सोमवार, अक्तूबर 23, 2017

समालोचना

हिंदी-उर्दू के फ़ासले को मिटातीं रौशन ग़ज़लें


कृति - सुर बांसुरी के
कृतिकार - डॉ. स्वामी श्यामानंद सरस्वती रौशन
समीक्षा लेख - भवेश दिलशाद 


स्वामीजी को उर्दू-हिंदी ज़ुबान पर यक़सां महारत हासिल है। उर्दू, फ़ारसी अरूज़ पर वह पूरी तरह क़ुद्रत रखते हैं इसलिए उर्दू और हिन्दी के चोटी के फ़नकार उनसे तबादिला-ए-ख़यालात कर सकते हैं और हम जैसे उनसे बहुत कुछ सीख सकते हैं। इल्मे-अरूज़ से क़त्ए-नज़र उर्दू ज़ुबान और हिंदी ज़ुबान को मादरी दर्जा देने वाले अमली तौर पर ऐसे लोग अगर नायाब नहीं हैं तो बेहद कमयाब हैं। इसलिए उन्हें क़ुद्रत हासिल है कि वह अपनी ग़ज़ल में उर्दू और हिंदी के अलफ़ाज़ की इकाई बड़े और वसीअ पैमाने पर बना सकते हैं। मैं कह सकता हूं कि स्वामीजी के यहां ग़ज़ल को इन सत्हों पर कामयाबी मिली है।

"सुर बांसुरी के", डॉ. श्यामानंद सरस्वती का ग़ज़ल संग्रह है। इस किताब में डॉ. बशीर बद्र के ये अलफ़ाज़ पढ़कर तसल्ली हुई कि हिंदी में कम से कम एक ग़ज़लगो तो है जिसकी ग़ज़ल को इन सत्हों पर कामयाबी मिली है। डॉ. बद्र ने यह भी अर्ज़ किया है कि स्वामीजी की हिंदी ग़ज़लों के इस संग्रह में उर्दू में लिखी गयी ग़ज़ल की आला रिवायात और उस मिज़ाज का निर्वहन होता है। दरअस्ल, ये रिवायात अपनी वुसअत में कई सदियों को समेटे हुए हैं। उस वक़्त उर्दू सिर्फ़ राजकीय काम की भाषा थी जिसे ज़्यादा सम्मान प्राप्त नहीं था। वली ने उर्दू को ग़ज़ल की मेहबूब ज़ुबान का दर्जा दिलाया और वह भी दिल्ली तक। वली के बाद ग़ज़ल की लिसानी तक़रारों को छोड़कर ज्यादातर शायर उर्दू की ओर प्रवृत्त हुए और ग़ज़ल की परंपरा की शुरुआत हुई। 18वीं सदी ने सिराजुद्दीन आरज़ू, मिर्जा मज़हर जानेजानां जैसे शायर पैदा किये। और इसके बाद तारीख़ के तीन बेहतरीन शायरों दर्द, सौदा और मीर का भी दीदार किया। दर्द जहां उर्दू के सबसे ख़ास शायर कहे गये वहीं अपनी ताज़ा तरीन शैली और ख़याल की नज़ाक़त ने मीर को ग़ज़ल का सबसे बड़ा शायर घोषित किया। कई और शायरों के साथ ग़ज़ल को ग़ालिब मिला। और फिर, दाग़, ज़ौक़, ज़फ़र, हाली, जिगर, फ़िराक़ और फ़ैज़ आदि।

वली के पहले से फ़ैज़ के बाद तक जो रिवायात चली आती हैं, उनका मिज़ाज और लहजा उर्दू और ग़ज़ल दोनों के लिए ही ख़ूबसूरत शाहकार है। अस्ल में, ग़ज़ल की परंपरा और रिवायात को बहुत ही सीमित रूप में पेश कर दिया जाता है। हुस्न, इश्क़, जाम, मीना और ख़ुदा, बंदगी जैसे अलफ़ाज़ का सहारा लेकर, ख़ासकर हिंदी के क्षेत्र में ग़ज़ल की मीरास के बारे में काफी संकुचित धारणाएं स्थापित हैं जो ग़ज़ल की तवील परंपरा को नकारती सी प्रतीत होती हैं। उर्दू का फ़ारसी पर हावी होकर ग़ज़ल का जांनशीन होना महज़ एक इत्तेफ़ाक़ या मामूली घटना नहीं था। दरबारों और अदब में ग़ज़ल और उर्दू का प्रतिष्ठित होना, राजनैतिक उथल-पुथल के कारण ग़ज़ल का केंद्र दिल्ली से विस्थापित होकर लखनउ बनना, इंशाल्लाह ख़ां, गुलाम मुसहफ़ी का लखनउ स्कूल की बुनियाद डालना, ग़ज़ल में फिक्र और तसव्वुर की इन्फ़िरादियत का मशहूर होना और कमोबेश हर दौर में ग़ज़ल का आम आदमी से जुड़े रहना, ये तमाम बातें साफ़ करती हैं कि ग़ज़ल न सिर्फ़ एक परंपरा बनाती है बल्कि एक कल्चर को भी उद्घाटित करती है।

कमलेश्वर के शब्दों में - "ग़ज़ल जैसी सांस्कृतिक विधा ख़ुद एक लौकिक संस्कृति का निर्माण करके उसे एक अलौकिक अनुभव तक उठा ले जाती है।" इसी अनुभव का सत्य और सुरूर स्वामी श्यामानंद सरस्वती की इन ग़ज़लों में मौजूद है।

यह नितांत उचित है कि ग़ज़ल एक सांस्कृतिक विधा है। इसके अंतस में भारतीय संस्कृति के सूत्र निहित हैं। भारतीय संस्कृति की कोख में सनातन, इस्लाम, बौद्ध और अनेक अन्य संप्रदायों व मतों के दर्शन बीज रूप में हैं। एकेश्वरवाद की सूफ़ियाना व्याख्या और शंकराचार्य का अद्धैतवाद समरसता प्रतिपादित करता है। इस्लाम और वेद में निराकार की चर्चा भी समानता का मूल्य स्थापित करती है। ईश्वर की सार्वकालिक सत्ता को भी हर धर्म व मत में स्वीकृति प्राप्त है। कमलेश्वर बजा फ़रमाते हैं कि - "इसे न तो धार्मिकताग्रस्त अंध इस्लाम परस्त स्वीकार कर पा रहे हैं, न जड़ ईसाई लोग और न ही भारत के वेदांती बंद दिमाग।" लेकिन, ग़ज़ल निर्विवाद रूप से इस सत्य का उद्घाटन करती रही है और करती रहेगी। संस्कृति को अपने अंदर समाहित कर जब ग़ज़ल महान बन जाती है तब ग़ज़लकार तिरोहित हो जाता है और सत्य आत्मज्ञान बनकर निसंकोच भाव से प्रस्तुत होता है। सत्य और संस्कृति की यही अनुगूंज डॉ. श्यामानंद सरस्वती रौशन की ग़ज़लों में भी सुनायी देती है। ऐसा भी नहीं कि डॉ. रौशन की ग़ज़लों में आज के संदर्भ व प्रसंग नदारद हों। उनकी ग़ज़ल ज़िंदगी, आदमी और आलम की मुख़्तलिफ़ और तरीन तसावीर पेश करती है। डॉ. बद्र कहते हैं - "वली से लेकर मलिकज़ादा जावेद जैसे नये शायर की ग़ज़ल में जो ज़ुबान जारी ओ सारी है, उस ज़िंदा, रवां-दवां ज़ुबान के शेर स्वामी साहिब जैसे बुज़ुर्ग के यहां ताज़ा-ताज़ा और नये-नये से लगते हैं।"

उम्र कागज़ का एक टुकड़ा है
बूंद पड़ते ही गल गया बाबा।
एक बच्चे को क्या ले लिया गोद में
मेरे बचपन का मौसिम हरा हो गया।

डॉ. रौशन अरूज़ के बादशाह हैं और रुबाई, ग़ज़ल, दोहा, गीत आदि तमाम छंदों की रियाज़त उनके फ़न का सरमाया है। ज़ुबान, शिल्प और साख़्त के स्तर पर डॉ. रौशन अपना सानी नहीं रखते हैं। इन्हीं स्तरों पर वह कमाल भी करते हैं। हिंदी में ग़ज़ल के पैरोकार होने के नाते उनके अधिकांश अशआर में हिंदी के हर तरह के शब्दों का इस्तेमाल अपेक्षाकृत ज़्यादा होता है। उर्दू की और ग़ज़ल की रिवायत को ज़िंदा रखने के कारण उनकी ग़ज़ल दोनों भाषाओं को करीब लाने की कोशिश भी दिखती है। डॉ. बद्र उनकी ग़ज़ल की ज़ुबान को उर्दू और हिंदी के मुश्तरक़ और क़ाबिले-फ़ख़्र मीरास मानते हुए कहते हैं कि इसके वसीले से ग़ज़ल का शब्दकोष वृहत्तर होगा। इस अर्थ में स्वामीजी की ग़ज़ल की ज़ुबान में दोगुनी ख़ूबसूरती पैदा हो जाती है। कहीं-कहीं हिंदी के कठिन शब्दों से भी स्वामीजी परहेज़ नहीं करते। आम पाठक के लिए शायद उन्होंने कुछ शेर नहीं कहे हैं। लगता है चंद अशआर अपना एक अलग दायरा या श्रेाता समूह बनाते हैं। बावजूद इसके, कहीं-कहीं उनका कथ्य भी ग़ज़ल में कमाल करता है -

क्या तमाशा है उसका जलवा भी
नके बैठा है अजनबी मुझमें।
प्रेम की आग रूप ही से लगे
रूप क्या है दियासलाई है।

और भी उम्दा अशआर इस संग्रह में देखने को मिलते हैं। कथ्य या फिक्र तो आज भी और शायरों में बहुत शिद्दत के साथ मौजूद है लेकिन शिल्प और अरूज़ी इल्म को लेकर ग़लतफ़हमियों तथा कंगाली का दौर जारी है। शिल्प और अरूज़ी इल्म की जितनी दौलत डौ. रौशन को हासिल है, उतनी समंदर को बूंदें। उन्होंने इसे पाने के लिए जितनी सदियों की तपस्या व साधना की है, उसका अनुमान ही लगाया जा सकता है, निर्धारण नहीं किया जा सकता। उसी तपस्या के फलस्वरूप उन्हें यह सिद्धि मिली है और इसका संकेत भी डॉ. रौशन की शायरी में मिल जाता है। वह कहते हैं -

यह ज़िंदगी है पूर्णतः साहित्य के लिए
मेरी कला के शिल्प को परखा करेंगे लोग।
बोलता है ग़ज़ल का हुनर
श्याम की बांसुरी है ग़ज़ल।

ग़ज़ल के आशिक़ों का डॉ. रौशन के इस हुनर का क़द्रदान न होना और शायरों का तलबग़ार न होना डॉ. रौशन के लिए दुख या निराशा की बात हो सकती है लेकिन उन आशिक़ों और शायरों के लिए बेहद बदक़िस्मती और शर्म की बात है।

डॉ. रौशन का यह ग़ज़ल संग्रह शायरी की विरासत का एक अहम हिस्सा है। इसी तरह, वह पहले रुबाई की अहम मीरास "सत्यम शिवम सुंदरम" किताब के ज़रीये दे चुके हैं। कमलेश्वर ने डॉ. रौशन को रुबाई का स्थापित शहंशाह कहा भी है और यह शेरजंग गर्ग, सरस सहित इल्म के तमाम पारखी भी मानते हैं। बक़ौल डॉ. रौशन -

कम नहीं है ग़ज़ल विधा लेकिन
बात कुछ और है रुबाई की।

अपने अंदर के इस सच को ग़ज़ल की किताब में उकेर देना एक सच्चे शायर और शायरी के सच्चे साधक के बस की ही बात है।

एक ज़िक्र और ज़रूरी है। हिंदी में ग़ज़ल के नामकरण को लेकर सिर्फ़ भाषा बदलने के लिहाज़ से विधा को अलग नाम देना ज़रूरी नहीं है। वैसे भी यह नाम सिर्फ़ भाषान्तर और उस भाषा के व्याकरण के इस्तेमाल से ज़्यादा कुछ और ध्वनित नहीं करता। यूं भी उर्दू की आत्मा तो ग़ज़ल कही जा सकती है। ग़ज़ल की आत्मा उर्दू नहीं क्योंकि विधा की आत्मा भाषा नहीं होती। उसकी आत्मा होती है विधा की संस्कृति या विधापन, विधा का शरीर होता है लहजा और कथ्य एवं विधा की पहचान होते हैं उसके तत्व और शिल्प। इसलिए ग़ज़ल की पहचान के एक अंश को परिवर्तित कर देने से कोई ख़ास फर्क़ नहीं पड़ता है लेकिन उसे एक नया नाम देने से एक विकृति उत्पन्न होती है और भ्रम की स्थिति बनती है। उर्दू और हिंदी दोनों ही महान भाषाएं हैं। विस्तृत अर्थों में एक हैं और दोनों ही नेक हैं। मेरा ही एक शेर है -

जुनूं है चंद लोगों का ज़ुबां मसला नहीं कोई
ग़ज़ल हिंदी में हो उर्दू में हो कल्चर सुहाना है।

इसी कल्चर की पैरवी करते हुए हिंदी और उर्दू के बीच के फ़ासले को मिटाते हुए डॉ. रौशन की ग़ज़लें ज़हनो-दिल को रौशन करती हैं। डॉ. बशीर बद्र की बात से मैं भी सहमत हूं कि "डॉ. रौशन की ग़ज़लें ज़ुबान को संवारती ग़ज़लें हैं।"

इस संग्रह, सुर बांसुरी के, के माध्यम से इतनी मक़बूल और हसीन ग़ज़लें हम तक पहुंचाने और साथ ही अरूज़ी ज़िक्र करने की वज्ह से वह साधुवाद के पात्र हैं। यक़ीन है कि डॉ. रौशन की रौशनाई से निकली ये ग़ज़लें रौशनी का इज़ाफ़ा करने में कामयाब होंगी।

(वर्ष 2004 में लिखित यह समीक्षा 2004 में ही साहित्य सागर पत्रिका में प्रकाशित हुई थी।)

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