शुक्रवार, अक्तूबर 27, 2017

सिनेमा

शानदार, ज़बरदस्त, ज़िंदाबाद..!


श्री तपेश सक्सेना लिखित यह फिल्म समीक्षा केतन मेहता निर्देशित फिल्म मांझी पर एक बेहतरीन वक्तव्य है। तपेश की यह समीक्षा फिल्म के कलात्मक पहलुओं पर साहित्यिक दृष्टिाकेण से संवाद करती है। आकार में हालांकि मध्यम है लेकिन यह समीक्षा भरपूर ढंग से अपनी बात कहती है और फिल्म के कई ज़रूरी आयामों का स्पर्श करती है। यह समीक्षा साहित्यिक पत्रिका साहित्य सागर में प्रकाशित हो चुकी है। पुनर्पाठ के लिहाज़ से यहां प्रस्तुत किया जा रहा है।


Manjhi poster. image source: Google


सच्चे प्रेम का आध्यात्मिक नशा आदमी को परमार्थी बना ही देता है। और अगर उसमें वेदना के दो चार घूँट और मिल जाएँ तो फिर तो कमाल ही हो जाता है। 'मांझी' ऐसे ही एक कमाल की कहानी है। ये भारतीय सिनेमा में अब तक की सबसे ज़्यादा सार्थक "बायो-पिक" (किसी के जीवन की सच्ची कहानी पर आधारित फिल्म) है। भारतीय सिनेमा ने एक दौर वो भी देखा है जब गुलज़ार कहते थे कि 'दीवार में कब कोई दर होगा' और शहरयार कहते थे 'सीने में जलन आँखों में तूफ़ान सा क्यों है' और अब ये दौर है कि सीने की जलन और आँखों के तूफ़ान ने मिलकर दीवार में दर बना ही डाला। 

'मांझी' को भारतीय सिनेमा के इतिहास में कई तरह से याद किया जाएगा। ये फिल्म उस दौर में आई है जबकि हम में से अधिकतर लोग अच्छी शिक्षा पा सकना, खूब सारा पैसा कमा पाना, विदेशों में सैर कर पाना, नाम कमा पाना, आदि को ही अपने जीवन का लक्ष्य समझते है। 'मांझी' उस सोच के साँचे को बदलने की एक शानदार कोशिश है। 'मांझी' वेदना में पनपती संवेदना की आवाज़ को ध्यान से सुनना सिखाती है। 'मांझी' एक नए आयाम का निर्माण करती है जो व्यक्तिगत प्रेम और वेदना को समाज और देश के लिए एक सुखदाई अनुभव बना देता है।

एक फिल्म के लिहाज़ से 'मांझी' में कुछ कमियां नज़र आती तो हैं जैसे कि इसके गीतों में कहानी की आत्मा की झलक का न मिल पाना, जैसे कि कुछ दृश्यों का आपकी भूख को बढ़ा देना लेकिन फिर आगे के दृश्यों का उस बढ़ी हुई भूख को संतुष्ट न कर पाना, आदि। पर इन सब कमियों के लिए 'मांझी' को माफ़ किया जा सकता है क्यूंकि ये कमियां इस दौर की कमियां हैं, शायद ये दौर इन कमियों के लिए ही सबसे ज़्यादा याद किया जाएगा। अभिनेता के तौर पर नवाज़ुद्दीन सिद्दीकी निसंशय अपने सबसे अच्छे समय से गुज़र रहे है। आज के समय में वो अकेले ऐसे अभिनेता हैं जिनके मुंह से "शानदार, ज़बरदस्त, ज़िंदाबाद" सुनकर अच्छा लगता है क्यूंकि इन तीन शब्दों तक पहुँचने का उनका सफर जिस मार्ग से होकर गुज़रता है वो दशरथ मांझी की तरह ही उनका खुद का बनाया हुआ मार्ग है, वहाँ पर भी परिवारवाद नाम का एक बहुत ऊंचा पर्वत था जिसको उन्होंने बखूबी काटा है।

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