मंगलवार, अक्तूबर 31, 2017

सिनेमा

बेनेगल बाबू के सिनेमा के 50 साल


70 के दशक में हिंदी सिनेमा में जिस धारा को कला सिनेमा या समानांतर सिनेमा या नयी धारा का सिनेमा संबोधित किया जा रहा था और जिस पर कला जगत में विभिन्न सिरों से तेज़ी से विमर्श हो रहा था, बेनेगल बाबू उस दशक में उस विमर्श के केंद्र बिंदुओं में शुमार थे और आने वाले लगभग दो दशकों तक वह इस श्रेणी के सिनेमा के शीर्ष कलाकारों में सक्रिय रहे।


गुरुदत्त के खानदान से ताल्लुक रखने वाले श्री श्याम बेनेगल का अगर कोई परिचय हो सकता है तो यह हो सकता है कि एक दर्जन फिल्मों के नाम ले लिये जाएं और आपसे कह दिया जाये कि इनके फिल्मकार हैं श्याम बेनेगल। कुछ लोग ऐसे होते हैं जो अपने नाम से ज़्यादा अपने काम से जाने जाते हैं। भले ही, हिंदोस्तान के सिनेप्रेमियों में से कुछ ने बेनेगल बाबू का नाम न सुना हो या ठीक से परिचित न हों लेकिन उनकी फिल्मों और पुरस्कारों की फेहरिस्त जानने के बाद किसी को भी यह यक़ीन हो ही जाएगा कि एक ऐसे कलाकार का ज़िक्र हो रहा है जिसकी कला का लोहा दुनिया मानती है।

Shyam Benegal.image source: Google

1967 में बेनेगल बाबू ने पहली डॉक्युमेंट्री फिल्म बनायी थी "क्लोज़ टू नेचर"। डॉक्युमेंट्री से उनका प्रेम यूं समझिए कि अगले 40 साल यानी 2007 तक बेनेगल बाबू ने तीन दर्जन से अधिक डॉक्युमेंट्री फिल्में बनायी हैं। उनके द्वारा निर्देशित पहली फीचर फिल्म "अंकुर" 1973-74 में बनी थी। दो दर्जन से ज़्यादा फीचर फिल्मों का निर्देशन करते हुए बेनेगल बाबू एक साथ वृत्तचित्रों और टेलिविज़न के परदे पर भी काम करते रहे। यह उनकी बहुमुखी प्रतिभा और अभिव्यक्ति की कला के प्रति उनकी लगन और जुनून का स्पष्ट प्रमाण है। 

डॉक्युमेंट्री से पहले बेनेगल बाबू ने शॉर्ट फिल्में भी बनायी थीं। यह उनका फिल्म अभ्यास माना जा सकता है और यह भी उल्लेखनीय है कि वह एक एडवरटाइज़िंग फर्म के साथ जुड़े रहे थे जो विज्ञापन फिल्में बनाने के व्यवसाय में सक्रिय थी। यानी कि बेनेगल बाबू की फिल्मकार के रूप में प्रतिष्ठित होने की भूमिका पहले से ही तैयार हो चुकी थी।

बेनेगल बाबू एक जाग्रत फिल्मकार रहे और एक बड़े फलक पर कहा जा सकता है कि फिल्म के माध्यम से वह सामाजिक चिंतक, विश्लेषक एवं सुधारक की भूमिका का निर्वहन करते रहे। बेनेगल बाबू के सिनेमा के कई आयाम हैं जिन पर सार्थक चर्चा हो चुकी है और होती रही है। बेनेगल बाबू के सिनेमा ने वास्तव में भारत के सिनेमा में एक अपूर्व योगदान दिया है और अब तो यह भी कहा जा सकता है कि उनकी एक लीगेसी है। उनसे प्रेरित होकर फिल्में बनाने वाले कलाकारों की सूची भी बड़ी है।

एक ओर बेनेगल बाबू के सिनेमा पर सत्यजीत रे, ख़्वाजा अहमद अब्बास और बिमल राय जैसे पूर्ववर्ती फिल्मकारों का प्रभाव रहा वहीं, राजनीतिक रूप से वह पंडित जवाहरलाल नेहरू से प्रभावित रहे। न केवल नेहरू पर वृत्तचित्र का निर्माण उन्होंने किया बल्कि नेहरू की चर्चित किताब "दि डिस्कवरी ऑफ इंडिया" को एक टीवी शो "भारत एक खोज" के रूप में ढाला जो एक कालजयी टीवी रचना सिद्ध हुई। नेहरू से प्रभावित होने का अर्थ बेनेगल बाबू के संदर्भ में यह नहीं माना जा सकता कि वह एक कलाकार के रूप में कांग्रेस पार्टी के प्रवक्ता की तरह रहे। समय-समय पर उन्होंने कांग्रेस की आलोचना भी की और अपनी फिल्मों में कटाक्ष भी किये। वह हमेशा 1975 के आपातकाल को देश की बेहद चिंताजनक घटना मानते रहे और इसे लोकतंत्र के लिए शर्मनाक समय करार देते रहे।

(2007 में भवेश दिलशाद द्वारा किया गया श्री श्याम बेनेगल का साक्षात्कार पढ़ने के लिए निम्नांकित शीर्षक पर क्लिक करें।)

"अब लोकतंत्र में साझेदारी ज़रूरी: श्याम बेनेगल"


बेनेगल बाबू की निष्ठा विचारपरक रही, न कि व्यक्ति या संगठनपरक, ऐसा कहा जा सकता है। बहरहाल, सिनेमा में 50 सालों की बेहद सार्थक एवं कामयाब यात्रा पूरी कर चुके बेनेगल बाबू का योगदान अविस्मरणीय रहेगा। यूं भी कहा जा सकता है कि सिनेमा की यात्रा की अनोखी घटना है कि उसने बेनेगल बाबू जैसा एक हमसफ़र पाया। तमाम सिनेप्रेमियों और मुझ जैसे मुरीदों की ओर से इस महान और सशक्त कलाकार को लाल, नीला, हरा और हर रंग का सलाम।

सोमवार, अक्तूबर 30, 2017

आलेख

तो कब ख़त्म होने वाला है भाषा का झगड़ा..?


भाषा से प्रेम करते हैं हम। कहते हैं साहित्य वहां से शुरू होता है जहां भाषा शब्दों का नहीं बल्कि भावों/विचारों का अर्थ देती है। यानी भाषा इतनी महान होती है कि वह अभिव्यक्ति का माध्यम बनते ही आपको व्यक्ति के योग्य या मूर्ख होने की पहचान करा देती है।


इस आलेख के पीछे एक प्रेरणा है और एक कारण। पहले प्रेरणा का खुलासा करूं तो वह है एक साक्षात्कार। हिंदी-उर्दू के प्रचंड विद्वान और पद्मभूषण से सम्मानित किये जा चुके साहित्यकार व लेखक श्री गोपीचंद नारंग का एक साक्षात्कार मैंने 2007 में एक समाचार पत्र समूह के लिए किया था। उस साक्षात्कार से फिर गुज़रा तो यह लेख लिखने की तरक़ीब सूझ गयी। फिर शुक्रिया नारंग साहब, उन यादों के लिए जो बार-बार किसी पहलू पर चिंतन के समय उपयोगी साबित हो जाती हैं।

Gopichand Narang. image source: Google

वज्ह मुलाहिज़ा करें - कल यानी 29 अक्टूबर 2017 की शाम यहां भोपाल में वरिष्ठ कवि श्री जंगबहादुर श्रीवास्तव 'बन्धु' जी के सम्मान में एक कार्यक्रम हुआ। इस मौक़े पर पेशे से सरकारी प्रोफेसर डॉ. कृष्णगोपाल मिश्र को बन्धु जी के काव्य संग्रह 'कुछ बेलपत्र कुछ तुलसीदल' पर समीक्षा प्रस्तुत करनी थी। मिश्र जी तो तयशुदा कार्यक्रम में पहुंचे नहीं, अलबत्ता समीक्षा की प्रति भिजवा दी। फिर सम्माननीय बुज़ुर्गों के आदेश पर उस समीक्षा के वाचन की ज़िम्मेदारी मुझे सौंप दी गयी।

समीक्षा मुझे कार्यक्रम स्थल पर ही दी गयी तो मैं उसे पहले से पढ़ नहीं सका, सीधे मंच से ही पढ़ना थी। मतलब यह कि मैं वाचन करते हुए ख़ुद भी पहली बार वह समीक्षा सुन रहा था। अकादमिक ढंग से लिखी गयी वह समीक्षा इन दिनों लिखी जा रही समीक्षाओं की परिपाटी के हिसाब से ही लिखी गयी थी। एक स्थान पर मिश्र जी ने उल्लेख किया कि बन्धु जी अपने गीतों में तत्सम, तद्भव, देशज और विदेशी शब्दावली का अनूठा प्रयोग करते हैं। अब इस प्रसंग में उन्होंने "आज़ाद" शब्द को विदेशी क़रार दे दिया..!

मेरा माथा ठनका, मैंने आपत्ति दर्ज करते हुए वाचन पूरा किया और चला आया। तबसे उपरोक्त सवालों से जूझ रहा हूं। अब तक उर्दू को विदेशी भाषा मानने की प्रवृत्ति ख़त्म नहीं हुई। ये ग़लत मानसिकता अब तक हमारी सोच में समायी हुई है। यह कट्टरता नहीं है तो और क्या है? जिस साक्षात्कार का ज़िक्र मैंने पहले किया उसी से नारंग साहब का एक कथन यहां प्रस्तुत करता हूं -

"एक भाषा की मोहब्बत दूसरी भाषा को नहीं मारती। भाषा के नाम पर झगड़ा करने वाले राजनीति करते हैं और इसके लिए सिर्फ भाषा का शोषण करते हैं।
...भाषाई झगड़ा खड़ा करने वालों को समझना चाहिए कि हम बहुभाषी हैं। रोजमर्रा के जीवन में हम कम से कम दो या तीन भाषाओं से रूबरू होते हैं यानी हम एक साथ कई भाषाओं से जुड़ते हैं। और फिरए हिंदी तो इतनी उदार भाषा है कि वह किसी भाषा के आड़े नहीं आती और खुद को सबसे जोड़कर चलती है। मैं कहता हूं कि प्रयोग की सतह पर हिंदी की सबसे बड़ी ताकत उर्दू है और उर्दू की सबसे बड़ी ताकत हिंदी। बंटवारे की राजनीति में यह झगड़ा पैदा हो गया लेकिन अब इसके खत्म होने के दिन आ गए हैं।"
(श्री गोपीचंद नारंग से लिये गये साक्षात्कार को पूरा पढ़ने के लिए निम्नांकित शीर्षक पर क्लिक करें)

"हिंदी और उर्दू एक-दूसरे की ताक़त हैं"


इस रोशनी में मैं समझता हूं कि मिश्र जी जैसे लोगों को स्वयं को साहित्यकार कहने से पहले कुछ बातों का ध्यान रखना चाहिए और कुछ जायज़ सवालों के जवाब अपने अंदर तलाशने चाहिए।
  • क्या आप भाषा से प्रेम करते हैं? क्या आप साहित्य से भी प्रेम करते हैं?
  • क्या आप भारत को एक बहुभाषी देश के रूप में स्वीकारते हैं?
  • क्या आप जानते हैं कि उर्दू का जन्म भारत में ही हुआ है? या आप अपने पूर्वाग्रहों को ही सत्य मानते हैं?
  • क्या आप यह स्वीकार करने में तार्किक दृष्टि रखते हैं कि भारत की हिन्दी पट्टियों में उर्दू की बस्तियां भी हैं और यहां बोली जाने वाली भाषा में दोनों की मिली-जुली शब्दावली सांस लेती है?
  • क्या आप भाषा और साहित्य को वैमनस्य को बढ़ावा देने का हथियार बनाते हैं या समरसता क़ायम करना कला का अर्थ, औचित्य अथवा लक्ष्य समझते हैं?
  • भाषा और अदब के सच्चे फ़नक़ार एक बड़ी मुद्दत से आस लगाये बैठे हैं कि इस तरह के झगड़े ख़त्म होने वाले हैं। क्या एक साहित्यकार की हैसियत से आप इन सच्चे आशिक़ों की उम्मीदें तोड़ने बैठे हैं?
ऐसे ही तमाम सवालों और विचारों से गुज़रें और ऐसे बेढंगे, तथ्यहीन और किसी व्यक्ति या संगठन की अंधश्रद्धा से ग्रसित जुमलों को न लिखकर भाषा और साहित्य की दुनिया पर बराए-करम मेहरबानी करें। अपने ही एक शेर से इस बात को फ़िलहाल यहीं विराम देता हूं:

दे इत्रदान का अदब दे पानदान का शऊर
हों ख़ुश्बुएं ख़याल में हो ज़ायक़ा ज़बान में।

रविवार, अक्तूबर 29, 2017

सिनेमा

तस्वीरें पढ़ें और नज़्में देखें


एक श्रेष्ठ फिल्म "दि आर्टिस्ट" के बहाने से लिखा गया यह आलेख 2012 में उत्तर प्रदेश से उस समय प्रकाशित होने वाले एक साप्ताहिक पत्र "नवजन्या" में प्रकाशित हुआ था।


The Artist poster. image source: Google

एक ज़माना था जब हम 'शेक्सपियरियन' अंग्रेज़ी से हैरान थे। जहां-तहां से किताबें खोजकर उसका अंग्रेज़ी अनुवाद तलाशते थे और फिर समझते थे। और एक ज़माना यह है जब 'इंटरनेटियन' अंग्रेज़ी ने घनचक्कर बना रखा है। तुर्रा यह है कि इसका कोई अनुवाद उपलब्ध नहीं है। ऐसे-ऐसे प्रयोग और शब्द हैं कि बरसों से अंग्रेज़ी साहित्य पढ़ाने वाले प्रोफेसर भी चकरा जाएं। डूड, कूलिश, यप्पी... तो छोड़िए, यह समझिए - आय एम नॉट ओशो परसन या वी डोंट डू गोल्ड - इनका अर्थ समझते ही आपको वह सब स्कूली पढ़ाई बेकार लगने लगेगी जिसमें आपको व्याकरण के नाम पर न जाने क्या-क्या पढ़ाया जाता था। और, अब तो सारी अंग्रेज़ी भाषा स्टाइल के नाम पर प्रचलित हो रही है। उस ज़माने में हम दिग्गज लेखकों की भाषा की स्टाइल के बारे में पढ़ते थे और अब कमाल है! हर डूड भाषा के स्टाइल के मामले में तमाम दिग्गजों का बाप लगता है।

इसी सांस्कृतिक उलट-पुलट स्टाइलिश भाषा ने कई शब्द प्रचलित कर दिये हैं। अधिकतर तो न समझने लायक हैं लेकिन कुछेक हैं जो किसी प्रवृत्ति को इंगित करते दिखायी देते हैं। इन कुछेक शब्दों में से एक है 'मूवी'। कुछ ही अरसे पहले तक जिसे फिल्म या पिक्चर कहा जाता था, उसे मूवी कहा जाने लगा है। वैसे इस संकल्पना के लिए जिसे यहां फिल्म कहा जाएगा, के लिए और भी शब्द इस्तेमाल किये जाते रहे हैं, लेकिन मूवी से ही शुरू करते हैं। मूवी शब्द क्या अर्थ देता है: गतिशीलता। फिल्म शब्द के मायने क्या हैं: जब कैमरा ईजाद हुआ तो उसके जिस हिस्से से चित्र बनाने का काम हुआ, उसे फिल्म कहा गया। पिक्चर का मतलब तो सभी जानते हैं।

अब कुछ और संज्ञाओं की बात करते हैं। फिल्म के लिए शुरुआत में पिक्चर और फिर मोशन पिक्चर नाम का इस्तेमाल किया गया। मोशन पिक्चर यानी ऐसी तस्वीरें जिनमें गतिशीलता थी या चलती-फिरती तस्वीरें। इसी दौर के तुरंत बाद जब फिल्म मूक नहीं रही, उनमें आवाज़ भी आ गयी तो एक शब्द ईजाद हुआ 'टॉकी'। टॉकी का अर्थ हुआ बातचीत करने वाला/वाली। इसके बाद एक और शब्द जो काफ़ी प्रचलित रहा, वह था 'सिनेमा'। सिनेमा का अर्थ मूलतः वह स्थान है जहां फिल्म देखी/दिखायी जाती है। दूसरा अर्थ है फिल्म या फिल्म जगत से जुड़ा हुआ। हमारे सेंसर बोर्ड ने भी लंबे समय तक सेंसर प्रमाणपत्र पर फिल्मों के शीर्षकों के आगे इसी शब्द का प्रयोग किया।

इन सभी पर्यायवाची शब्दों पर अचानक चर्चा क्यों? वज्ह बिल्कुल है। इन सभी शब्दों के अर्थों के अनुसार कला की अभिव्यक्ति के एक माध्यम की प्रवृत्तियां जानी जा सकती हैं। शायद यह शोध दिलचस्प हो कि किस प्रवृत्ति के अनुसार कौन सी और कैसी फिल्में बनीं या बन रही हैं। यूं देखते हैं - आजकल जो फिल्में, खासकर हिंदी फिल्में बन रही हैं, इनमें ज़्यादातर किस श्रेणी में हैं? विज़ुअल इफेक्ट, कैमरे की तेज़ चालें, पल भर में ढेर सारी गतिविधियां परदे पर जब दिखती हैं, तो लगता है कि इसमें गतिशीलता ही प्रधान तत्व है। इसी प्रधान तत्व के आधार पर इसे मूवी कहना उचित है। लेकिन, क्या गतिशीलता ही फिल्म का प्रधान तत्व है? यह विचार करने लायक प्रश्न है।

एफटीआईआई में कुछ अरसे पहले हुए एक सम्मेलन में हिस्सा लेकर कई निेर्दशकों और फिल्मी कलाकारों को सुनने का मौक़ा मिला था। वहां गुलज़ार साहब की कही बात याद आ रही है - 
"फिल्में अपनी एक भाषा बना रही थीं, किसी भाषा की मोहताजी से परे जा रही थीं, लेकिन न जाने क्या हुआ कि यह काम नतीजे तक पहुंच नहीं पाया... वरना आज हम तस्वीरें सुन रहे होते और नज़्में देख रहे होते।"

अस्ल में, फिल्म का प्रधान तत्व यही ख़ूबसूरती है। गतिशीलता हो, लेकिन इतनी नहीं कि सोच, चित्रात्मकता का प्रभाव, ठहराव और दृश्यात्मकता का अतिक्रमण हो जाये। फिर, गतिशीलता कैमरे या चित्रों की नहीं, बल्कि कथानक की हो तो मायने रखती है। भाव-प्रवाह, विचार-प्रवाह और मन, उस गतिमान तस्वीर के साथ बहता चले, तो गतिशीलता है अन्यथा तो दौड़-भाग ही है। और, दौड़-भाग को गतिशीलता नहीं, दौड़-भाग ही कहते हैं। तो, इस हिसाब से, फिल्म या मोशन पिक्चर सटीक संज्ञाएं हैं, शेष बदलते वक़्तों और बदलते स्टाइलों के कारण से उपजे शब्द हैं।

उम्मीद है, कि इतने अलफ़ाज़ कहना ज़ाया नहीं हुआ होगा। और, अचानक इतने अलफ़ाज़ क्यों? इसकी वज्ह है बेहतरीन फिल्म 'दि आर्टिस्ट'। इस फिल्म को देखकर काफ़ी हद तक तस्वीरों को सुनने और नज़्मों को देखने का एहसास हुआ। फिल्मों की अपनी एक भाषा हो सकती है, यह भी साबित हुआ और बेहद कलात्मकता के साथ। इस फिल्म को ऑस्कर पुरस्कार मिल गये हैं, तो संभव है कि भाषा के बेमानी स्टाइल के चक्करों में फ़ितूरी अलफ़ाज़ ईजाद करने वाले नौजवान डूड भी इसे देखें। अगर देखें तो यह ज़रूर समझें कि ख़ामोशी और सधी हुई भाषा सब कुछ कहने में सक्षम है, अगर कुछ कह नहीं भी पाती, तो उसे कहा जाना ज़रूरी है भी नहीं।

एक पहलू और है कि मूक या अभाषी फिल्मों में शब्दों की कितनी अहमियत, कितना मतलब और कितना सम्मान है। और, बोलती फिल्मों ने शब्दों को कितना निरर्थक बना दिया है... इस पर बातचीत फिर कभी।

शनिवार, अक्तूबर 28, 2017

चिट्ठी

परवीन शाक़िर के नाम एक ख़त

मेरे एहसास की तर्जुमानी करतीं तुम


यह चिट्ठी 13 अक्टूबर 2005 को लिखी गयी थी और इसके कुछ ही बाद मध्य प्रदेश साहित्य अकादमी की पत्रिका "साक्षात्कार" में इसका प्रकाशन हुआ था।


नाम सुना था और कुछेक अशआर भी, लेकिन धुंधले हो चुके थे। पिछले दिनों एक शाम अचानक पढ़ने को मिलीं तुम्हारी ग़ज़लें और नज़्में। मुरीद के सिवाय क्या होना था इख़्तियार में। सोचा तुम्हें ख़त लिखूं, कभी मुलाक़ातें हों, बातें हों और हो सके तो कुछ और भी। बस, बेतरह तुम्हारे तसव्वुर में रात ढलने लगी।

Parveen Shakir. image source: Google
सोच भी ली थी, ख़त लिखने की तरतीब, एक तरक़ीब कह लो। लिखता तो शायद यूं लिखता कि मेरे एहसास की तर्जुमानी करतीं तुम्हारी ग़ज़लें, नज़्में पढ़ीं। सोचा कि कुछ बात कर लूं, फ़िलहाल ख़त के ज़रीये ही। बात करने लगा तो बात निकलती ही गयी जैसे चादर हटा के बर्फ़ की लहराने लगे हों हर्फ़ और तुम्हारी ग़ज़लों का तआस्सुर ये कि इन हर्फ़ों ने मेरा लिहाज़ भी रखा जैसे सूरज की शह पे तिनके भी बेबाक़ हो गये। चाहो तो ख़ता कह देना लेकिन ये क़तई नहीं कि बच्चे हमारे अहद के चालाक हो गये। यक़ीन मानो मैं तुम्हारे अलफ़ाज़ से इतना मुतास्सिर हुआ कि तुम्हारे हुस्न का क़ायल हो गया। जी में आया कि तुम फ़ौरन हिंदोस्तान चली आओ और ये भी ऐतबार था मुझे कि अगर ऐसा हो जाये तो फिर तुम्हारी रिफ़ाक़त के लिए, मौसमे-गुल मेरे आंगन में ठहर जाएगा

हालांकि हम पहले कभी नहीं मिले। फिर भी न जाने क्यूं मुझे लगता है जैसे हम एक ही रूह के टुकड़े हों। हमारे आंगन अलग सही मगर उन पर एक ही बादल बरसता हो, हमारी प्यासी प्यास अलग सही लेकिन समंदर उतना ही चाहिए हो और जैसे मुझ पर एहसान करती हवा तेरी ख़ुश्बू का पता करती है। इन्हीं सब बातों के बीच मेरी दीवानगी ने तुमसे एक रिश्ता सा क़ायम कर लिया। एक पुल जिसके दोनों सिरे किसी धुंध में ग़ायब हों, यही ख़्वाहिश कि मैं वो सिरा तलाश लूं और तुम ये। एक डर तो रहता ही है सो था कि आख़िर किसकी तलाश पूरी हुई है। इन्हीं ख़्वाहिशों को लिये कितने बुलंदो-बाला शजर ख़ाक हो गये। बस, इसी तरह शब ढल गयी।

अगली शाम फिर तुम्हारी ग़ज़लों और नज़्मों की महफ़िल सजी। मैं कभी मुस्कुराया, कभी उदास हुआ, कभी तुम हो गया तो कभी रूह तक आ गयी तासीर मसीहाई की। आज तुम्हारी तस्वीर भी देखने को मिली। यक़ीन मानो तुम्हारी शायरी से कम ख़ूब नहीं लगी। तुम्हारा ही मिसरा याद आया चांद भी ऐन चैत का उस पे तेरा जमाल भी। सोचने लगा कि बख़्शने वाले ने तुम्हें सब कुछ बख़्शा। ऐ क़ाश कुछ कमी छोड़ देता। कम से कम तुम्हारे जैसे मासूम फूल को दुख न बख़्शता। लेकिन, वो तुमसे बहुत पाकीज़ा मुहब्बत करता होगा, इसीलिए तो फूल के सारे दुख ख़ुश्बू बनकर बह निकले हैं। यक़बयक़ महसूस हुआ कि ये मैं क्या कह रहा हूं? अगर ऐसा होता तो ये ख़ुश्बू कैसे बिखरती और मुझे कैसे महकाती। और फिर इस महरूमी के क्या मायने होते मेरे लिए, मुआफ़ करना शायद ये मेरी ख़ुदगर्ज़ी ही है। लेकिन ये बहुत बड़ा सच ही मानो कि मेरे लिए तुम्हारे वजूद का हर पहलू लाज़िमी है, ख़ास है और रहेगा।

ख़ैर, मेरी बातें छोड़ो। आगे सुनो, रात हुई और बिस्तर पर तुम्हारे एक शेर की सलवटें उभरने लगीं बिछा दिया था गुलाबों के साथ अपना वजूद/वो सो के उठे तो ख़्वाबों की राख उठाउंगी। हर सलवट पर बतौर औरत तुम्हारी पाकीज़गी, संजीदगी, समर्पण और मासूमियत मुझे साफ़ दिख रही थी। मैं तुम्हारा क़ायल हो रहा था। सांसों की जगह ग़ज़ल भरतीं तुम अपनी ही नज़्मों के बदन में ढलकर मेरे आसपास थीं उस वक़्त। मैं चाहता रहा कि मेरी निगाहें तुम्हारे चेहरे पर ग़ज़ल लिखती जाएं मगर... कुछ देर बाद उठा तो खिड़की पर चांद ने दस्तक दी। तुम्हारे ख़यालों में डूबा मैं उसे तकने लगा कि अचानक एक बादल ने उसे पूरा ढांक लिया। तब एक और खुलासा हुआ मुझ पर कि इतने घने बादल के पीछे/कितना तनहा होगा चांद। तुम समझ सकती हो कि बादल और चांद के मायने क्या थे मेरे लिए। मालूम नहीं था सिर्फ़ एक ध्यान रहा कि शायद पाकिस्तान में भी रात हो रही होगी और एक बज रहे होंगे। मेरे होंठों की लर्ज़िश से आवाज़ ये निकली सोता होगा मेरा चांद। कहीं नींद न टूट जाये, मैंने तड़पकर अपने लबों पर उंगली रख ली। लेकिन मजबूरी शायद इसी को कहते हैं कि मैं अपने बोलते हुए तसव्वुरात पर उंगली नहीं रख पाया। अपने अहवाल का ज़िक्र ज़रूरी तो नहीं लेकिन कहे बगैर रह नहीं पाउंगा तुम्हारा शेर ऐसे मौसम भी गुज़ारे हमने/सुब्हें जब अपनी थीं शामें उसकी। और रात का इज़ाफ़ा समझाने की बात तो नहीं। ये कोई शिक़ायत नहीं क्योंकि मेरी नींद ये सोचकर टूट चुकी थी कि किस तरह कटती हैं रातें उसकी। थोड़ी देर बाद अधूरी नींद में नीम ख़्वाबीदा आंखों में तुम्हारा ही ग़ुमान उतरने लगा। फिर दिन हो गया और दुनियावी मसाइल मुझे अपने आग़ोश में लेने लगे।

शाम ढली और मुझे ख़बर नहीं थी कि एक सदमा मुझे आज झेलना होगा। तुम्हारा लाइफ़ स्कैच पढ़ने को मिला। आख़िर तक पहुंचा और अंदर-अंदर कुछ चटकने की आवाज़ों की तासीर मेरी पलकों ने बयान की। काश, 1994 के कैलेंडर में 26 दिसंबर की तारीख़ ही नहीं होती। काश ऐसा होता, काश वैसा होता... इस शाम बड़ा मन था कि तुमसे मुलाक़ात होगी, और बातें होंगी मगर..! अजीब तर्ज़े-मुलाक़ात अबकि बार रही/रवायतन ही सही कोई बात तो करते। मेरा एक सुनहला सपना धुंधला हुआ है। इरादा करता हूं कि इसे अंधेरों या ग़र्द की चादर के पीछे गुम नहीं होने दूंगा। वादा करता हूं कि जो सपना देख लिया था तुमसे मिलने का, बातें करने का और हो सके तो कुछ और का भी, उसे पूरा करने की कोशिश ताउम्र करता रहूंगा। मैं देख रहा हूं कि तुम "वहां" एक नीली झील के पास खड़ी हुई पानी में अपना अक़्स देख रही हो और हैरान हो रही हो कि क्या-क्या दिख रहा है। मुझे भी वहां आना नसीब हो कभी, वहीं मेरे उस सुनहले सपने की ताबीर हो। तुम्हारी क़सम अबसे मैं एक नेक इंसान बनने की राह पर ही क़दम रखूंगा क्योंकि अब मैं सब कुछ बर्दाश्त कर सकता हूं लेकिन ये क़तई नहीं कि मैं "वहां" न आ सकूं जहां तुम हो।

चाहो तो पुकार लो
दिलशाद

संगीत

ग़ज़ल गायकी: एक सफरनामा


ग़ज़ल के गायन से जुड़ी तक़रीबन डेढ़ हज़ार सालों की तारीख़ को प्रामाणिक ग्रंथों के हवाले से समेटता यह संक्षिप्त आलेख साहित्य सागर, अर्बाबे-कलम और देव भारती आदि कुछ पत्रिकाओं में प्रकाशित हो चुका है।


19वीं सदी के पूर्वार्ध की बात है जब मिर्ज़ा ग़ालिब को दरबारों में एक शायर के तौर पर नकारा जाता था। ग़ालिब को अपने कलाम पर पूरा यक़ीन था, बावजूद इसके उन्हें जब एक शायर की हैसियत और वक़ार हासिल नहीं हो रहा था, उस दौरान उन्होंने अपने एक कलाम को एक कोठे से एक तवायफ़ की आवाज़ में सुना और वहां जाकर उन्होंने यह मालूम किया कि उन तक ये ग़ज़ल कैसे पहुंची। इसके कुछ ही दिनों बाद गली-कूचों में गाते हुए भीख मांगते हुए एक फ़कीर को उन्होंने सुना तो वह भी उनका ही कलाम गुनगुना रहा था। तब बेसाख़्ता उनके मुंह से निकला "जो कलाम कोठे में तवायफ़ और कूचे में फ़कीर की ज़ुबान पर हो, उसे कौन मार सकता है !" इस घटना के संदर्भ में गौर करें तो ग़ज़ल गायकी अपने इब्तिदाई दौर में फ़कीरों और तवायफ़ों से जुड़ी रही। हज़रत अमीर खुसरौ न सिर्फ एक मुकम्मल शायर थे, बल्कि संगीत का भरपूर ज्ञान रखते थे। उन्होंने एक तरह के सितार के ईजाद की थी। हज़रत खुसरौ और उनके बाद ग़ज़ल गायन की यात्रा से पहले कुछ बात उनसे पहले की ज़रूरी है।

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आचार्य बृहस्पति लिखित संगीत चिंतामणि में एक हवाला दिया गया है "हज़रत मुहम्मद के जन्म से पूर्व के कुछ अरबी ग्रंथ रामपुर के रज़ा पुस्तकालय में सुरक्षित हैं जिनमें कुछ गीतों की विशिष्ट स्वर-लिपि भी है"। इसी ग्रंथ में एक और बात स्पष्ट की गयी है कि 8वीं सदी के पूर्वार्ध में "मोहम्मद बिन कासिम के आक्रमण के बाद मनसूरा, कदावेल, वैजा, महफूज़ा और मुल्तान जैसी बस्तियां अरब और भारत के संगीत का संगमस्थल बन गयी थीं"। गोया कि यहां से हम उस तहज़ीब का बीजारोपण मान सकते हैं जो बाद में गंगा-जमुनी तहज़ीब के नाम से जानी गयी। 8वीं और 9वीं सदी में संगीत की विभिन्न धाराओं का प्रचार शुरू हुआ। नतीजा यह हुआ कि भारत के संगीत के साथ-साथ अरब के मुसलमानों का प्रचलित संगीत और फारस का संगीत भारतीय सीमाओं में गूंजने लगा। वस्तुतः हर संगीत के स्वभाव एवं गुणों में फर्क था। उपरोक्त ग्रंथ के ही अनुसार मुल्तान क्षेत्र में अरब मुसलमानों के प्रभाव से धुनों और रागों का जन्म हो रहा था, वहीं मोइनुद्दीन चिश्ती अजमेरी अजमेर की लोक भाषा के छंदों और प्रचलित धुनों में गायकी के लिए कव्वालों को प्रेरित कर रहे थे। यह कोई प्रतिद्वंद्विता जैसी स्थिति नहीं थी, लेकिन अपनी मान्यताओं और कलाओं का प्रचार अवश्य था। 1967 के संगीत पत्रिका के अंक में उल्लेख है कि बनी अब्बास के ज़माने तक स्थायी कला के रूप में ग़ज़ल गाने का प्रचार हो गया था। यह भी बताया जाता है कि इब्राहीम बिन महदी, इब्राहीम मुसली, इसहाक इब्ने इब्राहीम और हमीद इब्ने इसहाक बड़े-बड़े गायक उस ज़माने में पैदा हुए।

अलक़िस्सा, 12वीं सदी तक ग़ज़ल गायन मौसिक़ी की एक महत्वपूर्ण धारा बनकर उभरा। डॉ. प्रेम भंडारी लिखते हैं कि भारतीय संगीत में ग़ज़ल गायकी के प्रचार का एक बहुत बड़ा श्रेय सूफ़ी संतों को है। अनेक आलोचक मानते हैं कि भारत में ग़ज़ल गायकी का प्रचलन 13वीं शताब्दी के पूर्व ही हो चुका था। डॉ. श. श्री. परांजपे लिखते हैं कि सूफियों ने प्रार्थना संगीत में फ़ारस की ग़ज़ल को स्थान दिया और उसे भारतीय रागों और तालों में ढालने की शुरुआत की। कुछ ग्रंथों में उल्लेख मिलता है कि सन् 1210 से 1388 तक ग़ज़ल आम जनजीवन और दरबारों में शोहरत पा चुकी थी। इस वक़्त में कव्वाल मेहमूद, मोहम्मद और खुदादी जैसे ग़ज़ल गायकों के नाम लिये जाते हैं। कहा जाता है इल्तुतमिश, बलबन, खिलजी, तुग़लक जैसे शासकों के युग में ग़ज़ल गायकी को सम्मान मिला। इसी समय के बीच में हज़रत खुसरौ हुए जो ग़ज़ल के साहित्यिक और सांगीतिक विकास के एक महत्वपूर्ण स्तंभ माने गये। अनेक लेखकों और ग्रंथों में माना गया है कि भारत के लोकजीवन में ग़ज़ल को प्रचलित और प्रतिष्ठित करने में उनकी भूमिका सराहनीय रही। "मुसलमान और भारतीय संगीत" नामक पुस्तक में ज़िक्र है कि दक्षिण के मोहम्मद शाह प्रथम के दरबार में 300 गायकों द्वारा खुसरौ की ग़ज़लें गायी गयीं।

इसके बाद संगीत कला की उन्नति हुई, लेकिन ग़ज़ल का साहित्यिक सफर कुछ ठहर सा गया। चूंकि ग़ज़ल एक मुक़ाम हासिल कर चुकी थी इसलिए ग़ज़ल का सांगीतिक सफ़र जारी रहा, लेकिन 14वीं और 15वीं सदी में ही ये हालात बन गये कि गायक पूर्ववर्ती शायरों की ही ग़ज़लें गाते थे, समकालीनों की ग़ज़लें बहुत कम। इंडियन म्यूज़िक नामक किताब में गार्ली ओबिंस लिखते हैं कि सिकंदर लोदी विद्वानों का आदर करता था और उसके समय में भारतीय संगीत की उन्नति हुई। ख़्याल और ग़ज़ल अधिक बने। फिर, मुग़लकाल भारतीय कलाओं के स्वर्ण काल के रूप में जाना जाता है। इस समय में एक तरफ़ तो हिंदी का कालजयी लोक काव्य रचा जा रहा था, दूसरी ओर, कुछ उल्लेखनीय शायर ऐसा काव्य रच रहे थे जो एक नयी भाषा की आमद का संकेत था, जिसे बाद में उर्दू कहा गया। यह हिंदोस्तान में पैदा हुई एक ऐसी ज़ुबान थी, जिसमें बहुत से रंग मिले-जुले थे।

मुगल बादशाह अकबर के समय में फ़ैज़ी, नज़ीरी, शेख सादी मक़बूल शायर थे और तानसेन, बैजू और रामदास जैसे सिद्ध गायकों द्वारा ग़ज़लें गाये जाने के उल्लेख मिलते हैं। जहांगीर कलाओं का शौकीन था और भगवतीशरण शर्मा लिखते हैं कि उसे संसार में कुछ पसंद था तो शांति और संगीत। इसके बाद शाहजहां के काल में रोज़ा और अकबर प्रमुख ग़ज़ल गायक हुए तो नासिर अफ़ज़ली इलाहाबादी और पंडित चंद्रभान उर्दू के प्रमुख शायर। शर्मा जी लिखित "भारतीय संगीत का इतिहास" नामक पुस्तक में उल्लेख है कि शाहजहां के समय में संगीत नये सांचों में ढला, नयी राग-रागिनियों की रचना हुई और ईरानी-अरबी संगीत का भारतीय संगीत में तीव्रता से सम्मिश्रण हुआ।

फिर, औरंगज़ेब के समय में संगीत और शायरी को दरबार में जगह नहीं मिली, लेकिन इसका फायदा यह हुआ कि संगीत, शायरी और ग़ज़ल गायन को छोटी-छोटी रियासतों में पनाह मिली जिससे इन कलाओं का विस्तार हुआ और ये लोकजीवन से जुड़ने लगीं। इसके बाद, मोहम्मद शाह रंगीले के समय को भारत में ग़ज़ल और ठुमरी गायन का उत्कर्ष काल माना जाता है। औरंगज़ेब की एक पुत्री दिलरस बानो उर्फ़ ज़ेबुन्निसा विद्वान संगीतज्ञ थी। उसी परंपरा में, रंगीले के समय में घूमन और हसीना दो प्रमुख ग़ज़ल गायिकाएं हुईं। इस काल में अनेक प्रसिद्ध संगीतज्ञों के नाम आते हैं। इसी सिलसिले को बुलंदी मिली बहादुर शाह ज़फ़र के समय में। ज़फ़र खुद एक बड़े शायर थे। रंगीले और ज़फ़र के बीच के समय में मीर और दर्द जैसे महान शायर हुए तो ज़फ़र के समय में ग़ालिब, मोमिन, ज़ौक़ आदि अनिवार्य शायर हुए। इस समय में प्रसिदु जी, विश्वेश्वर मिश्र, मनहर मिश्र जैसे आला ग़ज़ल गायक भी हुए और डोमनी नाम की प्रसिद्ध ग़ज़ल गायिका भी इसी समय में हुई। कहा जाता है कि शास्त्रीय संगीत के उत्कृष्ट गायक मौलाबख़्श भी ग़ज़ल गाते थे।

मुग़लों के पतन के बाद, अंग्रेज़ी हुकूमत के दौरान ग़ज़ल गायकी परवान चढ़ती गयी और लगातार विकसित होती रही। मुग़लकाल के पतन के प्रारंभ के समय से ही ग़ज़ल कोठों तक आम हो चुकी थी। तवायफ़ें मुजरों में ग़ज़लें गाती थीं और उनसे ठुमरियों और ग़ज़लों की ही फरमाइशें हुआ करती थीं। अंग्रेज़ी शासनकाल में यह सिलसिला चलता ही रहा, लेकिन इसके साथ ही ऐसे कुछ संगीतज्ञ ग़ज़ल से जुड़ने लगे जो समाज और धर्म में प्रतिष्ठित थे। इन्होंने ग़ज़ल गायकी को नये आयाम दिये। फैयाज़ खां, रशीद अहमद खां, मजी खां, पंडित लक्ष्मण प्रसाद, आदि उस्ताद संगीतज्ञ थे जिन्होंने ग़ज़ल गायी और ख्याति पायी।

20वीं सदी के प्रारंभ में एक महत्वपूर्ण घटना यह घटी कि एक ऐसी तकनीक का आविष्कार हुआ जो संगीत को रिकॉर्ड कर सकती थी। इसके बाद गायकों को धीरे-धीरे अधिक लोकप्रियता मिलना शुरू हुई। भारत में 1908 के बाद रिकॉर्डिंग शुरू होने के प्रमाण मिलते हैं, जिसे प्रचलन में आने में करीब 20 साल का समय लगा। इसके बाद कोठों में ग़ज़लें गाने वाली डेढ़ दर्जन से ज़्यादा गायिकाएं प्रमुख ग़ज़ल गायिकाओं के रूप में दर्ज हो गयीं। डॉ. प्रेम भंडारी ने 1913 के बाद से स्वतंत्रता प्राप्ति के पहले तक के प्रमुख ग़ज़ल गायकों की गायकी का विश्लेषण करते हुए लिखा है कि इस समय की ग़ज़लों पर ठुमरी, दादरा, ठप्पा और कव्वाली शैलियों का प्रभाव रहा। साथ ही, ग़ज़ल गायकी शास्त्रीय संगीत की रागों पर आधारित रही।

स्वतंत्रता के बाद के ग़ज़ल गायन में कुछ तब्दीलियां दिखायी देती हैं। ग़ज़लों पर दिखने वाली ठुमरी, दादरा आदि की छाप धीरे-धीरे ख़त्म होने लगी। शुद्ध रागों के अलावा ग़ज़लों में विवादी स्वरों का प्रयोग होने लगा और रागों से अलग हटकर भी ग़ज़लें गायी गयीं। दो-एक फ़र्क ऐसे भी आये जो पूर्ववर्ती युग की ग़ज़ल गायकी में सुधार करते थे जैसे ग़ज़ल की भावना और संवेदना को समझकर उसके अनुकूल रागों या धुनों का चयन किया जाना और ग़ज़ल के अलफ़ाज़ के सही और शुद्ध उच्चारण पर ध्यान दिया जाना आदि। सरगम, आलाप और तानें भी इस दौर की ग़ज़ल गायकी में इज़ाफ़ा मालूम होती हैं।

फिल्मों के संगीत ने ग़ज़ल को बेहद लोकप्रिय बनाया और कई गायकों ने ग़ज़ल गायक के तौर पर खुद को स्थापित किया तो कुछ ने गीतों के साथ ग़ज़लें भी बखूबी गायीं। बेग़म अख़्तर, केएल सहगल, तलत मेहमूद, मोहम्मद रफ़ी आदि गायकों को ग़ज़ल गायकी में अपार सफलता मिली। तलत मेहमूद की मखमली आवाज़ ग़ज़ल के लिए बेहद माकूल साबित हुई।

50 के दशक के उत्तरार्ध में एक नाम ग़ज़ल की दुनिया में बड़ी तेज़ी से उभरा और कुछ ही समय में शहंशाहे ग़ज़ल कहा जाने लगा। यह नाम था मेंहदी हसन। विभाजन के बाद पाकिस्तान चले गये हसन ने रेडियो लाहौर से मीर की ग़ज़ल गायी "देख तो दिल कि जां से उठता है" और उसके बाद उनकी ग़ज़ल गायकी को पीछे मुड़कर नहीं देखना पड़ा। हसन ने मीर, ग़ालिब, दाग़ जैसे शायरों के साथ ही समकालीन शायरों की ग़ज़लें गायीं और न सिर्फ खुद को बल्कि अपने हमअस्र शायरों को भी शोहरत दिलायी। इन शायरों में अहमद फ़राज़, क़तील शिफ़ाई, परवीन शाकिर, फ़रहत शहज़ाद और खातिर आदि के नाम प्रमुख हैं। हसन की बेजोड़ गायकी ने ग़ज़ल गायन परंपरा में जो योगदान दिया उसकी मिसाल यह है कि कई ग़ज़ल गायक उनकी गायन शैली से प्रभावित होकर भी प्रसिद्ध हुए और उनके नाम से ग़ज़ल गायकी में हसन घराना सोने के सिक्के की तरह प्रचलित है। हसन से प्रभावित होने वाले मशहूर ग़ज़ल गायकों में जगजीत सिंह, परवेज़ मेंहदी, राजकुमार रिज़वी, हरिहरण, असलम खान आदि प्रमुख हैं।

इसी तरह बेग़म अख़्तर से प्रभावित ग़ज़ल गायकों में नैना देवी, इकबाल बानो, शोभा गुर्टू, रीता गांगुली, नूरजहां, छाया गांगुली आदि के नाम प्रमुख हैं। इसके अलावा एक ऐसी धारा के कुछ गायक भी अपना नाम स्थापित करने में कामयाब हुए जो ग़ज़ल गायकी की किसी खास शैली से प्रभावित नहीं रहे लेकिन उनकी गायकी में हर शैली की छाप कहीं न कहीं कमोबेश दिखती है। ऐसे गायक अपने अलहदा और ख़ास अंदाज़ की वजह से मक़बूल हुए लेकिन जिस तरह ग़ालिब ने मीर का ऐहतराम किया, उसी तरह ये गायक भी अपने पूर्ववर्ती हसन, बेगम अख़्तर, मलिका पुखराज और उनसे पहले के गायकों का प्रभाव खुद पर स्वीकार करते रहे। इस धारा के गायकों में सबसे बड़ा नाम गुलाम अली का है जिनके भारत और पाकिस्तान में अनेक मुरीद हैं। फ़रीदा खानम, पंकज उधास, अनूप जलोटा और मोहम्मद हुसैन-अहमद हुसैन आदि कुछ ऐसे नाम हैं जिन्हें इसी धारा के अंतर्गत प्रमुख ग़ज़ल गायक तस्लीम किया जा सकता है।

पिछले दिनों मेंहदी हसन, जगजीत सिंह के निधन के बाद ग़ज़ल के गलियारों में एक सन्नाटा पसरा रहा। ग़ज़ल के भविष्य को लेकर आए-दिन कलाजगत में चर्चाएं होती हैं। ग़ज़ल गायन के आने वाले कल को लेकर एक संशय की स्थिति बनी हुई है। इसका एक कारण तो यह है कि ग़ज़ल के प्रति गायकों का रुझान कम हो रहा है क्योंकि इसे व्यावसायिकता की दृष्टि से एक विशिष्ट वर्ग की वस्तु मान लिया गया है। और, बड़ा कारण यह है कि इस समय में ग़ज़ल और खासकर उस खास ज़ुबान, जो ग़ज़ल के लिए मुफ़ीद मानी जा सकती है, को सामाजिक जीवन में बहिष्कार जैसी स्थिति का सामना करना पड़ रहा है। जब ग़ज़ल सुनने, समझने और चाहने वालों के वर्ग को समाप्त कर दिया जाएगा तो ग़ज़ल गाने वाले वर्ग का महदूद होते जाना स्वाभाविक ही है। फ़िलहाल पाकिस्तान में यह स्थिति कम ख़तरनाक दिख रही है, लेकिन भौतिकवादिता की जड़ें और अंग्रेज़ियत का भूत वहां भी पनपने लगा है। भारत में यह चिंता का विषय है।

शायरी में इज़ाफ़त तो दूर, फ़िक्रो-तसव्वुर का खूबसूरती और मानीखेज़ तरीके से दिखायी देना दुर्लभ होता जा रहा है। शायरी की बदहाली का आलम यह है कि शायरों के घरों में उनकी क़द्र नहीं होती और खुद शायर अपने बच्चों को यह समझा पाने में दिलचस्पी नहीं रखते कि वे एक कला के साधक हैं और वे जो हैं, वह सम्मानजनक है। ग़ज़ल की शायरी और गायकी को एक धरोहर मानकर उसे सहेजे जाने की ज़रूरत है और यह तभी संभव है कि जब शिक्षा और परिवारों के परिवेश में संस्कारों और अपनी निजी संस्कृति से आने वाली पीढ़ियों को परिचित कराया जाये और जोड़ा जाये।

शायरी

शायरों से जुड़े कुछ रोचक प्रसंग


शायरी की दुनिया में बहुत से दिलचस्प वाक़यात हैं कुछ सुने, कुछ कम सुने और कुछ अनसुने भी। ख़ुसरो से लेकर दिलशाद तक शायरों की ज़िंदगी में ऐसे कुछ प्रसंग हैं जिन्हें पढ़कर लुत्फ़ भी आता है तो कभी कुछ सबक़ भी मिल जाते हैं। कुछ चुनिंदा टुकड़े यहां


दिलचस्प 1: मीर को अपनी ही कौम की एक लड़की से इश्क़ था जिसके लिए उन्होंने पारिवारिक और सामाजिक बंधनों को तोड़ा भी लेकिन अंततः मायूसी हाथ लगी। मीर के इश्क़ का उत्कर्ष यह था कि सारी ज़िंदगी उन्होंने उसी लड़की की चाहत में काटी, इसलिए उनकी शायरी में इश्क़ की पाकीज़गी और इंतिहाई दर्द के कलाम अक्सर मिलते हैं।

दिलचस्प 2: नज़ीर फ़कीराना मिज़ाज के शायर थे। आगरा में जाटों के हमले में उनका घरबार और तमाम मालो-ज़र लुट गया। लूट के शिकार नज़ीर की खबर जब आम हुई तब नवाब वाजिद अली शाह ने आपको बहुत सा धन भिजवाकर लखनऊ बुलवाया लेकिन फ़कीरी का आलम यह था कि नज़ीर ने वह धन लौटा दिया और लखनऊ नहीं गये। हालांकि वह धन की कीमत ख़ूब समझते थे सो धन की महिमा गाती एक नज़्म ज़रूर लिख दी जिसमें दौलतमंदों पर करारे तन्ज़ किये गये।

दिलचस्प 3: ग़ालिब से जुड़े कई दिलचस्प किस्से हैं। इनमें से एक काफी मशहूर है। ग़ालिब अपनी हाज़िरजवाबी के लिए भी जाने जाते थे। वह आम खाने-खिलाने का शौक़ रखते थे। एक मौसम में ढेर सारे आम रखकर एक नुक्कड़ पर यारों-दोस्तों के साथ वह आम खा रहे थे और सभी आम के छिलके गली में ही फेंकते जा रहे थे। तभी एक कुम्हार अपने गधे को लेकर उस गली से गुज़रा। गधे आम के छिलकों और गुठलियों को सूंघा और मुंह फेर लिया, तभी ग़ालिब के एक साथी ने चुटकी ली कि "देखा मिर्ज़ा नौशा आम तो गधे भी नहीं खाते", इस पर ग़ालिब ने तुरंत जवाब दिया "मियां जो गधे होते हैं, वो आम नहीं खाते"।

दिलचस्प 4: मजाज़ लखनवी आज़ादी के बाद के युग में मशहूर होने वाले शायर थे। बाकमाल शायरी के साथ उनके कुछ शौक भी काफी चर्चित रहे जैसे आशिकमिज़ाजी और शराबनोशी। वह बेतहाशा शराब पीने के लिए बदनाम भी थे। एक दफ़ा उनके एक दोस्त ने सलाह दी कि शराब पीने का एक उसूल बनाओ, सामने घड़ी रखा करो और तय वक़्त तक ही शराब पिया करो। इससे कई मुश्किलें हल हो जाएंगी। जवाब में मजाज़ ने कहा कि मेरा बस चले तो घड़ी नहीं घड़ा रखकर पिया करूं।

दिलचस्प 5: एक मुशायरे का किस्सा है। मंच पर शायरों में अनकही प्रतिद्वंद्विता चलती थी। एक शायर ने शेर पढ़ा "ख़त कबूतर किस तरह ले जाये बामे-यार पर/पर कतरने जब लगी हों कैंचियां दीवार पर"। कुछ देर बाद दूसरे शायर ने जवाबी शेर पढ़ा - "ख़त कबूतर इस तरह ले जाये बामे-यार पर/ख़त का मजमूं हो परों पर पर कटे दीवार पर"।

दिलचस्प 6: ऐसा ही एक किस्सा 19वीं सदी के एक मुशायरे का है। तब मजलिसों में हिंदू-मुसलमान शायरों के बीच रंजिश सी पला करती थी। मुसलमान शायर हिंदू शायरों का मखौल उड़ाया करते थे। एक दफ़ा मुशायरे में एक वरिष्ठ हिंदू शायर को नीचा दिखाने के लिए मिसरा उछाला गया- "हैं वो क़ाफ़िर जो नहीं क़ायल हुए इस्लाम के’ और इस पर शेर बांधने की शर्त रखी गयी। तब क्या ख़ूबी से उस शायर ने बाज़ी पलट दी। ग़ौर से देखिये - "लाम की मानिंद हैं गेसू मेरे घनश्याम के/हैं वो क़ाफ़िर जो नहीं क़ायल हुए इस लाम के"।

शुक्रवार, अक्तूबर 27, 2017

आलेख

आदिशक्ति के अस्तित्व पर पौरुष का संकट


यह आलेख वर्ष 2003 में महिला उत्पीड़न से जुड़ी एक खबर के बाद एक समाचार पत्र के संपादकीय पृष्ठ पर प्रकाशन हेतु लिखा गया था। हालांकि इस आलेख में कुछ संशोधन किये गये हैं लेकिन घटनाओं का उल्लेख 2003 के अनुसार ही रखा गया है।


शक्ति और रोशनी का रिश्ता कई परतों का है। जब शक्ति से अंधेरों का सीना चीरकर रोशनी की तरफ बढ़ा जाता है और रोशनी की हिफ़ाज़त की जाती है तब शक्ति हितकारी होती है। वैयक्तिक स्तर से वैश्विक स्तर तक। जब उसी शक्ति से रोशनी पर काबिज़ हो जाया जाता है और रोशनी का व्यापार किया जाता है, तब रोशनी की शक्ति काम करती है। रोशनी ख़ुद शक्ति बन जाती है और मनुष्य की शक्ति को अंधेरों की अतल गहराई में डुबो देती है। रोशनी का स्वभाव ही फैलना है, क़ैद उसे किया नहीं जा सकता। भलाई इसी में है कि इस प्रकार का प्रयास किया न जाये। ये तथ्य शायद वैदिक काल या उससे पहले ही समझ लिये गये होंगे अन्यथा शक्ति को न तो दैवीयता मिलती, न ही उसकी आराधना की परंपरा चलती। सूर्य-चन्द्र भी देव माने गये और प्रकाश के विभिन्न पुंजों का महत्व भी रूपायित किया गया।

भारतीय सभ्यता और हिंदू संस्कृति-धर्म में शक्ति एक देवी की तरह पूजी गयी। अर्थात् उसका स्वरूप स्त्री के रूप में ग्रहण किया गया। सनातन काल में स्त्री को श्रद्धा तथा उन्नत गुणों से सम्पृक्त निष्ठा का भोग लगाया गया। उसे भाग्यलक्ष्मी, कुलवधू, स्वामिनी, राजमाता और गुरुमाता आदि सम्मानजनक सम्बोधन दिये गये। धीरे-धीरे युग बदलते चले और आदिशक्ति पर आदिब्रह्म किसी प्रकार हावी होता चला गया। आदिब्रह्म का युग चल पड़ा और उसकी पीढ़ियां पैदा होने लगीं। पहले ब्रह्मा, विष्णु, महेश फिर गणेश, राम, कृष्ण आदि नाना रूपों में उसकी लीलाएं निरन्तर चलायमान रहीं। इस समय शक्ति सुषुप्तावस्था में थी या किसी तपस्या में लीन... या कहीं और... लेकिन वह लुप्तप्राय होने लगी। एक मज़ेदार प्रश्न यह है कि आदिब्रह्म और आदिशक्ति में सम्बन्ध क्या था, पिता-पुत्री, माता-पुत्र या पति-पत्नि? चूंकि, शक्ति तो आदि थी इसलिए उनके पिता की कल्पना नहीं की जा सकती। इसके लिए एक कथा का सहारा लिया जाता है, मनु और श्रद्धा की कथा।

आदिब्रह्म और आदिशक्ति को पति-पत्नि इसलिए नहीं माना जा सकता क्योंकि मनु तो श्रद्धा क्या इड़ा के आगे भी असहाय रहे। मनु और श्रद्धा का एक पुत्र था मानस, जिसकी पूर्ण व्याख्या नहीं मिलती। हो सकता है कि यही मानस खुराफ़ाती निकला हो और आदिब्रह्म के वेश में प्रकट हो गया हो। शैशवावस्था में इस मानस ने परम्पराएं गढ़ीं, फिर किशोरावस्था में इन प्रथाओं का पोषण शुरू किया तथा युवावस्था या कलियुग तक आते-आते मानस मनुष्य इतना अधम हो गया कि लाचारों पर बलारोपण करने को अपना पौरुष कहने गला और अधमता की इस सीमा में वह पुरुष कहाया। तो, कलियुग की शब्दावली में आदिब्रह्म-पुरुष और आदिशक्ति-स्त्री कहलाये।

निर्लज्जता की पराकाष्ठा यह कि पुरुष शोषक की भांति स्त्री को शोष रहा है, भोग रहा है और बातें वैदिक युग करने से चूक भी नहीं रहा। तोते की तरह अनवरत रटता-रटाता जा रहा है कि "यत्र नारयस्तु पूज्यन्ते, रमन्ते तत्र देवता"। हालांकि अति व्यापक पुरुष समुदाय का एक अंश कुछ समय से इन कुप्रथाओं के विरोध में खड़ा हुआ है और सुधारवादी तथा नितान्त सात्विक दृष्टिकोणों के माध्यम से स्त्री को प्रतिष्ठित करने में जुट गया है।

लेकिन इस अंश की असफलता आज भी सिद्ध करती है कि व्यापक पुरुष की प्रवृत्ति स्थूलाकार है। वर्तमान के परिप्रेक्ष्य में कुछ दिनों तक यह अंशमात्र प्रभावी भूमिका में रहता है लेकिन "सौ सुनार की एक लोहार की" को साबित करता हुआ स्थूल, अपनी एक चोट से यह जता देता है कि "कुत्ते की पूंछ कभी सीधी हो नहीं सकती"

अभी सुनने में आया कि किसी सर्वेक्षण के अनुसार भारत में एक दिन में लगभग 15 लाख स्त्रियां, पुरुषों द्वारा गंभीर रूप से प्रताड़ित की जाती हैं। यों, प्रताड़ना का आंकड़ा कुल जनसंख्या का अस्सी से नब्बे प्रतिशत का है। सती प्रथा का जोर अपेक्षाकृत कम हुआ है, दहेज के विरुद्ध समाज चैतन्य हुआ है, स्त्री की अशिक्षा का रवैया शिथिल हुआ है, स्त्री आत्मनिर्भरता की जागरूकता आयी है... कितने सार्थक वाक्य हैं ना..? आंकड़ा पिछले वर्ष यदि नब्बे प्रतिशत का था और इस वर्ष घटकर अस्सी प्रतिशत पर आ गया तो उपरोक्त निष्कर्ष निकाल लिया गया। प्रश्न यह है कि ऐसी चेतना किस काम की जो केवल दस प्रतिशत पर ही दम तोड़ देती है?

इन्हीं सब अच्छी बातों के बीच देखने में आता है - तंदूर कांड, पटना-तमोली कांड, शिवानी हत्याकांड, मुरैना का बादामी बलात्कार कांड तथा मधुमिता हत्याकांड और स्विस राजनयिक के साथ बलात्कार। कचनोंधा में बादामी पर बलात्कार किया गया और उसके द्वारा पुलिस कार्यवाही करने पर उसे ज़िन्दा जला दिया गया। शोषित-पीड़ित यदि ज़ुल्म के विरुद्ध आवाज़ उठाये, न्याय मांगे तो ज़िन्दा जला दिया जाये और कभी पुरुष अथवा शक्तिशाली आदिब्रह्म के मनचाहे शोषण का शिकार बने। जो बादामी के साथ हुआ, स्विस महिला के साथ हुआ, वह चुनौती है हर स्त्री के लिए और कलंक है पौरुष पर।

महिला दिवस हर वर्ष मनाया जाता है, महिलाएं जुटती हैं और उत्थान की बातें करती हैं। कल्पना चावला जैसी स्त्रियों पर गर्व कर उन्हें श्रद्धांजलि दी जाती है। सब झूठ लगता है, अभिनय, औपचारिकता। खामोश रहना अच्छा है लेकिन ज़ुल्म के खिलाफ जुर्म है। समय-समय पर होने वाली बादामी की मौत मजबूर करती है, पौरुषता पर लज्जित होने को। लेकिन स्त्रियों का भी कर्तव्य बनता है कि वे इरादा करें, आदिशक्ति बनने का। जान लें कि राम को भी शक्ति-पूजा करना पड़ी थी।

स्त्रियों को यह भी जान लेना चाहिए कि यह भी एक छद्मोक्ति ही है कि अस्तित्व का सिद्धांत पश्चिम से आया। यह गीता है। स्त्री के अस्तित्व के लिए लड़ाई का समय है और स्त्री को अपना गौरव वापस हासिल करने के लिए दृढ़ संकल्पित होना ही पड़ेगा।

सिनेमा

शानदार, ज़बरदस्त, ज़िंदाबाद..!


श्री तपेश सक्सेना लिखित यह फिल्म समीक्षा केतन मेहता निर्देशित फिल्म मांझी पर एक बेहतरीन वक्तव्य है। तपेश की यह समीक्षा फिल्म के कलात्मक पहलुओं पर साहित्यिक दृष्टिाकेण से संवाद करती है। आकार में हालांकि मध्यम है लेकिन यह समीक्षा भरपूर ढंग से अपनी बात कहती है और फिल्म के कई ज़रूरी आयामों का स्पर्श करती है। यह समीक्षा साहित्यिक पत्रिका साहित्य सागर में प्रकाशित हो चुकी है। पुनर्पाठ के लिहाज़ से यहां प्रस्तुत किया जा रहा है।


Manjhi poster. image source: Google


सच्चे प्रेम का आध्यात्मिक नशा आदमी को परमार्थी बना ही देता है। और अगर उसमें वेदना के दो चार घूँट और मिल जाएँ तो फिर तो कमाल ही हो जाता है। 'मांझी' ऐसे ही एक कमाल की कहानी है। ये भारतीय सिनेमा में अब तक की सबसे ज़्यादा सार्थक "बायो-पिक" (किसी के जीवन की सच्ची कहानी पर आधारित फिल्म) है। भारतीय सिनेमा ने एक दौर वो भी देखा है जब गुलज़ार कहते थे कि 'दीवार में कब कोई दर होगा' और शहरयार कहते थे 'सीने में जलन आँखों में तूफ़ान सा क्यों है' और अब ये दौर है कि सीने की जलन और आँखों के तूफ़ान ने मिलकर दीवार में दर बना ही डाला। 

'मांझी' को भारतीय सिनेमा के इतिहास में कई तरह से याद किया जाएगा। ये फिल्म उस दौर में आई है जबकि हम में से अधिकतर लोग अच्छी शिक्षा पा सकना, खूब सारा पैसा कमा पाना, विदेशों में सैर कर पाना, नाम कमा पाना, आदि को ही अपने जीवन का लक्ष्य समझते है। 'मांझी' उस सोच के साँचे को बदलने की एक शानदार कोशिश है। 'मांझी' वेदना में पनपती संवेदना की आवाज़ को ध्यान से सुनना सिखाती है। 'मांझी' एक नए आयाम का निर्माण करती है जो व्यक्तिगत प्रेम और वेदना को समाज और देश के लिए एक सुखदाई अनुभव बना देता है।

एक फिल्म के लिहाज़ से 'मांझी' में कुछ कमियां नज़र आती तो हैं जैसे कि इसके गीतों में कहानी की आत्मा की झलक का न मिल पाना, जैसे कि कुछ दृश्यों का आपकी भूख को बढ़ा देना लेकिन फिर आगे के दृश्यों का उस बढ़ी हुई भूख को संतुष्ट न कर पाना, आदि। पर इन सब कमियों के लिए 'मांझी' को माफ़ किया जा सकता है क्यूंकि ये कमियां इस दौर की कमियां हैं, शायद ये दौर इन कमियों के लिए ही सबसे ज़्यादा याद किया जाएगा। अभिनेता के तौर पर नवाज़ुद्दीन सिद्दीकी निसंशय अपने सबसे अच्छे समय से गुज़र रहे है। आज के समय में वो अकेले ऐसे अभिनेता हैं जिनके मुंह से "शानदार, ज़बरदस्त, ज़िंदाबाद" सुनकर अच्छा लगता है क्यूंकि इन तीन शब्दों तक पहुँचने का उनका सफर जिस मार्ग से होकर गुज़रता है वो दशरथ मांझी की तरह ही उनका खुद का बनाया हुआ मार्ग है, वहाँ पर भी परिवारवाद नाम का एक बहुत ऊंचा पर्वत था जिसको उन्होंने बखूबी काटा है।

गुरुवार, अक्तूबर 26, 2017

एक फ़नक़ार

तोरू दत्त : भारत की जॉन कीट्स


साहित्य सागर पत्रिका के जून 2003 अंक में प्रकाशित यह लेख अंग्रेज़ी की भारतीय कवयित्री तोरू दत्त के जीवन और कृतित्व की संक्षिप्त झांकी प्रस्तुत करता है। वास्तव में तोरू का अवदान उल्लेखनीय रहा है और इसे समझने की ज़रूरत बनी हुई है।


एडमण्ड गूज़ ने उसकी किताब के बारे में टिपपणी करते हुए कहा है कि "समग्र उपलब्धि के रूप में यह किताब आश्चर्यचकित कर देती है"। उनका यह कथन नितांत उचित ही है।

Toru Dutt and the famous book cover. image source : Google


वास्तव में तोरू ने कम नहीं लिखा तथा श्रेयस्कर भी लिखा। उसकी लेखनी पर उसके जीवन का प्रभाव स्वतः स्पष्ट है। जिस तरह कोई पक्षी तालाब के जिस घाट पर होता है, वहीं के पानी से अपनी प्यास को शांत करता है। और प्यास को बुझा लेने के बाद सांझ होते अपने नीड़ को लौटने की चेष्टा करता है।

अब मात्र तीन ही साल बचे थे कि तोरू यूरोप, फ्रांस एवं कैम्ब्रिज में रहकर, पढ़-लिख कर वापस भारत आ गयी। अठारह वर्ष की आयु में उसका पहला निबन्ध सन् 1874 में बंगाल पत्रिका में प्रकाशित हुआ। तोरू ने फ्रेंच कविताओं का अंग्रेज़ी में अनुवाद किया और पुस्तक "ए शीफ ग्लेंड इन फ्रेंच फील्ड्स" के नाम से सन् 1876 में प्रकाशित हुई। इन 165 कविताओं में से 8 कविताओं का अनुवाद उसकी बड़ी बहन अरु ने किया था जिसकी मृत्यु सन् 1874 में हो चुकी थी। सी पॉल वर्गीज़ ने तोरू को दोनों भाषाओं में निपुण बताया। वहीं, एडमण्ड गूज़ ने भी इस किताब की अत्यधिक सराहना की। विंसेंट अरनॉल्ड की "द लीफ" कविता के अनुवाद में जहां तोरू ने भावनाओं और संवेगों को सार्थक और सरल रूप में अनूदित किया वहीं विक्टर ह्यूगो की कविता "द रोज़ ढंड द टूंब" भी एक उत्कृष्ट उदाहरण है।

1877 में ज्वर, कफ़ आदि के प्रकोप के कारण तोरू का स्वास्थ्य तेज़ी से बिगड़ने लगा और 30 अगस्त 1877 को मात्र 21 वर्ष की आयु में कवयित्री अपने पीछे अपना अमूल्य साहित्यिक अवदान छोड़कर चली गयी। विभिन्न देशों, नगरों का भ्रमण, वहां शिक्षा, जीवन-यापन तथा बड़े भाई अब्जू और बड़ी बहन अरु की असामयिक मृत्यु को अपने छोटे से जीवन में देखना तोरू के स्पर्शी अनुभव थे। इन्हीं का प्रभाव उसकी कविताओं में दिखता है।

1882 में मेसर्स कीगन पॉल एंड कॉरपोरेशन, लंदन द्वारा "एन्शिएंट बैलेड्स एंड लीजेंड्स ऑफ हिन्दोस्तान" का प्रकाशन किया गया जिसकी भूमिका एडमण्ड गूज़ ने लिखी। अपने जीवन के अंतिम दिनों में तोरू ने संस्कृत का अध्ययन किया था तथा भारतीय संस्कृत साहित्य महाभारत, रामायण, विष्णु पुराण एवं श्रीमद्भागवत गीता को पढ़ा था। अपने काव्य में तोरू ने भारतीय साहित्य के अमर चरित्रों का वर्णन किया। उपरोक्त संग्रह में तोरू के 9 बैलेड्स् हैं। 1) सावत्रिी 2) लक्ष्मण 3) जोगाध्याय उमा 4) द रॉयल ऐसेटिक एंड दि हिन्द 5) ध्रुव 6. बुत्तू (एकलव्य) 7) सिन्धु (श्रवण कुमार) 8) प्रहलाद और 9. सीता। इनके अतिरिक्त दो और वर्स विशेष उल्लेखनीय हैं - "दि लोटस" एवं "अवर कैज़ुरिआना ट्री"। इन बैलेड्स एवं वर्स ने तोरू दत्त को अमरता प्रदान कर दी है। इनमें तोरू की भारतीयता के संस्कार उद्घाटित होते हैं। अंग्रेज़ी आलोचकों ने माना है कि "अवर कैज़ुरिआना ट्री" अंग्रेज़ी साहित्य में किसी विदेशी द्वारा लिखी गयी सर्वाधिक उल्लेखनीय कविताओं में से एक है।

जीवन ने साथ नहीं दिया अन्यथा तोरू की योजना थी कि वह "ए शीफ ग्लीण्ड" को "संस्कृत फील्ड्स" के साथ संबद्ध करे। कलकत्ता में जन्मी इस 21 वर्षीया कवयित्री ने जो साहित्यिक उपलब्धियां अर्जित की हैं, जिन्हें विदेशी आलोचकों ने तहेदिल से सराहा है, उन पर हर भारतीय गर्व कर सकता है। साथ ही, अब तक हिन्दी में इन उत्कृष्ट कविताओं का न तो कोई प्रामाणिक अनुवाद ही किया गया है, न तोरू के अमूल्य अवदान को रेखांकित किया गया है। भाषा भले ही दूसरी हो, लेकिन तोरू की अनुभूति में भारतीयता के ऐसे चित्र हैं जो हिन्दी साहित्य में भी दुर्लभ हैं। तोरू की धरातलीय चेतना उसके साहित्य को भारतीय साहित्य की श्रेणी में खड़ा करती है, न कि हिन्दी या अंग्रेज़ी या अन्य साहित्य की।

एक फ़नक़ार

भीष्म साहनी के न रहने के मायने


अनेक प्रसिद्ध कहानियों के साथ ही नाटक और सिनेमा के माध्यम से भीष्म साहनी को याद रखा जा सकता है। भीष्म साहनी के व्यक्तित्व और कृतित्व के कई आयाम हैं जिन पर कई पुस्तकों का सृजन संभव है। यहां प्रस्तुत संक्षप्त आलेख उनके दुनिया-ए-फ़ानी से कूच करने के ऐन बाद श्रद्धांजलि स्वरूप लिखा गया था, जो साहित्य सागर पत्रिका के अगस्त 2003 अंक में प्रकाशित हुआ था।


यों तो साहित्य की भी एक दुनिया है। दुनिया की फितरत होती है कि वह किसी के चले जाने से रुक नहीं जाती। बिल्कुल ज़िंदगी की ही तरह। कई लोग इस दुनिया की रिदा पर अपना कोई निशान छोड़े बिना ही रुख़सत हो जाते हैं। चन्द ही लोग होते हैं जिनके रहने के मायनों पर उनके जाने के मायने हावी रहते हैं। जो वक़्त के सांचे बदल दें, वक़्त भी उनका पैकर धुंधला नहीं होने देता। वक़्त की रफ़्तार से रफ़्तार मिलाकर उसे एक नया रूप देने वाले भीष्म की स्कृति के आकारों को मिटा सकने की ताब वक़्त में भी नहीं है।

Bhisham Sahni. image source : Google


भीष्म की रचनाएं उनकी सोच, नज़रिये, सवेदन, मानस और बेशक उनके वक़्त को साफ़-साफ़ बयान करती हैं। शेष तो अन्य साहित्यकारों में भी पर्याप्त होने के साथ-साथ सौम्य रूप में मिल जाता है। लेकिन मानस और वक़्त का रूपांकन ही भीष्म को एक अलग कैनवास और दर्जा दिलाता है। ख़ुद भीष्म ने भी कहा था -

"लेखक सत्यान्वेषी है, सच्चाई की खोज करने वाला.... सत्य की खोज न कहें तो प्रामाणिकता की खोज कह लें, बात करीब-करीब एक ही है। हमारी जो रचना हमारे काल की सच्चाई को पकड़ पाती है, वह रचना सार्थक हो जाती है और यदि कोई लेखक बार-बार अपनी रचना में संशोधन करता है तो इसमें भी उसका मूल अभिप्राय उस सच्चाई को अधिक स्पष्टता के साथ लक्षित कर पाना ही है।"

और, भीष्म के वक़्त की सच्चाइयां एक और मार्मिक, दारुण, दर्दनाक और भयावह थीं तो दूसरी ओर, मूल्यपरक, कलात्मक और रचनात्मक सौम्यता से युक्त। दरअस्ल, भीष्म के लेखक का दर्द उस वक़्त को बेधते हुए गुज़रता नहीं है, बल्कि उसके मायाजाल या उसके इर्द-गिर्द चक्कर लगाता रहता है, हां उनका लेखक इस ताने-बाने में घुटकर नहीं रह जाना चाहता। यह दर्द वही था जो "तमस" से पहले यशपाल के "झूठा सच" में अंतस तक बेध गया और "तमस" के बाद मोहन राकेश, रांगेय राघव और गुलज़ार के ज़रीये बार-बार अपना एहसास कराता रहा।

भीष्म अपने वक़्त की चेतना के कथाकार थे और उनके उपन्यासों व अन्य रचनाओं में भी उनकी समसामयिक संवेदना निरन्तर रहती है। भीष्म के लेखक का मुख्य संघर्ष अपने समय और सोच के बीच है। वह समय की नब्ज़ जांचता है और इलाज करने की बजाय उसकी तक़लीफ़ को समझना और उसकी वज्ह को खोजना चाहता है। यहीं भीष्म के लेखक का वजूद असर दिखाता है। न सिर्फ़ पात्र जीवंत लगने लगते हैं, बल्कि उनके हालात, दायरे, प्रतिक्रियाएं और द्वंद्व भी बेमानी नहीं लगते।

इसी द्वंद्व व सच्चाई को वैचारिक धरातल पर कलात्मक रूप में प्रस्तुति देने वाले वक़्त के अनोखे फ़नक़ार भीष्म साहनी की यादें साहित्य की दुनिया में ही क़ैद नहीं रह जाएंगी, वरन् इंसान की हदों के स्पर्श तक पहुंच सकेंगी।

मंगलवार, अक्तूबर 24, 2017

कला

भारतीय व पश्चिमी रंगमंच में कामदी व त्रासदी की अवधारणा


वास्तव में यह आलेख उस प्रश्न या विमर्श का नतीजा है जो रंगमंच से जुड़ाव के कारण सामने आया। "प्राचीन भारतीय नाट्य परंपरा में दुखांत नाटकों की संख्या लगभग न के बराबर है जबकि पश्चिम में स्थिति ठीक उलट, क्यों?" यह विमर्श रंगमंच के साथ ही साहित्य के पाठकों के लिए भी उपयोगी हो सकता है।


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प्राचीन भारतीय साहित्य के उल्लेख से प्रारंभ करने पर सर्वप्रथम हम संस्कृत काव्य का संस्पर्श करते हैं। श्रुति परंपरा के आदि ग्रंथों में वेद, भारतीय ही नहीं बल्कि वैश्विक धरोहर माने जाते हैं। इन ग्रंथों के माध्यम से हम जीवन, विश्व एवं ब्रह्म आदि संबंधी तत्व एवं दर्शन ज्ञान प्राप्त कर सकते हैं। तदुपरान्त, संस्कृत का भक्ति अथवा धार्मिक काव्य प्रस्तुत होता है। "रामायण" इस श्रेणी का महानतम ग्रंथ है। फिर, "महाभारत" एक और चमत्कार है। ये ग्रंथ विश्व साहित्य के अग्रणी ग्रंथ माने जाते हैं। दोनों की संक्षिप्त चर्चा आवश्यक है।

राम की कथा है रामायण। लंका विजय एवं रावण वध के बाद राम की अयोध्या वापसी, यह सुखांत है। किन्तु, उत्तर रामायण में सीता का धरती में समाना एवं राम का पुनर्गमन एकबारगी दुखांत का भ्रम देता है। ऐसा ही महाभारत में होता है। कौरवों पर पांडवों की विजय के बाद भीष्म की मृत्यु एवं पांडवों की वानप्रस्थ यात्रा के समय मृत्यु, वास्तव में किसी दुखांत के संकेत देते हैं। परन्तु ऐसा है नहीं। एक तो, दोनों ही कथाएं संपूर्ण जीवन चरित्र के रूप में व्याख्यायित हैं इसलिए मृत्यु पर ही समाप्त होंगी, स्वाभाविक है। दूसरा कारण यह कि दोनों ही काव्य ईश्वर एवं जीवन दर्शन संबंधी ज्ञान को प्रतिक्षण केंद्र में रखकर चलते हैं इसलिए हर त्रासद कथा प्रसंग का कोई न कोई प्रतीक, बोध एवं संकेत अवश्य अंतर्निहित है।

इन दो महाकथाओं के अंशों अथवा पूरी कथा के नाटकीय मंचन की परंपरा से ही प्राचीन भारत के आरंभिक रंगमंच की प्रथम परिकल्पना मानी जा सकती है। क्योंकि ये कथाएं लोक में समग्रता के साथ व्याप्त हुईं, इनमें भी रामक कथा अधिक और महाभारत के कृष्ण कथा के भाग। तो, रंगमंच या नाट्य में, संभवतः इन कथाओं के लीला प्रसंग ही प्रमुखता से मंचित हुए, अर्थात् सुखान्त की परिकल्पना। रामलीला एवं कृष्णलीला, सामान्यतया रावण वध एवं कंस वध के साथ ही समाप्त मानी जाती थीं।

अर्थात प्राचीन भारत में लोकमानस में नाट्य का सुखांत होना एक तरह से स्थापित हो चुका था, ऐसा कहा जा सकता है। फिर, काव्य के बाद संस्कृत नाटकों का प्रणयन हुआ। वर्जीनिया सौंडर्स लिखित आलेख का अंश - 
"We know that at least as early as Kalidas, the strict rules, whether written or traditional, barring tragedy from the Hindu stage, were firmly established and closely observed."

प्राचीन भारत में, नाट्य के संदर्भ में, पारंपरिक अथवा लोक दृष्टि ने कुछ नियम बना दिये थे जिनका पालन परवर्ती नाटककारों ने गंभीरता के साथ किया। ये नियम संभवतः लोक में प्रतिष्ठित होने के बाद ही लिखित रूप में प्रस्तुत हुए। भरतमुनि ने नाट्य शास्त्र में संभवतः प्रथम बार उल्लेख किया कि नाट्य का उद्देश्य लोक मंगल एवं लोक रंजन है। लोक मंगल हेतु आवश्यक है कि नाट्य सकारात्मक उर्जा को किसी लोकोपयोगी संदेश एवं प्रयोजन के साथ प्रकाशित करे।

भरतमुनि ने नाट्य शास्त्र में यह उल्लेख भी किया कि नाट्य मंचन के समय युद्ध, म्त्यु, त्रासदी एवं शव संबंधी क्रियाओं के साथ ही वीभत्स दृश्यों का प्रस्तुतिकरण अश्रेयस्कर है। इस नियम का प्रभाव स्पष्ट रूप से संस्कृत नाट्य लेखन परंपरा में दिखता है। इस नियम के कारण के बारे में चर्चा आवश्यक है जो यह भी स्पष्ट करती है कि ग्रीक नाट्य परंपरा में त्रासदी अथवा दुखांत परंपरा से भारतीय नाट्य परंपरा के उलट या पृथक होने का क्या कारण है।

शास्त्रीय संस्कृत नाट्य पर आधारित आलेख में प्रो. सिद्धार्थ सावंत संकेत करते हैं कि पाश्चात्य की त्रासद परंपरा एवं भारतीय सुखांत परंपरा के मूल कारण में दार्शनिक परंपरा महत्वपूर्ण है। चूंकि भारतीय दर्शन परंपरा में "कर्म" के सिद्धांत को बल मिलता है जबकि पाश्चात्य दर्शन "नियति" पर आधारित दिखता है। इसे मूलभूत अंतर माना जा सकता है। गीता में कर्म आधारित दर्शन पर विस्तृत विमर्श है और यह सिद्धांत प्रस्फुटित होता है कि मनुष्य की नियति वास्तव में उसके कर्मों से ही निर्धारित होती है। "जैसा कर्म वैसी गति"। अस्तु, त्रासदान्त होने की संभावना क्षीण हो जाती है क्यांकि जब दर्शक या श्रोता यह जानता है कि रावण का कर्म पतनोन्मुखी है, तो वह उसके पतन को त्रासद नहीं मानता बल्कि उसे स्वाभाविक गति स्वीकार करता है।

इस विमर्श का दूसरा सिरा यह है कि पश्चिम में दर्शन एवं चिंतन की धारा में मृत्यु का भय व्याप्त हो चुका था। तब भी यह एक ऐसी अवस्था या घटना थी जिस पर मानव का कोई वश नहीं था और न आज तक पूर्णतः हो सका है। यह ईश्वरीय प्रकोप की तरह समझा गया। यह मानव की शक्ति पर वज्राघात के समान माना गया। मानव की सत्ता को क्षण में समाप्त कर देने के संकेत रूप में विश्लेषित किया गया। यह भय पश्चिम की अनेक कलाओं में अनेक संकेतों एवं प्रतीकों के माध्यम से प्रकट हुआ। अस्तु, नाट्य परंपरा में दुखांत का एक कारण भी बना।

अंग्रेज़ी के मशहूर लेखक ऑल्डस हक्स्ले ने "एपिक एंड दि होल ट्रुथ" (Epic And The Whole Truth) में इस विषय पर सूत्र रूप में विशद विमर्श किया है। इसी संबंध में, निर्मल वर्मा लिखित निबंध "पूर्व और पश्चिम" से कुछ बिंदुओं को ध्यान में रखा जाना आवश्यक है। वास्तव में, निर्मल वर्मा का यह निबंध हक्स्ले द्वारा भारतीय साहित्य के संबंध में रखे गये प्रश्नों एवं जिज्ञासाओं के उत्तर रूप में प्रकाश में आता है। पश्चिमी एवं भारतीय साहित्य की मूल प्रवृत्तियों के आधार पर इस लेख में कुछ महत्वपूर्ण तथ्यों को इंगित किया गया है जिनमें से यहां कुछ उपयोगी अंश प्रस्तुत हैं -

"पश्चिमी महाकाव्य में एक तरह की ठंडी वस्तुपरकता है, जहां खून में सने सैनिकों के शव उसी तरह धूल में लोटते हैं, जैसे किसी भीषण आंधी में पेड़ों के धड़ गिरते हैं। भारतीय महाकाव्य में भी युद्ध की भूमिका कम महत्वपूर्ण नहीं है, किंतु वहां कुरुक्षेत्र सिर्फ लड़ाई का मैदान नहीं है, वह धर्मक्षेत्र भी है, नीति और न्याय के परिप्रेक्ष्य में ही महाभारत अपनी काव्यात्मक गरिमा अर्जित करता है।"
"भारतीय परंपरा में मनुष्य का 'आत्म' उसके अहं (Ego) की तुलना में बृहत्तर है, जो अपने को जीव-जगत की समस्त सत्तओं से अंतर्संबंधित पाता है। ....पश्चिमी साहित्य में 'ट्रेजडी' जैसी सशक्त, सांद्र, विस्फोटक विधा का आविर्भाव इसलिए संभव हो सकता क्योंकि वहां मनुष्य और मनुष्य, मनुष्य और प्रकृति, आत्म और अन्य के बीच की खाई अंधेरी और अलंघ्य जान पड़ती है।"
"कहीं ऐसा तो नहीं है कि जिसे मैं 'पश्चिम' कहता हूं, वह कहीं पहले से ही मेरे भारतीय अनुभव संसार के भ्राीतर बर्फ की तरह जमा है, जो यूरोपीय कलाकृति की थोड़ी सी धूप और गरमाई पाते ही पिघल कर हमारे भीतर बहने लगता है, कुछ वैसे ही जैसे पूर्वी संस्कृतियों का अवदान यूरोपीय मानस की परतों को उघाड़कर एक नयी अंतर्दृष्टि देता है।"

अंततः कहा जा सकता है कि भारतीय दर्शन परंपरा भरतमुनि के नाट्य सिद्धांत एवं लोक मंगल की प्रतिष्ठा आदि कारणों से प्राचीन भारत के संस्कृत नाटकों में सुखांत के दर्शन होते हैं, या यों कहें कि पश्चिम जैसी "ट्रैजडी" नहीं मिलती। ऐसा भी नहीं है कि संस्कृत नाटकों में यह ट्रैजडी है ही नहीं, "उरुभंग" एवं "कर्णभार" नामक नाटक ऐसे हैं जिन्हें पश्चिम के समान ट्रैजडी कहा जा सकता है। इस प्रकार के संभवतः यही दो संस्कृत नाटक हैं।

निष्कर्ष यह नहीं निकाला जाना चाहिए कि हमारे संस्कृत नाटककारों में मानवीय द्वंद्व के आधार पर त्रासदी रचने की प्रतिभा नहीं थी, बल्कि इसका कारण यही था कि जनमानस में स्वस्थ एवं सकारात्मक चेतना का संचार हो। वर्जीनिया सौंडर्स का एक और कथन महत्वपूर्ण है -
... some of the writers of these plays could not have written real tragedies if they had so wished. There is an abundance of evidence to show that these playwrights were keen psychologists, and they were certainly well versed in the making out of cause and effects.

संस्कृत काल के बाद भी भारतीय नाट्य परंपरा में दुखांत या त्रासद नाटकों के प्रति अरुचि का कारण कालखंड के अनुसार समझा जा सकता है। बाद के काल में चूंकि भारत लगातार आक्रमणों का सामना करता रहा इसलिए एक लंबे समय तक राष्ट्रीय चेतना, आत्मगौरव, नायकत्व प्रदान करने के उद्देश्य से नाटकों का सृजन हुआ इसलिए इनमें हम शास्त्रोक्त नायक के दर्शन करते हैं जो "धीर, वीर, गंभीर एवं उदात्त" चारित्रिक गुणों पर आधारित होता है और जनमानस को आंदोलित करने की संभावनाएं तलाशता है।

आधुनिक काल के हिन्दी नाटकों तक, जयशंकर प्रसाद तक, हम इस तरह के नाटकों का पल्लवन होना देखते हैं जो भारतीय परंपरा एवं कला के अनुरूप है। प्रसाद के काव्य में सुखांत एवं दुखांत को लेकर काफी चर्चा होती है और कई आलोचक उनके द्वारा दिये जाने वाले अंत को 'प्रसादांत' मानते हैं। कतिपय उनके नाटकों में भी इसी प्रसादांत के संकेत हैं। इस बारे में भी विस्तृत चर्चा संभव है। प्रसाद के बाद के नाटकों में सुखांत एवं दुखांत या त्रासदी एवं कामदी संबंधी चर्चा में देखा जा सकता है कि प्राचीन भारतीय नाट्य परंपरा एवं सिद्धांत उतनी प्रमुखता एवं सशक्तता के साथ परिलक्षित नहीं होते इसलिए त्रासद या दुखांत नाटकों के सृजन में वृद्धि हो रही है।

सोमवार, अक्तूबर 23, 2017

समालोचना

हिंदी-उर्दू के फ़ासले को मिटातीं रौशन ग़ज़लें


कृति - सुर बांसुरी के
कृतिकार - डॉ. स्वामी श्यामानंद सरस्वती रौशन
समीक्षा लेख - भवेश दिलशाद 


स्वामीजी को उर्दू-हिंदी ज़ुबान पर यक़सां महारत हासिल है। उर्दू, फ़ारसी अरूज़ पर वह पूरी तरह क़ुद्रत रखते हैं इसलिए उर्दू और हिन्दी के चोटी के फ़नकार उनसे तबादिला-ए-ख़यालात कर सकते हैं और हम जैसे उनसे बहुत कुछ सीख सकते हैं। इल्मे-अरूज़ से क़त्ए-नज़र उर्दू ज़ुबान और हिंदी ज़ुबान को मादरी दर्जा देने वाले अमली तौर पर ऐसे लोग अगर नायाब नहीं हैं तो बेहद कमयाब हैं। इसलिए उन्हें क़ुद्रत हासिल है कि वह अपनी ग़ज़ल में उर्दू और हिंदी के अलफ़ाज़ की इकाई बड़े और वसीअ पैमाने पर बना सकते हैं। मैं कह सकता हूं कि स्वामीजी के यहां ग़ज़ल को इन सत्हों पर कामयाबी मिली है।

"सुर बांसुरी के", डॉ. श्यामानंद सरस्वती का ग़ज़ल संग्रह है। इस किताब में डॉ. बशीर बद्र के ये अलफ़ाज़ पढ़कर तसल्ली हुई कि हिंदी में कम से कम एक ग़ज़लगो तो है जिसकी ग़ज़ल को इन सत्हों पर कामयाबी मिली है। डॉ. बद्र ने यह भी अर्ज़ किया है कि स्वामीजी की हिंदी ग़ज़लों के इस संग्रह में उर्दू में लिखी गयी ग़ज़ल की आला रिवायात और उस मिज़ाज का निर्वहन होता है। दरअस्ल, ये रिवायात अपनी वुसअत में कई सदियों को समेटे हुए हैं। उस वक़्त उर्दू सिर्फ़ राजकीय काम की भाषा थी जिसे ज़्यादा सम्मान प्राप्त नहीं था। वली ने उर्दू को ग़ज़ल की मेहबूब ज़ुबान का दर्जा दिलाया और वह भी दिल्ली तक। वली के बाद ग़ज़ल की लिसानी तक़रारों को छोड़कर ज्यादातर शायर उर्दू की ओर प्रवृत्त हुए और ग़ज़ल की परंपरा की शुरुआत हुई। 18वीं सदी ने सिराजुद्दीन आरज़ू, मिर्जा मज़हर जानेजानां जैसे शायर पैदा किये। और इसके बाद तारीख़ के तीन बेहतरीन शायरों दर्द, सौदा और मीर का भी दीदार किया। दर्द जहां उर्दू के सबसे ख़ास शायर कहे गये वहीं अपनी ताज़ा तरीन शैली और ख़याल की नज़ाक़त ने मीर को ग़ज़ल का सबसे बड़ा शायर घोषित किया। कई और शायरों के साथ ग़ज़ल को ग़ालिब मिला। और फिर, दाग़, ज़ौक़, ज़फ़र, हाली, जिगर, फ़िराक़ और फ़ैज़ आदि।

वली के पहले से फ़ैज़ के बाद तक जो रिवायात चली आती हैं, उनका मिज़ाज और लहजा उर्दू और ग़ज़ल दोनों के लिए ही ख़ूबसूरत शाहकार है। अस्ल में, ग़ज़ल की परंपरा और रिवायात को बहुत ही सीमित रूप में पेश कर दिया जाता है। हुस्न, इश्क़, जाम, मीना और ख़ुदा, बंदगी जैसे अलफ़ाज़ का सहारा लेकर, ख़ासकर हिंदी के क्षेत्र में ग़ज़ल की मीरास के बारे में काफी संकुचित धारणाएं स्थापित हैं जो ग़ज़ल की तवील परंपरा को नकारती सी प्रतीत होती हैं। उर्दू का फ़ारसी पर हावी होकर ग़ज़ल का जांनशीन होना महज़ एक इत्तेफ़ाक़ या मामूली घटना नहीं था। दरबारों और अदब में ग़ज़ल और उर्दू का प्रतिष्ठित होना, राजनैतिक उथल-पुथल के कारण ग़ज़ल का केंद्र दिल्ली से विस्थापित होकर लखनउ बनना, इंशाल्लाह ख़ां, गुलाम मुसहफ़ी का लखनउ स्कूल की बुनियाद डालना, ग़ज़ल में फिक्र और तसव्वुर की इन्फ़िरादियत का मशहूर होना और कमोबेश हर दौर में ग़ज़ल का आम आदमी से जुड़े रहना, ये तमाम बातें साफ़ करती हैं कि ग़ज़ल न सिर्फ़ एक परंपरा बनाती है बल्कि एक कल्चर को भी उद्घाटित करती है।

कमलेश्वर के शब्दों में - "ग़ज़ल जैसी सांस्कृतिक विधा ख़ुद एक लौकिक संस्कृति का निर्माण करके उसे एक अलौकिक अनुभव तक उठा ले जाती है।" इसी अनुभव का सत्य और सुरूर स्वामी श्यामानंद सरस्वती की इन ग़ज़लों में मौजूद है।

यह नितांत उचित है कि ग़ज़ल एक सांस्कृतिक विधा है। इसके अंतस में भारतीय संस्कृति के सूत्र निहित हैं। भारतीय संस्कृति की कोख में सनातन, इस्लाम, बौद्ध और अनेक अन्य संप्रदायों व मतों के दर्शन बीज रूप में हैं। एकेश्वरवाद की सूफ़ियाना व्याख्या और शंकराचार्य का अद्धैतवाद समरसता प्रतिपादित करता है। इस्लाम और वेद में निराकार की चर्चा भी समानता का मूल्य स्थापित करती है। ईश्वर की सार्वकालिक सत्ता को भी हर धर्म व मत में स्वीकृति प्राप्त है। कमलेश्वर बजा फ़रमाते हैं कि - "इसे न तो धार्मिकताग्रस्त अंध इस्लाम परस्त स्वीकार कर पा रहे हैं, न जड़ ईसाई लोग और न ही भारत के वेदांती बंद दिमाग।" लेकिन, ग़ज़ल निर्विवाद रूप से इस सत्य का उद्घाटन करती रही है और करती रहेगी। संस्कृति को अपने अंदर समाहित कर जब ग़ज़ल महान बन जाती है तब ग़ज़लकार तिरोहित हो जाता है और सत्य आत्मज्ञान बनकर निसंकोच भाव से प्रस्तुत होता है। सत्य और संस्कृति की यही अनुगूंज डॉ. श्यामानंद सरस्वती रौशन की ग़ज़लों में भी सुनायी देती है। ऐसा भी नहीं कि डॉ. रौशन की ग़ज़लों में आज के संदर्भ व प्रसंग नदारद हों। उनकी ग़ज़ल ज़िंदगी, आदमी और आलम की मुख़्तलिफ़ और तरीन तसावीर पेश करती है। डॉ. बद्र कहते हैं - "वली से लेकर मलिकज़ादा जावेद जैसे नये शायर की ग़ज़ल में जो ज़ुबान जारी ओ सारी है, उस ज़िंदा, रवां-दवां ज़ुबान के शेर स्वामी साहिब जैसे बुज़ुर्ग के यहां ताज़ा-ताज़ा और नये-नये से लगते हैं।"

उम्र कागज़ का एक टुकड़ा है
बूंद पड़ते ही गल गया बाबा।
एक बच्चे को क्या ले लिया गोद में
मेरे बचपन का मौसिम हरा हो गया।

डॉ. रौशन अरूज़ के बादशाह हैं और रुबाई, ग़ज़ल, दोहा, गीत आदि तमाम छंदों की रियाज़त उनके फ़न का सरमाया है। ज़ुबान, शिल्प और साख़्त के स्तर पर डॉ. रौशन अपना सानी नहीं रखते हैं। इन्हीं स्तरों पर वह कमाल भी करते हैं। हिंदी में ग़ज़ल के पैरोकार होने के नाते उनके अधिकांश अशआर में हिंदी के हर तरह के शब्दों का इस्तेमाल अपेक्षाकृत ज़्यादा होता है। उर्दू की और ग़ज़ल की रिवायत को ज़िंदा रखने के कारण उनकी ग़ज़ल दोनों भाषाओं को करीब लाने की कोशिश भी दिखती है। डॉ. बद्र उनकी ग़ज़ल की ज़ुबान को उर्दू और हिंदी के मुश्तरक़ और क़ाबिले-फ़ख़्र मीरास मानते हुए कहते हैं कि इसके वसीले से ग़ज़ल का शब्दकोष वृहत्तर होगा। इस अर्थ में स्वामीजी की ग़ज़ल की ज़ुबान में दोगुनी ख़ूबसूरती पैदा हो जाती है। कहीं-कहीं हिंदी के कठिन शब्दों से भी स्वामीजी परहेज़ नहीं करते। आम पाठक के लिए शायद उन्होंने कुछ शेर नहीं कहे हैं। लगता है चंद अशआर अपना एक अलग दायरा या श्रेाता समूह बनाते हैं। बावजूद इसके, कहीं-कहीं उनका कथ्य भी ग़ज़ल में कमाल करता है -

क्या तमाशा है उसका जलवा भी
नके बैठा है अजनबी मुझमें।
प्रेम की आग रूप ही से लगे
रूप क्या है दियासलाई है।

और भी उम्दा अशआर इस संग्रह में देखने को मिलते हैं। कथ्य या फिक्र तो आज भी और शायरों में बहुत शिद्दत के साथ मौजूद है लेकिन शिल्प और अरूज़ी इल्म को लेकर ग़लतफ़हमियों तथा कंगाली का दौर जारी है। शिल्प और अरूज़ी इल्म की जितनी दौलत डौ. रौशन को हासिल है, उतनी समंदर को बूंदें। उन्होंने इसे पाने के लिए जितनी सदियों की तपस्या व साधना की है, उसका अनुमान ही लगाया जा सकता है, निर्धारण नहीं किया जा सकता। उसी तपस्या के फलस्वरूप उन्हें यह सिद्धि मिली है और इसका संकेत भी डॉ. रौशन की शायरी में मिल जाता है। वह कहते हैं -

यह ज़िंदगी है पूर्णतः साहित्य के लिए
मेरी कला के शिल्प को परखा करेंगे लोग।
बोलता है ग़ज़ल का हुनर
श्याम की बांसुरी है ग़ज़ल।

ग़ज़ल के आशिक़ों का डॉ. रौशन के इस हुनर का क़द्रदान न होना और शायरों का तलबग़ार न होना डॉ. रौशन के लिए दुख या निराशा की बात हो सकती है लेकिन उन आशिक़ों और शायरों के लिए बेहद बदक़िस्मती और शर्म की बात है।

डॉ. रौशन का यह ग़ज़ल संग्रह शायरी की विरासत का एक अहम हिस्सा है। इसी तरह, वह पहले रुबाई की अहम मीरास "सत्यम शिवम सुंदरम" किताब के ज़रीये दे चुके हैं। कमलेश्वर ने डॉ. रौशन को रुबाई का स्थापित शहंशाह कहा भी है और यह शेरजंग गर्ग, सरस सहित इल्म के तमाम पारखी भी मानते हैं। बक़ौल डॉ. रौशन -

कम नहीं है ग़ज़ल विधा लेकिन
बात कुछ और है रुबाई की।

अपने अंदर के इस सच को ग़ज़ल की किताब में उकेर देना एक सच्चे शायर और शायरी के सच्चे साधक के बस की ही बात है।

एक ज़िक्र और ज़रूरी है। हिंदी में ग़ज़ल के नामकरण को लेकर सिर्फ़ भाषा बदलने के लिहाज़ से विधा को अलग नाम देना ज़रूरी नहीं है। वैसे भी यह नाम सिर्फ़ भाषान्तर और उस भाषा के व्याकरण के इस्तेमाल से ज़्यादा कुछ और ध्वनित नहीं करता। यूं भी उर्दू की आत्मा तो ग़ज़ल कही जा सकती है। ग़ज़ल की आत्मा उर्दू नहीं क्योंकि विधा की आत्मा भाषा नहीं होती। उसकी आत्मा होती है विधा की संस्कृति या विधापन, विधा का शरीर होता है लहजा और कथ्य एवं विधा की पहचान होते हैं उसके तत्व और शिल्प। इसलिए ग़ज़ल की पहचान के एक अंश को परिवर्तित कर देने से कोई ख़ास फर्क़ नहीं पड़ता है लेकिन उसे एक नया नाम देने से एक विकृति उत्पन्न होती है और भ्रम की स्थिति बनती है। उर्दू और हिंदी दोनों ही महान भाषाएं हैं। विस्तृत अर्थों में एक हैं और दोनों ही नेक हैं। मेरा ही एक शेर है -

जुनूं है चंद लोगों का ज़ुबां मसला नहीं कोई
ग़ज़ल हिंदी में हो उर्दू में हो कल्चर सुहाना है।

इसी कल्चर की पैरवी करते हुए हिंदी और उर्दू के बीच के फ़ासले को मिटाते हुए डॉ. रौशन की ग़ज़लें ज़हनो-दिल को रौशन करती हैं। डॉ. बशीर बद्र की बात से मैं भी सहमत हूं कि "डॉ. रौशन की ग़ज़लें ज़ुबान को संवारती ग़ज़लें हैं।"

इस संग्रह, सुर बांसुरी के, के माध्यम से इतनी मक़बूल और हसीन ग़ज़लें हम तक पहुंचाने और साथ ही अरूज़ी ज़िक्र करने की वज्ह से वह साधुवाद के पात्र हैं। यक़ीन है कि डॉ. रौशन की रौशनाई से निकली ये ग़ज़लें रौशनी का इज़ाफ़ा करने में कामयाब होंगी।

(वर्ष 2004 में लिखित यह समीक्षा 2004 में ही साहित्य सागर पत्रिका में प्रकाशित हुई थी।)

शनिवार, अक्तूबर 21, 2017

नोट्स

प्रसाद का तुलनात्मक अध्ययन - भाग एक


एमए के दौरान तैयार किये गये नोट्स का एक अंश। प्रसाद चूंकि मेरे प्रिय रचनाकारों में शामिल रहे इसलिए उन्हें पढ़ना और उनके बारे में जानकारियां जुटाना हमेशा समय का सदुपयोग ही मालूम हुआ।


Jaishankar Prasad. image source : Google

आंसू, झरना एवं कामायनी जैसी प्रसिद्ध एवं कालजयी काव्य कृतियों के रचयिता और हिन्दी साहित्य के आधुनिक काल के छायावाद के स्तंभ कवि जयशंकर प्रसाद अपनी श्रेष्ठ काव्य कला के लिए अविस्मरणीय हैं। उनकी काव्य यात्रा के सोपानों से गुज़रते हुए पश्चिमी काव्य साहित्य के साथ कुछ साम्य एवं वैषम्य दिखता है। इस अवलोकन का एक संक्षेप यहां प्रस्तुत हैं। अगली कड़ियों में प्रसाद के पूर्ववर्ती भारतीय कवियों के साथ तुलनात्मक अध्ययन को प्रस्तुत करने की चेष्टा रहेगी।
  • जयशंकर प्रसाद और जर्मनी के महान साहित्यकार गेटे में वास्तव में काफी समानता है। दोनों के ग्रंथों के अनुशीलन से यह तथ्य तार्किक प्रतीत होता है। कामायनी से पहले इन दोनों महान कलाकारों की शुरुआती रचनाओं पर बात करें तो ऐसा लगता है जैसे प्रसाद के आंसू और गेटे के ग्रंथ The Sorrows Of Werther में भी गहरा संबंध है। गेटे और प्रसाद के विचित्र जीवन में जो करुण अनुभूतियां हुईं, तो आघात लगे और वेदनाएं तथा निराशाएं इकट्ठी हुईं। वही इन दोनों ने उपरोक्त कृतियों के माध्यम से अभिव्यक्त कीं।
  • बेशक अंतर है लेकिन तत्वों और अनुभूति के स्तर पर दोनों के सुर मेल खाते हैं। जैसे गेटे के फॉस्ट (Forst) और प्रसाद की कामायनी को लेकर तालमेल दिखता है।
  • हां तो, बात करते हैं कामायनी और फॉस्ट पर। अस्ल में, प्रसाद और गेटे की सबसे बड़ी उपलब्धि यह है कि उन्होंने मानव जीवन के तकरीबन हर पहलू को छुआ और यह हुआ प्रमुख रूप से कामायनी और फॉस्ट में। चित्रों में जैसे स्थूलता दिखायी दे और रेखाएं व बिंदु सूक्ष्म से सूक्ष्मतम होते जाएं। एक अद्भुत विचार और विश्व दृष्टि जैसे अभिभूत कर दें। 
  • गेटे ने फॉस्ट में रहस्य को बखूबी अभिव्यक्त किया है। खासकर वह दृश्य जिसमें नायिका मारग्रेट से फॉस्ट कहता है कि उसे ईश्वर की सत्ता हर कण, हर क्षण में दिखती है। उसके अनुभव को नकारा नहीं जा सकता।
  • कविता केवल विचारों, विचारधाराओं या दर्शन की जटिल अर्थ प्रतीतियों का ही नाम नहीं है। वह सौंदर्य को भी साधती है और मत को भी। वह भावना को भी पोसती है और अभिमत को भी। अब यदि सौंदर्य की बात करें तो फिर प्रसाद को गेटे के साथ खड़ा करना ठीक नहीं है क्योंकि गेटे के रचनाधर्म में सौंदर्य प्रमुख नहीं है। जबकि, Romancism के पोषक रहे प्रसाद इससे अधिक मोहित रहे हैं। इस दृष्टि से अंग्रेज़ी साहित्य के एक महान लेखक व कवि थॉमस हार्डी से प्रसाद का तालमेल समझा जा सकता है। प्रसाद जब प्राकृतिक सौंदर्य को देखते हैं तो वैचित्र्य उत्पन्न होता है।
"अंतरिक्ष विशाल में है मिल रही
चंद्रमा पीयूष वर्षा कर रहा
दृष्टि पथ में सृष्टि है आलोकमय
विश्व वैभव से धरा यह धन्य है"
  • थॉमस हार्डी का प्रकृति चित्रण एक सूक्ष्म और अनुभवजन्य जगत से परिचय कराता है जैसे - "The sky was clear - remarkably clear - and the twinkling of all the stars seemed to be but throbs of one body, timed by a common pulse." यानी हार्डी का प्रकृति के प्रति आकर्षण बौद्धिकता से भी सराबोर है जबकि प्रसाद की प्रकृति के प्रति दृष्टि सम्मान व्यक्त करती हुई और चेतना का खुलासा करने वाली है।

शुक्रवार, अक्तूबर 20, 2017

सिनेमा

ख़ुदा के लिए... बोल... या रब !


2014 में रिलीज़ हुई फिल्म "या रब" पर केंद्रित यह आलेख उसी साल लिखा गया था। उस समय यह एक-दो पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित हुआ था लेकिन चूंकि यह आलेख फिल्म के बहाने कुछ मुद्दों को केंद्र में रखता है इसलिए इसका समय अभी शेष है, शायद।


अक्सर होता है कि समाज उस बात या कलाकृति को नकार देता है या अपनाने से कतराता है, जो उसको कवे सच और उसकी कुरूपता से रूबरू कराती है। यह वही समाज है जो सुकरात को ज़हर देता है, ईसा मसीह को सलीब, कबीर को सज़ा, मीरा को विष का प्याला, दारा शिकोह को मौत और प्रेमचंद को अभावग्रस्त जीवन देता है। फिर एक बदलाव आता है और यही समाज सुकरात को सच का मुहाफ़िज़, ईसा को मसीहा, कबीर को महात्मा, मीरा को जोगन, दारा शिकोह को संस्कृति का सिपेहसालार और प्रेमचंद को कलम का सिपाही कहकर नवाज़ता है।

यह समाज समय पर जागने का हामी रहा होता तो शायद किसी कृष्ण, ईसा, पैगंबर, नानक, कबीर, विवेकानंद का जन्म ही नहीं होता। यह समाज सत्य से आंखें नहीं चुराता तो शाश्द अनेक कालजयी कलाकृतियों की रचना ही नहीं होती। आज के समय में हमारे देश में सुधार और बदलाव की लहर ज़रूर है लेकिन सोच ख़ारिज है। विद्रोह की बातें हैं लेकिन कोई सुनिश्चित लक्ष्य नहीं है। हर चेहरा, अपना ही चेहरा है, तो किसको कलंकित कहें? ऐसी अनेक विसंगतियां हैं इसलिए साहित्य, चित्र, सिनेमा, नाटक आदि कलाओं में कुछ ज़रूरी तेवर रह-रहकर सामने आते हैं, जो होते तो हैं समाज के लिए लेकिन अक्सर सिर्फ कुछ बुद्धिजीवियों या फिर गिनती के जागरूकों तक ही पहुंच पाते हैं। शायद यह भी एक विडंबना ही है।

Ya Rab poster. image source : Google

ऐसी ही एक मिसाल और दिखी जब हाशिये पर रिलीज़ हुई फिल्म या रब। फिल्म को एक बड़ी वितरक कंपनी मिलने के बावजूद न तो इस फिल्म को सिनेमाघरों में शो मिल सकें न दर्शक। प्रचार के व्यापार के इस दौर में कई बार अपेक्षित विचार को मंच नहीं मिल पाता। अपना ही एक शेर याद आता है:

एक ने भी अनमोल न समझा
बाज़ार में जब क़ीमत न रही।

आपको याद होगा, कुछ चार-पांच दशक पहले सार्थक सिनेमा की एक धारा प्रवाहित हुई थी। इस धारा को फिर कला सिनेमा कहा जाने लगा। यह सिनेमा विदेशों में तो प्रशंसित होता रहा लेकिन अपने ही देश में दर्शकों को तरसता रहा। जैसे ही यह आरोप लगने लगा कि कलात्मक सिनेमा भारत में असफल सिद्ध होता है, वैसे ही इसे कला सिनेमा के स्थान पर समानांतर सिनेमा कहा जाने लगा। चूंकि ऐसे आरोप हमारे सिस्टम को लचर घोषित करते हैं इसलिए संभव है कि कला सिनेमा को कला सिनेमा न कहने की सिफारिश या दबाव सिस्टमजनित ही रहा हो।

गुरुदत्त की प्यासा ने समाज के इस दोगले सोच का पर्दाफाश किया और फिल्म असफल रही। एक शायर और एक वेश्या को समाज की ऐसी औलाद के रूप में प्रस्तुत किया गया जिसे समाज अपना मानना नहीं चाहता, धिक्कारता है। इससे पहले भी बिमल राय, चेतन आनंद, केए अब्बास, वी शांताराम, सत्यजीत रे जैसे फिल्मकारों ने कुछ ऐसी फिल्मों का निर्माण किया था जिन्हें कला सिनेमा के बीज रूप में समझा जा सकता है। 80 के दशक के बाद कला सिनेमा के निर्माण में एक गतिरोध सा दिखायी देता है और फिल्मकार भी इस तथ्य से सामंजस्य बिठाते दिखते हैं कि वे मात्र कुछ पुरस्कारों या विदेशों में प्रदर्शन के लिए इस प्रकार के सिनेमा का निर्माण करते हैं, अपवाद अवश्य हैं।

इस संदर्भ में फिल्म या रब भी सिर्फ कुछ ही लोगों तक पहुंच पायी। एक बात स्पष्ट कर दूं कि अगर फिल्म की संरचनागत एवं शिल्पगत कलात्मकता का विश्लेषण किया जाये तो यह फिल्म कला सिनेमा की कड़ी में शुमार नहीं की जा सकती। इस दृष्टिकोण से फिल्म में अनेक ख़ामियां नज़र आती हैं। अर्थात, फिल्ममेकिंग के नज़रिये से यह कोई यादगार फिल्म नहीं है। फिर भी, इस फिल्म की चर्चा इसलिए ज़रूरी है क्योंकि यह फिल्म एक संवेदनशील मुद्दे पर सार्थक बहस करती है। आप इसके पक्ष या विपक्ष में हो सकते हैं लेकिन इस मुद्दे को छोड़ा नहीं जा सकता। मुद्दा है इस्लाम में प्रगतिशीलता का, आत्मघाती मानव बमों का, आतंकवाद से धर्म की संलिप्तता का और युवा नस्ल को धर्म के गलत सबक़ देकर गुमराह करने का। फिल्म के कुछ संवाद ऐसे पहलुओं पर एक सकारात्मक सोच का मार्ग प्रशस्त करते हैं।

वास्तव में, हसनैन हैदराबादवाला निर्देशित यह फिल्म उस अंदाज़ की फिल्म है, जो पाकिस्तान के फिल्मकार शोएब मंसूर ने अपनी दो फिल्मों ख़ुदा के लिए और बोल से क़ायम किया है। इन दोनों ही फिल्मों में इस्लाम को लेकर उन पहलुओं पर चर्चा की गयी है, जिन पर खुलकर बात करने में भी लोग डरते और कतराते हैं। क़ुरआन की कुछ पंक्तियों की ग़लत या अधूरी व्याख्या कर युवाओं को बरगलाया जाता है। ये मुद्दे भी इन दो फिल्मों में उठाये गये थे। संभवतः सिनेमा के माध्यम से इस्लाम में प्रगतिशीलता के विचार का सूत्रपात इतने मुखर तरीके से करने का यह पहला प्रयास था इसलिए पाकिस्तान में मंसूर की इन दोनों ही फिल्मों को उचित प्रतियसाद नहीं मिला, उल्टे विरोध प्रदर्शन हो गये। कमोबेश यह हमारे महाद्वीप की ही विडंबना है। महाद्वीप ही क्यूं, शायद पूरे विश्व में ही ऐसा होता है। हमारे वैश्विक समाज में पैगंबर का कार्टून बनाने वाले चित्रकार के खिलाफ क़त्ल का फ़तवा जारी करने के क़ायदे हैं लेकिन एक मज़हब की ग़लत व्याख्या कर उसको दुनिया के सामने मज़ाक बना देने वाले धर्म के तथाकथित ठेकेदारों के विरुद्ध एक स्वर तक नहीं फूटता ! अदालतें ख़ामोश रह जाती हैं !

शोएब मंसूर के अंदाज़ में बनायी गयी हसनैन की फिल्म या रब में एक संवाद है: हिंदू आतंकवाद, मुस्लिम दहशतगर्दी या क्रिश्चियन टैरेरिज़्म जैसे शब्द बेमानी हैं, कोई धर्म आतंकवाद का साथ नहीं देता बल्कि कुछ लोग अपने फ़ायदे के लिए ये गुनाह करते हैं। यह बात समझने की है कि धर्म, जाति, भाषा, वर्ग आदि के आधार पर आप मनुष्य की शराफ़त या चरित्र की पैमाइश नहीं कर सकते। ऐसे कुछ और सार्थक संवाद इस फिल्म को विशेष और सोच-विचार की वस्तु बनाते हैं। यह प्रश्न लंबे समय से बना हुआ था कि आतंकवाद में इस्लामी देशों की संलिप्तता पर मुस्लिम बुद्धिजीवी मुखर क्यों नहीं होते? वे इस्लाम की अनुचित धार्मिक व्याख्याओं के प्रचार का विरोध क्यों नहीं करते? मंसूर और हसनैन की फिल्मों को इसलिए भी सराहा जाना चाहिए क्योंकि उन्होंने अपनी फिल्मों के ज़रीये ऐसे प्रश्नों का सार्थक उत्तर डंके की चोट पर प्रस्तुत करने का बीड़ा उठाया।

अंततः यही लगता है कि अपने देश में अभी तो शिक्षा के नाम पर अक्षर ज्ञान कराने का ही काम चल रहा है, पता नहीं हम जागरूक कब तक हो पाएंगे? सरकारी आंकड़ों में नहीं, हक़ीक़त में। अक्षर ज्ञान, शिक्षा और जागरूकता के अर्थ अलग-अलग हैं, इन्हें समझने की ज़रूरत बनी हुई है। ठीक उसी तरह, जिस तरह आवश्यक फिलमें, कालजयी साहित्य, श्रेष्ठ कलाकृतियों के उचित मूल्यांकन की ज़रूरत बनी हुई है। जब हम जागरूक होंगे, शायद तब उचित मूल्यांकन भी हो सकेंगे।

सिनेमा

दो फिल्में - दूसरी नज़र से दो कमेंट्स


फिल्म समीक्षाएं नहीं है ये। फिल्मों पर कोई लेख भी नहीं कहा जा सकता इन्हें। फिल्म देखते हुए या देखकर एक दर्शक के मन में उठने वाले भाव की संज्ञा दी जाये तो भी उचित नहीं होगा। फ़िलहाल इन्हें कमेंट्स कहते हैं। बाद में कोई नाम मिल गया तो देखा जाएगा। इन कमेंट्स के ज़रीये फिल्मों के विचार का एक सारांश समेटा हुआ दिखता है, फिल्मों की कथावस्तु की रूपरेखा मिलती है और कहीं फिल्म को लेकर एक स्तर पर समझ भी दिखायी देती है।


तपेश के कमेंट में काव्यात्मकता है और यह कमेंट पढ़ना हमेशा मुझे सुखद आश्चर्य लगता रहा कि किसी फिल्म को ऐसे ढंग से भी बयान किया जा सकता है। कविता जैसी लय, रवानी तो है ही इस कमेंट में, साथ ही कई और तत्व भी भावना व विचार के स्तर पर समेटे गये हैं। कम शब्दों में ज़्यादा कहता हुआ यह कमेंट साहित्य के पाठकों और सिनेमा के दर्शकों दोनों के लिए उपयोगी होगा, ऐसा विश्वास है। दूसरा कमेंट मैंने ही लिखा है इसलिए उसके बारे में कोई विवेचना नहीं। इन दो कमेंट्स से गुज़रकर आप जो महसूस करें, वो साझा करें तो आगे इस प्रयास को जारी भी रखा जा सकता है और कुछ सुधार भी संभव हो सकते हैं।

फिल्म - रेनकोट 2004
निर्देशक - रितुपर्णो घोष
टिप्पणी - तपेश सक्सेना

Raincoat poster. image source : google

वह रिश्ता एक उतरन की तरह ही था। खूंटी पर टंगा दिखा तो पहन लिया। कहते हैं कि नज़र से नज़र की डोर बड़ी पक्की होती है। उस रोज़ दायरे में कांच भी था लेकिन डोर साबुत थी। एहसास की बूंदें जब गिरती हैं तो आवाज़ नहीं होती, बस लिबास भीग जाता है। बहुत कोशिश की कि इस डोर पर लिबास सुखा लूं। मगर अंदाज़ा न था बारिश होती ही रहेगी। वैसे भी मां कहती थी कि बारिश में नये कपड़े मत पहना कर। लेकिन, एक बात तो उसने भी नहीं कही थी या शायद मेरे ही सुनने में नहीं आ पायी कि लिबास तो डोरी पर डालकर सुखाये जो भी सकते हैं लेकिन रेनकोट तो वहीं बाहर दरवाज़े पर ही उतारने का रिवाज है। उन्हें निचोड़ा भी नहीं जाता। शायद निचोड़ने से फट जाते होंगे। खूंटी पर वहीं बाहर ही एक रिश्ता टंगा है। जो बारिश रुके तो शायद सूख जाये। और अगर सूखे तो अपना वजूद ढंक लूं उससे।

फिल्म - बॉम्बे वेलवेट 2015
निर्देशक - अनुराग कश्यप
टिप्पणी - भवेश दिलशाद

Bombay Velvet poster. image source : Google

बॉम्बे वेलवेट का अर्थ है मखमली महानगर ! इस शीर्षक में दो शब्दों मखमली और महानगर को दो मिले-जुले रूपकों में देखता और खोजता हूं। यह जो मखमली कालीन है, यह आडंगर है, एक परदा है जो कई लाशों को ढांकता है। जिन लाशों पर मखमली कालीन बिछाया गया है, वो समाजवाद, आदर्शवाद, सच्चाई और निर्बल वर्ग की लाशें हैं। राजनीति के सहयोग से पूंजीवाद ने हत्याएं करवायीं और ये हत्याएं कीं कुछ निराधार महत्वाकांक्षाओं वाले चरित्रों ने, जो अवसरवादी भी थे लेकिन कुछ मानव भी। बाद में इन्हें अपराधी कहा जाने लगा जबकि इन लाशों पर बिछे कालीनों पर खड़ा है स्वार्थी, भावशून्य एवं अमानुष पूंजीवाद।

इकाइयां जब एकत्रित होती हैं तब एक बड़ी संख्या बनती है लेकिन विकास की तथाकथित धारा इस एकत्रीकरण या एकता के विचार की नहीं बल्कि बलि के विचार की पक्षधर है। सैकड़ों छोटे-छोटे गांवों की बलि से महानगर बनते हैं। गांवों की एकता से नहीं। कुर्बान होते हैं गांव, कस्बे और संपन्न होता है नगर, नगर का एक वर्ग विशिष्ट। तो इकाइयों की बलि से बना महानगर, लाशों को ढांकते हुए एक मखमली कालीन पर खड़ा भी और उस कालीन का समर्थक भी है। यही है बॉम्बे वेलवेट।

अनुवाद

प्रॉस्पिस यानी आगे की सोचना


अंग्रेज़ी साहित्य में विक्टोरियन कवियों की सूची में रॉबर्ट ब्राउनिंग का नाम सम्मान के साथ दर्ज है। ब्राउनिंग की कविताएं चिंतन और दर्शन के अनेक पहलुओं और प्रश्नों को टटोलती हैं और साथ ही, काव्य के सौंदर्य को भी रेखांकित करती हैं। अलंकार और वक्रोक्ति इन कविताओं में प्रमुखता से पाये जाते हैं। यानी समझा जा सकता है कि इनका पाठ कितना कठिन है और अनुवाद और कितना..!


प्रॉस्पिस, ब्राउनिंग की बेहद चर्चित कविताओं में से एक है जो संभवतः उन्होंने अपनी पत्नी एलिज़ाबेथ की मृत्योपरांत लिखी थी। आलोचक मानते हैं कि इस कविता में नायक कोई और नहीं बल्कि कवि स्वयं ही है जो अपनी पत्नी की आत्मा में विलीन होने की कामना में मृत्यु से युद्ध करने की कल्पना कर रहा है। इस कविता का प्रारंभ एक विषाद के साथ होता है, परंतु यह कविता धीर, वीर नायक का चरित्र प्रस्तुत करती है। मृत्यु से जुड़े दर्शन के कुछ मूलभूत प्रश्नों को उठाती यह कविता कल्पनाशीलता के माध्यम से सुनहरे पन्नों पर दर्ज हो जाती है।

Robert Browning. image source : Google (modified)

वास्तव में, विक्टोरियन कवियों ने अनेक सिरों से मृत्यु पर कविताएं रचीं। मैथ्यू ऑर्नल्ड, अल्फ्रेड लॉर्ड टेनिसन, अल्फ्रेड ऑस्टिन और डब्ल्यू बी रैंड्स अन्य प्रमुख विक्टोरियन कवि हैं। ब्राउनिंग के यहां सरलता कम है और रूपक एवं प्रतीकों की भरमार है जिसके कारण वह अपने समकालीन विक्टोरियन कवियों से अलग चीन्हे जाते हैं। प्रॉस्पिस कविता को पढ़कर कहीं निराला की राम की शक्तिपूजा का स्मरण भी हो जाता है तो कहीं प्रसाद रचित कामायनी की कुछ पंक्तियां स्मृतियों में तैरने लगती हैं। यह दर्शन की बारीक समझ होने के कारण संभवतः होता है।

यहां ब्राउनिंग की कविता प्रॉस्पिस का हिन्दी अनुवाद प्रस्तुत है जो श्री तपेश सक्सेना ने किया है। तपेश ने इस कविता के अनुवाद के उद्यम में मूल कविता की राइमिंग स्कीम यानी तुकबंदी, लयता एवं छन्द का ध्यान रखा है। तपेश के अनुवाद की भाषा में हिन्दी और कतिपय उर्दू का इस्तेमाल होने के कारण यह एक आमफहम भाषा कही जा सकती है। इस अनुवाद में क्लासिक अनुवाद परंपरा की छुअन है और यह आजकल बहुतायत में किये जा रहे अतुकांत व शब्द दर शब्द अनुवादों से अलग भी है। इस अनुवाद की और भी खूबियां हैं जो पाठक इससे गुज़रते हुए महसूस कर सकते हैं। यहां ब्राउनिंग की मूल अंग्रेज़ी कविता और तपेश द्वारा किया गया अनुवाद प्रस्तुत है।

PROSPICE

Fear death?—to feel the fog in my throat,
The mist in my face,
When the snows begin, and the blasts denote
I am nearing the place,

मौत का भय? कंठ कुहरे का करे एहसास थमकर
और चेहरे पर पड़ी है धुंध भी तो
अब बरफ भी गिर रही है आंधियों के साथ जमकर
यूं लगे गंतव्य है नज़दीक ही तो

The power of the night, the press of the storm,
The post of the foe;
Where he stands, the Arch Fear in a visible form,
Yet the strong man must go:

रात ताकत आज़माकर ज़ोर तूफानी लगाकर
शत्रु का आभास मुझको दे सकी है
भय ख़ा है साथ मेरे राजसी सूरत बनाकर
पर गति यह आदमी की कब रुकी है

For the journey is done and the summit attained,
And the barriers fall,
Though a battle's to fight ere the guerdon be gained,
The reward of it all.

इस सफ़र का छोर पाने के लिए ही तू चला है
तोड़ दे तू अड़चनों का आज घेरा
युद्ध का उद्देश्य तुझको बिन लड़े कब मिल सका है
अब विजय ही हो सके ईनाम तेरा

I was ever a fighter, so—one fight more,
The best and the last!
I would hate that death bandaged my eyes and forbore,
And bade me creep past.

मैं सदा था वीर योद्धा, यह लड़ाई फिर लड़ूंगा
सर्वोत्तम हो यह लड़ाई आखिरी हो
प्यार दूं इतिहास को मैं मौत से नफ़रत करूंगा
गर ढंकेगी मौत मेरी आंख को तो

No! let me taste the whole of it, fare like my peers
The heroes of old,
Bear the brunt, in a minute pay glad life's arrears
Of pain, darkness and cold.

पर नहीं! अब सोचता हूं चख ही लूं मैं स्वाद सारे
चख चुके जो ऐतिहासिक दोस्त मेरे
फिर खुशी की ज़िंदगी के मैं चुका दूं ख़ामियाज़े
आंसुओं के, रात के और दर्द के रे

For sudden the worst turns the best to the brave,
The black minute's at end,
And the elements' rage, the fiend-voices that rave,
Shall dwindle, shall blend,

हां अचानक हर बुरा बनता है अच्छा वीर मन से
खत्म होने को है काली सी घड़ी यह
तत्व भी नाराज़ हैं सब प्रेत करते हैं रुदन से
मिट रहा सब हो रहा है शून्य में लय

Shall change, shall become first a peace out of pain,
Then a light, then thy breast,
O thou soul of my soul! I shall clasp thee again,
And with God be the rest!

अब उठा दो अब जगा दो शांति को भी वेदना से
रोशनी को छातियों से मुक्त कर दो
फिर परस्पर लीन हो लें आत्मा में आत्मा से
साथ हो जो शेष हो, वह ईश्वर हो!

(Translation by Tapesh Saxena)