न्यूटन : वैज्ञानिक नियमों का जीवन दर्शन और कंट्रास्ट
अमित मसूरकर निर्देशित फिल्म न्यूटन पर केंद्रित भवेश दिलशाद लिखित समीक्षात्मक आलेख। इस आलेख को सिनेमा केंद्रित वेबसाइट "फिल्मीकस्बा" एवं साहित्यिक ब्लॉग "रचना प्रवेश" पर प्रकाशित किया गया। आलेख के कुछ महत्वपूर्ण अंश। संबंधित लिंक्स पर जाकर आप पूरा आलेख पढ़ सकते हैं।
यह समय सिनेमा का उद्देश्य निर्धारित करने की कोशिश का समय है। जब न्यूटन जैसी कोई फिल्म आती है तो निश्चित ही हम कह सकते हैं कि एक वर्ग है, जो सिनेमा के माध्यम और उसकी उपादेयता को लेकर न केवल चिंतित है बल्कि उसके बड़े लक्ष्य को लेकर प्रयासरत भी है।...
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कई कोणों से न्यूटन को देखे जाने की ज़रूरत महसूस होती है। सबसे पहले, इसके कथ्य की रेंज को समझना होगा। न्यूटन अपने कथ्य में एकबारगी सपाट दिखती है क्योंकि इसमें कोई चौंकाने वाला दृश्य विधान नहीं है, क्योंकि इसमें पटकथा के लिहाज़ से कोई सनसनीख़ेज़ पेंच नहीं हे और क्योंकि इसका व्यंग्य बहुत सरलता से संप्रेषित होता भी है। फिर भी, इसके कथ्य की रेंज इतनी है कि हम इसे विश्व स्तर का सिनेमा कह सकते हैं।...
न्यूटन का सिने शिल्प उसके कथ्य की गंभीरता या यूं कहें कि कथ्य के मिज़ाज के अनुकूल है। और यही उसकी सार्थकता है। यह ओढ़ा हुआ शिल्प नहीं है या जबरन लादा गया नहीं है। स्वाभाविकता एवं सादगी में ही सौंदर्य की परिभाषा तलाशने के प्रति एक बड़े दर्शक वर्ग को आंदोलित करने वाला कदम कहा जाना चाहिए इसे।....
इस फिल्म को लेकर एक बहस यह भी है कि यह एक ईरानी फिल्म से प्रेरित है लेकिन चूंकि उस ईरानी फिल्म के निर्देशक खुद इस बात का खंडन करते हुए कह चुके हैं कि न्यूटन एक अलग और सार्थक फिल्म है, तो मान लिया जाना चाहिए कि इस बहस में पड़ने का औचित्य नहीं है।...
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