या प्रियतमा पर लिखे हुए शोक-गीतों में कवियों ने प्राकृतिक सौंदर्य के चित्रण से, पौराणिक गाथाओं की वनदेवियों के अवतरण से अपनी अभिव्यंजना को अलंकृत किया है। निराला की इस रचना में इस तरह के अलंकरण का अभाव है। इसके विपरीत रूढ़िवादी समाज के चित्रण में निराला का एक विक्षुब्ध अट्टहास है, शेक्सपियर के महानाटकों में गंभीर भावाभिव्यक्ति के साथ हास्य और व्यंग्य के मिश्रण की तरह।

यूरोपीय गीतों की परंपरा है कि अन्त में कवि के दुख को हल्का दिखाकर आशा का संदेश सुना दिया जाये। ‘तुलसीदास’ को ज्ञान प्राप्त हो जाता है और आकाश में प्रभात किरण फूट पड़ती है। ‘राम की शक्तिपूजा’ में एक कमल का फूल चोरी जाने से विघ्न पड़ता है किन्तु राजीवलोचन राम कमल की जगह अपने नेत्र निकालकर रखने को होते हैं कि दुर्गा उनका हाथ पकड़ लेती हं। शक्ति पूजा सफल होती है, शक्ति राम में प्रवेश करती हैं। किंतु, पुत्री से वियुक्त पिता को न ‘तुलसीदास’ का ज्ञान धैर्य बंधा सकता है, न ‘राम की शक्ति पूजा’। निराला को अपना वह समस्त कवि जीवन व्यर्थ लगता है, जिसकी परिणति है सरोज का निधन।

निराला ने गतकर्म सरोज को अर्पित कर दिये, फिर नया कर्म आरंभ किया। उन्होंने ‘राम की शक्ति पूजा’ लिखी। ‘सरोज-स्मृति’ में निराला का आधा दुख सरोज की मृत्यु के कारण है, आधा उनके अपने संघर्षों के कारण। उन्होंने जो लिखा था -

“दुख ही जीवन की कथा रही
क्या कहूं आज, जो नहीं कही!”

वह दुख की कथा सरोज के जन्म से पूर्व शुरू हुई थी और सरोज की मृत्यु के बाद तक चलती रही। उसी की एक कड़ी है ‘राम की शक्ति पूजा’।

आत्मग्लानि का स्वर यहां भी है – “धिक् जीवन को जो पाता ही आया विरोध”। निराला के राम तुलसी के राम से भिन्न और भवभूति के राम के निकट हैं – “धिक् माम् अध्यत्मः”, भवभूति के राम कहते हैं। आत्मग्लानि का स्वर तो है लेकिन संघर्ष मानो और भी तीव्र हो उठा है।

राम पराजित हैं। राम के मन में ग्लानि है किंतु राम के एक मन और है जो पराजित होना नहीं जानता -

“वह रहा एक मन और राम का जो न थका...”

‘राम की शक्तिपूजा’ से पहले निराला ने अपने इस दूसरे मन को न पहचाना था। ‘तुलसीदास’ का एक ही मन है, जो पुराने संस्कारों पर मुग्ध होता है, उनसे लड़ता है। ‘सरोज-स्मृति’ के निराला का एक ही मन है जो गर्व करता है कि ज्योतिस्तरणा के चरणों में रहकर उसने प्रकाश देखा है, स्वयं को निरर्थक पिता होने के लिए धिक्कारता है और अंत में अपने गतकर्मों से क्नया का तर्पण करता है। किंतु ‘राम की शक्ति पूजा’ में राम के दो मन हैं। संघर्ष और तीव्र हो गया है। वेदना की किरणों ने वज्रकठोर अन्तर को बीच से तोड़कर उस के दो हिस्से कर दिये हैं। अबसे निराला का मन ग्लानि, पराजय और विक्षेप के नाटक देखेगा जो दूसरे मन को आंदोलित करेंगे किंतु – “वह रहा एक मन और राम का जो न थका” - वह अथक, अपराजेय, अविचलित मन इस ग्लानि, पराजय और विक्षेप के सम्मुख सदा उठा रहेगा - साक्षीरूप दृष्टा के समान।

‘तुलसीदास’ और ‘सरोज-स्मृति’ का छंद मूलतः एक है -

“बंध के बिना, कह, कहां प्रगति?
गति हीन जीव की कहां सुरति?”
या
“देखता रहा मैं खड़ा अपल
वह शरक्षेप, वह रण-कौशल.”

‘राम की शक्तिपूजा’ में निराला जो स्वर सुनते हैं, वह इस लघु संयत छंद की सीमाएं तोड़ देता है। उसी के अनुरूप ज्योति के पत्र पर लिखे हुए चित्र हैं: राम, रावण, अंगद, विभीषण आदि के चित्र। इन चित्रों की पृष्ठभूमि में इतना गहन अंधकार है कि फलक की ज्योति सब ढंक गयी है। राम रावण का यह अपराजेय समर लिखा तो गया है ज्योति के पत्र पर किंतु अक्षर सब अमावस के अंधेरे के हैं। अंधकार उगलता हुआ आकाश, सिंह के समान गरजता सागर, रावण का अदृश्य खलखल अट्टहास - ये बिंब हैं जिनमें ‘सरोज- स्मृति’ की वेदना परिवर्तित और घनीभूत हो गयी है। ‘राम की शक्तिपूजा’ में निराला की आंखें भीतर एक नये लोक में खुल गयी हैं, जहां संसार के छायाचित्र ही दिखायी देते हैं। वह अपनी फैंटेसी की दुनिया में पहुंच गये हैं जहां संसार का दुख दर्द निचुड़कर सूक्ष्म सघन बिंबों के रूप में दिखायी देता है।

‘राम की शक्तिपूजा’ में दो कविताओं का सारतत्व है: ‘तुलसीदास’ और ‘सरोज- स्मृति’ और इनके अलावा उसमें नयी सामग्री है: एक पराजित मन और दूसरी, अपराजित मन के अस्तित्व की सघन अनुभूति।

मिल्टन और दांते के महाकाव्यों में जो गरिमा नरक के वर्णन में है, वह स्वर्ग के चित्रण में नहीं, निराला के इस महाकाव्यात्मक खंड में जो गरिमा राम की ग्लानि, उनकी पराजय, महावीर के अंतरिक्ष-अभियान के चित्रण में है, वह पूजा के चित्रण में नहीं। निराला साधक हैं, पूजक नहीं। रणभूमि में शत्रु से जूझते हुए ही साधना संभव है।

‘राम की शक्तिपूजा’ से, 1936 में निराला काव्य साधना का पहला चरण समाप्त होता है। ‘नये पत्ते’ की रचनाओं से 1946 में दूसरा चरण और शेष रचनाएं 1961 तक तीसरे चरण की हैं। निराला के समकालीन और उत्तरकालीन कवियों में विचारधारा की जैसी अस्थिरता, भावबोध की जैसी चंचलता दिखायी देती है, वैसी निराला में नहीं है। पहले चरण में उदात्तता, ओजपूर्ण एवं अलंकृत, दूसरे में संघर्ष प्रधान, विषादमय, उल्लासपूर्ण रचनाएं व ग़ज़लें और तीसरे चरण में मृत्यु एवं विक्षोभ की रचनाएं विशेष हैं।

(नोट: ये नोट्स हिंदी के विख्यात आलोचकों की पुस्तकों एवं लेखों के अंशरूप हैं।)

शनिवार, जनवरी 20, 2018

कला

सिनेमा और साहित्य - किश्त छह


17 जनवरी : कमाल अमरोही की जयंती और 18 जनवरी : मंटो की पुण्यतिथि पर विशेष

मंटो और कमाल अमरोही में समानता का कोई बिंदु तलाशना बड़ी टेढ़ी खीर है। एक तरफ, मंटो ख़ुद किसी दिलचस्प और मानीख़ेज़ अफ़साने से कम नहीं है, जिसके बारे में इतने क़िस्से कहे-सुने जाते हैं, जितने शायद ख़ुद उसने भी नहीं कहे-सुने होंगे। दूसरी तरफ, कमाल अमरोही हैं जिनकी चार फिल्में और मीना कुमारी के साथ उनका रिश्ता ही जैसे उनकी पूरी शख़्सियत का तर्जुमा है।


मंटो मूल रूप से पहले लेखक है और फिल्मी कलाकार बाद में। या यूं कहूं कि फिल्मी लेखन मंटो की बहुत बड़ी कहानी का एक छोटा सा चैप्टर है। बम्बई क्यूं आये, कैसे रहे और क्यूं गये, मंटो के बारे में ये तमाम जानकारियां जुटाना कोई मुश्किल काम नहीं है। ख़ास बात यह है कि फिल्मों के लिए उनका योगदान क्या रहा। मुख्य रूप से चार फिल्में लिखीं मंटो ने - 'आठ दिन', 'शिकारी', 'चल चल रे नौजवान' और 'मिर्ज़ा ग़ालिब'। 'मिर्ज़ा ग़ालिब' के लेखन के लिए मंटो सिनेमा और सिनेप्रेमियों के लिए हमेशा शुक्रगुज़ार रहेगा।

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लेकिन क्या मंटो का फिल्मों से जुड़ाव इतना ही समझा जाना चाहिए? नहीं, कहानी और भी है। रेडियो से मन उचटने के बाद फिल्मी दुनिया पहुंचा यह लेखक फिल्मों के साथ-साथ साहित्य लेखन में मुब्तला रहा। 'मिर्ज़ा ग़ालिब' मंटो ने बहुत पहले लिख दी थी, 1948 में पाकिस्तान चले जाने से पहले। हालांकि रिलीज़ वह बाद में 1954 में हुई। इसी तरह मंटो के 1955 में यह दुनिया छोड़ जाने के बाद आज तक मंटो से फिल्में अपना दामन नहीं छुड़ा सकीं।

मंटो की क़िस्सागोई की ज़बरदस्त मुरीद नंदिता दास मंटो के लेखकीय दृष्टिकोण और जीवन को केंद्र में रखते हुए एक फिल्म का निर्माण कर रही हैं। इस फिल्म में मंटो के आत्मकथ्य वाला दृश्य देखने, सुनने और याद रखने लायक़ बन पड़ा है। राहत काज़मी 'मंटोस्तान' नाम से फिल्म बना चुके हैं। श्रीवास नायडू भी मंटो से जुडी एक फिल्म बना रहे हैं। इरफ़ान खान स्टारर 'काली शलवार' नामक फिल्म नब्बे के दशक में बन चुकी है जो मंटो की इसी शीर्षक की कहानी पर आधारित है।

"एक लेखक क़लम तभी उठाता है, जब उसकी संवेदनशीलता पर चोट पहुंचती है... जो सासायटी पहले से ही नंगी है, मैं उसकी चोली क्या उतारूंगा। उसे कपड़े पहनाना मेरा काम नहीं है... अगर आप मेरे अफ़साने बर्दाश्त नहीं कर सकते तो समझ लीजिए कि ये ज़माना ही नाकाबिले-बर्दाश्त है... मैं बनाव-सिंगार नहीं करता, किसी की ज़लालत पर इस्त्री नहीं करता। मैं आईना दिखाता हूं और अगर किसी बुरी सूरत वाले को आईने से ही शिकायत है तो मैं क्या करूं..."

ये मंटो के बयान रहे हैं जिन्हें नंदिता जी ने अपनी फिल्म में बख़ूबी फ़िल्माया है। अस्ल में, मंटो पर छह बार अश्लीलता के जो आरोप लगे और मुकद्दमे चले, उनके बाबत मंटो के बयान भी ख़ासे चर्चा में रहे। मंटो किसी अभिजात्य वर्ग का लेखक नहीं रहा। कभी प्रगतिशीलों से नहीं बनी तो कभी साहित्य के ठेकेदारों के ख़िलाफ़ हुआ। हालांकि मंटो का मानना था कि हर आदमी को प्रगतिशील होना चाहिए। इसके मायने ज़रा एहतियात से समझने होंगे और इन्हें तमाम आडंबरों और पाखंडों और सीमाओं के परे जाकर समझना चाहिए।

उर्दू के जाने-माने लेखक पद्मश्री से सम्मानित काज़ी अब्दुल सत्तार तक की नज़र में हिंदोस्तानी में कहानीकार तो बस दो ही हुए हैं एक प्रेमचंद और दूसरे मंटो। सत्तार का यह कथन भी बारीक़बीनी की डिमांड करता है। वास्तव में, इन दोनों ही कथाकारों ने समाज के सर्वाधिक उपेक्षित एवं पीड़ित एवं तिरस्कृत वर्ग के लिए लेखनी का धर्म निभाया है। ग़ालिब मेमोरियल हॉल में एक बैनर पर एक पश्चिमी लेखक के नाम से हवाले से लिखा है कि अगर ग़ालिब में पश्चिम में पैदा हुए होते तो उन्हें शेक्सपियर का दर्जा प्राप्त होता। सत्तार भी मानते हैं कि प्रेमचंद और मंटो अगर यूरोप में पैदा हुए होते तो आफ़ाक़ी मक़बूलियत यानी वैश्विक ख्याति हासिल कर सकते थे। इसे हमें भारत या भारतीय उपमहाद्वीप का दुर्भाग्य ही समझना चाहिए।

ख़ैर, अब बात कमाल अमरोही की। 'महल', 'दायरा', 'पाक़ीज़ा' और 'रज़िया सुल्तान' इन चार फिल्मों के निर्देशक के रूप में और 'मुग़ल-ए-आज़म' के संवाद लेखकों में से एक के रूप में कमाल साहब का कमाल यादगार रहा है। यूं उन्होंने और दर्जन भर फिल्मों के लिए लेखन किया है लेकिन उनकी पहचान यही पांच फिल्में हैं। सोहराब मोदी से 1940 के दशक से कुछ पहले से जुड़ने के करीब 10 साल बाद उनके निर्देशन में पहली फिल्म आयी 'महल', जो आज तक एक ट्रेंडसेटिंग फिल्म मानी जाती है।

पहली बार सिनेमा में ऐसा हुआ था कि पुनर्जन्म पर आधारित कोई कहानी इतने बड़े स्केल की फिल्म में परदे पर उतरी। एक से एक नायाब गीतों और संवादों से सजी इस फिल्म ने कमाल साहब के लेखकीय और निर्देशकीय कमाल को पूरी तरह सिद्ध कर दिया। बक़ौल ख़ुद कमाल साहब वो ख़ुद एक शायर थे और फिल्मों के लिए एक ऐसी कल्पनाशील कहानी या सब्जेक्ट को तरजीह देते थे जिसमें उनके फ़न और हुनर को तवज्जो ज़्यादा मिल सके।

'दायरा' कामयाब नहीं हुई लेकिन एक दशक से ज़्यादा के समय में बन पायी 'पाक़ीज़ा' उनका शाहकार है। फिर 'रज़िया सुल्तान' उनके निर्देशक की आख़िरी फिल्म रही जो कामयाब और यादगार मानी जा सकती है। अपनी सारी ही फिल्मों में उनके केंद्र में अधूरा प्रेम है, प्रेम की असफलता है, दर्द है या प्रेम का संघर्ष है। कहीं समाज, कहीं हालात, कहीं सियासत और कहीं किस्मत इश्क़ की मंज़िल के आड़े आते हैं। इन कहानियों में जैसे कमाल साहब अपनी ज़िंदगी के मुख़्तलिफ़ पहलुओं को ही टटोलते रहे।

यह कमाल साहब का जन्म शताब्दी वर्ष है लेकिन सिनेप्रेमियों और सिने आलोचकों और सिनेमाई दुनिया ने जैसे उन्हें भुला दिया। सिद्धार्थ भाटिया लिखते हैं -

"इस क्रांतिकारी फिल्मकार का नाम जैसे भूला जा चुका है। पाक़ीज़ा के हवाले से कभी-कभी उन्हें याद किया जाता है लेकिन आम तौर से, सिने इतिहासकार, गुरुदत्त, राज कपूर के प्रति विशेष लगाव रखते हैं और कभी-कभी बिमल रॉय और मेहबूब खान को भी याद कर लेते हैं लेकिन कमाल अमरोही की अनदेखी करते हैं। सच यही है कि हिंदी सिनेमा के इतिहास में अमरोही को हाशिये पर धकेल दिया गया है।"

कमाल साहब पर यह इल्ज़ाम लगता रहा कि वे अपनी फिल्मों के संवादों में कठिन उर्दू या फ़ारसी बहुल उर्दू का इस्तेमाल करते रहे। इस बारे में ख़ुद कमाल साहब ने क़ब्बन मिर्ज़ा के साथ हुई एक वार्ता में कहा था कि उन्होंने बहुत एहतियात बरता और कोशिश करते हुए वह आसान उर्दू शब्द तलाशते थे लेकिन जब किसी लफ़्ज़ के लिए कोई आसान विकल्प नहीं मिलता था तो मजबूरी में उन्हें ऐसे लफ़्ज़ चुनने पड़ते थे। इस वार्ता में उन्होंने उर्दू को भारत की अपनी ज़बान बताते हुए उसे ब्रज भाषा, खड़ी बोली या रेख़्ता की सहोदर निरूपित किया था बजाय फ़ारस से आयी किसी ज़बान के।

बहरहाल, कमाल साहब को भुलाया जाना मुनासिब नहीं है और मंटो को भूल जाना मुमक़िन नहीं है। कमाल साहब और मंटो में दर्द और एहसास की गहराई की किसी सत्ह पर कोई समानता हम निकाल ही सकते हैं लेकिन मेरी नज़र में दोनों में सबसे बड़ा फर्क यह है कि मैं मंटो को मंटो कह सकता हूं, मंटो के लिए बेतक़ल्लुफ़ अल्फ़ाज़ चुन सकता हूं लेकिन कमाल अमरोही के लिए साहब कहना पड़ता है और उनके साथ ज़रा तक़ल्लुफ़ से बात करनी पड़ती है। यही फर्क बड़े मायनों में दोनों के लेखन और फ़न्नी मेआर के अंतर के तौर पर समझा सकता है।

संबंधित लिंक :
सिनेमा और साहित्य - किश्त चार
सिनेमा और साहित्य - किश्त तीन
रोज़ ज़िंदा हो जाता है, रोज़ मर जाता है मंटो
सिनेमा और साहित्य - किश्त दो
सिनेमा और साहित्य - किश्त एक

बुधवार, जनवरी 17, 2018

कला

सिनेमा और साहित्य - किश्त पांच


14 जनवरी: कैफ़ी आज़मी की जयंती पर विशेष

हिंदी सिनेमा के संगीत का स्वर्ण युग 1940 के दशक के मध्य से 1960 के पूरे दशक तक मानना सही है। इस समय बेहतरीन कलाकारों ने उत्कृष्ट हुनर से फिल्मी गीतों की दुनिया में न केवल अमिट छाप छोड़ी बल्कि सिनेमा की सांगीतिक पहचान में अविस्मरणीय योगदान दिया। जहां नौशाद जैसे संगीतकार ख़ुमार बाराबांकवी, शकील बदायूंनी जैसे शायरों को फिल्मों से जोड़ रहे थे, वहीं गुरुदत्त, बिमल राय, ऋषिकेश मुखर्जी, राज कपूर जैसे फिल्मकार साहित्यकारों को सिनेमा में योगदान देने के लिए बढ़ावा दे रहे थे।


40 के दशक में ही कम्युनिस्ट विचार भारत में प्रबल हो रहा था और कई शायर व अदीब इससे जुड़ रहे थे। इस तहरीक़ की ख़िदमत के लिए आगे आ रहे थे। सज्जाद ज़हीर और अली सरदार जाफ़री का नाम इस तहरीक़ में बड़े सम्मान के साथ लिया जाता था। उस समय कैफ़ी आज़मी ने ख़ुद को कम्युनिस्ट कार्यकर्ता के रूप में समर्पित कर देने का फ़ैसला लिया। कुछ ही समय में इस समर्पण का अंजाम यह हुआ कि उनकी आर्थिक स्थिति इस लायक़ नहीं रही कि वे अपने परिवार के दायित्वों को अंजाम दे सकें। उनकी पत्नी शौक़त आज़मी ने ऐसे में थिएटर में काम करने की शुरुआत की। इसी समय में, शाहिद लतीफ़ ने कैफ़ी साहब को अपनी फिल्म बुज़दिल में दो गाने लिखने का मौक़ा दिया। यहां से शुरू हुआ कैफ़ी आज़मी का फिल्मी सफ़र।

Kaifi Azmi. image source : Google

बुज़दिल फिल्म तो कुछ कमाल न कर सकी अलबत्ता, कैफ़ी साहब के गीतों ने एक सुगबुगाहट ज़रूर पैदा की। फिर, 50 के दशक में यहूदी की बेटी, प्रवीण, ईद का चांद और मिस पंजाबमेल जैसी फिल्मों के लिए कैफ़ी साहब ने लेखन किया लेकिन कामयाबी उनसे दूर-दूर ही रही। हिंदी फिल्मों में कैफ़ी साहब को बड़ा और यादगार मौक़ा तब मिला जब गुरुदत्त के साथ उनका नाम जुड़ा। अस्ल में, संगीतकार एसडी बर्मन के साथ साहिर साहब का कुछ मनमुटाव हो जाने के कारण साहिर गुरुदत्त की फिल्म काग़ज़ के फूल से अलग हो गये थे जो पहले प्यासा में गुरुदत्त के साथ बेहद सार्थक फिल्म कर चुके थे। इस घटनाक्रम के कारण कैफ़ी साहब के गीत - वक़्त ने किया क्या हंसी सितम - लिखा। और, इस गीत की अमरता का सबूत हर संगीत प्रेमी की याद है।

बावजूद संगीत की ज़बरदस्त कामयाबी के काग़ज़ के फूल फिल्म बुरी तरह नाकाम रही जो गुरुदत्त के लिए सदमा भी साबित हुई। लेकिन, यहां से कामयाबी कैफ़ी साहब के नज़दीक आने वाली थी। कुछ ही समय में, चेतन आनंद ने जब उन्हें हक़ीक़त के लिए साथ लिया तो कई तरह की बातें हुईं। बक़ौल ख़ुद कैफ़ी साहब -

काग़ज़ के फूल के बाद लोग कहने लगे थे कि कैफ़ी गीतकार तो अच्छे हैं लेकिन मनहूस हैं। इनके सितारे ख़राब हैं। चेतन आनंद से भी कहा गया कि आप कैफ़ी को क्यूं ले रहे हैं तो चेतन आनंद ने कहा कि मेरे भी सितारे कुछ ठीक नहीं चल रहे इसलिए सोचता हूं कि ख़राब सितारों से जूझ रहे दो फ़नकार साथ मिलकर शायद कुछ बेहतर कर सकें।

और फिर, हक़ीक़त की हक़ीक़त सामने आ गयी। एक से एक बेहतरीन और यादगार नग़मों से सजी इस फिल्म ने कैफ़ी साहब को मज़बूती से स्थापित किया। इसके बाद कैफ़ी साहब ने फिल्मी गीतों की दुनिया में न केवल अपना नाम अमर किया बल्कि बेशक़ीमती इज़ाफ़ा भी किया। साहिर, शकील, शैलेंद्र, मजरूह और हसरत जैसे गीतकारों के बीच कैफ़ी साहब ने अपने गीतों की एक अलग पहचान बनायी।

कुछ विद्वान मानते हैं कि कैफ़ी साहब ने संगठन की प्रतिबद्धता वाली शायरी और फिल्मी गीतों की रचना को बिल्कुल अलग रखा। दोनों का मिश्रण नहीं किया। इस बात से एक हद तक सहमत हुआ जा सकता है लेकिन कुछेक मौक़ों पर इससे असहमति ज़रूरी है। जिसका ज़िक्र किया जा चुका है, काग़ज़ के फूल के गीत पर ही बारीक़ी से नज़र डाली जाये तो यह आज़ादी के बाद भारत के टूटते ख़्वाबों या उस समय बन चुकी एक रंजीदा हालत का बयान पेश करता है। कहीं न कहीं इस गीत की परतों में कुछ इशारे हैं जो इस दर्द और ख़लिश को आवाज़ दे रहे हैं।

हक़ीक़त के गीतों की बात हो या नौनिहाल में जवाहरलाल नेहरू की मृत्यु पर लिखा गीत हो, कई बार कैफ़ी साहब ने अपने विचार को अपने गीतों में अभिव्यक्त किया। यह ज़रूर कहना होगा कि कैफ़ी साहब ने फिल्मी गीतों की भाषा पर ज़बरदस्त एहतियात से काम किया और उनकी शायरी की भाषा से इन गीतों की भाषा इतनी अलग है कि कोई शख़्स यह निशानदेही नहीं कर सकता कि यह एक ही शायर का कारनामा है। फिल्मी गीतों के लिए उन्होंने एक बिल्कुल आमफ़हम और सादा ज़बना का सहारा लिया है जिसमें जटिलता न के बराबर है और जिसमें रूपकों या प्रतीकों का उलझाव भी लगभग नहीं है। बावजूद इसके उनके लिखे फिल्मी गीत एहसास की सच्चाई, संवेदनशीलता और मार्मिकता जैसे गुणों से सराबोर होने के कारण न केवल श्रोताओं के दिल में उतरते हैं बल्कि एक अदबी मक़ाम भी रखते हैं।

कैफ़ी साहब के फिल्मी गीतों में समाजवादी, राष्ट्रवादी और सामाजिक यथार्थवादी विचार के सूत्र पोशीदा हैं। उनके फिल्मों में योगदान की कहानी को दो फिल्मों के ज़िक्र के बिना मुकम्मल नहीं कहा जा सकता। एक है हीर-रांझा। हक़ीक़त के निर्माण के समय चेतन आनंद ने इस फिल्म का विचार कैफ़ी साहब से साझा किया था। पूरी फिल्म के संवाद मीटर यानी छंद में लिखे गये हैं। अस्ल में, इसके लिए पहले कुछ शायरों को चेतन साहब ने जोड़ना चाहा था लेकिन वे ऐसा कर नहीं सके। बक़ौल ख़ुद कैफ़ी साहब, उन्होंने एक चैलेंज के रूप में इस फिल्म का लेखन किया। शबाना जी इस फिल्म के लेखन और शायरी को अंडररेटेड करार देती हैं, हालांकि इस पर काफ़ी चर्चा हो चुकी है और इसे नवाज़ा भी जा चुका है।

मेरी नज़र में, वैचारिक दृष्टि से कैफ़ी साहब के लेखन का शाहकार है एमएस सत्यु निर्देशित फिल्म गर्म हवा। अगर मैंने कभी कोई ऐसी सूची बनायी जिसमें ऐसी फिल्मों को शामिल किया जाये जिन्हें ज़रूर देखा जाना चाहिए तो गर्म हवा यक़ीनन उसमें शामिल होगी। इस्मत आपा की एक अप्रकाशित कहानी पर यह फिल्म आधारित थी जिसे कैफ़ी साहब ने शमां ज़ैदी जी के साथ मिलकर लिखा और कैफ़ी साहब ने इस फिल्म के लिए शायरी का सृजन किया। विभाजन की पृष्ठभूमि पर आधारित इस फिल्म में सामाजिक यथार्थवाद के साथ ही राष्ट्रवाद और उस पर सांप्रदायिक छाया के जो मानीख़ेज़ दृश्य चित्रित हुए हैं, यादगार हैं।

उस्ताद बहादुर खान के संगीत में वारसी बंधुओं द्वारा गायी गयी वह कव्वाली हो या फिल्म के आख़िर में बैकग्राउंड से गूंजते ग़ज़ल के दो शेर हों -

यूं दूर से तूफ़ान का करते हैं नज़ारा
उनके लिए तूफ़ान वहां भी है यहां भी
धारे में जो मिल जाओगे बन जाओगे धारा
ये वक़्त का ऐलान वहां भी है यहां भी।

गर्म हवा में वास्तव में, सत्यु ने इप्टा से जुड़े कलाकारों के साथ काम किया जिनमें कैफ़ी साहब भी शुमार थे और उनकी पत्नी शौक़त साहिबा भी, बलराज साहनी साहब भी और नवोदित फारुख़ शेख़ भी। यह प्रमुख कारण था कि यह फिल्म एक बुलंद आवाज़ बन सकी, जिसकी गूंज आने वाले समय में भी सुनायी देती रहेगी। इप्टा से कैफ़ी साहब का जुड़ाव कम्युनिस्ट होने के नाते लगातार बना रहा। इप्टा के 50 साल पूरे होने पर कैफ़ी साहब के प्रयासों से ही इप्टा पर केंद्रित डाक टिकट जारी हुआ था।

सरदार जाफ़री साहब ने कैफ़ी साहब की शायरी से इब्ने-मर्यम नज़्म का हवाला देते हुए कहा है कि कैफ़ी साहब जो अपने वक़्त की इमेजरी लेकर आये हैं, वह उनकी अपनी है और शायरी में उनकी तरफ़ से यह इज़ाफ़ा है। फिल्मी गीतों के सिलसिले में मैं अर्ज़ करना चाहता हूं कि अपनी वैचारिकता और इंसानी नज़रिये की हिमायत करती संवेदनशील शायरी को फिल्मों के लिहाज़ से जो सरलता और इमेजरी कैफ़ी साहब ने दी है, वह फिल्मी गीतों की विरासत में इज़ाफ़ा है।

सईद अख़्तर मिर्ज़ा ने अपनी फिल्म नसीम में कैफ़ी साहब को लीड रोल में बतौर अभिनेता पेश किया। और इस फिल्म में बाबरी विध्वंस से जुड़े घटनाक्रमों की पृष्ठभूमि है। इस फिल्म में कैफ़ी साहब की नज़्म राम का वनवास की गूंज सुनायी देती है। यानी कुल मिलाकर, कैफ़ी साहब की शायरी का हिंदी फिल्मों से और हिंदी फिल्मों का कैफ़ी साहब से एक ऐसा रिश्ता रहा है, जिसे भुलाया नहीं जा सकेगा। अपनी मिट्टी से जुड़ा रहा एक शायर, अपनी प्रतिबद्धता को जीता रहा शायर और अपनी फ़नकारी की मिसालें बनाता रहा यह शायर सिनेमा का सच्चा यार रहा जिसे सिनेमा के चाहने वाले हमेशा चाहते रहेंगे। कैफ़ी साहब ने गुरुदत्त के अवसान पर जो शेर कहे थे, उनमें से दो शेरों के साथ इस अध्याय को यहीं विराम देना चाहूंगा -

माना कि उजालों ने तुम्हें दाग़ दिए थे
बे-रात ढले शम्अ बुझाता नहीं कोई
अर्थी तो उठा लेते हैं सब अश्क बहा के

रविवार, जनवरी 14, 2018

कविता

कविता की भाषा : Just Thinking Aloud


हिंदी के किसी प्रसिद्ध साहित्यकार ने कहा था - "साहित्य की अगली कुंजी भाषा के हाथ में ही होती है"। भाषा का बर्ताव ही किसी कवि को उसके समकालीनों एवं पूर्ववर्तियों से अलग खड़ा करता है। भाषा को लेकर कई तरह की द्वंद्व की स्थिति भी है। इन तमाम पहलुओं पर एक सोच व समझ की प्रक्रिया लगातार जारी है।


भाषा विकास व परिवर्तन

किसी भी अस्तित्ववान भाषा का गुण होता है कि वह समय के साथ परिवर्तन को स्वीकार करती हुई स्वयं को विकसित करती चली जाती है। न केवल शब्दकोष बढ़ता है, उस भाषा के प्रयोगों तक के स्तर पर बदलाव होते हैं। इधर, कम से कम दो तरह के खेमे बन जाते हैं। पहला, उन लोगों का जो भाषा के इस परिवर्तनशील और विकासशील स्वरूप को खुले दिल से स्वीकार करते हैं और दूसरा, उन लोगों का खेमा है जो भाषा की मूल छवि या प्रकारान्तर से शुद्धता के ही पक्षधर होते हैं। दूसरे खेमे के लोग शायद किसी किस्म के अंतर्द्वंद्व से ग्रसित होते हैं क्योंकि ऐसे लोग भाषा की परंपरा में विश्वास रखते हैं लेकिन उस परंपरा में परिवर्तन को अनदेखा करते हैं।

भाषा एवं साहित्य के इतिहास के अनुशीलन से ज्ञात होता है कि भाषा अपने आप को किस प्रकार बदलती जाती है। एक ही समय में भिन्न-भिन्न भौगोलिक खंडों में एक ही भाषा के विभिन्न रंग नज़र आते हैं। भाषा के किसी एक रंग में फिर कवि-कवि या लेखक-लेखक के स्तर पर अंतर नज़र आता है। यानी भाषा के विकास की प्रक्रिया में हरेक व्यक्ति के व्यवहार को योगदान होता है। यह एक सूक्ष्म स्तर की प्रक्रिया महसूस होती है।

हर कवि अपने समाज एवं समय के अनुरूप भाषा का प्रयोग करने की चेष्टा करता है। ऐसे में, एक ही समाज एवं समय के दो श्रेष्ठ कवियों को हम पढ़ते हैं तो भाषा व्यवहार में अंतर नज़र आने लगता है। उदाहरण के लिए ग़ालिब जिस समाज, जिस समय में जिस ज़बान में शायरी कर रहे थे, उनके समकालीन भी वही कर रहे थे लेकिन बक़ौल ख़ुद ग़ालिब -

हैं और भी दुनिया में सुख़नवर बहुत अच्छे
कहते हैं कि ग़ालिब का है अंदाज़े-बयां और

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भाषा का चुनाव

कोई कवि या लेखक भाषा के चुनाव में किस प्रकार की दृष्टि अपनाता है, यह उसका व्यक्तिगत निर्णय होता है। लेकिन, कुछ बिंदुओं पर विचार करने के बाद ही यह दृष्टि तार्किक अथवा सम्यक कहलाती है।

1. संप्रेषणीयता - गौतम बुद्ध ने अपने अनुयायियों के एक प्रश्न पर कहा था कि जो देववाणी यानी संस्कृत में मेरे विचारों का प्रचार करेगा, वह मेरा सबसे बड़ा दुश्मन होगा। यह कथन वास्तव में, भाषा के द्वारा संप्रेषण के लक्ष्य को समझने के लिहाज़ से बहुत महत्वपूर्ण है। भाषा वास्तव में माध्यम है अभिव्यक्ति का किंतु उसका लक्ष्य अभिव्यक्ति मात्र ही नहीं है। लक्ष्य है संप्रेषण। संप्रेषण अपने समय के लिए और आने वाले समय के लिए। अपने एवं आने वाले समय के लिए जब हम कुछ संप्रेषित करना चाहते हैं तो बीते समय की भाषा को कैसे थामे रह सकते हैं? बेशक, आधार तो बीते समय से ही मिलेगा क्योंकि भाषा के साथ-साथ संप्रेषण की भी एक परंपरा होती है। लेकिन, उस आधार पर एक नयी इमारत खड़ी करने का हुनर ही लक्ष्य के लिए महत्वपूर्ण है।

2. तरलता - भाषा का चुनाव करते समय लेखक या कवि को इस गुण का ध्यान रखना चाहिए। इस गुण से मेरा तात्पर्य दो प्रवृत्तियों से है - एक सरलता एवं दूसरी प्रवाह। सरलता जहां संप्रेषण के लक्ष्य को सिद्ध करने के लिहाज़ से आवश्यक है, वहीं प्रवाह अभिव्यक्ति की सटीकता के लिहाज़ से। कहा भी गया है कि श्रेष्ठ कवि या लेखक की यात्रा कठिन से सरल की ओर ही होती है।

3. सूक्ष्मता - महीन भावनाओं या विचारों को अभिव्यक्त करने के लिए भाषा की सूक्ष्मता की आवश्यकता हमेशा बनी रहती है। इसका अर्थ गूढ़ अथवा मृतप्राय शब्दावली प्रयोगों से नहीं है। इसका अर्थ क्षेत्र विशेष के पारिभाषिक शब्दों के प्रयोग से भी नहीं है। इसका अर्थ है भाषा पर कमांड से। सटीक शब्दों के अर्थवान प्रयोग से एवं भाषा में कल्पनाशीलता उत्पन्न करने से।

4. अन्य - भाषा की शुद्धता निजी दृष्टि विषयक गुण है जिसे कोई श्रेष्ठ मान सकता है, कोई नहीं भी। परिमार्जित, प्रांजल एवं तत्सम भाषा के नाम से भी इसे जाना जाता है। देशज भाषा में कवि या लेखक किसी लोकभाषा के शब्दों को मानक भाषा के साथ संयोजित करता है। यह रचनाकार की प्रतिभा पर निर्भर करता है कि वह कितने सहज एवं सफल ढंग से ऐसा कर पाता है। एक तरह की भाषा को मैं लच्छेदार भाषा कहता हूं जिसमें मुहावरों व कहावतों का रंग सुंदरता के साथ घुला होता है। एक है रंगीन भाषा, जिसमें तथाकथित अपशब्दों का प्रयोग होता है। इसे कुछ लोग अश्लील या मांसल या अमर्यादित भाषा भी कहते हैं लेकिन एक हद तक यह भाषा रंगीन है। कविता में हो या गद्य में, रचनाकार की प्रतिभा से इस भाषा के माध्यम से एकाधिक लक्ष्यों को प्राप्त किया जा सकता है। माधुर्य, रसवंतता, खुरदुरापन, एवं गूढ़ता भी भाषा के अन्य गुण है जिन्हें अपनी-अपनी समझ के अनुसार चुनने का निर्णय लेने के लिए रचनाकार स्वतंत्र हैं।

कविता की भाषा

कविता की भाषा सबसे पहले, जीवन्त होना चाहि। जैसा पहले कह चुका हूं कि कविता अपने सृजन समय एवं आने वाले समय के लिए जीवित रहना चाहती है तो उसे उसके अनुकूल भाषा का आधार चाहिए ही। कविता की भाषा को आग्रहमुक्त होना चाहिए। इसका अर्थ परंपरा से कटना नहीं बल्कि रूढ़ियों से मुक्ति है। कविता की भाषा को सेतु होना चाहिए। रचना एवं पाठक के बीच, व्यक्ति और व्यक्ति के बीच, एक समाज से दूसरे समाज के बीच और एक समय से दूसरे समय के बीच। कविता की भाषा को कविता के कथ्य के अनुकूल होना चाहिए। कविता की भाषा कवि द्वारा नहीं बल्कि कविता द्वारा ही तय होना चाहिए।

कविता की सर्जना के समय कवि को सिवाय मनुष्य के कुछ और नहीं होना चाहिए। जाति, प्रजाति, संस्कार, वर्ण, धर्म आदि पहचानों को भूलकर यदि कवि किसी कविता को रचता है तो कविता स्वयं अपनी सही और प्रभावी भाषा व लय तलाश सकती है। कविता यदि अपने धर्म और कर्तव्य के प्रति सचेत नहीं है तो उसकी भाषा यूं भी विचार एवं विमर्श के दायरे में नहीं रह जाती। कविता की भाषा में विश्व दृष्टि का समाहार होना चाहिए। कविता की भाषा एकांगी नहीं हो सकती, एकवर्णी या एकपक्षीय तो बिल्कुल नहीं। कविता की भाषा को क्ल्ष्टि नहीं होना चाहिए बल्कि सांकेतिक होना चाहिए। एक ऐसी भाषा जिसमें शब्द शब्दातीत की बहुलता हो, भावातीत की संभावना हो एवं कल्पनातीत की प्रधानता हो। कविता की भाषा को सामर्थ्यवान एवं सशक्त होना चाहिए।

कुछ पहलू और भी हैं जो मातृभाषा, लोकभाषा, मानक भाषा आदि से संबद्ध हैं। कवि को भाषा संबंधी कितना ज्ञान होना चाहिए अथवा उसका अध्ययन कितना विशद होना चाहिए? भाषा को लेकर कवि या लेखक को किन चुनौतियों से जूझना चाहिए और किन प्रश्नों के उत्तरों की खोज करना चाहिए? इस तरह के और मुआमलों पर जल्द हाज़िर होने के वादे के साथ फ़िलहाल इजाज़त चाहता हूं।

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शनिवार, जनवरी 13, 2018

समालोचना

हिंदी लेखिकाओं की आत्मकथाएं : अध्ययन-विश्लेषण


हिंदी साहित्य में पिछले कुछ समय से स्त्री विमर्श जब-तब सबसे महत्वपूर्ण गतिविधि बनता रहा है। महिलाओं के (विशेषकर गद्य) लेखन में कई पहलुओं से पड़ताल की जाती है। आयातित विधा मानी गयी आत्मकथा के क्षेत्र में भी लेखिकाओं ने ज़बरदस्त पहचान बनायी है। इन पर संवाद कम हुए, विवाद अधिक। बहरहाल, लेखिकाओं की आत्मकथाओं के हवाले से कुछ ज़रूरी पहलुओं को इस लेख में टटोलते हैं।


इन आत्मकथाओं का समाज से संबंध

किसी भी इतिवृत्तात्मक लेखन की आलोचना के पहले चरण में रस्मन उसके सामाजिक, राजनैतिक एवं आर्थिक सरोकारों की पड़ताल की ही जाती है। लेखिकाओं की आत्मकथाओं की विवेचना भी इसी सिरे से शुरू करना समीचीन है क्योंकि महिलाओं का लेखन इस संबंध में एक भिन्न दृष्टि तो रेखांकित करता ही है। शशि देशपांडे का कथन है -

“मैं महिलाओ के विषय में और उनके नज़रिये से क्यूँ न लिखूं? इस तरह लिखने के लिए हमें हमेशा से छोटा महसूस कराया गया, हमारी आलोचना की गयी, पर अब नहीं...”

वास्तव में ऐसा हुआ है। अमृता प्रीतम के आत्मकथात्मक लेखन की बेबाकी के कारण ही उन्हें समाज निकाले का दर्द भोगना पड़ा। कमला दास को अपनी आत्मकथा के बाद बनी परिस्थितियों के कारण यह तक कहना पड़ा कि ‘माय स्टोरी’ काल्पनिक कहानी है। भारत की लगभग हर भाषा की लेखिका को अपने लेखन पर आरोपों, आपत्तियों, प्रश्नों अथवा विरोधों के दंश झेलने ही पड़े हैं। यह इस देश की नियति ही है कि यहां अपमान हर कलाकार ही नहीं बल्कि हर व्यक्ति के हिस्से में आता है। प्रकारान्तर से, हमारी संस्कृति अपमान करने की स्वतंत्रता को संरक्षण देती है।

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नारी अपने पूरे इतिहास के प्रति सचेत होकर, अतीत की तमाम व्यथाओं एवं विसंगतियों को लेकर, काग़ज़-कलम के साथ उपस्थित होती है। लैंगिक असमानता, आर्थिक विवशता, कानूनी भेदभाव और परिवार से लेकर समाज व देश-दुनिया के स्तर तक उसकी दोयम दर्जे की स्थिति, आदि एक महिला लेखक के अवचेतन तथा चेतन को उद्वेलित करती है। स्वाभाविक रूप से, वह संपूर्ण नारी जाति की पीड़ा को घनीभूत करते हुए अपनी पीड़ा में एकांतिक नहीं रह जाती। अफ़सोस तो यह है कि महिलाओं की इस सामाजिक स्थिति में बदलाव सदियों से नहीं हुआ है या बदलाव की गति बेहद धीमी है। इस स्थिति को ‘काग़ज़ी है पैरहन’ में इस्मत चुगताई बेबाकी से बयान करती हैं -

“औरत की खेत-खलिहान और मवेशियों की तरह हिफाजत होती थी, है। मालिक और मल्कियत के लिए अलग-अलग उसूले-जिन्दगी बन गये। मर्द पालनहार पति और ख़ुदाए-मज़ाजी। औरत के फरायज़ मर्द की ख़िदमत... उसके बाद वही अंजाम होता जो बूढ़े नाकारा मवेशियों का होता है।“

इसी तरह का बयान महादेवी वर्मा ने ‘श्रंखला की कड़ियां’ में दर्ज करते हुए लिखा है कि पशु-पक्षियों की तरह मर्दो द्वारा औरत पाली जाती है जो उसके अधिकार की वस्तु ही मात्र रह जाती है। ‘ख़ुदा की वापसी’ में नासिरा शर्मा लिखती हैं -

“एक तरफ कयामत के दिन मुरदों की पहचान मां के नाम से होगी, बाप के वंशवृक्ष से नहीं, फिर उसी औरत को आखिर प्रताड़ित कौन कर रहा है - सियासत, समाज, अज्ञानता।“

ज़ोया हसन कहती हैं कि मुसलमान औरतों की स्थिति को सामाजिक और आर्थिक पहलुओं को नज़रअंदाज़ करते हुए समझना असंभव है। लेकिन यह क्या केवल मुसलमान औरतों के संबंध में कथन है? भारत के हर समाज, हर संप्रदाय की औरतों के साथ यह बात लागू होती है। बल्कि, दुनिया भर की औरतों की आबादी के बहुत बड़े हिस्से पर यह बात लागू होती है। विश्व स्तर की मान्य एवं विजेता खिलाड़ी सेरेना विलियम्स तक महिलाओं के प्रति आर्थिक असमानता के मुद्दे पर अपनी पीड़ा व्यक्त कर चुकी हैं।

समाज के हर मोर्चे पर, हर इकाई में औरत जब संघर्ष कर रही है और सदियों से घुट ही रही है तो जब वह अपनी कहानी कहती है तो स्वाभाविक रूप से समाज के ठेकेदारों को अपना सिंहासन डोलता दिखता है और इसी डर के मारे वे अपनी सत्ता की पूरी सामर्थ्य के साथ विरोध पर उतर आते हैं। 2010 में हिंदी लेखिकाओं के लेखन को लेकर विभूति राय की एक टिप्पणी चर्चा में रही थी जिसमें उन्होंने महिलाओं के लेखन में देह विमर्श को तरजीह दिये जाने के विषय पर लेखिकाओं को छिनाल कह डाला था। मैत्रेयी पुष्पा जी ने इस पर आपत्ति व्यक्त करते हुए कहा था -

“इसमें क्या संकीर्ण है कि अगर औरतें अपनी ज़िंदगी अपने मुताबिक़ जीना चाहती हैं, घर से बाहर निकलना चाहती हैं, आपसे बर्दाश्त नहीं होता तो हम क्या करें, पर आप क्या गाली देंगे। ...हम महिलाओं के सम्मान के लिए बड़ी लंबी लड़ाई लड़कर यहां पहुंचे हैं, लेकिन इस तरह के पुरुष हमें गालियां देते हैं, एक पत्थर मारते हैं और सब पर कीचड़ फैला देते हैं।“

बाद में, राय ने स्पष्टीकरण देते हुए एक तरह से माफ़ी मांग ली थी लेकिन ऐसा एक नहीं कई बार हुआ है। पुरुषों ने स्त्री देह पर बेबाकी से लेखन किया है। जब-तब यह देह खोली गयी है और इस पर विमर्श हुआ है लेकिन स्त्री स्वयं इस देह की बात करती है तो पुरुषों की दुनिया में उसका विरोध होता है। यही समाज की विडंबना है। वास्तविकता यही है कि एक स्त्री का कलाकार या लेखक होना ही पुरुष को किसी चुनौती या खतरे का-सा आभास देता है। लेखिकाओं की आत्मकथाओं की संख्या कम होने के विषय में मैनेजर पांडे ने कहा था “स्त्रियों की आत्मकथाएँ तो इसलिए नहीं है कि उन्हें हमारे सामाजिक ढाँचे में सच बोलने की स्वतंत्रता नहीं है”। डॉ. महेश संतोषी की एक कविता की ये पंक्तियां पुरुष समाज के खोखलेपन को बारीकी से उजागर करती हैं -

आदमी के आदिम दुराचरण का सबसे सनातन दर्पण है
औरत में पवित्रता की खोज
इसीलिए इतिहास के हर युग में
वह रचता रहा सतीत्व पर ऋचाएँ, मंत्र, श्लोक।
जानवरों के साथ-साथ एक दिन
आदमी की जायदाद बन गई औरत
फिर जायदाद जैसी ही देखी गयी
परोसी गयी, भोगी गयी औरत!
आदमी का जंगल राज-हर संस्कृति, सभ्यता,
व्यवस्था को नकारता रहा।
जिस दिन अस्मत ईजाद हुई थी
उस दिन आधी मर गयी थी
दुनिया की हर औरत!

इन आत्मकथाओं ने पुरुष समाज की पूरी व्यवस्था को कठघरे में कहीं न कहीं खड़ा किया है और अपनी पीड़ा की गहरी सच्चाइयों को खुलकर सामने रखा है, इसीलिए ये आत्मकथाएं साहित्य के पुरुष सामंती सोच द्वारा उपेक्षित रही हैं अथवा इनका समुचित मूल्यांकन अब तक प्रतीक्षित है। लेखिकाओं की आत्मकथाएं समाज से सीधे जुड़ी हैं, कई स्तरों पर समाज की कुरूपता को रूपायित करती हैं और समाज को गहरे प्रभावित करती हैं इसलिए इन्हें समाज का स्त्री इतिहास तक माना जा सकता है। स्वाभाविक रूप से इनमें कहीं कुछ विसंगतियां भी हैं, कमियां भी लेकिन यह तो हर कलाकार की कलाकृति में पाया जाने वाला पहलू है।

इन आत्मकथाओं की मनोवैज्ञानिक अंतर्वस्तु

एक त्रासदी, एक कठोर कारावास या एक कठिन समय तक किसी व्यक्ति के मन पर गहरा असर छोड़ जाता है। सदियों की पीड़ा भेगती हुई स्त्री जब अपनी पीड़ा के उफान पर आती है तो वह नदी की बाढ़ से भी अधिक रौद्र होती हुई हर सीमा तोड़कर बहना चाहती है। ऐसे में, कोई लक्ष्मण रेखा या मर्यादा का तर्क सिरे से खारिज कर दिया जाना चाहिए। साहित्य में जब एक महिला आत्मकथा का सृजन करती है तो क्या यही माना जाएगा कि वह इस तरह के आवेग को ही प्राथमिकता देती है? या ऐसी पक्षधरता ही उचित है?

इसे ‘माय स्टोरी’ शीर्षक से आत्मकथा लिखने वाली कवयित्री कमला दास के शब्दों में ठीक से समझा जा सकता है -

“जो कुछ भी हम लिखते हैं, उसमें एक रचनात्मकता होती है। कहाँ वास्तिवकता आती है और कहाँ कल्पनाशीलता, इससे आपको कोई फ़र्क नहीं पड़ना चाहिए। यह देखना चाहिए कि वो चीज़ हमें छू रही है या नहीं, हमें प्रेरणा मिल रही है या यह हमें हिला रही है या नहीं। बाकी सब बातें बेमानी हैं।“

मन की बात या मन का विज्ञान समझ पाना बहुत दूभर कार्य है। फिर भी, इसके बीज जन्म के तुरंत बाद से मिली परवरिश एवं परिवेश पर एक स्तर पर आश्रित होते हैं। लैंगिक भेदभाव हमारा समाज हर स्त्री को जन्म के साथ ही दे बैठता है। फिर तमाम तरह की असमानताओं एवं सीमाओं का उद्घाटन होता जाता है। एक स्त्री का मन परिपक्व होते-होते पूरी स्त्री जाति के मन का संघनित मन बन जाये, तो आश्चर्य नहीं है। ऐसे ही मन लेखन या कला की ओर प्रवृत्त होते हैं, यह भी माना जा सकता है। इस तथ्य को प्रणय कृष्ण इस तरह व्यक्त करते हैं -

“अच्छी आत्मकथा आपकी ‘निजता’ से वाद-संवाद करती है, आपको ‘आप’ से मिलाती है, आपके ‘आत्मनिर्वासन’ को भंग करती है, आपकी अपनी कहानी में घुलमिल जाती है।“

लेखिकाओं की आत्मकथाओं में देह एवं संबंधों के विमर्श को फ्रायड के दमित इच्छाओं के सिद्धांत के अनुरूप भी समझा जा सकता है, और ऐसा गलत भी नहीं है। फिर भी, एक स्तर पर ऐसा लगता है कि यह सीधे समाज के पाखंड को चुनौती देने के मकसद से उठाया जाना वाला विद्रोही तेवर है। यह एक लंबी यातना से मुक्त होने की प्रबल इच्छा का परिचायक भी है। भले ही, इससे समाज के कुछ नियम या ढांचे टूटते हैं, लेकिन पूरे होशो-हवास के साथ एक लेखिका जब इस सत्य का उद्घाटन करती है तो वास्तव में, वह विभिन्न स्तरों पर अपनी स्वतंत्रता हासिल करने की छटपटाहट को ही व्यक्त करती हुई प्रतीत होती है। अवंतिका शुक्ल लिखती हैं -

“इन लेखिकाओं के पास पुरुषों की आत्मकथाओं के समान किसी बड़ी परंपरा के निर्माण का दंभ नहीं है, बल्कि एक चेतनायुक्त व्यक्तित्व की पीर है, जो अपनी बीमारी के कारण को समझ रहा है और इलाज कर रहा है पर उसका इलाज दुनिया द्वारा अस्वीकृत कर दिया गया है। ...इन आत्मकथाओं पर कई बार आरोप लगे कि इन्होंने स्त्री की मुक्ति सिर्फ देह के माध्यम से ही खोजी। बाकी मुद्दों से वे कटी रहीं। पर ऐसा नहीं है, इन लेखिकाओं ने जातिवाद, सांप्रदायिकता, अशिक्षा जैसे मुद्दों पर व्यवस्थित चर्चा की है। पर यौनिकता भी एक महत्वपूर्ण पहलू है, जिसे नजरअंदाज नहीं किया जा सकता।“

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ज़्यॉ पॉल सार्त्र के अस्तित्ववाद के सिद्धांत का स्त्री लेखन पर एक गहरा प्रभाव दिखता है। एक बेचैनी, एक उष्मा और एक बेखैफ़ मौज इन आत्मकथाओं में पूरी सार्थकता के साथ दर्शनीय है। हिंदी साहित्य में बच्चन की आत्मकथा को श्रेष्ठ माना गया है। इसके बाद विष्णु प्रभाकर की तीन खंडों में आयी आत्मकथा चर्चित रही है। लेकिन लेखिकाओं की आत्मकथाओं को एक वर्ग विशेष की व्सतु निरूपित करने वाली आलोचना ने न्याय नहीं किया है। इससे दो बातें एकदम साफ हैं - पहली, कि हिंदी पट्टी का साहित्य जगत भारत में दूसरी भाषाओं के साहित्य जगत से बहुत पिछड़ा हुआ है और दूसरी यह कि, वह जो पुराना जुमला है कि औरत के मन को समझ पाना ब्रह्मा के बस में भी नहीं है, वह इस प्रकरण में इस अर्थ में सामने आता है कि जब एक स्त्री मन अपना सच खोलकर रखता है तो पुरुष का पूरा अस्तित्व शर्म, भय एवं ग्लानिबोध से भर उठता है और वह आंखें मिलाने की हिम्मत तक जुटा नहीं पाता।

लेखिकाओं की आत्मकथाएं कम क्यों

भारत में पहली आत्मकथा बनारसीदास जैन कृत ‘अर्द्धकथा’ मानी जाती है जिसका समय 17वीं सदी के मध्य का है। किसी महिला द्वारा हिंदी में पहली आत्मकथा का स्पष्ट रूप से कोई जिक्र नहीं है लेकिन 19वीं सदी से आत्मकथात्मक लेखन की ओर महिलाएं प्रवृत्त हुईं। इसकी पूर्वपीठिका में हम मान सकते हैं कि बुद्ध काल की थेरियों, मीरा, आंडाल आदि का लेखन भी आत्मकथात्मक ही था, हालांकि वह इस विधा के सांचे में तराशा हुआ नहीं था। इस लेखन की आधार भाव-संपदा चूंकि भोगा हुआ यथार्थ ही रहा है इसलिए यह दावा किया जा सकता है।

बीसवीं सदी में, लेखिकाओं की कुछ महत्वपूर्ण आत्मकथाएं आती हैं। इनसे पहले महादेवी वर्मा का जिक्र ज़रूरी है। वास्तव में महादेवी जी ने आत्मकथा के नाम से कोई कृति नहीं सौंपी लेकिन उनका लेखन संस्मरणों एवं निजी अनुभवों की बहुलता के कारण एक आत्मकथा के रूप में समझा जा सकता है। इसके बाद करीब एक दर्जन महत्वपूर्ण आत्मकथाएं गिनायी जा सकती हैं। वास्तव में, जब लेखिका खास तौर से गद्य साहित्य सृजन की सूत्रपात करती है तब उसके केंद्र में स्वयं को ही रखती है। ऐसा अधिकांश मौकों पर होता है। इसलिए यहां से एक सूत्र निकलता है - अमूमन एक लेखिका का संपूर्ण साहित्य उसकी कथा का ही असंयोजित रूप होता है। अंततः वह पाती है कि इसके अतिरिक्त उसके पास अपनी कथा में बहुत कम ही शेष रह गया है।

कथा के केंद्र बिंदु के रूप में नारी रही है। अर्थात कथा के केंद्र बिंदु की आत्मकथा लिखना यूं भी बेमानी है। आत्मकथा तो किसी पात्र की हो सकती है, लगभग हर कथा के केंद्र की कैसे! जैसा कि ऑस्कर वाइल्ड कहते हैं -
"A man's face is his autobiography. A woman's face is her work of fiction."

फिर भी, नॉन फिक्शन लेखिकाओं अथवा महिला कवियों के संदर्भ में गुंजाइश बनी रहती है।

इतर कारणों में सामाजिक बंधन, दबाव एवं पराधीनता के साथ ही आर्थिक स्वतंत्रता का अभाव महिलाओं की आत्मकथाएं कम होने के कारण हैं। एक मनोवैज्ञानिक कारण यह है कि ज़रूरी नहीं कि हर महिला लेखक आत्मकथा लिखने का जोखिम उठाने का साहस जुटा पाये। क्योंकि आत्मकथा निष्पक्ष रूप से स्वयं के छुपे हुए सत्यों का प्रकाशन करना है। महात्मा गांधी की आत्मकथा ‘सत्य के साथ मेरे प्रयोग’ ने जिस स्तर पर इस अनावरण धर्म को स्थापित किया, बाद के रचनाकारों के लिए आत्मकथा लिखने की मूल प्रेरणा या प्रयोजन यही रहा। संभवतः इसलिए कमला दास ने आत्मकथा को “स्ट्रिपटीज़ एक्ट” माना और फिर उनके बाद प्रभा खेतान जैसी अन्य लेखिकाओं ने भी।

कौशल्या बैसंत्री की आत्मकथा के प्रकाशन के बाद अब यह सवाल मुंह बाये खड़ा है कि दलित महिलाओं की आत्मकथाओं का अभाव क्यों है? दलित विमर्श पहले ही साहित्य में बड़ा महत्वपूर्ण है और इसके साथ स्त्री विमर्श का संयोजन कर दिया जाना एक अलग ही दुनिया की खोज साबित हो सकता है। मराठी की लेखिका उर्मिला पंवार का आत्मकथ्य देखें -

“मैं इस दुनिया मे अपनी जाति, प्रजाति और स्त्रीत्व का अभिशाप लेकर जन्मी थी। एक स्त्री होने के दर्द, विशेषतः एक दलित स्त्री होने की पीड़ा तथा सामाजिक भेदभाव को उजागर करने की मेरी इच्छा ने ही मुझे लेखक बना दिया।“

दलित साहित्य में आत्मकथाओं के अभाव पर गंगा सहाय मीणा का लेख पठनीय है। मीणा आत्मकथा को पूंजीवादी समाज की प्रवृत्ति निरूपित करते हैं। इसके साथ ही, वह एक सूत्र देते हैं कि आदिवासी संस्कृति सामूहिकता को पोसती है, निजता को नहीं। सामूहिकता के संस्कारों में आप आंदोलन एवं सहभागिता का प्रकाशन करते हैं, न कि आत्मकथा का। शायद यह विवेचन जॉन बर्जर के उस कथन की एक और करवट है जिसमें उन्होंने कहा था - Autobiography begins with a sense of being alone. It is an orphan form. मीणा का तर्क और तमाम पहलू विचारणीय हैं और किसी स्तर पर इनसे सहमत होने का मन भी होता है लेकिन जैसा अभी कहा कि दलित महिलाओं की आत्मकथाओं से संभवतः एक अनछुए यथार्थ विश्व का खुलासा हो सकता है जो साहित्य की खोज भी माना जा सकता है इसलिए निजी मत से, इस लेखन को प्रोत्साहन दिया जाना चाहिए, न कि तर्कों की दीवार खड़ी करना चाहिए। एक और इच्छा जागती है कि पिछड़े मुस्लिम वर्ग की किसी महिला की बेबाक आत्मकथा भी प्रकाश में आये तो शायद हम दर्द की एक और अथाह गहराई को समझ सकें और अपनी सभ्यता, संस्कृति एवं इतिहास की कलुषता को जान सकें। दर्द से रूबरू होने की यह तमन्ना अपने आप में सुधार के अवसरों जैसी लगती है।

लेखिकाओं की आत्मकथाएं - दृष्टिकोण

जैसा कि शुरुआत से ज़िक्र किया जाता रहा है कि महिलाओं की आत्मकथाओं के प्रति साहित्य जगत का दृष्टिाकेण पक्षपाती रहा है। पुरुषों के वर्चस्व वाले साहित्य जगत ने इस सृजन के मूल्यांकन में कभी सामंती, कभी ब्राह्मणवादी, कभी सत्ता-शक्तिवादी तो कभी धर्म-संस्कृतिवादी रवैया अपनाते हुए इनके महत्व को खारिज करने का ही काम किया है। लेकिन, नकारे जाने के इस उपक्रम अथवा प्रायोजित एकपक्षीय षडयंत्र के बरक्स कुछ स्वर प्रबलता से इनके पक्ष में भी उठे हैं।

ऐसा भी नहीं है कि महिलाओं द्वारा लिखी गयी आत्मकथाओं को सभी महिलाओं ने खुले दिल से सराहा या स्वीकार किया हो। महिला आबादी का एक बहुत बड़ा हिस्सा तो इन तक पहुंच ही नहीं पाया है और जो पहुंचा है, उनमें से भी एक बड़े वर्ग ने इसको तवज्जो नहीं दी है। ये महिलाएं पुरुष के समाज की परतंत्र महिलाएं हैं या कुलीनता और संस्कारों की पीपरी बजाने वाली संस्कृति की अनुचर। वह संस्कृति जो सारे आदर्श, मर्यादाएं, आचार संहिताएं एवं सांचे महिलाओं के लिए गढ़ती है। पिंजरे के पंछी की यानी हालत ऐसी हो गयी है कि वह यह भूल चुका है कि उड़ान उसका अधिकार है और स्वभाव भी।

अब एक पहलू है शिल्प। महिलाओं के आत्मकथा साहित्य की भाषा महिलाओं के पक्ष की भाषा है। यह भाषा महिलाओं की देह को सामंती या ठकुरसुहाती की भाषा से अलग ढंग से विवेचित करती है। इस भाषा में पीड़ा का आधार है। इस भाषा में नारी की पीड़ा के प्रति सहानुभूति और सम्मान की दृष्टि मिलती है जो पुरुषों के लेखन में अपवाद स्वरूप पायी जाती है। राही मासूम रज़ा जैसे श्रेष्ठ लेखक तक ‘आधा गांव’ में नारी के प्रति बरती जाने वाली भाषा के प्रति न्याय नहीं कर सके। दूसरी ओर, गुलशेर शानी का ‘काला जल’ नारी के प्रति बरती जाने वाली भाषा के साथ संवेदनशील होने का प्रमाण है। अरविंद जैन अपनी किताब ‘औरत होने की सज़ा’ में लिखते हैं -

“काला जल’ की स्त्री ‘आधा गांव’ पहुंचते ही, एक यौन रूपक में बदल दी जाती है। स्त्री और देह के प्रति ऐसी रीतिकालीन, अपमानजनक भाषा-परिभाषा सचमुच शर्मनाक है। साहित्य के आधुनिक युग में भी नारी के उपभोग्या रूप का रस ले-लेकर, कब तक चित्रण-वर्णन करते रहेंगे?”

महिलाओं की आत्मकथाओं का स्वरूप राजनैतिक कम है और आत्मकेंद्रित अधिक। परंतु इस आत्मानुभूति में एक पूरी प्रजाति की एकात्मता के दर्शन अवश्य निहित हैं। ये आत्मकथाएं एक स्तर पर, ‘पर्सनल इज़ पॉलिटिकल’ की बेहतरीन मिसालें हैं। ये कृतियां एक समाज नहीं बल्कि विश्व की महिलाओं के मन की पड़ताल करने के लिए ज़रूरी दस्तावेज़ हैं। इनका उचित एवं सम्यक दृष्टि से मूल्यांकन किया जाना चाहिए केवल साहित्य के निकष पर, न कि किसी दृष्टि विशेष से संबद्ध होकर।

महिलाओं की आत्मकथाओं को देह मुक्ति विमर्श का ब्योरा ही करार देने वाले कतिपय लेखकों ने विस्फोट, उन्मुक्तता और स्वतंत्रता की ललक को भली.भांति नहीं समझा। एक ज्वालामुखी के गर्भ में झुलसने की नियति को युगों से एक श्राप की तरह पीने वाली स्त्री के मन में कितना लावा कितनी तीव्रता के साथ स्फोट को आतुर होगा? सदियों से पिंजरबद्ध एक पक्षी के पंखों में कितना आसमान होगा? इस स्वतंत्रता एवं उन्मुक्तता की इच्छा को कम आंकना, सीमा मानना या इसे मर्यादाओं का उल्लंघन कह देना कतई समीचीन नहीं है। इस सिलसिले में कहने को बहुत कुछ और है और कहा भी जाना चाहिए लेकिन फ़िलहाल कमला दास की अनूदित कविता की कुछ पंक्तियों के साथ अपनी बात एक और क्षितिज की दिशा संकेत रूप में मोड़ देना चाहता हूं -

जब कभी निराशा की नौका,
तुम्हें ठेल कर अंधेरे कगारों तक ले जाती है.
तो उन कगारों पर तैनात पहरेदार,
पहले तो तुम्हें निर्वसन होने का आदेश देते हैं.
तुम कपड़े उतार देते हो,
तो वो कहते हैं, अपना मांस भी उघाड़ो.
और तुम त्वचा के साथ अपना मांस भी उघाड़ देते हो,
फिर वो कहते हैं कि हड्डियाँ तक उघाड़ दो,
और तब तुम अपना मांस नोच नोच फेंकने लगते हो,
जब तक कि हड्डियाँ पूरी तरह से नंगी नहीं हो जातीं.
उन्माद के इस देश का तो एक मात्र नियम है उन्मुक्तता,
और वो उन्मुक्त हो,
न केवल तुम्हारा शरीर,
बल्कि आत्मा तक कुतर कुतर खा डालते हैं.
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हिंदी साहित्य में लेखिकाओं की कुछ महत्वपूर्ण आत्मकथाएं
  • चंद्रकिरन सौनरेक्सा - पिंजड़े की मैना
  • प्रभा खेतान - अन्या से अनन्या
  • मैत्रेयी पुष्पा - गुड़िया भीतर गुड़िया
  • रमणिका गुप्ता - हादसे
  • मन्नू भंडारी - एक सच ये भी 
  • कौशल्या बैसंत्री - दोहरा अभिशाप
  • सुशीला राय - एक अनपढ़ आत्मकथा
  • कुसुम अंसल -  जो कहा नहीं गया
  • कृष्णा अग्निहोत्री - लगता नहीं है दिल मेरा
  • पद्मा सचदेव - बूँद बावड़ी
  • अजीत कौर - खाना बदोश
  • शीला झुनझुनवाला - कुछ कही : कुछ अनकही
अन्य भाषाओं में भारतीय महिलाओं की कुछ महत्वपूर्ण आत्मकथाएं
  • कमला दास - माय स्टोरी
  • रसीदी टिकट - अमृता प्रीतम
  • शौक़त कैफ़ी - यादों की रहगुज़र
  • कानन देवी - शोबारे आमी नोमी
  • दुर्गा खोटे . मी दुर्गा खोटे
  • शांता आप्टे - ज़ाउ मी सिनेमात
  • सुधा कौल - द टाइगर लेडीज़ : ए मेमॉइर ऑफ कश्मीर
  • लीला नायडू - लीला : ए पैचवर्क लाइफ
  • इस्मत चुगताई - काग़ज़ी है पैरहन