शनिवार, अक्तूबर 28, 2017

शायरी

शायरों से जुड़े कुछ रोचक प्रसंग


शायरी की दुनिया में बहुत से दिलचस्प वाक़यात हैं कुछ सुने, कुछ कम सुने और कुछ अनसुने भी। ख़ुसरो से लेकर दिलशाद तक शायरों की ज़िंदगी में ऐसे कुछ प्रसंग हैं जिन्हें पढ़कर लुत्फ़ भी आता है तो कभी कुछ सबक़ भी मिल जाते हैं। कुछ चुनिंदा टुकड़े यहां


दिलचस्प 1: मीर को अपनी ही कौम की एक लड़की से इश्क़ था जिसके लिए उन्होंने पारिवारिक और सामाजिक बंधनों को तोड़ा भी लेकिन अंततः मायूसी हाथ लगी। मीर के इश्क़ का उत्कर्ष यह था कि सारी ज़िंदगी उन्होंने उसी लड़की की चाहत में काटी, इसलिए उनकी शायरी में इश्क़ की पाकीज़गी और इंतिहाई दर्द के कलाम अक्सर मिलते हैं।

दिलचस्प 2: नज़ीर फ़कीराना मिज़ाज के शायर थे। आगरा में जाटों के हमले में उनका घरबार और तमाम मालो-ज़र लुट गया। लूट के शिकार नज़ीर की खबर जब आम हुई तब नवाब वाजिद अली शाह ने आपको बहुत सा धन भिजवाकर लखनऊ बुलवाया लेकिन फ़कीरी का आलम यह था कि नज़ीर ने वह धन लौटा दिया और लखनऊ नहीं गये। हालांकि वह धन की कीमत ख़ूब समझते थे सो धन की महिमा गाती एक नज़्म ज़रूर लिख दी जिसमें दौलतमंदों पर करारे तन्ज़ किये गये।

दिलचस्प 3: ग़ालिब से जुड़े कई दिलचस्प किस्से हैं। इनमें से एक काफी मशहूर है। ग़ालिब अपनी हाज़िरजवाबी के लिए भी जाने जाते थे। वह आम खाने-खिलाने का शौक़ रखते थे। एक मौसम में ढेर सारे आम रखकर एक नुक्कड़ पर यारों-दोस्तों के साथ वह आम खा रहे थे और सभी आम के छिलके गली में ही फेंकते जा रहे थे। तभी एक कुम्हार अपने गधे को लेकर उस गली से गुज़रा। गधे आम के छिलकों और गुठलियों को सूंघा और मुंह फेर लिया, तभी ग़ालिब के एक साथी ने चुटकी ली कि "देखा मिर्ज़ा नौशा आम तो गधे भी नहीं खाते", इस पर ग़ालिब ने तुरंत जवाब दिया "मियां जो गधे होते हैं, वो आम नहीं खाते"।

दिलचस्प 4: मजाज़ लखनवी आज़ादी के बाद के युग में मशहूर होने वाले शायर थे। बाकमाल शायरी के साथ उनके कुछ शौक भी काफी चर्चित रहे जैसे आशिकमिज़ाजी और शराबनोशी। वह बेतहाशा शराब पीने के लिए बदनाम भी थे। एक दफ़ा उनके एक दोस्त ने सलाह दी कि शराब पीने का एक उसूल बनाओ, सामने घड़ी रखा करो और तय वक़्त तक ही शराब पिया करो। इससे कई मुश्किलें हल हो जाएंगी। जवाब में मजाज़ ने कहा कि मेरा बस चले तो घड़ी नहीं घड़ा रखकर पिया करूं।

दिलचस्प 5: एक मुशायरे का किस्सा है। मंच पर शायरों में अनकही प्रतिद्वंद्विता चलती थी। एक शायर ने शेर पढ़ा "ख़त कबूतर किस तरह ले जाये बामे-यार पर/पर कतरने जब लगी हों कैंचियां दीवार पर"। कुछ देर बाद दूसरे शायर ने जवाबी शेर पढ़ा - "ख़त कबूतर इस तरह ले जाये बामे-यार पर/ख़त का मजमूं हो परों पर पर कटे दीवार पर"।

दिलचस्प 6: ऐसा ही एक किस्सा 19वीं सदी के एक मुशायरे का है। तब मजलिसों में हिंदू-मुसलमान शायरों के बीच रंजिश सी पला करती थी। मुसलमान शायर हिंदू शायरों का मखौल उड़ाया करते थे। एक दफ़ा मुशायरे में एक वरिष्ठ हिंदू शायर को नीचा दिखाने के लिए मिसरा उछाला गया- "हैं वो क़ाफ़िर जो नहीं क़ायल हुए इस्लाम के’ और इस पर शेर बांधने की शर्त रखी गयी। तब क्या ख़ूबी से उस शायर ने बाज़ी पलट दी। ग़ौर से देखिये - "लाम की मानिंद हैं गेसू मेरे घनश्याम के/हैं वो क़ाफ़िर जो नहीं क़ायल हुए इस लाम के"।

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