सोमवार, अप्रैल 13, 2020

अनुवाद

"ट्रंप की सनक और पूंजीवाद का नतीजा है अमेरिका में महामारी का विकराल रूप"


कोरोना वायरसजनित वैश्विक महामारी की चपेट में आयी दुनिया का उपरिकेंद्र बनकर उभरा है अमेरिका. विश्व के सबसे संपन्न, शक्तिशाली और पूंजीवाद के अगुवा इस देश में स्वास्थ्य रक्षा, नेतृत्व की कमज़ोरियां और पूंजीवादी मूल्यों की न सिर्फ़ पोल खुली है, बल्कि दुनिया का कथित सबसे शक्तिशाली मनुष्य मज़ाक बनकर रह गया है. मशहूर और वयोवृद्ध विचारक एवं लेखक, जिन्हें करीब 15 साल पहले सबसे महान लोक बुद्धिजीवी माना गया था, नो'म चॉम्स्की ने इस पूरे परिदृश्य पर विस्तार से बातचीत की है. हिन्दी के पाठकों को इन गंभीर विचारों एवं मुद्दों पर विमर्श से रूबरू होना चाहिए इसलिए वार्ता के महत्वपूर्ण अंश भवेश दिलशाद के शब्दों में...


Cover Pages of Books Written by Naom Chomsky.

नो'म चॉम्स्की : संक्षिप्त परिचय
दुनिया के नामचीन राजनीतिक असंतुष्ट, भाषाविद् और लेखक. अमेरिका की एरिज़ॉना यूनिवर्सिटी में भाषाशास्त्र विभाग के मानद प्राध्यापक और मैसैचुसेट्स तकनीकी इंस्टिट्यूट में 50 सालों तक शिक्षण देने के बाद अवकाशप्राप्त प्राध्यापक. फ़ेल्ड स्टेट्स, इंटरवेन्शन्स, मेकिंग द फ़्यूचर, रेक्विएम फ़ॉर दि अमेरिका ड्रीम जैसी अनेक पुस्तकों के लेखक.

एमी गुडमैन : प्रोफेसर चॉम्स्की से बातचीत की शुरूआत, 2020 में होने जा रहे चुनावों के संदर्भ से शुरू करते हुए जानते हैं कि वो कैसे देख रहे हैं कि नवंबर में क्या होने जा रहा है.

नो'म चॉम्स्की : अगर ट्रंप दोबारा चुने जाते हैं, तो यह एक वर्णनातीत त्रासदी ही होगी. इसका मतलब यह है कि पिछले चार सालों से अमेरिकी आबादी समेत पूरी दुनिया जो बेहद विनाशकारी नीतियां झेलने पर मजबूर है, वही ढर्रा जारी रहेगा. संभवत: और तेज़ हो जाएगा. इसका मतलब, स्वास्थ्य के क्षेत्र में और ख़राब दौर होगा. इसका मतलब, पर्यावरण के लिए ख़तरा होगा और जिसकी चर्चा कोई नहीं कर रहा, न्यूक्लियर युद्ध के ख़तरे का वह मुद्दा बेहद गंभीर और अवर्णनीय है.

अब मान लीजिए कि बिडेन चुनाव जीतते हैं तो मुझे लगता है कि ओबामा के कार्यकाल जैसा दौर आएगा, यानी कुछ बहुत कमाल नहीं होगा, लेकिन कम से कम संपूर्ण विनाशकारी भी नहीं होगा. बदलाव लाने के लिए संगठित लोक के पास व्यवस्था पर दबाव बनाने के लिए मौके होंगे.

चिंतन का रुख़ सैंडर्स ने बदला


ऐसा कहा जा रहा है कि सैंडर्स का चुनाव अभियान नाकाम हो गया. मुझे लगता है यह कहना भूल है. मुझे लगता है कि यह असाधारण रूप से सफल रहा क्योंकि सैंडर्स के अभियान ने वाद विवाद और परिचर्चा का रुख़ बदल दिया. जो मुद्दे करीब दो साल पहले तक सोचे भी नहीं जा रहे थे, वो अब विमर्श के बीचों—बीच हैं. जो स्थापित व्यवस्था है, उसकी नज़रों में सैंडर्स का सबसे बड़ा गुनाह यह नहीं कि उन्होंने किन नीतियों का प्रस्ताव रखा, बल्कि ये कि उनके विमर्श से नयी प्रेरणा मिली, और वो आंदोलन, जो भीतर ही कहीं पनप रहे थे, ऊर्जावान आंदोलन में बदलते गये. अस्ल में, ऐसे आंदोलन सतत दबाव बनाये रखते हैं, इसे आप आंदोलनात्मक सक्रियतावाद कह सकते हैं. 


सबके लिए स्वास्थ्य सुरक्षा या मुफ़्त उच्च शिक्षा, सैंडर्स के कार्यक्रम के अन्य बड़े मुद्दे रहे. तथाकथित मुख्यधारा के नज़रिये से इसे वामपंथ कहा जा रहा है और अमेरिकियों के लिए अतिवाद या उग्र सुधारवाद कहकर इसकी आलोचना की जा रही है. लेकिन, ज़रा विचार कीजिए. किस बात को अतिवादी कहा जा रहा है? कि हम उन देशों के बराबर उठ सकें, जिनसे हमारी तुलना होती है. उन तमाम देशों में राष्ट्रीय स्वास्थ्य सुरक्षा किसी न किसी रूप में है. उनमें से कई देश मुफ़्त उच्च शिक्षा देते हैं - फिनलैंड, जर्मनी जैसे देश तो राष्ट्रीय स्तर पर बेहतर प्रदर्शन कर रहे हैं. यही नहीं, हमारे दक्षिण में तुलनात्मक ग़रीब देश मेक्सिको तक उच्च गुणवत्ता की उच्च शिक्षा मुफ़्त देता है. तो, बाक़ी दुनिया के मानकों तक उठने को अमेरिकियों के लिए अतिवाद कहा जा रहा है. यह हैरतअंगेज़ टिप्पणी है. मैं कहता हूं, कि यह अमेरिका के किसी जानी दुश्मन द्वारा की जाने वाली आलोचना है.

इस पूरे परिदृश्य का वामपंथ यह है, जो आपको बताता है कि हमारे पास वास्तव में गंभीर समस्याएं हैं. सिर्फ़ ट्रंप ही नहीं. बल्कि उन्होंने स्थितियां और खराब कर दी हैं. मसलन, मैंने वेंटिलेटर संकट के बारे में पहले भी समझाया है. यह समझना चाहिए कि विषम स्थितियों से निपटना सरकार का काम है लेकिन इन स्थितियों में सरकार को बेअसर करने वाले पूंजीवादी तर्क पर व्यवस्था आधारित है, जिसके कारण समस्याएं बेहद गहरा गयी हैं. ट्रंप की अपेक्षा ये समस्याएं काफी गहरी हैं. हमें, इन तथ्यों का सामना करना पड़ेगा. कुछ करते हैं. मुझे ठीक याद नहीं, लेकिन शायद आपने जनवरी में इस बारे में 'क़यामत के दिन' थीम पर रिपोर्टिंग की थी. है ना?

एमी गुडमैन : जी हां.

नो'म चॉम्स्की : देखिए हुआ क्या. ट्रंप के कार्यकाल के दौरान 'डूम्स डे घड़ी' में मिनट का कांटा आधी रात के पास तक खिसका. समापन अपने अंतिम चरण की स्थिति में दिखा. इस जनवरी में इसमें और इज़ाफ़ा हुआ. विश्लेषणों ने मिनट के बाद सेकंड्स की तरफ रुख किया: आधी रात से सिर्फ़ 100 सेकंड दूर, और यह सब ट्रंप का कमाल है!

और तो और, आदमख़ोर साबित हो चुकी रिपब्लिकन पार्टी तो अब एक राजनीतिक पार्टी के तौर पर काबिलियत तक खो चुकी है. बेहयाई की इन्तहा ये है कि इसमें कोई ग़ैरत तक नहीं बची है. यह सब देखना वाक़िई ताज्जुब की बात है. ट्रंप ने खुद के आसपास चाटुकारों का ऐसा घेरा बना लिया है, जो सिर्फ़ उनकी कही बात को जपते रहते हैं. लोकतंत्र पर इससे बड़ा वास्तविक हमला क्या होगा, बल्कि मानवता के अस्तित्व पर हमला? यह सब देखना आश्चर्यजनक है...

आंदोलन लगातार जारी रहें, तो कामयाब होते हैं


हालिया कुछ घटनाक्रमों में आंदोलनकारियों ने सत्ता पर दबाव बनाया और इन लोगों पर साख बचाने का संकट देखा गया. हमने कुछ विचारणीय उदाहरण देखे. उदाहरण के लिए ग्रीन न्यू डील. मानवता की उत्तरजीविता (सर्वाइवल) के लिए ग्रीन न्यू डील के कुछ प्रारूप ज़रूरी हैं. दो साल पहले तक, इसे सिरे से ख़ारिज किया जाता था और, अब यह सामान्य एजेंडा का हिस्सा है. क्यों? आंदोलन की लगातार सक्रियता. ख़ास तौर से नौजवानों के समूह सनराइज़ आंदोलन की भूमिका महत्वपूर्ण रही, जो कांग्रेशनल दफ़्तरों तक पहुंच बना सके. इन्हें एलेग्ज़ेंड्रिया ओकैज़ियो-कॉरटेज़ जैसी विधायी हस्तियों का सहयोग मिला, जो सैंडर्स प्रेरित लहर से प्रभावित थे - यह सैंडर्स की एक और बड़ी कामयाबी रही. मैसैचुसेट्स के सीनेटर एड मर्की ने भी सहयोग किया. अब यह डील विधायी एजेंडे का हिस्सा है. अब अगला क़दम होना चाहिए कि इसे किसी व्यवहार्य रूप में बल मिले, और इसके लिए सार्थक विचार हैं भी. बहराहल, इस तरह से बदलाव मुमकिन है.

Green New Deal Movement. (Image : Green Economy Coalition)

बिडेन राष्ट्रपति बनते हैं तो, भले ही बेहद दयालु प्रशासन न हो, लेकिन कम से कम दबाव बनाने की गुंजाइश होगी. और यह बहुत महत्वपूर्ण है. समाज में संस्थागत बदलावों के संदर्भ में कामगार लोगों की कोशिशों को लेकर अध्ययन करने वाले मार्के के श्रम इतिहासकार एरिक लूमिस ने एक दिलचस्प बिंदु प्रस्तुत किया था; ये कोशिशें तब कामयाब हुईं, जब प्रशासन दयालु था और तब नहीं, जब नहीं था. यह बड़ा मुद्दा है - यह बहुत बड़ा अंतर है मनोरोगी (सोसिओपैथ) ट्रंप और बिडेन के बीच, जिन पर आप येन केन प्रकारेण दबाव बना सकते हैं. वास्तव में, मानव इतिहास में यह चुनाव सबसे महत्वपूर्ण होने जा रहा है. ट्रंप के और चार साल, और हम भारी संकट में होंगे.

एमी गुडमैन : संयुक्त राज्य अमेरिका, दुनिया का सबसे अमीर देश, कैसे वैश्विक महामारी का केंद्र बन गया?

नो'म चॉम्स्की : कई देशों ने कई तरह से क़दम उठाये, किसी ने अधिक सफलतापूर्वक तो किसी ने कम. इस लिस्ट में जो सबसे नीचे के पायदान पर रहे, उनमें हम हैं. बड़े देशों में संयुक्त राज्य इकलौता है, जो विश्व स्वास्थ्य संगठन को आंकड़े तक मुहैया नहीं करवा सका क्योंकि यहां अकर्मण्यता है.

'स्वास्थ्य सुरक्षा सिस्टम के साथ खिलवाड़'


इसका एक बैकग्राउंड है. यहां का लज्जाजनक और घोटालेबाज़ स्वास्थ्य सुरक्षा सिस्टम, जो सामान्य से ज़रा भी अलग किसी परिस्थिति के लिए तैयार नहीं है. यानी यह किसी काम का है ही नहीं. यह वॉशिंग्टन के कुछ अजीब से गुंडों बदमाशों के हाथ की कठपुतली बनकर रह गया है, जिन्होंने इसे बद से बदतर करने की हर मुमकिन करतूत की है. ट्रंप ने अपने पिछले चार साल के कार्यकाल में व्यवस्थित ढंग से, सरकार के स्वास्थ्य संबंधी हर पहलू को कमज़ोर किया है. पेंटागन (अमेरिकी रक्षा विभाग का मुख्यालय) बढ़ रहा है, दीवारों के निर्माण बढ़ रहे हैं लेकिन स्वास्थ्य जैसा हर वो पहलू, जो सामान्य आबादी के लाभ से जुड़ा है, उसका स्तर नीचे गिर रहा है.

उदाहरण के तौर पर, अक्टूबर में ट्रंप ने एक संयुक्त राज्य प्रोजेक्ट को पूरी तरह रद्द कर दिया, कहा गया था - यह प्रोजेक्ट चीन समेत तीसरी दुनिया में काम कर रहा था और जिनमें महामारी की आशंका है, ऐसे वायरसों को चिह्नित करने की कोशिश कर रहा था. हक़ीक़त तो यह है कि इस तरह के अंदाज़े तबसे लग रहे थे - जबसे 2003 में सार्स महामारी फैली थी.

अब अगर हम चाहते हैं कि नयी महामारियों से बचें, जो इससे भी ज़्यादा गंभीर हो सकती हैं क्योंकि ग्लोबल वॉर्मिंग का खतरा तो पंख फैला ही रहा है, हमें जड़ को देखना होगा. और, लगातार उस पर विचार करना होगा. वैश्विक महामारियों की आशंका वैज्ञानिकों ने सालों से जता दी थी. सार्स काफी गंभीर था. हालांकि, उस पर किसी तरह काबू पाया गया था और वैक्सीन के विकास के काम की शुरूआत थी, लेकिन यह काम कभी जांच के स्तर पर नहीं पहुंचा. उस वक्त भी यह तय था कि कुछ और होने वाला है, कई महामारियां आने वाली हैं.

नवउदारवाद से ग्रस्त हैं सरकारें


लेकिन इतना जान लेना ही काफी नहीं है. किसी को इस दिशा में कारगर क़दम भी उठाने चाहिए. किसे? बेशक़, दवा कंपनियों को स्वाभाविक तौर पर इस दिशा में काम करना चाहिए था लेकिन उन्होंने इसमें कोई दिलचस्पी नहीं ली. इन कंपनियों के पास एक पूंजीवादी तर्क है : बाज़ार को समझो और एक आशंकित या मनगढ़ंत त्रासदी के लिए तैयारी में कोई लाभ नहीं है. इसलिए इन कंपनियों का रुझान ऐसे टीकों या दवाओं की तरफ रहा ही नहीं.

(Image : GadoCartoons)

यहां से, सरकार की एक और ज़िम्मेदारी बनती है, लेकिन सरकार दख़ल नहीं दे सकती. उम्र का तकाज़ा है कि मुझे याद है कि कैसे सरकार की एक पहल और फंडेड प्रोजेक्ट की मदद से पोलियो के आतंक के ख़िलाफ लड़ाई में आख़िरकार सल्क वैक्सीन तक बात पहुंची, जिसे मुफ़्त रखा गया, कोई इंटेलेक्चुअल प्रॉपर्टी अधिकार नहीं. डॉ. जॉनस सल्क ने कहा था कि इसे धूप की तरह मुफ़्त होना चाहिए. तो ऐसे पोलिया का आतंक ख़त्म हुआ, चेचक और दूसरे कहर भी ख़त्म हुए. लेकिन आधुनिक समय में सरकारें नवउदारवाद के रोग से ग्रस्त हैं. क्या आपको रॉनाल्ड रीगन की वह हंसी और वह छोटा सा सूत्र याद है कि कैसे सरकार समस्या है, हल नहीं.

इस समय न्यूयॉर्क और दूसरी जगहों पर डॉक्टर और नर्स यह दुखद फ़ैसला लेने पर मजबूर हैं कि किसे मरने दिया जाये - यह कोई सुखद फ़ैसला नहीं है - ऐसा इसलिए है क्योंकि उनके पास ज़रूरी उपकरण नहीं हैं. ख़ास तौर से, वेंटिलेटरों की तो भारी कमी है. ओबामा प्रशासन ने हालांकि, इस स्थिति की तैयारी के लिए कोशिशें की थीं. कैसे कोशिश नाकाम हुई और त्रासदी की भूमिका रची गयी. उन्होंने एक छोटी कंपनी से संपर्क किया था, जो अच्छी क्वालिटी के कम कीमत के वेंटिलेटर बना रही थी. फिर यह हुआ कि फैंसी, महंगे वेंटिलेटर बनाने वाली एक बड़ी कंपनी कोविडियन ने उसे ख़रीद लिया. माना जा सकता है कि बड़ी कंपनी किसी तरह की प्रतिस्पर्धा नहीं चाहती थी. कुछ ही समय में, यह कंपनी सरकार के पास गयी और कहा कि कम दाम के वेंटिलेेटरों के प्रोजेक्ट का समझौता ख़त्म किया जाये. कारण था कि इसमें ख़ास मुनाफ़ा नहीं है इसलिए ऐसे वेंटिलेटर नहीं बनेंगे.

यही हाल अस्पतालों का है. नवउदारवादी कार्यक्रमों के तहत इन अस्पतालों को होना तो सक्षम चाहिए लेकिन वास्तव में, मुझ सहित कई लोग गवाही दे सकती हैं कि सबसे अच्छे अस्पताल भी मरीज़ को दुख ही देते हैं. इसकी वजह निजी क्षेत्र के हाथों में स्वास्थ्य सुरक्षा प्रणाली का लाभ आधारित होना है. 

'पूंजीवाद की हिमायत ले डूबेगी'


तो हमारे पास पूंजीवादी तर्कों का एक पूरा गुच्छा है, जो जानलेवा है लेकिन इस पर नियंत्रण हो सकता था, लेकिन, यह अनियंत्रित भी है, सिर्फ़ नवउदारवादी कार्यक्रमों के तहत. जिसका कहना यह है कि निजी क्षेत्र अगर नाकाम भी साबित हो तो भी सरकार दख़ल नहीं दे सकती. तुर्रा यह है कि संयुक्त राज्य में यह सब जैसे आम हो गया है - वॉशिंग्टन में दीर्घाकार समस्याओं को उपजा रही एक दुष्क्रियाशील सरकार का सनक भरा शो हमें देखना पड़ रहा है. ट्रंप के पूर कार्यकाल के दौरान, बल्कि उसके पहले से भी वैश्विक महामारी को लेकर आशंकाएं थीं, लेकिन ट्रंप का जवाब तैयारी की कोई ज़रूरत न होना था. आश्चर्य तो यह है कि वैश्विक महामारी के सच में आ जाने के बाद भी यही जवाब रहा.

जब स्थिति गंभीर हो चुकी थी, तब 10 फरवरी को ट्रंप ने आने वाले साल का बजट जारी किया. एक नज़र इस पर डालें. रोग निवारण केंद्र यानी सीडीसी सहित स्वास्थ्य संबंधी अन्य सरकारी संस्थानों के बजट में कटौती का सिलसिला जारी रखा गया. और किसकी फंडिंग बढ़ाई गई? जीवाश्म ईंधन निर्माता कंपनियों की सब्सिडी लगातार बढ़ायी गयी. मेरा मतलब है कि यह देश, शायद नहीं बल्कि सच में, सोसिओपैथ चला रहे हैं.


नतीजतन, हमने बढ़ती जा रही वैश्विक महामारी से लड़ने की तैयारी तो की नहीं, बल्कि पर्यावरण के लिए और ख़तरे बढ़ाने के क़दम उठाये. संयुक्त राज्य, ट्रंप के प्रशासन में रसातल की दौड़ में आगे निकलने की कोशिशें कर रहा है. मुझे बताने की ज़रूरत नहीं कि कोरोना वायरस से ज़्यादा बड़ा ख़तरा यह है. संयुक्त राज्य में हम किसी तरह यानी भारी कीमत चुकाकर इससे उबरेंगे. लेकिन, ध्रुवीय बर्फ की चादर जो पिघल रही है, उसके अंजाम हम समझ सकते हैं कि कैसे काले समुद्रों का स्तर बढ़ेगा. वॉर्मिंग भी बर्फ़ पिघलाने में मददगार है. विनाश के कारणों में यह एक होगा, अगर हमने कुछ ठोस नहीं किया तो.

यह कोई गुप्त बात नहीं रही. एकदम ताज़ा उदाहरण के तौर पर अमेरिका के सबसे बड़े बैंक जेपी मॉर्गन चेज़ की उस चेतावनी का दो हफ़्ते पहले ही लीक होना है जिसमें कहा गया, 'मानवता के ज़िंदा बने रहने' पर संकट है अगर हमने मौजूदा चाल चलन जारी रखा. ख़ुद जीवाश्म ईंधन उद्योगों के लिए फंडिंग कर रहे बैंक का कहना था कि हम मानवता के अस्तित्व को ख़तरे में डाल रहे हैं. ट्रंप प्रशासन में जिसने भी अपनी आंखें खुली रखी हैं, वो इन बातों को लेकर भली भांति जागरूक है. इस स्थिति के लिए शब्द खोज पाना वाक़िई मुश्किल है.

'ट्रंप हैं हर आपदा के लिए ज़िम्मेदार'


मेरा मतलब है कि यह सब सुविधाजनक हो गया है. ट्रंप अपनी अयोग्यता और नाकामी का दोष मढ़ने के लिए कोई बलि का बकरा ढूंढ़ने के लिए बेक़रार रहते हैं. ताज़ा उदाहरण है विश्व स्वास्थ्य संगठन और चीन पर दोषारोपण. यानी ज़िम्मेदार कोई और ही है. लेकिन तथ्य साफ़ हैं. चीन ने पिछले साल दिसंबर में फ़ौरी तौर पर विश्व स्वास्थ्य संगठन को सूचना दी थी कि निमोनिया जैसी किसी अज्ञात बीमारी के मरीज़ मिले. 7 जनवरी को चीन ने डब्ल्यूएचओ व दुनिया के वैज्ञानिक समुदाय के सामने ख़ुलासा किया कि चीनी वैज्ञानिकों ने पाया है कि इस बीमारी का स्रोत सार्स वायरस से मिलता जुलता कोरोना वायरस जैसा था. वो दुनिया को सूचना दे रहे थे.

अमेरिकी इंटेलिजेंस इस बारे में जागरूक था. जनवरी और फरवरी में इंटेलिजेंस ने कोशिश की कि व्हाइट हाउस में कोई ध्यान दे कि एक महामारी दस्तक दे रही है लेकिन सुनने वाला कोई नहीं था. ट्रंप गोल्फ खेलने या शायद अपनी टीवी रेटिंग चेक करने में मसरूफ़ थे. हमें यह भी पता चला कि प्रशासन के नज़दीकी और उच्च पदस्थ अधिकारी पीटर नैवारो ने जनवरी के आख़िरी दिनों में व्हाइट हाउस को सख़्ती से आगाह करते हुए लिखा था कि यह वाक़िई बड़ा ख़तरा है. लेकिन, तब भी कान पर जूं नहीं रेंगी.


एमी गुडमैन : ...क्या आप इन शुरूआती चेतावनियों के बारे में बात करेंगे और कैसे पीपीई यानी सुरक्षात्मक निजी उपकरण और टेस्टिंग महत्वपूर्ण है?

नो'म चॉम्स्की : बजट प्रस्ताव बहुत चौंकाने वाले हैं. 10 फरवरी को जब महामारी फैल चुकी थी, ट्रंप ने सरकारी स्तर पर स्वास्थ्य संबंधी घटकों के बजट में कटौती जारी रखी. अस्ल में, एक चालाकी भरी नीति है, मुझे नहीं पता सुनियोजित है या पूर्वाभास आधारित, लेकिन एक पैटर्न है. एक बयान दिया जाता है, अगले दिन उसका उलट बयान आता है और फिर कुछ और ही बयान, यह सच में चालाकी है. यह ट्रंप की निर्दोष बने रहने की चाल है. जो भी होगा, वह कहेंगे कि हमने कह दिया था. आप बेतरतीब तीर चलाये जा रहे हैं, जिनमें से कुछ निशाने पर अपने आप लग भी सकते हैं. और तकनीक यह है कि ट्रंप जो कहते हैं उसकी प्रतिध्वनि जाप के तौर पर फॉक्स और अन्य कुछ चैनल सुनाते रहते हैं. उनका कहना यही होता है कि जो हुआ, सही हुआ, 'देखिए, हमारे राष्ट्रपति कितने ग़ज़ब के हैं, अब तक के सबसे महान राष्ट्रपति, जिन्होंने पहले ही ऐसा होना भांप लिया था, सबूत के तौर पर यह बयान देखिए'.

'सच बोलने का कॉंसेप्ट खो जाएगा?'


यह लगातार झूठ बोलने की भी एक तकनीक है. लेकिन, मेहनती फैक्ट चेकरों की टीम सब कुछ जोड़-घटाने में बराबर मुब्तिला है. मुझे लगता है कि डेटा निकाला गया है कि ट्रंप अब तक 20 हज़ार के आसपास झूठ बोल चुके हैं. और वह सिर्फ़ अपनी हंसी हंस रहे हैं. यह कमाल है. आप लगातार झूठ बोलते जाइए, क्या होगा? सच बोलने का कॉंसेप्ट ही लुप्त हो जाएगा.

एमी गुडमैन : ...आप फॉक्स न्यूज़ सुनते हैं - यह सिर्फ़ एक चैनल नहीं बल्कि ट्रंप के कुछ ख़ास लोगों का समूह है. शायद ये उनके वरिष्ठ सलाहकार रहे हैं. क्या आप ट्रंप को ज़िम्मेदार मानते हैं? क्या आप कहेंगे कि उनके हाथ ख़ून से रंगे हैं?

नो'म चॉम्स्की : इसमें सवाल कैसा! ट्रंप के बेतुके बयानों के गूंजने के चेम्बर के तौर पर फॉक्स न्यूज़ काम कर रहा है. रिपोर्टिंग की टोन देखिए. कोई भी होशमंद और तार्किक व्यक्ति कह सकता है कि 'यह बहुत उलझा हुआ और अनिश्चित दिख रहा है', लेकिन ये लोग पूरे विश्वास से कहते हैं कि सब सही है. इन्हें कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता कि 'प्रिय नेताजी' ने कहा क्या, बस इन्हें उसे बढ़ा चढ़ाकर प्रस्तुत करना है. शॉन हैनिटी जैसे पत्रकार कह सकते हैं 'दुनिया के इतिहास में यही सबसे बड़ा क़दम है'. लेकिन, अगले दिन ट्रंप का फोन फॉक्स के दफ़्तर में पहुंचेगा और फिर वो जो कहेंगे, वही इन सबके लिए 'आज का सुविचार' हो जाएगा. मर्डोक (मीडिया मुगल कहे जाने वाले रुपर्ट मर्डोक) और ट्रंप मिलकर देश और दुनिया के विनाश की कोशिशों की तरफ़ बढ़ रहे हैं, हमें भूलना नहीं चाहिए कि यह लगातार और पास आता जा रहा वृहत्तर ख़तरा है कि ट्रंप विनाश के रास्ते पर तेज़ रफ़्तार हैं.

'उत्तर से दक्षिण तक जारी है सनक'


ट्रंप को साथ भी हासिल है. दक्षिण की तरफ़, एक और सनकी हस्ती है यानी जेयर बोलसोनारो, जिसने ट्रंप के साथ इस मुक़ाबले में हिस्सा ले रखा है कि इस ग्रह पर सबसे बड़ा अपराधी कौन है. बोलसोनारो ब्राज़ीलियों से कह रहा है कि 'यह कुछ नहीं है. सिर्फ सर्दी है. ब्राज़ीलियों को वायरस का ख़तरा नहीं है, हम उनके लिए इम्यून हैं'. जबकि स्वास्थ्य मंत्री, गर्वनर और दूसरे अधिकारी इसे तरजीह न देकर बता रहे हैं कि 'यह वास्तव में गंभीर है'. ब्राज़ील में हालात डरावने हो रहे हैं. रियो स्थित दयनीय झुग्गी बस्ती में सरकार लोगों के लिए कुछ नहीं करती इसलिए दूसरे लोगों ने समझदारी वाले कुछ प्रतिबंधों की दिशा में कोशिशें शुरू की हैं. किसने? अपराधियों के गैंगों ने! जी हां, जो जनता पर अत्याचार करते रहे हैं, वही स्वास्थ्य के मालनक समझा रहे हैं. देसी आबादी एक तरह से जातिसंहार की कगार पर है, लेकिन बोलसोनारो के माथे पर शिक़न तक नहीं है. दूसरी तरफ, इस पूरे त्रासद घटनाक्रम के बीच वैज्ञानिक शोध चेतावनी दे रहे हैं कि 15 सालों में एमेज़ॉन कार्बन अवशोषक से कार्बन उत्सर्जक बनने जा रहा है. यह ब्राज़ील ही नहीं, बल्कि पूरी दुनिया के लिए प्रलयंकर है.

Amazon Forests fire. (Image : FairObserver)

तो उत्तर में एक प्रकांड साम्राज्य है, जो सोसिओपैथ के हाथों में रहकर देश और दुनिया का हर संभव नुक़सान करने पर तुला है और दूसरी तरफ़, दक्षिण का एक प्रकांड साम्राज्य है जो अपने ढंग से यही काम कर रहा है. मैं यह सब नज़दीक से समझ पा रहा हूं क्योंकि मेरी पत्नी वैलेरिया ब्राज़ीली हैं और ब्राज़ील के बारे में मुझे अपडेट रखती हैं. और यह सब देखना एक सदमे जैसा है.

लेकिन, उधर दूसरे कुछ देशों ने समझदारी से क़दम उठाये. चीन से ख़बरों के आते ही चीन के नज़दीकी देशों ताईवान, दक्षिण कोरिया ओर सिंगापुर आदि ने प्रभावी ढंग से बर्ताव किया. कुछ ने तो इस संकट पर पूरा नियंत्रण दिखाया. समय पर और व्यापक लॉकडाउन जैसे क़दमों से न्यूज़ीलैंड ने तो कोरोना वायरस को तक़रीबन पूरी तरह कुचल दिया. इधर, पूरा यूरोप इस आपदा से थर्रा गया लेकिन बेहतर ढंग से संगठित कुछ देशों ने ठीक तरह से काम किया. अमेरिकियों के लिए ट्रंप के उन्मत्त प्रलाप के साथ जर्मन चांसलर एंगेला मर्केल के शालीन, तथ्यात्मक और नागरिकों को जागरूक करने वाले बयानों की तुलना करना उपयोगी हो सकता है.

एमी गुडमैन : नो'म आप एरिज़ॉना के टक्सन स्थित अपने घर में ही सोशल डिस्टेंसिंग के साथ रह रहे हैं क्योंकि हम सब इस वैश्विक महामारी के दौर में सचेत हैं कि यह सामुदायिक रूप से न फैले, ऐसे में आपको उम्मीद कैसे मिलती है?

नो'म चॉम्स्की : ऐसा है कि मैं एक सख़्त परहेज़ वाला नियम अपनाता हूं क्योंकि मेरी पत्नी वैलेरिया पूरा ख़याल रखती हैं और मैं उनके आदेश का पालन करता हूं. तो हम दोनों आइसोलेशन में हैं. अब मुझे उम्मीद कहां से मिलती है, तो दुनिया में कुछ समूहों के काम और ऊर्जा से. कुछ ऐसे घटनाक्रम हैं, जो वास्तव में, प्रेरणादायी हैं. मिसाल के तौर पर ख़तरनाक हालात में लगातार दिन रात जूझ रहे डॉक्टरों और नर्सों की बात कीजिए, जो ख़ासकर अमेरिका में, बुनियादी ज़रूरतों के अभाव में इस तरह के दर्दनाक फ़ैसले लेने पर मजबूर हैं कि कल किसे मारा जाएगा. फिर भी, वो अपना काम कर रहे हैं. ऐसे लोकप्रिय कामों के अलावा प्रगतिशील अंतर्राष्ट्र बनाने वाले क़दम भी सकारात्मक संकेत हैं.


लेकिन, जब आप ताज़ा इतिहास के पन्ने पलटते हैं, तो ऐसे वक़्त दिखते हैं जब निराशा और हताशा ही थी. 30 के दशक के अंत और 40 के दशक की शुरूआत के समय, यानी मेरे बचपन क समय ऐसा लगता था कि नाज़ीवाद की महामारी निष्ठुर है, एक के बाद एक जीत उसके ही खाते में है. ऐसा लगता था कि इसे रोका नहीं जा सकता. मानव इतिहास में यह सबसे डरावना अध्याय था. ख़ैर, उस वक्त मुझे नहीं पता था कि अमेरिकी रणनीतिकार यह सोच रहे थे कि विश्वयुद्ध के बाद दुनिया अमेरिका नियंत्रित और जर्मन नियंत्रित दो हिस्सों में बंट जाएगी, जिसमें यूरेशिया शामिल होगा. यह भयानक आइडिया था.

बहरहाल, तब भी नागरिक अधिकार आंदोलन, युवा स्वतंत्रता सेनानी जैसे कुछ गंभीर लोग अलाबामा जाकर अश्वेत किसानों को जागरूक कर रहे थे कि भले ही कितना ख़तरा हो, उनकी जान ही क्यों न चली जाये, लेकिन वो अपना वोट ज़रूर दें. यह मिसाल थी कि मनुष्य क्या कर सकते हैं और क्या कर चुके हैं. और आज भी हमें ऐसे कई संकेत मिलते हैं और यही उम्मीद के आधार हैं.

(डेमोक्रेसी नाउ चैनल ने चॉम्स्की के साथ यह लंबी वार्ता की, जो सोशल मीडिया पर काफ़ी वायरल हो रही है. चॉम्स्की के इस विमर्श और चिंतन को केवल ट्रंप या अमेरिका के संबंध में नहीं, बल्कि पूंजीवादी सोच वाले तमाम देशों और नेताओं के प्रतीक के तौर पर समझना चाहिए, जो आपको दुनिया के कई हिस्सों में दिखायी दे सकते हैं, यदि आप अपनी आंखें खुली रखें.)

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गुरुवार, अप्रैल 09, 2020

आलेख


कोरोना संकट : पूंजीवाद के 'धंधे' का समय और वैश्वीकरण पर प्रश्नचिह्न


आपदा के समय ग़रीबों के लिए सरकारें चंदे मांगा करती हैं, मध्यम वर्ग सहानुभूतिवश चंदे देता है जबकि पूंजीवादी वर्ग सरकारों की मिलीभगत से मुनाफ़े की रणनीतियों में मुब्तिला रहता है. पूंजीवाद के प्रभाव में लोकतंत्र के पीछे एक परजीवी व्यवस्था बनती है, जो पहले ग़रीब, फिर मध्यम वर्ग का ख़ून चूसकर ख़ुद को पोसती है. डैमेज कोलैटरल ही क्यों होता है, बायलैटरल क्यों नहीं? नोवेल कोरोना वायरस (Novel Corona Virus) वैश्विक आपदा के समय पूंजीवाद एक आपदा के रूप में उभर रहा है.



रोम जलने की आपदा के समय नीरो को अपना औचित्य सिद्ध करने के लिए लाख कोशिशें करना पड़ी थीं. अस्ल में, आपदाएं शासकों के लिए बेहद खतरनाक समय साबित होती रही हैं. 'शासकों' शब्द पर ग़ौर किया जाना चाहिए. यदि लोकतंत्र की इस सदी में आप वाक़ई नेता होते, तो हालात शायद कुछ और होते, लेकिन लोकतंत्र के लबादे के पीछे जो सच है, वह शासन की मानसिकता ही है और सत्ता और पूंजीवाद एक-दूसरे के पूरक हैं.

वर्तमान आपदा इस मुद्दे को आगे ले जाती है: पूंजीवाद आधारित वैश्वीकरण जैविक रूप से इस समय में निराधार साबित हो रहा है, जबकि लोक स्वास्थ्य की आधारभूत संरचना को लेकर कोई पुख्ता अंतर्राष्ट्रीय नीति है ही नहीं. साथ ही, विचारणीय यह है कि क्या ऐसी कोई संरचना तब तक संभव नहीं है, जब तक फार्मा उद्योग और गैर लाभकारी स्वास्थ्य सेवाओं के बीच के संघर्ष को जन आंदोलन का रूप नहीं मिलता!1

वास्तविक आपदा तो पूंजीवाद है


जन आंदोलनों का अभाव तो चिंता का विषय है ही, बड़ी चिंता यह है कि लोक तक यह सच विश्वसनीय ढंग से पहुंचा ही नहीं है कि कोई महामारी, कोई तूफान, कोई भूकंप आदि वास्तविक आपदाएं नहीं हैं, बल्कि इस दुनिया की सबसे बड़ी आपदा पूंजीवादी व्यवस्था है, जो मनुष्य निर्मित एवं पोषित है. 2007 में प्रकाशित किताब द शॉक डॉक्टरिन में लेखिका नाओमी क्लीन ने 'डिज़ास्टर कैपिटलिज़्म' का मतलब 'प्राकृतिक हो या मानवनिर्मित, हर आपदा के बाद ज़्यादा से ज़्यादा निजी स्वार्थों और मुनाफ़े संचित करने की राजनीतिक प्रवृत्ति' के रूप में समझाया था. 'शॉक डॉक्टरिन' का अर्थ उस राजनीतिक रणनीति से है, जो बड़े पैमाने के संकट का इस्तेमाल ऐसी नीतियां थोपने में करती है जिससे संभ्रांतों का फायदा और बाकी सब का घाटा होता है यानी व्यवस्थित ढंग से असमानता की खाई गहरी होती है.

पठनीय ताज़ा साक्षात्कार में नाओमी ने साफ कहा कि इस दौर में 'डिज़ास्टर कैपिटलिज़्म' दिखने की शुरूआत हो चुकी है. कोविड 19 के संदर्भ में, डॉनाल्ड ट्रंप ने उद्योगों को राहत के लिए 700 अरब डॉलर का स्टिम्यूलस पैकेज* प्रस्तावित कर दिया है.2 सिर्फ़ अमेरिका ही नहीं बल्कि दुनिया के तमाम पूंजीवाद देशों में इस तरह की घोषणाएं सामने आ रही हैं. गार्जियन की एक रिपोर्ट की मानें तो अर्थव्यवस्थाओं के नाम पर यूरोपीय देशों ने राहत पैकेज के तौर पर सम्मिलित रूप से 1.6 ट्रिलियन यूरो की राशि की घोषणा मार्च यानी यूरोप में कोविड 19 के शुरूआती संकट के दौर तक ही कर दी थी. इनमें से ज़्यादातर रकम उद्योगों के खाते में ही जाएगी.

पूंजीवाद और सरकारें एक दूसरे की पूरक हैं. 2005 का कैटरीना तूफान रहा हो या 2001 का ट्रेड टावर हमला, बड़े संकटों के बाद हुआ यही कि बड़े कारोबार पहले से ज़्यादा मज़बूत स्थिति में देखे गये और संकटों की मार आम लोगों के हिस्से में आयी. नॉवेल कोरोना वायरस के संकट के समय पूंजीवादी ताकतों और आम लोगों की स्थिति देखने के लिए कुछ बिंदुओं पर ग़ौर करें :


पूंजीवादी ताक़तों का खेल


1. विकसित देशों में स्वास्थ्य सेवाएं देने के लिए सरकारें निजी स्वास्थ्य क्षेत्र से कई तरह के साधन किराये पर ले रही हैं. यूरोप के एक देश में बिस्तर किराये पर लेने के लिए सरकार 24 लाख यूरो प्रतिदिन तक खर्च कर रही है.
2. संकट से मची अफ़रातफ़री के बीच लोग ज़रूरी सामान की खरीदारी ज़्यादा कर रहे हैं ताकि अगले कुछ समय के लिए उनके पास भंडारण हो. इसके चलते, क्रिसमस की तुलना में सुपरमार्केट की बिक्री 33 फीसदी तक बढ़ी है और कई जगह चीज़ों के दाम भी बढ़ा दिये गये हैं.
3. फार्मा कंपनियों के लिए तो जैसे यह मुनाफ़े का स्वर्णिम समय बन गया है. ट्रंप ने लगातार मलेरिया की एक दवा की जो वक़ालत की, उसके चलते वो फार्मा कंपनियां भी इस दवा का उत्पादन कर रही हैं, जो पहले नहीं करती थीं.3
4. ट्रंप और ट्रंप से जुड़े लोगों के उन फार्मा कंपनियों में निवेश सामने आ रहे हैं, जो प्रचारित मलेरिया ड्रग का उत्पादन करती रही हैं. चुनाव संबंधी कई आरोपों में दोषी पाये जाने के बाद जेल में बंद ट्रंप के पूर्व 'फिक्सर' कहे जाने वाले वकील माइकल कोहेन ने एक स्विस कंपनी नोवार्टिस के साथ कई मिलियन डॉलर की डील की है, जो दुनिया में प्रचारित मलेरिया ड्रग Hydroxychloroquine की सबसे बड़ी उत्पादक है.4

आम लोगों के हालात


1. अंतर्राष्ट्रीय श्रम संगठन की ताज़ा रिपोर्ट में कहा गया है कि कोविड 19 वैश्विक महामारी के चलते हुए लॉकडाउन के कारण दुनिया भर में 2.7 अरब वर्कर्स प्रभावित होंगे. इसी रिपोर्ट के मुताबिक भारत में 40 करोड़ कामगार गरीबी की गर्त में जा सकते हैं.5
2. विश्व स्वास्थ्य संगठन ने कोविड 19 के इलाज के लिए खोजी गयी जिस दवा के प्रयोग को लेकर सिफारिश की थी, उसके बारे में फ्रांस के चिकित्सा विशेषज्ञों ने कहा कि इस दवाई का प्रयोग अफ्रीकी देशों में किया जाये, जिसे संगठन समेत कई संस्थाओं ने नस्लवादी सोच करार दिया.6
3. निम्न आय समूह वाले 23 अफ्रीकी देशों में पहले ही विषाणुजनित रोग चेचक या खसरा महामारी के रूप में फैला हुआ है, जिसके लिए टीकाकरण अभियान ज़ोरों पर है. लेकिन कोविड 19 के संकट के चलते कई स्वास्थ्य सेवाएं टाल दी गई हैं, जिससे तक़रीबन 8 करोड़ बच्चों को समय पर टीके नहीं लग सकेंगे. यानी ये देश दो विषाणुओं का खतरा एक साथ झेलने पर मजबूर हैं.7
4. अमेरिका में अश्वेतों पर कोविड 19 का खतरा ज़्यादा है. क्यों? अश्वेत अमेरिकी पहले ही स्वास्थ्य समस्याओं से ज़्यादा ग्रस्त हैं, स्वास्थ्य सेवाएं इन्हें कम मिलती हैं और इनकी बड़ी आबादी अस्थिर रोज़गार में मुब्तिला है.8
5. पिछड़े और भारत जैसे विकासशील देशों में मास्क, सैनिटाइज़र, टेस्ट किट्स, चिकित्सा उपकरणों, राशन जैसी ज़रूरी चीज़ों की कालाबाज़ारी या स्टॉक खत्म होने जैसी समस्याएं खबरों में हफ्तों से बनी हुई हैं. साथ ही, कोरोना वायरस संकट से निपटने के लिए मरीज़ों को कई तरह की अप्रामाणिक दवाएं दी जा रही हैं, जिनके दुष्परिणाम समय के साथ सामने आएंगे.

कोलैटरल डैमेज का विरोध


मौजूदा आपदा और पूंजीवाद के संबंध में मार्क्सिस्ट डॉट कॉम के लेख में कहा गया है कि पूंजीवाद अपनी संरचना में ही एक विनाशकारी, लाभ संचालित और निर्दयी व्यवस्था है. यह किसी और ढंग से बर्ताव नहीं कर सकती. बड़े कारोबार त्रासदी से मुनाफ़े निकालते हैं क्योंकि पूंजीवादी व्यवस्था में लोच नहीं, ज़िद है. अगर व्यापार की दुनिया यह तय करे कि मुनाफ़े से पहले मानवता को तरजीह दी जाएगी, तो वह ढह जाएगी. ऐसे में, किसी आपदा के समय में सरकार के लिए पूंजीवाद के बेहतर विकल्पों को चुनना संभव नहीं होता.

सरकारें और पूंजीवादी व्यवस्था अस्ल में, 'कोलैटरल डैमेज' के सूत्र में अपने अत्याचारों को छुपाने की कोशिश करता है. किसी त्रासदी में निम्न या वंचित वर्ग के अधिकारों के सवाल जब खड़े होते हैं तो सिस्टम कुदरती कहर के नाम पर दबाने का एक षड्यंत्र रचता है. इस मानसिकता और साज़िशी सोच पर प्रश्नचिह्न खड़े करने का समय है और अब यह आवाज़ उठायी जाना चाहिए कि अगर होगा तो 'बायलैटरल डैमेज', अन्यथा एक वर्ग को बलि का बकरा बनाने नहीं दिया जाएगा.


पूंजीवाद बनाम समाजवाद


'कोरोना वायरस : नवउदारवादी भूमण्डलीकरण के दौर की महामारी' शीर्षक लेख से आह्वान पत्रिका में छपे लेख में कहा गया है कि कोरोना महामारी ने एक बार फिर साबित कर दिया है कि विज्ञान की चमत्कारिक तरक़्क़ी के बावजूद पूंजीवाद आज समाज की बीमारियों को दूर करने की बजाय नयी बीमारियों के फैलने की ज़मीन पैदा कर रहा है. ऐसी महामारियों से निपटने के लिए भी पूंजीवाद को नष्ट करके समाजवादी समाज का निर्माण आज मनुष्यता की ज़रूरत बन गया है.

वैश्विक महामारी के संदर्भ में, वास्तव में समाजवादी हर बार अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर सामंजस्य की त्वरित आवश्यकता पर दूसरों का ध्यान ज़रूर ले जाते हैं लेकिन समस्या यह है कि नयी नस्ल विकास के वामपंथी सिद्धांत और राजनीतिक विमर्श में 'समाजवाद' के विचार की तरफ आये, बजाय इसकी चिंता करने के प्रगतिशील आंदोलनों को लेकर एक किस्म का अहंमात्रवाद दिखायी देता है.9


पूंजीवाद के बरक़्स समाजवादी व्यवस्था की ज़रूरत की पुरज़ोर वक़ालत 'प्लैनेट ऑफ स्लम्स' और 'सिटी ऑफ क्वार्ट्ज़' जैसी किताबों के लेखक मार्क डेविस ने अपने लेख में की है. मार्क के अनुसार समाजवाद को अगले कदम उठाते हुए स्वास्थ्य सुरक्षा और फार्मा उद्योग को लक्ष्य करते हुए, आर्थिक शक्तियों के लोकतंत्रीकरण और सामाजिक स्वामित्व की वक़ालत करने की बात कही है.10

'समाजवाद' के मानवीय मूल्यों की ताज़ा कहानी11


एक ट्रांसअटलांटिक क्रूज़ जहाज़ एमएस ब्रेमार 682 यात्रियों को लेकर यूके से कूच करता है. रास्ते में जांच में पता चलता है कि इस जहाज़ पर सवाल पांच यात्री कोरोना वायरस से संक्रमित हैं और कुछ दर्जन अन्य यात्रियों और क्रू सदस्यों में फ्लू जैसे लक्षण हैं. अब होता ये है कि कैरेबियाई रास्त में आ रहे कई बंदरगाहों पर इस जहाज़ को रुकने नहीं दिया जाता और झिड़क दिया जाता है. ब्रितानी सरकार अमेरिका से मदद मांगती है कि ब्रेमार को एक उपयुक्त बंदरगाह दिया जाये.

अमेरिका की प्रतिक्रिया एक अज्ञात डर से जूझ रही वाकपटु नेतृत्व की प्रतिक्रिया साबित होती है और समस्या को 'चीनी वायरस' कहकर अमेरिका पल्ला झाड़ लेता है. ब्रितानी सरकार क्यूबा से भी साथ में मदद मांग चुकी होती है और क्यूबा हाथ बढ़ाता है. मानवीय संकटों के समय में पहले भी कई देशों की मदद कर चुका क्यूबा इस जहाज़ को शरण देता है. क्यूबा में जब कोविड 19 के कुल 10 केस होते हैं, ऐसे में यह देश मानवीय आधार पर विलायती मरीज़ों को पनाह ही नहीं, बल्कि इलाज देता है.

Cuba Map. (Image Source : MapHill.Com)

लोकतांत्रिक समाजवादी व्यवस्थाओं में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता, प्रेस की आज़ादी, बहुदलीय चुनाव और कार्यक्षेत्र में लोकतांत्रिक मूल्यों आदि को तरजीह दी जाती है, लेकिन अब क्यूबा की स्थिति समाजवादी व्यवस्था के अनुरूप नहीं रह गयी है. यहां की व्यवस्था एकछत्र और निरंकुशता के इल्ज़ाम झेल रही है, लेकिन इतिहास और समाजशास्त्र के जानकारों की मानें तो यहां समाजवाद के कुछ बचे-खुचे निशान कभी कभार दिख जाते हैं. इस वैश्विक महामारी के समय में कुछ मिसालें दिख रही हैं. मसलन, क्यूबा के मेडिकल सिस्टम पर समाजवादी छाप है, जो सभी के लिए स्वास्थ्य सुरक्षा की गारंटी देता है. दुनिया के 171 देशों में प्रति हज़ार व्यक्ति कितने डॉक्टर हैं; इस सूची में क्यूबा 8 डॉक्टरों के आंकड़े के साथ पहले नंबर पर है. जबकि 2.6 डॉक्टरों के साथ अमेरिका, 1.8 डॉक्टरों के साथ चीन और 4.1 डॉक्टरों के आंकड़े के साथ इटली जैसे देश क्यूबा जैसे गरीब देश से काफी पीछे हैं और कोरोना वायरस के संकट से बुरी तरह हिल चुके हैं.

इससे पहले भी समय समय पर क्यूबा ने बचे-खुचे समाजवादी मूल्यों की बानगी प्रस्तुत की है. 2010 के भूकंप के समय हैती, 2014 में इबोला वायरस के समय अफ्रीका और हाल में कोविड 19 आपदा के समय इटली तक में भी क्यूबा ने अपने विशेषज्ञ डॉक्टरों की फोर्स को मदद के लिए भेजा. मानवीय मूल्य क्यूबा के इतिहास में रहे हैं, जो किसी पूंजीवादी देश में सिर्फ़ सपने ही लगेंगे. वैश्विक संकट की घड़ी में क्यूबा तो समाजवादी मूल्यों का उदाहरण नहीं बनता, लेकिन यहां की कुछ घटनाओं से साबित ज़रूर होता है कि समाजवादी व्यवस्था में ही मानवीयता के आदर्श की संभावना ज़्यादा है.

संकट के बाद की दुनिया


एक वायरस या यूं कहें कि कुदरत के लिए और कुदरत के द्वारा सामने आये कुदरत के इस 'एंटी वायरस' ने पूंजीवादी अर्थव्यवस्थाओं की कमज़ोरियों को पूरी तरह उजागर कर दिया है. वैश्वीकरण के औचित्य पर सवाल खड़ा कर दिया है और आने वाले ख़तरों के लिए हमारी तैयारियों की पोल खोलकर रख दी है. यूनिवर्सिटी कॉलेज, लंदन में अर्थशास्त्र की प्रोफेसर मैरियाना मैज़्ज़कैटो का मानना है कि इस वैश्विक महामारी के बाद पूंजीवादी समाज की तमाम खामियां सामने आएंगी इसलिए दुनिया भर में आर्थिक ढांचों पर नयी रोशनी पड़ेगी. साथ ही, अस्थिर अर्थव्यवस्था और असंगठित कामगारों के अधिकारों की तरफ देखने के नज़रिये में भी बदलाव आएगा.12

'वर्तमान संकट के समय में यह सच होता दिख रहा है कि हम एक-दूसरे के साथ उससे भी ज़्यादा अंतर्संबंधित हो गये हैं, जितने जुड़ाव का विश्वास हमारी क्रूर आर्थिक व्यवस्था को था.'- नाओमी क्लीन, लेखक

अंतत: इस सकारात्मकता के लिए दुआ की जानी चाहिए और उम्मीद की जाना चाहिए कि समाजवादी और प्रगतिशील विचार के समूह एकजुट होकर किसी ऐसे बदलाव की दिशा में प्रवृत्त होंगे, जो जन आंदोलनों की नींव पर प्रकृति और मानवता के हित में एक व्यवस्था खड़ी करने का पक्षधर है.

संदर्भ सूची

1, 9, 10 - दि एसई टाइम्स पर माइक डेविस का लेख : The Coronavirus Crisis Is a MonsterFueled by Capitalism
2 - नाओमी क्लीन का इंटरव्यू : Coronavirus Is the Perfect Disaster for ‘DisasterCapitalism’
11 - क्यूबा के मानवीय मूल्यों की कहानी : Cuba's Coronavirus Response Is Putting Other Countries To Shame
12 - मैरियाना मैज़्ज़कैटो का लेख : Coronavirus and capitalism: How will the virus change theway the world works?

*अर्थव्यवस्था को प्रोत्साहन देने के लिए टैक्स और ब्याज दर कम करते हुए सरकार द्वारा दी जाने वाली मदद.

मंगलवार, अप्रैल 07, 2020

बात जारी...

क्या औरतें कर सकती हैं मुस्लिम स्टेट का नेतृत्व?


बात जारी... ब्लॉग पर एक नयी श्रेणी, जिसके तहत उन किताबों/लेखों/साहित्य पर संवाद करेंगे, जिसका लेखन किसी समय में किया गया हो, लेकिन उठाये गये मुद्दे/प्रश्न अब भी प्रासंगिक हैं और उन पर समसामयिक संदर्भों में भी समझ विकसित करने की गुंजाइश है. पहली कड़ी में इसी शीर्षक से 1991 में अंग्रेज़ी में पुस्तिका रूप में छपे फ़ातिमा मर्निसी के लेख पर/के बहाने चर्चा.



फ़ातिमा मर्निसी की छोटी सी किताब 'CAN WE WOMEN HEAD A MUSLIM STATE' बहुत बड़े मुद्दे को बख़ूबी समेटते हुए औरतों के बुनियादी हक़ को लेकर एक इनसाइट देती है और फ़ेमिनिज़्म (ख़ासकर इस्लाम संदर्भ में) को समझने के लिए आपका कौतुक और बढ़ता है. अगर आप दुनिया के राजनीतिक संदर्भों से थोड़ा बहुत वास्ता रखते हैं तो समझ सकते हैं कि यह किताब 1991 के आसपास क्यों सामने आती है. पाकिस्तान में लंबी राजनीतिक अस्थिरता के बाद लोकतंत्र की एक तरह से बहाली हुई थी और बेनज़ीर भुट्टो चुनाव जीतकर प्रधानमंत्री बनी थीं. यह 1980 के दशक के आख़िरी सालों में हो रहा था. दूसरी तरफ, 1993 में ख़ालिदा बांग्लादेश की प्रधानमंत्री बनने जा रही थीं और इससे पहले के कुछ सालों में वह बतौर नेता उभर रही थीं.

एक तरफ़, सिंगापुर जैसे ग़ैर मुस्लिम देश में जब हलीमा ​बिंती याकोब जैसी एक महिला राष्ट्रपति के पद पर आसीन होती है, तो ज़्यादा बवाल नहीं होता, लेकिन बांग्लादेश में शेख़ हसीना के शीर्ष पद पर बने रहने के कारण समय समय पर इस्लामी आलिमों का एक वर्ग औरतों के ख़िलाफ़ कोई न कोई राग छेड़ता रहता है. इस पूरे परिदृश्य को लेकर इस्लाम के पितृसत्तात्मक समाज के कुछ बड़े ख़य्यामों ने यह सवाल खड़ा किया कि औरतों के नेतृत्व को धार्मिक मान्यताओं के मुताबिक़ क़बूल नहीं किया जा सकता. औरतों से यह हक़ छीनने के लिए जो बहस छेड़ी गयी थी, उसे एक आधार देने के लिए एक हदीस का सहारा लिया गया. यह हदीस इस तरह है :

"जो लोग अपने मुआमले एक औरत की निगरानी में या औरत के सुपुर्द करते हैं, वो संपन्नता को कभी नहीं समझेंगे."

यह हदीस वाक़िई एक बड़ा बयान है और धर्म के आधार पर इस हदीस की दलील पर औरतों को उनके हक़ से महरूम किया जा सकता है. लेकिन, बात उतनी नहीं होती, जितनी दिखायी या सुनायी देती है. इस हदीस की व्याख्या को समझने के लिए एक पूरा इतिहास और नज़रिया चाहिए ताकि सही कसौटी पर इसे तोलकर तय किया जा सके, कि यह कितनी बड़ी या संजीदा दलील हो सकती है.

Book Cover Image.

मज़हबी दलील के जवाब में मज़हबी दलीलें


फ़ातिमा की यह आलेखनुमा पुस्तिका इस हदीस का इतिहास टटोलती है, इस हदीस के लेखक और पैग़म्बर के अनुयायी अबू बक़्र के चरित्र और जीवन अनुभव से बने नज़रिये को परखती हैं, साथ ही, पैग़म्बर के ऐसे कई हवाले प्रस्तुत करती हैं, जो औरतों के हक़ में रहे हैं. शेख़ ग़ज़ाली की 1990 में तहलक़ा मचाने वाली किताब का ज़िक्र करते हुए पहली दलील तो फ़ातिमा यही देती हैं कि अगर किसी मुद्दे पर हदीस और क़ुरआन की व्याख्या में अंतर आता है, तो क़ुरआन को तरजीह दी जाये, यही क़ाइदा है क्योंकि यह इस्लाम की दिव्य पुस्तक है, इसके आगे कुछ नहीं.

कुल मिलाकर, यह पुस्तिका क़ुरआन के कई किस्सों और हवालों की चर्चा करते हुए इस हदीस की व्याख्या को समझने के दौरान पाठक को समृद्ध करती हुई इस तार्किक नतीजे पर पहुंचती है कि औरतों को नेतृत्व का हक़ है और इस्लाम में ऐसी कोई मनाही नहीं है कि औरतें शीर्ष राजनीतिक पदों पर न पहुंच सकें. लेकिन, फ़ातिमा इस चर्चा के साथ ही मुसलमान औरतों को चेतावनी देती हैं कि उन्हें इस्लाम की सही व्याख्याओं को समझना होगा, ताकि पितृसत्तात्मक सोच की व्याख्याएं उन्हें उनके बुनियादी अधिकारों से महरूम न कर दें. फ़ातिमा के शब्दों में :

"इन हालात में पुरुष अपनी इस्लामी विरासत से बेख़बर रहने का जोख़िम उठा सकते हैं, लेकिन हमारे पास यह महंगी सुविधा नहीं है."

उपसंहार में और मुद्दों पर बात की गुंजाइश..


एक और अहम पहलू फ़ातिमा इस आलेख में छेड़ते हुए महिलाओं से अपील करती हैं कि वो मोहम्मद साहब की जीवनी और उनके संदेश तो समझें ही, साथ ही उनकी पत्नियों की जीवनी और उनसे जुड़े इतिहास से भी गुज़रें ताकि इस्लाम में औरत को लेकर अंतर्निहित मूल भावना को सही सही समझ सकें. इसके लिए इस आलेख में फ़ातिमा ने मोहम्मद साहब की पत्नियों से जुड़े कुछ वाक़ये भी प्रस्तुत किए हैं और समझाया है कि इस्लाम और मोहम्मद साहब की नज़र में औरतों की जगह और मर्तबा इज़्ज़त का था, हिक़ारत का नहीं. इस बात को एक उदाहरण के उजाले में देखें :

पैग़म्बर मुहम्मद की परंपराओं व शिक्षाओं को शामिल करने वाली किताब 'सहीह मुस्लिम' में, मुहम्मद साहब के साथी रहे अबू हरैरा ने उल्लेख किया है कि "एक शख़्स मुहम्मद साहब के पास आकर बोला : 'तमाम लोगों में मेरे हाथों सबसे अच्छे सलूक़ का हक़दार कौन है?' मुहम्मद साहब ने कहा: 'तुम्हारी मां.' उसने फिर पूछा: उसके बाद? उन्होंने कहा: फिर तुम्हारी मां. फिर उसने पूछा: फिर कौन? उन्होंने कहा: फिर तुम्हारी मां. उसने फिर पूछा: फिर? तब मुहम्मद साहब ने कहा: इसके बाद तुम्हारे पिता." इस उदाहरण के ज़रीये कई विद्वान इस्लाम और क़ुरआन में महिलाओं के रुतबे और उनके तमाम अधिकारों की वक़ालत करते हैं.1

इस्लाम और फ़ेमिनिज़्म


यहां से चर्चा छिड़ती है कि इस्लाम में फ़ेमिनिज़्म के क्या मायने हैं. जिनके जवाबों से हम इस पहलू को समझेंगे, वो सवाल ये हैं : 1. क्या इस्लाम में औरतों की स्थिति अन्य धर्मों के बरक़्स ज़्यादा ख़राब है? 2. क्या 'इस्लामी फ़ेमिनिज़्म' कोई अलग और जायज़ मुहावरा है? 3. क्या इस्लाम में धार्मिक होना और फ़ेमिनिस्ट होना एक साथ संभव है? फ़ातिमा की किताब से इस्लाम में महिलाओं के अधिकारों के ख़िलाफ एक बड़े ख़ेमे के डटे होने के संकेत साफ़ मिलते हैं और यहां से मुस्लिम स्टेट में महिलाओं के तमाम हुक़ूक की लड़ाई के अध्याय खुल जाते हैं.

Creative image of Fatima Mernissi. (Image : AWID)

सबसे पहले, तो ये समझना ज़रूरी है कि दुनिया में औरत और मर्द के बीच का संघर्ष प्रजातीय है यानी लैंगिक भेदभाव किसी धर्म विशेष की नहीं, बल्कि पूरी मानव जाति की है. जब यह संघर्ष इस्लाम या इस्लामी देशों के संदर्भ से जुड़ता है तो धार्मिक आधार, संदर्भ और व्याख्याएं बदल जाती हैं. जैसे यदि इस संघर्ष को भारत के हिंदू समाज में देखा जाएगा तो महिलाओं की स्थिति के लिए हिंदू धर्म के संदर्भ, जातिगत आधार और धार्मिक व्याख्याएं सामने आएंगी. इसी तरह किसी भी एक ख़ास समुदाय में विमर्श के औज़ार बदल जाएंगे, लेकिन समस्या और उसकी मूल भावना में मानव अधिकार के तर्क तो वही रहेंगे.

ईरान बेस्ड फ़ेमिनिस्ट वैलेंटाइन मोगहादम के शब्दों में क़ुरआन एक खुली किताब है और इससे जो सबक़ मिलते हैं, उनके सार में अंतर्निहित है कि 'इस्लाम में दूसरे प्रमुख धर्मों की तुलना में पुरुष प्रभुत्व ज़्यादा या कम नहीं है. ख़ासकर, हिंदू धर्म और यहूदी व ईसाई जैसे दोनों अब्राहमी धर्मों में यही हालात हैं कि औरत को बीवी और मां के तौर पर ही मूर्त कर दिया गया है.' 2

इस उद्धरण से एक और साज़िशी सोच सामने आती है कि औरत को मां, बीवी जैसे जीवन आदर्शों में क़ैद कर दिया गया ताकि वह घर की चहारदीवारी में ज़िंदगी गुज़ार दे. मर्द के लिए पिता या पति जैसे आदर्श उसके पूरे जीवन चरित्र का एक हिस्सा भर हैं, पूरा जीवनादर्श नहीं. वह महत्वाकांक्षा, सफलता, वीरता, न्याय और नेतृत्व जैसे कई आदर्शों के जीवन के लिए मुक्त है. इसी का नतीजा है कि महिलाओं की शिक्षा, जागरूकता, सुरक्षा और समान अवसरों की स्वतंत्रता जैसे अधिकार सदियों के परदे या रूढ़िवादी सोच तले संघर्षरत हैं.

अपनी किताब 'वीमन एंड जेंडर इन इस्लाम' में लीला अहमद ने अरब इतिहास के प्राचीन समय से आधुनिक काल तक महिलाओं पर लैंगिकता पर केंद्रित विमर्श के बारे में संवाद किया है. उन्होंने ज़ोर दिया है कि इस्लाम में लैंगिक संदर्भ, अस्ल में, पुरुष की बनायी वैधानिक व्यवस्था के उत्पाद रहे हैं या पुरुष प्रधान समूहों के प्रभुत्व में रहे हैं. 'नैतिक इस्लाम' ऐसे हाथों में रहने के कारण न्याय, धर्मनिष्ठा और ईश्वर के समक्ष सबकी समानता जैसे संवाद हमेशा पिछड़े रहे हैं.3

क्या 'इस्लामी फ़ेमिनिज़्म' जायज़ मुहावरा है?


इस सवाल का जवाब है, नहीं. ऐसी किसी टर्म का इस्तेमाल उसी विमर्श का हिस्सा है जैसे आप 'इस्लामी आतंकवाद' या 'हिंदू आतंकवाद' जैसे शब्द ईजाद करते हैं. जैसे आतंकवाद को किसी धर्म से जोड़कर प्रस्तुत नहीं किया जाना चाहिए, वैसे ही औरतों के हक़ की लड़ाई एक वैश्विक संवाद है, इसे धर्म विशेष में बांधने के अपने ख़तरे और सियासत है, जिसे समझना चाहिए. ऐसा करने से दुनिया की मुस्लिम महिलाओं और दुनिया की मुख्यधारा की महिलाओं के संवाद के बीच एक खाई बन जाती है.

A text page Excerpt from Fatima's book.
इस्लाम और महिलाओं जैसे केंद्रीय विषय पर मशहूर लेखक और फ़ेमिनिस्ट डॉक्टर फ़ातिमा सीदत का मानना है कि क़ुरआन के आधार पर नारीवाद किस तरह अस्तित्व रखता है, इसके बारे में बातचीत ज़रूरी है. 'फ़ेमिनिज़्म एंड इस्लामिक फ़ेमिनिज़्म' लेख में सीदत ने समझाया है कि 'इस्लामिक फ़ेमिनिज़्म' जैसे शब्द विन्यास मुस्लिम जगत को अलग-थलग कर सार्वभौमिक नारीवादी आंदोलनों और बाक़ी दुनिया से विलग कर देते हैं.4

तार्किकता के बावजूद यह टर्म अब भी इस्तेमाल की जा रही है, यहां तक कि विकिपीडिया पर 'इस्लामिक फ़ेमिनिज़्म' शीर्षक से एक पूरा विस्तृत पेज है. इसके अलावा महिलाओं के अधिकारों के विमर्श में ईस्ट और वेस्ट के साथ ही धार्मिक और सेक्युलर जैसे अंतर भी डाले गये हैं, लेकिन 'ऐसे विभाजनों को इस्लामी नारीवाद खारिज करता है. इस तरह की दरारों को उपनिवेशवाद ने सींचा और बाद में, इस्लामियों की कट्टर और विरोधी ताक़तों ने इनका राजनीतिकरण किया'.5

इस्लामी फ़ेमिनिज़्म के मुहावरे का एक और कारण मुस्लिम आबादी का ग़ैर मुस्लिम यानी पश्चिमी देशों में बसे होना है. पश्चिमी देशों की मुस्लिम महिलाओं के अधिकारों की लड़ाई की अपनी चुनौतियां हैं क्योंकि उनके अधिकारों को उनके धार्मिक परिदृश्य में समझने के नज़रिये और व्यवस्थाएं पश्चिमी देश अपनाते रहे हैं. ऐसे में 'पश्चिमी देशों में बहुसांस्कृतिक नीतियां अस्ल में, इस्लाम की पुरुषप्रधान संरचना पर आधारित हैं, इससे होता यह है कि नारी पर पुरुष के प्रभुत्व को थोपे जाने से महिलाएं अक्सर असुरक्षित हो जाती हैं और कभी कभी तो धर्म के नाम पर हिंसक बर्ताव की भी अनदेखी कर दी जाती है.' 6

धार्मिकता और फ़ेमिनिज़्म का सवाल


अस्मा बर्लास अपनी किताब 'बिलीविंग वीमन' में क़ुरआन की 'अनरीडिंग' की समझ की बात करते हुए कहती हैं कि अब तक क़ुरआन की व्याख्या पुरुषवादी रही है, जिसे भूलकर इस्लाम में लैंगिक समानता के आधारों को समझने की ज़रूरत है.7 इस्लाम में, अस्ल में, जब औरतें अपने अधिकारों की बात करती हैं, तो सबसे पहले उन्हें धर्म के अखाड़े में पहलवान की तरह उतरने की ज़रूरत होती है, जहां वह महिला विरोधी पहलवानों के गैंग को धूल चटा सकें. इसी कारण, फ़ेमिनिज़्म जब इस्लाम या इस्लामी देशों में पहुंचता है तो धर्म आधारित विमर्श के बग़ैर उसका गुज़ारा होता नहीं. फ़ातिमा मर्निसी ने भी इसी तरह धार्मिक दलीलों को धार्मिक दलीलों से ही काटकर औरतों के हक़ की राह मुनव्वर करने की कोशिश की.

इसका दूसरा पहलू ये है कि औरतें अगर अपने अधिकारों की बात करती हैं, तो एक बड़ा ख़ेमा है जो उन्हें अधार्मिक, धर्मविरोधी या धर्म के लिए ख़तरा तक क़रार दे देता है. इसका उदाहरण यह है कि मोहम्मद की पत्नियों की भूमिका पर ऐतिहासिक संदर्भों में चर्चा करने वाली फ़ातिमा की मशहूर किताब 'द वील एंड द मेल एलीट : ए फ़ेमिनिस्ट इंटरप्रिटेशन ऑफ इस्लाम' को मोरक्को, ईरान, अरब देशों और फ़ारस की खाड़ी इलाके में प्रतिबंधित कर दिया गया था.8

यह समस्या बड़ी है क्योंकि किसी भी रूढ़िवादी और परंपरागत समाज में खुली खिड़कियां कम होती हैं और ऐसे में कई शब्दों को उसके वास्तविक अर्थों में नहीं बल्कि भ्रामक अर्थों में समझा जाता है. जैसे सेक्युलर. न सिर्फ़ फ़ेमिनिज़्म बल्कि किसी भी विमर्श में हमेशा एक ख़ेमा सेक्युलर शब्द को धर्म विरोधी या अधार्मिक के अर्थ से ही जोड़ता है, यह भूलकर कि एक सेक्युलर राज्य का मतलब ही यही होता है कि वह धर्म की आज़ादी सुनिश्चित करता है.

'लैंगिकता के इस्लामी विमर्श जो संलग्न हैं, वो महिलाओं और ख़ासकर, उलझी हुई पहचानों से ग्रस्त मेरे जैसी महिलाओं, द्वारा प्रस्तुत की गई चुनौतियों पर प्रतिक्रिया देने की कोशिश कर रहे हैं. वो महिलाएं जो अपने फ़ेमिनिज़्म का सामंजस्य अपने अक़ीदे के साथ चाहती हैं.'9

मूलत: ईरान से ताल्लुक रखने वाली कानून की विद्वान और मशहूर फ़ेमिनिस्ट लेखिका ज़ीबा मीर होसैनी का यह बयान न सिर्फ़ विचारणीय है बल्कि इस्लाम के विद्वानों के सामने एक बड़ी चुनौती है. इस्लाम में औरतों की स्थिति और उनके अधिकारों को लेकर एक ऐसा माहौल और आदर्श तय करने का समय लगातार बना हुआ है, जिसे धर्म का कोई अखाड़ा नकार न सके. और जब तक ऐसा नहीं होता, औरतों के हक़ की लड़ाई जारी रहना चाहिए. जब तक मर्दों के 'तक़्सीम चौराहे' दुनिया में रहें, तब तक औरतों की 'तहरीर चौक' का वजूद भी लाज़िम है.

संदर्भ सूची
1, 4. - 'इस्लामिक फ़ेमिनिज़्म' - विकिपीडिया लेख
2, 3, 7, 9. - द लाइब्ररी ऑफ कांग्रेस द्वारा प्रकाशित प्रिसिला आफ़ेनहार कृत 'वीमन इन इस्लामिक सोसायटी'
5, 6. - 2008 में मार्गट बादरान का गार्जियन पर लेख 'इस्लाम्स अदर हाफ' (Islam's Other Half)
8. - राकेल एविता सरस्वती का लेख Fatima Mernissi: Going Beyond The Veil To Fight Misogynist Interpretations Of Islam

शनिवार, अप्रैल 04, 2020

कार्यशाला

समीक्षा और आलोचना में अंतर


ब्लॉग पर यह एक प्रयास है, जिसके माध्यम से आपके साथ मैं भी समझूंगा और मेरे साथ आप भी कुछ समझ सके, तो बात बन जाएगी. साहित्य की दो स्थापित विधाओं के अंतर को पहले पूर्ववर्ती लेखकों के विचार,​ फिर थ्योरिटिकली और चार्ट रूप में और फिर उदाहरणार्थ लेखन के रूप में यहां प्रस्तुत करने की चेष्टा है. इस प्रयोग को हरी झंडी देंगे, तो आगे भी इसे जारी रखने का मन है. आइए, चर्चा शुरू करते हैं.

Drawing Hands, lithograph by Dutch artist M. C. Escher. (Image: Wikipedia)

वास्तव में, आलोचना और समीक्षा दोनों ही किसी कृति की गुणवत्ता का मूल्यांकन करने वाले उपकरण हैं, लेकिन दोनों के औज़ार और मिज़ाज में कुछ अंतर हैं. एक तरफ, समीक्षा बहुत औपचारिक एवं कोमल उपकरण इस्तेमाल करती है, वहीं आलोचना अनौप​चारिक और कड़े. लेकिन, आलोचना का मकसद बेहतरी के रास्ते खोलना होता है इसलिए इसे 'साहित्य का मस्तिष्क' और 'सभ्य समाज में एक रिसोर्स' तक कहा गया है.

एक तरफ, समीक्षा में हृदय तत्व प्रधान होता है तो आलोचना में बुद्धि या तर्क तत्व. बहरहाल, इन दोनों विधाओं की उत्पत्ति और विकास कैसे हुआ? कौन से पड़ाव आये? इनके कितने प्रकार हैं? जैसे पहलुओं में न पड़ते हुए यहां दोनों के बीच अंतर पर चर्चा अभिप्रेय है. इस अंतर को समझनें में भी हम साहित्य और हिंदी जगत की स्थापनाओं अथवा प्रवृत्तियों को प्राथमिकता में रखेंगे. आइए, सर्वप्रथम दोनों विधाओं को विद्वानों के शब्दों में समझें. 

आलोचना

"साहित्य जीवन की व्याख्या है और आलोचना उस व्याख्या की व्याख्या." (अर्थात् आलोचना किसी कृति का वस्तुपरक विश्लेषण है.) - पंडित श्यामसुंदर दास

"आलोचना खोज सरीखा आनन्द है, निष्पत्ति के मूल्यांकन का. यह जीवन का आलोचनात्मक परीक्षण है. सर्वेक्षण कर निर्णय देना आलोचना की रोमांचक अन्तर्यात्रा का महत्वपूर्ण पक्ष है." - केआर श्रीनिवास (दि एडवेंचर ऑफ क्रिटिसिज़्म)

"आलोचना कला और साहित्य के क्षेत्र में निर्णय की स्थापना है." - रामेश्वरलाल खंडेलवाल, सुरेशचंद्र गुप्त (हिंदी आलोचना के आधार स्तंभ)

"आलोचना प्रच्छन्नता का उद्घाटन है." (अर्थात् किसी कृति के तत्वों में क्या अर्थ छुपे हैं, इसका प्रकाशन आलोचना करती है.) - नामवर सिंह

"साहित्य नवीन मानव मूल्यों की स्थापना कर एक शाश्वत सत्य की स्थापना में संलग्न होता है. आलोचना का उद्देश्य इस शाश्वत सत्य एवं मानव मूल्यों का अन्वेषण है.' - डॉ. सुरेश सिन्हा (हिंदी आलोचना का विकास)

समीक्षा (समालोचना शब्द को पर्यायवाची ही समझें)

"सत्य, शिव सुन्दर का समुचित अन्वेषण, उसका पृथक्करण तथा अभिव्यंजना ही सच्ची समालोचना है." - माधुरी, वर्ष सात, खंड 1

"समीक्षा का आदर्श रूप सामान्यत: कृति जनित वैयक्तिक भावोद्बोधक की प्रेरणास्वरूप समीक्षक की प्रतिक्रिया कृति का सम्यक अध्ययन और फिर समीक्षक की कृति पर अपना निर्णय माना जाता है." - रामशंकर शुक्ल रसाल (आलोचनादर्श)

"समालोचना से अभिप्राय कवि के काव्य के गुण-दोषों पर विचार करने तथा उसकी उत्कृष्टता और हीनता के निर्णय करने से है." - पद्मसिंह शर्मा (मतिराम ग्रंथावली)

 आलोचना एवं समीक्षा

"आलोचक काव्य के सर्वोत्तम गुण एवं वैशिष्ट्य के परिज्ञान के निमित्त अमूर्त रूप में विद्यमान काव्य तत्वों को अधिक परिश्रम से अनुसंधान करते हैं. (यह आलोचना का अर्थ समझा जाये.) किंतु इससे सरल मार्ग है मूर्त उदाहरणों में निहित गुणों एवं तत्वों का अनुसंधान और उसके आधार पर काव्य के गुण का आख्यान. (यह समीक्षा का अर्थ समझा जाये.)" - आरए स्कॉट जेम्स (द मेकिंग ऑफ लिटरेचर)
चार्ट रूप में आलोचना एवं समीक्षा के अंतर का सारांश.
इस पूरे ब्योरे के बाद अब संक्षेप में कहा जाये कि आलोचना एक विशेषज्ञ कर्म है, जबकि समीक्षा एक सुरुचिपूर्ण. संगीतज्ञ डेविड लीबमैन ने भी इस विषय में प्रकाश डालते हुए लिखा है कि आलोचना मुख्यत: दोषों पर ज़्यादा चर्चा करती है जबकि समीक्षा समझाने के उद्देश्य से किसी कृति के विषय व तत्वों की विस्तृत व्याख्या ही है, जिसमें दोषों की चर्चा अनावश्यक होती है. अस्ल में, यह मत एक तो पाश्चात्य दृष्टि बताता है और यह साहित्य नहीं, बल्कि अन्य कलाओं के लिए ज़्यादा मुफ़ीद नज़रिया है क्योंकि डेविड समीक्षा को तो एक तरह का प्रचार ही क़रार देते हैं और आलोचना को वह हथियार समझते हैं, जिससे कलाकार भयाक्रांत रहता है. जबकि भारतीय विचार कहता है कि कवि और आलोचक दोनों ही भावुक और लगभग बराबर प्रतिभासंपन्न होते हैं और एक दूसरे के पूरक.

अंतत: इस कार्यशाला के लिए विशेष रूप से सद्य: प्रकाशित एक ही कृति की समीक्षा और आलोचना प्रस्तुत है.
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आलोचना

नवगीत की सीमाओं व समस्याओं को बेनक़ाब करता संग्रह


'और एक बार, जाल फेंक रे मछेरे
जाने किस मछली में बन्धन की चाह हो...' डॉ. बुद्धिनाथ मिश्र का यह गीत बेहद चर्चित और प्रशंसित रहा है. वह स्वयं इसका सरस पाठ करते हैं और सिर्फ़ पढ़ना ही नहीं, इस गीत को सुनना भी रससिक्त करता है. मूल बात यह है कि इस मुखड़े में कथ्य अपनी व्यंजना में कितना प्रभावी है. एक ही समय में ये दो पंक्तियां भौतिक दुख एवं अलौकिक आनंद का गठबंधन बख़ूबी करती हैं और प्रचलित कथन से उलट ये दो पंक्तियां गीत की एक नयी भूमि खोज लेती हैं. अब इससे इतर एक और मुखड़ा सामने आता है और मिश्र जी के बरसों पुराने गीत के बरसों बाद, देखें :

'नदी नदी में घूम रहे हैं / लिये मछेरे जाल
सांस नहीं ले सकीं मछरियां / दुबकी कीचड़ बीच मिंदरियां...' गीत का यह मुखड़ा एक स्वाभाविक स्थिति या घटना की रपट मात्र नहीं लगता? फ़र्ज़ कीजिए कि आप टीवी पर किसी रिपोर्टर को समाचार सुनाते हुए सुन व देख रहे हैं : 'मैं यहां फलां नदी के पास मौजूद हूं, जहां मछेरों ने अपने जाल डाल दिये हैं. इसका असर यह हुआ है कि मछलियां तड़पने लगी हैं और जलीय जीवों में अपने आप को बचाने के लिए खलबली मच गयी है.' यह अभिधा मात्र है और मेरी दृष्टि में कविता की अंतर्दृष्टि यह नहीं है. यहां से समकालीन गीति साहित्य अथवा नवगीत सवालों के घेरे में आ जाता है क्योंकि यह दृष्टांत किसी अपरिपक्व कवि नहीं, अपितु आचार्य भगवत दुबे जैसे वरिष्ठ रचनाकार के नवीनतम संग्रह से लिया गया है.

Book Cover Image.
गीत, नयी कविता या नवगीत, विधा कोई भी हो, वस्तुत: काव्य रचना तभी सार्थक है जब उसमें काव्य के कुछ सर्वमान्य तत्व न्यूनतम तो हों. अंतर्दृष्टि, संवेदना का अनछुआ धरातल या दुर्लभ होते हुए भी साधारणीकृत होने वाली अनुभूति/अभिव्यक्ति एवं नवनवोन्मेषशालिनी मेधा का सरस प्रकाशन, ये कुछ ऐसे मानक हैं, जिनके आधार पर किसी काव्य रचना को कसौटी पर कसा जाना चाहिए. पांच दशकों से काव्य यात्रा के मुसाफ़िर आचार्य दुबे जी का सद्य: प्रकाशित नवगीत संग्रह 'भूखे भील गये' पर इसलिए चर्चा की चेष्टा है क्योंकि इस बहाने से नवगीत के सामने जो समसामयिक चुनौतियां और प्रश्न उपस्थित हैं, उन पर विमर्श हो सके.

छायावाद तक गीत की प्रकृति व्यष्टिपरक रही, लेकिन विकास कालखंडों में जिसे नवगीत कहा गया, उसकी प्रकृति समष्टिपरक हुई, ऐसा विशेषज्ञ मानते हैं. प्रश्न यह है कि किसी रचना में हम कैसे समझें कि यह व्यष्टिपरक है या समष्टिपरक? मज़दूर, किसान, श्रमिक, आदिवासी या लोक से जुड़े ऐसे किसी शब्द की उपस्थिति मात्र ही क्या रचना को समष्टिपरक मानने का आधार हो जाती है? 'भूखे भील गये' के एक गीत का यह अंश देखें :

पीठ-पेट चिपकाये फिरते / ये गरीब वनवासी
श्रमिकों के चेहरों पर / छायी रहती सदा उदासी
पर्वत को भी धूल चटाते / जो सीने फ़ौलादी...

वास्तव में, जब तक कवि तीसरे व्यक्ति अथवा तमाशबीन की तरह किसी घटना को देखकर वर्णन करता है, तब कविता में इस तरह के अंशों की भरमार होती है. कवि ने अनुभूति के स्तर पर एकाकार नहीं किया, इसलिए यह कोरा अवलोकन मात्र है, बस इसलिए कि आप भाषा और मात्रा गणना आदि को समझ पाते हैं इसलिए आप इसे गेय पद में वर्णित कर पाते हैं, अन्यथा कथन में ऐसा कुछ नहीं, जो कोई भी व्यक्ति यानी अकवि न कह सके. कवि को एक व्याख्या में साक्षी मात्र ही कहा गया है, लेकिन महत्वपूर्ण यह है कि कवि भौतिक जगत की घटना या दृश्य आदि का साक्षी होना नहीं है, बल्कि इन दृश्यों के बाद भाव या विचार या मनोभूमि पर जो यात्रा या घटना होती है, उसका साक्षी होना कवि होना है.

नवगीत के सामने पहली चुनौती इसी 'अकाव्य' प्रवृत्ति को माना जाये. 'भूखे भील गये' संग्रह में ऐसी अनेक रचनाएं हैं, जिन पर यह आरोप लगता है. इन्हें अभिधा प्रधान ऐसी रचनाएं भी कहा जा सकता है, जिनमें अंतर्दृष्टि एवं किसी भी स्तर पर नूतनता के अभाव स्पष्ट तौर पर चीन्हे जा सकते हैं और ये रचनाएं बजाय काव्य के, अवलोकन या अवलोकनोपरांत वर्णन मात्र ही होकर रह जाती हैं. यहां यह अहम है कि अभिधा में भी काव्य सृजन संभव है, लेकिन यह रस्सी पर चलने के समान है. ज़रा से असंतुलन से अभिधा की कविता अकविता हो जाती है.

इस संग्रह की रचनाओं से गुज़रने के बाद एक प्रश्न यह भी खड़ा होता है कि क्या 'नवगीत' के पास नये विषयों या नये कथ्यों का भारी टोटा पैदा हो गया है? इस संग्रह में एक-दो स्थानों पर प्रथम दृष्ट्या ऐसा प्रतीत ज़रूर होता है कि किसी नये विषय का सूत्रपात हुआ, लेकिन इतनी उथली रचनाएं हैं कि ज़रा ठहरते ही भ्रम दूर हो जाता है. एक रचना के उदाहरण से समझें :

'व्याधिग्रस्त दिखते / गांवों से ज़्यादा आज शहर
शक्कर महंगी किन्तु / ख़ून में बढ़ने लगी शुगर...' इस गीत का विषय रोचक है कि शहर और गांव की जीवन शैली बदले पारिवेशिक संदर्भों में कितनी भिन्न है और इसके स्वास्थ्य पर क्या प्रभाव हैं. यहां कवि ने शहरियों को आलसी जीवन जीने के कारण रोगों का शिकार होना पाया है, यहां तक तो ठीक है लेकिन इसके बाद कवि दावा करता है : 'जो मेहनतकश / उन्हें न कोई रोग सताते हैं.' यह अवैज्ञानिक दृष्टि से किया गया तुलनात्मक अध्ययन है. ग्रामीण या श्रमिक किसी रोग के शिकार नहीं हैं या होते, यह दावा इस पूरे गीत के विषय को दूषित करने के साथ ही एक नयी भूमि खोजने जा रही रचना के प्राण हर लेता है. यदि यह रचना मेहनत के बावजूद मेहनतकशों और उनके बच्चों के कुपोषण तक बात ले जाती और संसाधनों के असमान वितरण जैसे पहलुओं को रेखांकित कर पाती तो संभवत: यह एक श्रेष्ठ रचना की कीर्ति पा जाती.

इस संग्रह के बहाने से नवगीत के सामने खड़ी तीसरी समस्या उभरकर सामने आती है कि रचनाएं समस्यामूलक हैं यानी सिर्फ़ समस्या को ही केंद्र में रखती हैं. इस बात को आप उपरोक्त पहली चुनौती के एक और विस्तार के रूप में समझ सकते हैं. 'भूखे भील गये' संग्रह से कुछ अंश उदाहरणस्वरूप देखें :

1. सारस्वत मंचों ने कैसी ओढ़ी फूहड़ता / जहां चुटकुलेबाज़ बड़ी बेशर्मी से पढ़ता
2. कविता में युगबोध नहीं बस आडम्बर है झूठा / मौलिकता है लुप्त पिष्टपेषण मिलता है जूठा
3. राजा भोज आज के मंत्री दुखी श्रमिक हैं गंगू तेली / श्रमसेवी को झोपड़पट्टी जमाखोर की तनी हवेली
4. करती रही छलावा हमसे अर्थव्यवस्था पूंजीवादी / प्रतिभाओं का हुआ पलायन, बाट जोहते दादा-दादी
5. मम्मी डैडी बहुत व्यस्त हैं अधिक कमाने की मजबूरी / स्वर्णिम सपने पूरे करने हुई बुज़ुर्गों से भी दूरी...

क्या रचनाधर्मिता समस्या मात्र गिनाना ही है? या विद्रूपताओं पर कटाक्ष भर करना ही है? ये रचनाएं समस्याओं को समस्याओं के दृश्यों और समस्याओं के अवलोकन को ही प्रस्तुत करती हैं, बगैर किसी अनुभूति, संवेदना या कारण-हेतु-समाधान के. उपरोक्त उदाहरणों में नंबर 5 के बरक़्स नवगीत के चर्चित रचनाकार दादा माहेश्वर तिवारी के एक गीत का बंद देखें :

अमलतास गहराकर फूले / हवा नीमगाछों पर झूले,
चुप हैं गाँव, नगर, आदमी / हमको, तुमको, सबको भूले
हर तरफ़ घिरी-घिरी उदासी / आओ हम मिल-जुल कर छाँटें...

'मिल-जुल कर छाँटें', कहा सुना ही सही, लेकिन एक संबल तो है, एक समाधान मूलक चेतना तो है कि समस्याओं से जूझा कैसे जाये. समकाल के नवगीतों को चेतना होगा कि समस्या को ही बांचने की इस प्रवृत्ति से बचा जाये अन्यथा रचनाएं रचनाएं नहीं प्रतिक्रियाएं अथवा ब्योरा मात्र बनकर रह जाएंगी.

'भूखे भील गये' संग्रह को कुछ और प्रश्नों व आरोपों का उत्तर भी देना होगा. मसलन, इस संग्रह की 105 गीति रचनाओं में से अधिकतर का भाषा व शैली इतनी एक जैसी है कि पढ़ते-पढ़ते एक तिहाई रचनाओं के बाद लगने लगता है कि आप दोहराव ही पढ़ रहे हैं. ऐसा क्यों है? संग्रह का शीर्षक कितना मुनासिब है? एक गीत के अंश के तौर पर नहीं, पुस्तक के शीर्षक के तौर पर यह क्या अर्थ देता है? सर्वश्री देवेंद्र शर्मा इंद्र, मधुकर अष्ठाना, मयंक श्रीवास्तव एवं कुमार रवींद्र ने इस संग्रह पर जो सम्मतियां दी हैं, उनमें इतनी प्रशंसाएं हैं कि जैसे यह संग्रह पूर्णत: दोषमुक्त एवं कालजयी हो, ऐसा क्यों है?

अंतत: इस संग्रह से कुछ सकारात्मक ग्रहण करने की चेष्टा की जाये तो कहा जा सकता है कि 105 रचनाओं में से करीब एक दर्जन रचनाएं पठनीय हैं और किसी स्तर पर काव्य की श्रेणी में शुमार की जा सकती हैं. तमाम दोषों के बावजूद कुछ नये प्रतीक और कुछ नये विषयों को उठाने के प्रयास के लिए भी रचनाकार को साधुवाद दिया जाना चाहिए. फिर भी, जैसा मैंने पहले कहा कि यह संग्रह वर्तमान काव्य जगत में रचनाधर्मिता की चुनौतियों, सीमाओं एवं समस्याओं को उजागर ज़्यादा करता है. इस संग्रह की एक रचना का अंश है :

“देने गये द्वार पर सादर जिनको अक्षत पीले / लौटाये ब्यौहार उन्हीं ने हमें निपट ज़हरीले...” हो सकता है इस आलोचना के बाद दुबे जी मेरे लिए अपनी यही पंक्तियां दोहराना चाहें. आचार्य दुबे जी मेरे पिताश्री के मित्रवत एवं अग्रजवत रहे हैं, इसलिए व्यक्तिगत तौर पर मेरे लिए श्रद्धेय रहे हैं, किंतु कविता की कसौटी पर ही कविता का मूल्यांकन मुझे संगत लगता है, वरना जिस तरह इस संग्रह पर नामचीन वरिष्ठों ने गिन गिनकर 'ब्यौहार लौटाये' या बनाये हैं, मेरे लिए भी संभव था, परन्तु मुझे कवि का ताना मंज़ूर है, कविता का नहीं.
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समीक्षा

लोक एवं व्यवस्था के संदर्भों को चीन्हते नवगीत


काव्य संग्रह : भूखे भील गये; कवि : आचार्य भगवत दुबे; प्रकाशक : पाथेय प्रकाशन, जबलपुर


Image Source : Quartz

न्याय मांगने, गांव हमारे
जब तहसील गये
न्यायालय
खलिहान, खेत, घर,
गहने लील गये.
लंबा अरसा हुआ... गीत या छन्द कविता की ऐसी कोई महफ़िल इस गीत के पाठ के बगैर नहीं उठती, जिसमें आचार्य भगवत दुबे मौजूद हों. साल 2009 से तो मैं ख़ुद इस बात का साक्षी हूं, जब श्रद्धेय पिताश्री कमलकांत सक्सेना जी ने मासिक साहित्यिक पत्रिका 'साहित्य सागर' के तत्वावधान में भोपाल में 'नटवर गीत सम्मान' वितरण कार्यक्रम को 'राष्ट्रीय गीत उत्सव' का राष्ट्रव्यापी स्वरूप दिया था. तबसे अब तक करीब आधा दर्जन ऐसे आयोजनों में स्वयं दुबे जी से यह गीत सुनने का आनंद ले चुका हूं.

यह गीत वाक़ई दुबे जी की प्रतिनिधि गीत रचना बन चुका है और वह पूरे देश के काव्य जगत में इससे पहचाने जाते हैं. यह नियति है कि इस गीत की रचना के सालों बाद दुबे जी के नवगीतों का संग्रह प्रकाशित हुआ है 'भूखे भील गये'. यह शीर्षक इसी गीत की पंक्ति का एक अंश है, वह अंश भी पठनीय है :

कभी न छंट पाया जीवन से विपदा का कुहरा
राजनीति का इन्हें बनाया गया सदा मुहरा
दिल्ली, लोककला दिखलाने, भूखे भील गये.

हालांकि संग्रह का शीर्षक सिर्फ़ 'भूखे भील' होता तो ज़्यादा सार्थक रहता. फिर भी, ज़्यादा अहम बात यह है कि इस संग्रह में शामिल गीतों का सुर और तेवर क्या है? इन गीतों या नवगीतों को क्यों पढ़ना चाहिए और इन्हें किस दृष्टि से पढ़ा व समझा जाए? इस बारे में चर्चा करना उचित समझता हूं.

दुबे जी के सद्य: प्रकाशित काव्य संग्रह 'भूखे भील गये' में 105 नवगीत दर्ज हैं, जिनमें मुख्य रूप से लोक जीवन की झांकियां, बदलते पारिवारिक व सामाजिक ढांचे, प्रकृति के साथ खिलवाड़ को लेकर चिंता और स्मृतियों के चित्र प्रधान गीति रचनाएं विशेष हैं. प्रस्तुत संग्रह के इस चतुर्भुज को कुछ संकेतों के माध्यम से प्रकाशित करने की चेष्टा करता हूं.

'आचार्य जी के गीत लोक ​परिवेश से दूर नहीं हैं... गांव की पीड़ा की नब्ज़ का अहसास दुबे जी को भली भांति है.' संग्रह की पूर्व सम्मति में वरिष्ठ गीतकार श्री मयंक श्रीवास्तव के इस कथन के अलावा, लोक जीवन की झांकियों के संदर्भ तो आप इस संग्रह के शीर्षक और शीर्षक गीत से समझ ही सकते हैं. साथ ही, इस संग्रह में कई जगह आपको दमितों, श्रमिकों, मज़दूरों और ग्रामीणों के संदर्भ मिल जाएंगे. उदाहरण के तौर पर यह बंद देखें :

शोषणकारी क्रूर किया करते मनमानी हैं
अब इन दमितों ने मरने-मिटने की ठानी है
एक साथ मिलकर लूटेंगे, ये तहख़ानों को..

यानी सिर्फ़ दमित की पीड़ा ही नहीं, उस दमित वर्ग का बदला हुआ चेहरा भी यहां बेनक़ाब करने की चेष्टा इशारों में है, जो गीत काव्य में सर्वथा नयापन है. एक तरह से यह भी कहा जा सकता है कि दुबे जी की नज़र बदलाव को पकड़ने के लिए सतत स्फूर्त है. 80 बरस की उम्र के करीब पहुंचते हुए और पांच दशकों से ज़्यादा लंबी काव्य यात्रा कर चुकने वाले रचनाकार के लिए यह शायद स्वाभाविक भी होता है. यही कारण है कि परिवारों और सामाजिक रिश्तों, बुनावटों व व्यवस्थाओं में पिछली आधी सदी में जो आमूलचूल बदलाव आये, उन्हें दुबे जी ने अपने गीत काव्य में दर्ज किया है.

श्री कुमार रवींद्र ने अपनी सम्मति में इस संग्रह की रचनाओं को 'फिलवक़्त का हलफ़नामा' कहा है, जो विचारणीय है. यह भी अहम है कि बदलावों के विषय को दर्ज करने में दुबे जी ने चिंतन, विश्लेषण अथवा तर्कों के स्थान पर पीड़ा, संत्रास, प्रश्न एवं चिंता के उपालंभों का प्रयोग किया है.

इस संग्रह के सबसे सार्थक गीत मेरी दृष्टि में प्रकृति विषयक रचनाएं हैं और सबसे रोचक रचनाएं वे हैं, जिनमें स्मृतियों के झरोखे से जीवन का पुनरावलोकन है यानी नॉस्टैल्जिक पोएट्री. 'अग्नि, पवन, जल, व्योम, धरा के बिखरे सूत्र चुनें..' प्रकृति विषयक एक सशक्त रचना में दुबे जी ने इस ग़लती को ठीक से चीन्हा है कि पंचतत्वों के साथ मनुष्य ने किस कदर खिलवाड़ किया है. यही नहीं, इस संग्रह से गुज़रकर लगता है कि प्रकृति से जुड़े गीतों में कवि की लेखनी सर्वाधिक प्रभावशाली हो जाती है. एक बंद और देखें :

टीबी के रोगी सा सावन मुरझाया है
हांफ हांफकर मल्हार मेघों ने गाया है
सावन औ' भादों अब धूल में नहाते हैं..

ये सर्वथा नूतन उपमाएं और बिम्ब अनुभवी कवि की लेखनी की गुणवत्ता बयान करते हैं. इसी तरह, स्मृति के गीतों में ऋजुता, लोकभाषा का चाव और ग्रामीण परिवेश का मोहक चित्रण बरबस ही ध्यान आकर्षित करता है. इनके इतर, दुबे जी के गीतों की भाषा उन गीतों में कठोर और चौक चौराहों पर होने वाले बहस-मुबाहिसों वाली भाषा है, जिनमें राजनीति, व्यवस्था और सामाजिक विद्रूपताओं पर कटाक्ष जैसे विषय प्रकाशित हैं. 

प्रस्तुत संग्रह विविधवर्णी गीति कविताओं का गुलदस्ता है. एकाधिक गीतों में गीत या छन्द विमर्श भी शुमार है, तो एकाधिक गीतों में मिथकीय प्रतीकों के अवलंबन भी उल्लेखनीय हैं. इसके अलावा, समकालीन गीति साहित्य या नवगीत सृजन में जिन चिंताओं को रेखांकित किया जा रहा है, उसके दृष्टांत इस संग्रह में भी उपस्थित हैं. बहरहाल, करीब 50 पुस्तकों के रचनाकार दुबे जी अपने अनुभव और प्रदेय के कारण हमेशा श्रद्धा व श्लाघा के पात्र हैं और वह इसके बाद भी और बेहतरीन रचनाओं से हमें सराबोर करते रहें, इसी आशा एवं कामना के साथ शुभम.