बुधवार, अक्टूबर 11, 2017

नज़्म

भवेश दिलशाद की नज़्मों पर साहित्यिकों का संवाद


हाल में, एक चर्चित वॉट्सएप समूह "साहित्य की बात" पर भवेश दिलशाद की नज़्मों पर विमर्श का आयोजन किया गया। नज़्मों के साथ ही, विमर्श के दौरान प्राप्त हुईं चुनिंदा टिप्पणियां यहां प्रस्तुत हैं।


1 - वादा

ये नहीं है ख़बर ये इक अफ़वाह है
फिर भी होगा यही कि हवा देंगे सब।

चर्चे हो जाएंगे क़िस्से बन जाएंगे
लोग रह-रहके फिर इसको दुहराएंगे
होगी ये दास्तां देखना बाद में
सच समझ लेंगे सब धुंधली सी याद में
झूठ हो जाये सच ये दुआ देंगे सब।

झूठ है ये हमें आज विश्वास है
कल कहेगा कि ये सच्चा इतिहास है
हमने-तुमने पढ़ी हैं किताबें कई
हमको मालूम है ये हक़ीक़त बुरी
ये कि सच के निशां तक नहीं दिखते हैं
क्या कलाबाज़ हैं कैसे क्या लिखते हैं

अपने वक़्तों का सच हम संभालें चलो
मैं भी वादा करूं तुम भी वादा करो
तुम न छोड़ोगी लिखना कभी डायरी
मैं भी करता रहूंगा सही शायरी...

2 - एक औरत की मौत

तुम्हारे हाथों रोज़
मैं थोड़ा-थोड़ा मर रही हूं
पूरी तरह मर जाने का
इंतज़ार कर रही हूं.

इक रोज़ तुम्हारे हाथों
मैं पूरी तरह मर जाऊंगी.

हवस के लमहों में तुम
बदन के नशे में होकर गुम
अपनी जीभ से, मेरी
जांघों को जब चाट रहे होगे,
अपने दांत गड़ाकर, जब
मेरी छाती को काट रहे होगे
या जब ख़ाली होकर
चूर-चूर निढाल हो जाओगे,
मेरे ऊपर से गिरकर
बिस्तर पे इक तरफ सो जाओगे...

तकिये के नीचे से निकालकर
तुम्हारे सीने में उतार दूंगी
पूरी मर जाऊंगी जिस दिन
तुम्हें ख़ंजर से मार दूंगी.

नीम बेहोशी में अपनी
हैरानी की मौत मरोगे
तुम्हारे हाथों मर गयी मैं
तब सोचकर क्या करोगे?

3 - आवाज़

इस पथरीले शहर को याद है?

इक अरसा पहले की बात है
कुछ हसीन लोग आये थे
इस शहर की सरज़मीं पर
पेशे से वो लोग इंसान थे
और फ़ितरत से कुछ फ़नकार
अलक़िस्सा कुदरत का शाहकार थे
इस पथरीले शहर को याद है?

इस शहर में उन लोगों ने
पथरीली घाटियों, वादियों के बीच
पथरीले दरियाओं, सहराओं के बीच
बहुत और बहुत दिलचस्प बातें की थीं
बसर यहां कई शामें रातें की थीं
इस पथरीले शहर को याद है?

उन हसीन लोगों की आवाज़
आवाज़, जो टकरायी थी पत्थरों से
कुछ पत्थरों में ही हो गयी थी जज़्ब,
ग्रैविटेशनल फोर्स की वजह से
बचा-खुचा हिस्सा आवाज़ का
जा गिरा था कंकरों, धेलों पर
वो हसीन लोग तो कर गये कूच, मगर
इस शहर को अब भी याद है
वो आवाज़ और
उस आवाज़ के जो ज़रीये थे, वो अल्फ़ाज़...

इस पथरीले शहर में आजकल
सन्नाटों में गूंजती हैं आवाज़ें
बोलते हैं पत्थर
सुनते भी हैं पत्थर
बोलने-सुनने के दौरान लेकिन
आवाज़ में शिगाफ़ दिखते हैं
समाअत में पत्थर पड़े नज़र आते हैं
पत्थर सिफ़अत रखते हैं गूंज की
मगर मोहताज हैं अक़्ल के
पत्थर लड़ते नहीं, झगड़ते नहीं
सिर्फ़ दाद देते हैं, वाह करते हैं
किसी भी बात पर बहस में उलझते नहीं

क्यूंकि पत्थर आवाज़ को समझते नहीं
पत्थर सिर्फ़ बोलते हैं
और पत्थर सिर्फ़ सुनते हैं.

4 - औरत

माथे पे लिखी मेरी रुसवाई नहीं जाती...

जब भूख लगी तब मैं, या प्यास लगी जब तब
मैं हाथ लगी अक्सर, बस मांस लगी जब-तब
बाक़ी किसी लमहे में, मैं पायी नहीं जाती...

या पेट के नीचे मैं या पेट के ठीक ऊपर
हस्ती है मेरी इतनी मैं वो हूं जो हूं बाहर
मैं पूरी की पूरी तो अपनायी नहीं जाती...

लहंगा कभी चुनरी हूं, मुजरा कभी ठुमरी हूं
गीतों में या ग़ज़लों में, बस हुस्न सी उतरी हूं
क्यूं शब्द में मेरी सब सच्चाई नहीं जाती...

ज्ञानी है रिषी भी वो औतार वही अक्सर
है मर्द ही सूफ़ी भी, है मर्द ही पैगंबर
विश्वास के क़िस्सों में, मैं लायी नहीं जाती.

5 - उस दिन

ऐसा होता तो नहीं अक्सर
ऐसा होगा मगर एक दिन
हक ज़ुबान पर होगा यही सवाल-
आख़िर ऐसा हो कैसे गया?

उस दिन भी होगा यही यक़ीनन
वही, जो हुआ करता है अक्सर
पकड़ने-फाड़ने को ढूंढ़ेंगे हम
किसी और का ही गिरेबान.

भवेश दिलशाद

कुछ शब्दार्थ :

नीम बेहोशी - लगभग निश्चेतावस्था, शाहकार - सर्वोत्कृष्ट रचना, शिगाफ़ - दरार/क्रैक, समाअत - श्रवण शक्ति, सिफ़अत - गुणविशेष
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भवेश दिलशाद की नज़्मों पर व्यक्तव्य


साधारणतया किसी विषय पर लिखी गयी लयबद्ध , लम्बी कविता को नज़्म कहते हैं।नज़्म घटना एवं विवरण प्रधानकाव्य है।इसके अंतर्गत भावों को श्रृंखलाबद्ध प्रक्रिया से व्यक्त किया जाता है।यह गीत और ग़ज़ल की दरमियानी कड़ी है।नज़्म का आधार अनुभव है गीत की तरह केवल चेतना ,या ग़ज़ल की तरह भाव और कल्पना नही।वह ज़िन्दगी के हर पहलू को छूती है।इस प्रक्रिया में हर नई घटना से अनुभव प्राप्त करने का नाम ही "नज़्म " है। आधुनिक उर्दू नज़्म की शुरुआत इकबाल से मानी जाती है जिसे प्रगतिवादी नज़्मगो शायरों ने आगे बढ़ाया और आज के समय में भवेश दिलशाद जी जैसे शायर इसका बखूबी निर्वाह कर रहे है।

भवेश जी की नज़्में समय के साथ बहते हुए इसकी नब्ज़ पर कुशलता से हाथ रखती हैं। मुझे भी पहली बार इन नज़्मों को पढ़ने का मौक़ा मिला है लेकिन यक़ीनन आला दर्जे की नज़्में हैं ।ये नज़्में किसी भी उम्दा शायर की शाहकार से कम नही हैं। पहली नज़्म की वक़्त पर बड़ी पैनी नज़र है। आज क्या हो रहा है किस तरह इतिहास को बदला जा रहा है ,हक़ीक़त को दबाया जा रहा है यह किसी से छुपा हुआ नही है। आज जो कुछ लिखा जा रहा है कल उसे ही सच माना जायगा। बहुत बेहतरीन नज़्म।

औरतों लिखी गयी नज़्म "एक औरत की मौत" और "औरत " की बात की जाय तो बह्र की बंदिश में इतनी उम्दा नज़्म लिखना काफी दुश्वार होता है लेकिन भवेश जी ने न केवल उनका बखूबी निर्वाह किया है बल्कि भाव भी खूब उभर कर सामने आये हैं। एक एक मिसरा दाद देने के क़ाबिल है। औरत नज़्म में एक पुरुष होते हुए भी उन्होंने जिस तरह से औरतों की दुखती रग प् हाथ रखा है वो उनकी संवेदनशीलता को दर्शाता है।उर्दू में एक बात बहुत दावे से कही जाती है कि एक अच्छा इंसान ही अच्छा शायर हो सकता है और इस कथ्य को ये नज़्मे पुख्ता करती हैं। 

बात "आवाज़ " की जाए तो पत्थर को बिम्ब बना कर आज हम जैसे मुर्दा लोगों को निशाने पर लिया गया है जो पत्थर बन गए हैं और पत्थर की खूबियां अपनाते हुए सही गलत उचित उनुचित का भेद भूल गए हैं विरोध भूल गए हैं बस दाद दिए जाते हैं ।पत्थर हम इसीलिए हैं कि पत्थर सिर्फ सुनते हैं उलझते नही हैं।

आज की नज़्मों के ज़रिए शायर ने समाज के हर पहलू को टटोला है उसे लफ़्ज़ों में पिरोया और फिर हमारे सामने पेश किया गया ताकि हम सभ्य कहे जाने वाले लोग खुद का आंकलन करें और निश्चित रूप से करेंगे इससे बढ़ कर एक शायर की अपने समाज के प्रति और क्या जिम्मेदारी हो सकती है।
- गज़ाला तबस्सुम, कोलकाता


हमेशा कहता हूँ, लिखते हुए जब हम अपने समय के साथ न्याय करते हैं तब भले अपनी बात कहते हैं पर वह होती है एक आवामी आवाज़। भवेश भइया की नज़र समय पर है और टिकी हुई है। नज़्मों में बहुत गहराई से आपने हमारी बातें कही हैं। यह आपका अकेले का अनुभव नहीं है। 

पहली नज़्म गहराई लिए बहुत राजनैतिक नज़्म है। इधर की सियासत ने ऐसा रंग बदला है कि इस बदले रंग को हम पहचान ही नहीं पा रहे। टुच्चे वादे जो देखने में बहुत विशाल लगते हैं जो कभी पूरे नहीं होने हैं को केंद्र बना कर पूरी सियासत कर दी गई। ज़ुमला मैन ने जुमलेवाज़ी कर के तख्त हासिल कर लिया यही अब हम दुआएँ कर रहे हैं कि या तो मेरे एकाउंट में 15 लाख रुपए आ जाएं (अच्छा है कि अभी तक बैंक में मेरा एकाउंट नहीं है नहीं तो मैं तो ऐसे ही 1500000₹ सोच सोच के मर जाता। हर्ट अटैक 💔आ जाता मुझे तो।)या यह सब झूठा सावित हो जाए। ऐसा हो जाए मानो एक बुरा सपना था यह सब।

आख़िरी पंक्ति भी देखिए कि तुम न छोड़ोगी लिखना कभी डायरी/ मैं भी करता रहूंगा सही शायरी/ डायरी मैं अच्छे दिनों की दोपहर की नींद का सपना मानता हूँ और सही शायरी को प्रतिरोध का साहित्य मानता हूँ। 

प्रेम कविता के रूप में देखें तब भी बात बहुत गहरी है।

तीसरी नज़्म भी पहली नज़्म को आगे बढाती पर अलग अंदाज की नज़्म है। यहाँ प्रेम के बिम्ब ज़रा जोरदार हैं लेकिन है सियासी नज़्म ही। आखिरी पंक्तियाँ देखिए कि पत्थर सिर्फ बोलते हैं/पत्थर सिर्फ सुनते हैं/ से हम की बात याद आ रही है। एक आदमी बोलता है रेडियो पर और शेष पत्थर सुनते हैं। 

आखिरी नज़्म गिरेबान पर आ कर समाप्त होती है। यह अनायास नहीं है; क्रोध, छोभ, दुख, विषाद इतना है कि हम हमेशा एक पंचिंग बैग ढूंढ रहे हैं। इस कदर छले गए हैं और उसका इतना फ्रस्टेशन है कि फ्रस्टेशन रिलीज करने के लिए कोई न कोई पंचिंग बैग चाहिए ही चाहिए। यह मानवीय गुण है और हमारे मस्तिष्क के गहरे में बैठा हुआ है। हम अपनी हार किसी के मत्थे मढ़ के ज़रा सुकून चाहते हैं। यही सुकून नहीं मिल रहा तो एक ग्रन्थि विकसित हो रही है जो फटने को आतुर है। यदि हमनें मूल प्रश्न का हल नहीं ढूंढा कि ऐसा कैसे हो गया? एक समाजविरोधी, जीवन विरोधी, प्रेम विरोधी मनुष्य ने पूरे परिदृश्य को कैसे छल गया और हम देखते रह गए। एक मसीहा हमेशा खुद को बहुत ग्लोरिफाइड तरीके से खुद को प्रस्तुत करता है। महिमामंडन की इस प्रक्रिया में वह अपना पूरा तंत्र झोंक देता है, तंत्र में शामिल लोग मुफ्त में क्यों साथ देंगे, बाद में बंदरबांट होता है। 

यह पूरी प्रक्रिया इतनी बोझिल और जटिल है कि घिन आ जाती है इससे। हम जानते सब हैं पर अक्सर आंखें मूंदे रहते हैं। 

ऐसा ही हो रहा है कि हम आंखें मूंदे हैं पर एक दिन आंखें खुलेंगी और जब हम एक दूसरे से पूछेंगे कि आख़िर ऐसा कैसे हो गया? तब हमें कुछ करने की ज़रूरत महसूस होगी। यदि हम यह सवाल खुद से पूछेंगे तब निश्चित ही गिरेवान पकड़ लेंगे। तब गिरेबान किसी और का नहीं, खुद का गिरेबान पकड़ेंगे-फड़ेंगे।
- शांडिल्य सौरभ, गया


भवेश जी की रचनाओं से गुजरने का सौभाग्य मिला। इस से पहले उनकी कुछ गज़लों से दो- चार हुआ था। अबकी रचनाओं में एक अजीब सी बेचैनी लगी। आक्रोश भरी बेचैनी , सब कुछ उलट पुलट कर के रख देने की बेचैनी, जो जैसा है उसे बगैर मुलम्मा चढ़ाए परोस देने की बेचैनी। 

इस बार उनके लिखे सच को वो कोई जामा नहीं पहना रहे हैं बल्कि पहले से कड़वे सच को नीम के काढ़े में डुबो कर पेश करने की ज़िद पाल ली है जैसे। इस बारी सच सहलाता नहीं है, किसी चाबुक किसी कोड़े सा सटाक से पड़ता है और आत्मा पर पड़ी बेशर्मी की खाल को खींच लेता है अपने वार से। औरत के दोनों वर्शन में आपके इस रौद्र रूप के दर्शन होते हैं । एक नए भवेश अपने कोकून से बाहर आते हैं। इन दो रचनाओं को इंटेंसिटी पाठक पर इस कदर हावी हो जाती है कि शेष कविताओं पर अव्वल तो ध्यान नहीं जाता और अगर जाता है तो कुछ कहने का मन नहीं होता। बिल्कुल वैसे ही जैसे घर में कोई बड़ा मसला हो जाये तो छोटे छोटे मसले खुद ब खुद चुप्पी धर लेते हैं।

भवेश जी को अनन्त शुभकामनाएं।
- संतोष तिवारी, खंडवा


भवेश जी समकालीनों में मेरे प्रिय शायरों में से एक है.. रेख्ता और कविता कोश गवाह है आपकी प्रतिबद्धता का..  सबसे ख़ास बात तो सहज आकर्षित कर जाती है पाठक को, वो है इनका दार्शनिक ह्रदय जो हर पंक्ति में इन्होने बड़े मनोयोग से उड़ेला है.. 

भवेश जी के लेखन की ambiguity से मैं बेहद प्रभावित हूँ..  ये बेहद सकारात्मक मायने में है, dubious किसी भी सूरत में नहीं.. मानव चेतना की व्याख्या सादृश्य होती है..  इनकी नज्में राजनीतिक भी और प्रेम की भी.. पाठक अपनी व्याख्या कर सकता है और ये दोनों ही प्रकार की या इनके सम्मिश्रित रूप की व्याख्याओं पर अंत तक खरी भी उतरती हैं.. 

अपने वक्तों का सच हम सम्भालें चलो
मैं भी वादा करूं तुम भी वादा करो
तुम न छोडोगी लिखना कभी डायरी
मैं भी करता रहूँगा सही शायरी

डायरी से एन फ्रेंक की डायरी की याद आती है.. जिसमें निजी और राजनीतिक दोनों परिदृश्य मिश्रित है..  सभी को अपने वक्त को सम्भाल कर चलना ही चाहिए, सब अपने युग के साक्षी रहे हैं और उनसे बेहतर इसे कोई और नहीं बयान कर सकता..

एक औरत की मौत नज्म में जो प्रतिरोध का स्वर उभरा है वो वाकई अलहदा है.. 

पूरी मर जाऊँगी जिस दिन
तुम्हें खंजर से मार दूँगी

स्त्री मन की सहनशक्ति पार कर जाती है और retaliate करती है तो उसका पैशन हतप्रभ करने वाला होता है..!!

पत्थर सिफ़अत रखते हैं गूंज की
मगर मोहताज हैं अक्ल के

औरत नज़्म में हकीकत बयां बडी ईमानदारी से की गयी है.. 
-मैं पूरी की पूरी तो अपनायी नहीं जाती
-क्यूं शब्द में मेरी सब सच्चाई नहीं जाती
-विश्वास के किस्सों में, मैं लायी नहीं जाती

आखिरी नज़्म बेमिसाल है.. 

पकड़ने फाड़ने को ढूंढेंगे हम
किसी और का ही गिरेबान

भवेश जी को हार्दिक शुभकामनाएँ..
- कोमल सोमरवाल, जयपुर


भवेश जी उन चंद लोगों में से हैं जिनका कई विधाओं में हस्तक्षेप है। भाषा पर नियन्त्रण भी हर रचना में सर्वोपरि हो जाता है।  वैसे तो नज़्में ग़ज़लें कविता सभी कठिन ही हैं। फिर भी एक पाठक होने के नाते प्रयास है कि जो समझ सकी वही कह सकूँ।

आज की नज़्में पढ़ने के बाद थे बखूबी समझ में आता है कि कोई भी रचना आपके दिल में कैसे उतर सकती है।
नज़्मों में जो बिंदू उठाए गए हैं उनमें मुख्यतः स्त्री और प्रेम है। किसी रचना का मूल में रस, लय, श्रवणीयता और विषय चयन उसका मुख्य भाग होता है। विषय चयन अनूठापन लिए हो न हो उसकी मौलिकता बरक़रार होनी चाहिए।  इसका जीवन्त उदाहरण आज की नज़्मों में मिलता है। 

पहली नज़्म वादा अशरीरी रिश्ते की उलझनों को उकेरती है। बुजुर्गों ने कहा भी है कि दो विषमलिंगी कभी भी मात्र मित्र नहीं रह सकते। कोई दाग आए न आए समाज उन्हें दाग़दार बना ही देता है। जबकि हक़ीक़त ऐसे रिश्तों की रूहानियत लिए होती है। जिनमें देश दुनिया के तमाम सच और अफसानों के बयानात हैं और है सच लिखने के खूबसूरत वादे। 

दूसरी नज़्म एक औरत की मौत.... एक बेहतरीन नज़्म हो सकती थी। हालाँकि ये पद्य की विधा है तो यहाँ  भावनाओं का संप्रेषण और भी छू सकता था। भवेश जी की रचनाओं पर आलोचकीय होने का मेरा कोई साहस नहीं है। फिर भी इस नज़्म ने छू लिया तो इस पर और भी उम्मीद करना मेरा हक़ है। 

तीसरी नज़्म आवाज़.... इस पथरीले शहर को याद है? हम अपने अपनों को ही याद नहीं रख पाते तमाम वादे किस्से कहानी रस्म रवायतें अब कहाँ मायने रखते हैं। सोशल साइट्स पर हर सुख दुःख में खूब हो हल्ला मचाया और हो गई कर्तव्यों की इतिश्री। सामने से किसी का दुःख बाँटने सुख साझा करने में तो हम बेहिस पत्थर ही हो गए हैं। उन्हें कुछ भी हो जाए हमें क्या की तर्ज पर भावहीन संवेदन हीन जीवन जिए जा रहे हैं एक दिन मर जाने की प्रतीक्षा में। क्योंकि इस पथरीले शहर को नहीं है याद कुछ भी सिवाय अपनी यन्त्रीकृत साँसों के। 

एक शायर होने के नाते साधारण से लगने वाले विषयों को भवेश जी ने बखूबी ढाला है। 
शिखा तिवारी


भवेश जी के लेखन में निरन्तर परिक्वता बनी हुई है, यह बहुत अच्छी बात है।  अपने समय के महत्वपूर्ण शायरों में भवेश जी का नाम शुमार है। शायर के पास कहने को बहुत कुछ है, परिष्कृत दृष्टिकोण है, ज़िंदगी से हासिल फ़लसफ़ा है। इन नज़्मों में ठोस हक़ीक़त है। उम्दा शिल्प तो है ही।

भवेश जी की मेहनत उन्हें बहुत आगे ले जायेगी। हाल फ़िलहाल ही रेख़्ता और कविता कोश पर भी भवेश जी की उम्दा रचनाएँ पढ़ने को मिली। अब एक ग़ज़ल संग्रह की उम्मीद तो हमें शायर बनती ही है, देखें कब पूरी होती है।
- अनिता मंडा, दिल्ली

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