मंगलवार, अक्तूबर 24, 2017

कला

भारतीय व पश्चिमी रंगमंच में कामदी व त्रासदी की अवधारणा


वास्तव में यह आलेख उस प्रश्न या विमर्श का नतीजा है जो रंगमंच से जुड़ाव के कारण सामने आया। "प्राचीन भारतीय नाट्य परंपरा में दुखांत नाटकों की संख्या लगभग न के बराबर है जबकि पश्चिम में स्थिति ठीक उलट, क्यों?" यह विमर्श रंगमंच के साथ ही साहित्य के पाठकों के लिए भी उपयोगी हो सकता है।


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प्राचीन भारतीय साहित्य के उल्लेख से प्रारंभ करने पर सर्वप्रथम हम संस्कृत काव्य का संस्पर्श करते हैं। श्रुति परंपरा के आदि ग्रंथों में वेद, भारतीय ही नहीं बल्कि वैश्विक धरोहर माने जाते हैं। इन ग्रंथों के माध्यम से हम जीवन, विश्व एवं ब्रह्म आदि संबंधी तत्व एवं दर्शन ज्ञान प्राप्त कर सकते हैं। तदुपरान्त, संस्कृत का भक्ति अथवा धार्मिक काव्य प्रस्तुत होता है। "रामायण" इस श्रेणी का महानतम ग्रंथ है। फिर, "महाभारत" एक और चमत्कार है। ये ग्रंथ विश्व साहित्य के अग्रणी ग्रंथ माने जाते हैं। दोनों की संक्षिप्त चर्चा आवश्यक है।

राम की कथा है रामायण। लंका विजय एवं रावण वध के बाद राम की अयोध्या वापसी, यह सुखांत है। किन्तु, उत्तर रामायण में सीता का धरती में समाना एवं राम का पुनर्गमन एकबारगी दुखांत का भ्रम देता है। ऐसा ही महाभारत में होता है। कौरवों पर पांडवों की विजय के बाद भीष्म की मृत्यु एवं पांडवों की वानप्रस्थ यात्रा के समय मृत्यु, वास्तव में किसी दुखांत के संकेत देते हैं। परन्तु ऐसा है नहीं। एक तो, दोनों ही कथाएं संपूर्ण जीवन चरित्र के रूप में व्याख्यायित हैं इसलिए मृत्यु पर ही समाप्त होंगी, स्वाभाविक है। दूसरा कारण यह कि दोनों ही काव्य ईश्वर एवं जीवन दर्शन संबंधी ज्ञान को प्रतिक्षण केंद्र में रखकर चलते हैं इसलिए हर त्रासद कथा प्रसंग का कोई न कोई प्रतीक, बोध एवं संकेत अवश्य अंतर्निहित है।

इन दो महाकथाओं के अंशों अथवा पूरी कथा के नाटकीय मंचन की परंपरा से ही प्राचीन भारत के आरंभिक रंगमंच की प्रथम परिकल्पना मानी जा सकती है। क्योंकि ये कथाएं लोक में समग्रता के साथ व्याप्त हुईं, इनमें भी रामक कथा अधिक और महाभारत के कृष्ण कथा के भाग। तो, रंगमंच या नाट्य में, संभवतः इन कथाओं के लीला प्रसंग ही प्रमुखता से मंचित हुए, अर्थात् सुखान्त की परिकल्पना। रामलीला एवं कृष्णलीला, सामान्यतया रावण वध एवं कंस वध के साथ ही समाप्त मानी जाती थीं।

अर्थात प्राचीन भारत में लोकमानस में नाट्य का सुखांत होना एक तरह से स्थापित हो चुका था, ऐसा कहा जा सकता है। फिर, काव्य के बाद संस्कृत नाटकों का प्रणयन हुआ। वर्जीनिया सौंडर्स लिखित आलेख का अंश - 
"We know that at least as early as Kalidas, the strict rules, whether written or traditional, barring tragedy from the Hindu stage, were firmly established and closely observed."

प्राचीन भारत में, नाट्य के संदर्भ में, पारंपरिक अथवा लोक दृष्टि ने कुछ नियम बना दिये थे जिनका पालन परवर्ती नाटककारों ने गंभीरता के साथ किया। ये नियम संभवतः लोक में प्रतिष्ठित होने के बाद ही लिखित रूप में प्रस्तुत हुए। भरतमुनि ने नाट्य शास्त्र में संभवतः प्रथम बार उल्लेख किया कि नाट्य का उद्देश्य लोक मंगल एवं लोक रंजन है। लोक मंगल हेतु आवश्यक है कि नाट्य सकारात्मक उर्जा को किसी लोकोपयोगी संदेश एवं प्रयोजन के साथ प्रकाशित करे।

भरतमुनि ने नाट्य शास्त्र में यह उल्लेख भी किया कि नाट्य मंचन के समय युद्ध, म्त्यु, त्रासदी एवं शव संबंधी क्रियाओं के साथ ही वीभत्स दृश्यों का प्रस्तुतिकरण अश्रेयस्कर है। इस नियम का प्रभाव स्पष्ट रूप से संस्कृत नाट्य लेखन परंपरा में दिखता है। इस नियम के कारण के बारे में चर्चा आवश्यक है जो यह भी स्पष्ट करती है कि ग्रीक नाट्य परंपरा में त्रासदी अथवा दुखांत परंपरा से भारतीय नाट्य परंपरा के उलट या पृथक होने का क्या कारण है।

शास्त्रीय संस्कृत नाट्य पर आधारित आलेख में प्रो. सिद्धार्थ सावंत संकेत करते हैं कि पाश्चात्य की त्रासद परंपरा एवं भारतीय सुखांत परंपरा के मूल कारण में दार्शनिक परंपरा महत्वपूर्ण है। चूंकि भारतीय दर्शन परंपरा में "कर्म" के सिद्धांत को बल मिलता है जबकि पाश्चात्य दर्शन "नियति" पर आधारित दिखता है। इसे मूलभूत अंतर माना जा सकता है। गीता में कर्म आधारित दर्शन पर विस्तृत विमर्श है और यह सिद्धांत प्रस्फुटित होता है कि मनुष्य की नियति वास्तव में उसके कर्मों से ही निर्धारित होती है। "जैसा कर्म वैसी गति"। अस्तु, त्रासदान्त होने की संभावना क्षीण हो जाती है क्यांकि जब दर्शक या श्रोता यह जानता है कि रावण का कर्म पतनोन्मुखी है, तो वह उसके पतन को त्रासद नहीं मानता बल्कि उसे स्वाभाविक गति स्वीकार करता है।

इस विमर्श का दूसरा सिरा यह है कि पश्चिम में दर्शन एवं चिंतन की धारा में मृत्यु का भय व्याप्त हो चुका था। तब भी यह एक ऐसी अवस्था या घटना थी जिस पर मानव का कोई वश नहीं था और न आज तक पूर्णतः हो सका है। यह ईश्वरीय प्रकोप की तरह समझा गया। यह मानव की शक्ति पर वज्राघात के समान माना गया। मानव की सत्ता को क्षण में समाप्त कर देने के संकेत रूप में विश्लेषित किया गया। यह भय पश्चिम की अनेक कलाओं में अनेक संकेतों एवं प्रतीकों के माध्यम से प्रकट हुआ। अस्तु, नाट्य परंपरा में दुखांत का एक कारण भी बना।

अंग्रेज़ी के मशहूर लेखक ऑल्डस हक्स्ले ने "एपिक एंड दि होल ट्रुथ" (Epic And The Whole Truth) में इस विषय पर सूत्र रूप में विशद विमर्श किया है। इसी संबंध में, निर्मल वर्मा लिखित निबंध "पूर्व और पश्चिम" से कुछ बिंदुओं को ध्यान में रखा जाना आवश्यक है। वास्तव में, निर्मल वर्मा का यह निबंध हक्स्ले द्वारा भारतीय साहित्य के संबंध में रखे गये प्रश्नों एवं जिज्ञासाओं के उत्तर रूप में प्रकाश में आता है। पश्चिमी एवं भारतीय साहित्य की मूल प्रवृत्तियों के आधार पर इस लेख में कुछ महत्वपूर्ण तथ्यों को इंगित किया गया है जिनमें से यहां कुछ उपयोगी अंश प्रस्तुत हैं -

"पश्चिमी महाकाव्य में एक तरह की ठंडी वस्तुपरकता है, जहां खून में सने सैनिकों के शव उसी तरह धूल में लोटते हैं, जैसे किसी भीषण आंधी में पेड़ों के धड़ गिरते हैं। भारतीय महाकाव्य में भी युद्ध की भूमिका कम महत्वपूर्ण नहीं है, किंतु वहां कुरुक्षेत्र सिर्फ लड़ाई का मैदान नहीं है, वह धर्मक्षेत्र भी है, नीति और न्याय के परिप्रेक्ष्य में ही महाभारत अपनी काव्यात्मक गरिमा अर्जित करता है।"
"भारतीय परंपरा में मनुष्य का 'आत्म' उसके अहं (Ego) की तुलना में बृहत्तर है, जो अपने को जीव-जगत की समस्त सत्तओं से अंतर्संबंधित पाता है। ....पश्चिमी साहित्य में 'ट्रेजडी' जैसी सशक्त, सांद्र, विस्फोटक विधा का आविर्भाव इसलिए संभव हो सकता क्योंकि वहां मनुष्य और मनुष्य, मनुष्य और प्रकृति, आत्म और अन्य के बीच की खाई अंधेरी और अलंघ्य जान पड़ती है।"
"कहीं ऐसा तो नहीं है कि जिसे मैं 'पश्चिम' कहता हूं, वह कहीं पहले से ही मेरे भारतीय अनुभव संसार के भ्राीतर बर्फ की तरह जमा है, जो यूरोपीय कलाकृति की थोड़ी सी धूप और गरमाई पाते ही पिघल कर हमारे भीतर बहने लगता है, कुछ वैसे ही जैसे पूर्वी संस्कृतियों का अवदान यूरोपीय मानस की परतों को उघाड़कर एक नयी अंतर्दृष्टि देता है।"

अंततः कहा जा सकता है कि भारतीय दर्शन परंपरा भरतमुनि के नाट्य सिद्धांत एवं लोक मंगल की प्रतिष्ठा आदि कारणों से प्राचीन भारत के संस्कृत नाटकों में सुखांत के दर्शन होते हैं, या यों कहें कि पश्चिम जैसी "ट्रैजडी" नहीं मिलती। ऐसा भी नहीं है कि संस्कृत नाटकों में यह ट्रैजडी है ही नहीं, "उरुभंग" एवं "कर्णभार" नामक नाटक ऐसे हैं जिन्हें पश्चिम के समान ट्रैजडी कहा जा सकता है। इस प्रकार के संभवतः यही दो संस्कृत नाटक हैं।

निष्कर्ष यह नहीं निकाला जाना चाहिए कि हमारे संस्कृत नाटककारों में मानवीय द्वंद्व के आधार पर त्रासदी रचने की प्रतिभा नहीं थी, बल्कि इसका कारण यही था कि जनमानस में स्वस्थ एवं सकारात्मक चेतना का संचार हो। वर्जीनिया सौंडर्स का एक और कथन महत्वपूर्ण है -
... some of the writers of these plays could not have written real tragedies if they had so wished. There is an abundance of evidence to show that these playwrights were keen psychologists, and they were certainly well versed in the making out of cause and effects.

संस्कृत काल के बाद भी भारतीय नाट्य परंपरा में दुखांत या त्रासद नाटकों के प्रति अरुचि का कारण कालखंड के अनुसार समझा जा सकता है। बाद के काल में चूंकि भारत लगातार आक्रमणों का सामना करता रहा इसलिए एक लंबे समय तक राष्ट्रीय चेतना, आत्मगौरव, नायकत्व प्रदान करने के उद्देश्य से नाटकों का सृजन हुआ इसलिए इनमें हम शास्त्रोक्त नायक के दर्शन करते हैं जो "धीर, वीर, गंभीर एवं उदात्त" चारित्रिक गुणों पर आधारित होता है और जनमानस को आंदोलित करने की संभावनाएं तलाशता है।

आधुनिक काल के हिन्दी नाटकों तक, जयशंकर प्रसाद तक, हम इस तरह के नाटकों का पल्लवन होना देखते हैं जो भारतीय परंपरा एवं कला के अनुरूप है। प्रसाद के काव्य में सुखांत एवं दुखांत को लेकर काफी चर्चा होती है और कई आलोचक उनके द्वारा दिये जाने वाले अंत को 'प्रसादांत' मानते हैं। कतिपय उनके नाटकों में भी इसी प्रसादांत के संकेत हैं। इस बारे में भी विस्तृत चर्चा संभव है। प्रसाद के बाद के नाटकों में सुखांत एवं दुखांत या त्रासदी एवं कामदी संबंधी चर्चा में देखा जा सकता है कि प्राचीन भारतीय नाट्य परंपरा एवं सिद्धांत उतनी प्रमुखता एवं सशक्तता के साथ परिलक्षित नहीं होते इसलिए त्रासद या दुखांत नाटकों के सृजन में वृद्धि हो रही है।

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