शुक्रवार, मार्च 08, 2024

Beyond The Review

Laapata Ladies : लेडीज़ के लापता किरदारों को खोजती फ़िल्म


'बुड़बक होना शर्म की बात नहीं है, बुड़बक होने पर गर्व करना शर्म की बात है.' इसे कहते हैं फ़िल्म. इंटरवल हो या फ़िल्म ख़त्म होने पर सिनेमाहॉल से निकलने का वक़्त, दर्शकों की ज़ुबान पर बस यही एक तसल्ली, 'वाह क्या फ़िल्म है'. फ़िल्म ऐसी कि जैसे, जैसे नानी की कोई भूली-बिसरी कहानी मिल जाये, जैसे बचपन की कोई ख़ास स्केचबुक अरसे बाद हाथ लगे, जैसे बुआ या मौसी के हाथ का बरसों पुराना स्वाद अचानक ज़ुबान पर आये, जैसे पेट भर जाये, मन भर जाये. 'लापता लेडीज़' देखने के बाद जो कैफ़ियत रही, उसे बतलाऊं तो जैसे, जैसे दिल में घुलते महादेवी के गीतों की कोई किताब, जैसे प्रभा अत्रे का 'जमुना किनारे मोरा गांव' वाला राग खमाज, जैसे सुधा मूर्ति की हज़ारों टांकों की दास्तान...


Laapata Ladies Poster : Instagram

कोई भी कलाकृति हो, उसकी आलोचना से पहले उसका आस्वाद है. यदि वह कृति आपको रस से सराबोर करती है, तभी उसका कथ्य और शिल्प विचार योग्य है. किरण राव निर्देशित 'लापता लेडीज़' देखने के बाद हर पीढ़ी की आंखों में एक सुकून, चेहरे पर एक संतोष देखकर महसूस होता है कि रस का साधारणीकरण कमाल का हुआ. इसके लिए न केवल निर्देशक बल्कि परदे पर अपने अभिनय से कथा को प्रवाहित और काग़ज़, कैमरे व एडिटिंग डेस्क पर बैठकर फ़िल्म को आकल्पित-रूपांकित करने वाले सभी कलाकारों को भरपूर दाद पहुंचनी चाहिए. एकबारगी ऐसा लगेगा या स्वस्थ मनोरंजन चाहने वाले एक आम दर्शक को महसूस होगा कि फ़िल्म हल्के फुल्के ढंग-से एक दिलचस्प कहानी कहती है, बच्चों की तरह आपको रुलाती हंसाती है और संदेश देने का अपना काम भी कर जाती है. फ़िल्म का यही बड़ा उद्देश्य और सरोकार है, जो पूरा हो जाता है. लेकिन यह फ़िल्म कहती क्या और कैसे है?

धोबी घाट जैसी क्लिष्ट और गंभीर फ़िल्म बना चुकीं किरण 'लापता लेडीज़' में अपने भीतर के कलाकार की नये सिरे से शिनाख़्त करती हैं. पिछली फ़िल्म उनके हुनर का उदाहरण थी और यह फ़िल्म हुनर की सफ़ाई के रूप में सामने आती है. एक होता है कलात्मक ढंग से बुनना और एक होती है इतनी सहज बुनाई कि कोई जोड़, कोई गिरह, कोई लोच नज़र न आये. यही लगे कि बुनने वाले के हाथ बुनाई के लिए ही बने हैं. फ़िल्म इसी तरह की सहज कारीगरी दिखायी देती है और इसके क्रेडिट में लेखकों का भी बड़ा हिस्सा है. एक बेहतरीन कहानी को स्पष्ट पटकथा और परिवेशगत सटीक संवादों से परदे पर साकार किया गया है.

कथा काल्पनिक होते हुए भी पात्र और घटनाएं देखी-सुनी-सी लगती हैं. हर पात्र के साथ दर्शक ख़ुद को कनेक्ट कर पाता है. आंचलिकता की महक उसके मन से उठने लगती है. साथ ही एक दिलचस्पी बनी रहती है कि अब ऐसा होने वाला है या वैसा होगा क्या? अस्ल में, यह औरतों की कहानी है और औरतों की ही ज़ुबानी है, ऐसा कहा जा सकता है. फ़िल्म का ट्रेलर भी अगर आपने देखा है तो यह तो आपको पता ही है कि घूंघट की वजह से दुल्हन ट्रेन से उतरते वक्त बदल गयी है. बदलकर आ गयी दुल्हन को उसके घर पहुंचाने और जो छूट गयी, उसे खोजने के माजरे के बीच पूरी फ़िल्म चलती क्या बहती है. आपके दिल में उतरती है और बहुत महीन बातें आपके दिल दिमाग़ में छोड़ जाती है.

फ़ेमिनिज़्म के पहलू

औरतों के घूंघट, बुर्क़ा और परदादारी के विषय पर कटाक्ष करने वाली यह फ़िल्म लाउड क़तई नहीं है. ग्रामीण या आंचलिक जीवन की कुप्रथाओं पर डंडे बरसाने वाले लेखों, हर प्रथा के लिए मर्दानगी या पुरुष प्रधान समाज को कारण और आरोपी बताने वाली कविताओं या किसी मुद्दे पर तख़्तियां लेकर सड़क पर उतर जाने वाले एक्टिविज़्म के बरअक्स यह फ़िल्म एक नया रास्ता बनाती है. पारंपरिक लोगों को एक व्यावहारिक ढंग से कैसे समझाया जा सकता है, यह इस फ़िल्म के मूल स्वर में है.

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प्रताड़ना के बाद पुरुषों को छोड़ चुकी महिला का पात्र है, मंजू माई. यह पात्र पुरुष प्रधान समाज से सीधे अखाड़े में दो-दो हाथ करने वाले फ़ेमिनिज़्म का प्रतीक बनता है. बदली हुई जो दुल्हन आयी है जया, यह पात्र महिलाओं के सशक्तिकरण के लिए सकारात्मक सोच और बदलाव के लिए रास्ता बनाने वाले फ़ेमिनिज़्म का प्रतीक है. गुमी हुई दुल्हन यानी फूल का पात्र दुर्भाग्य और स्थितियों व नये परिवेश से प्रेरित होकर स्वाबलंबी बनाने की दिशा का बोध देता है और अन्य महिला पात्र भी पुरुष समाज में महिलाओं की भूमिका पर चर्चा करते हुए नज़र आते हैं.

दैहिक इच्छाओं और संबंधों, महत्वाकांक्षाओं के लिए समान अवसरों और मनमर्ज़ी के कपड़े पहनने जैसी स्वतंत्रताओं की पैरवी जो फ़ेमिनिज़्म करता है, उसके संदर्भ शहरी या पाश्चात्य जीवन संदर्भ में समझे जा सकते हैं, लेकिन भारत जैसे अनेक अविकसित एशियाई देशों में फ़ेमिनिज़्म के सामने 21वीं सदी में भी ग्रामीण या क़स्बाई महिलाओं की रोज़मर्रा की समस्याएं बड़ी चुनौतियां हैं. लड़कियों की शिक्षा, जागरूकता, परवरिश, पोषण, बाल विवाह, दहेज, घरेलू हिंसा, शोषण और श्रम के मोर्चे पर शहरी फ़ेमिनिस्टों की बढ़ती बेरुख़ी भी समस्या बनती जा रही है.

व्यवस्था पर कटाक्ष

फ़िल्म के लगभग सभी महिला पात्र सामाजिक व्यवस्थाओं के शिकार, पीड़ित हैं लेकिन इसे अपनी नियति मानकर सरलता से जीते हुए भी. अपने स्तर से थोड़ा ऊपर उठने की हर पात्र की जिजीविषा को व्यवस्था विरोध के रूप में समझा जा सकता है. यही नहीं, सियासत पर भी ये महिला पात्र तंज़ करते हैं. घटना के संदर्भ में बहुत मासूमियत के साथ शब्द आते हैं, 'पहले गांव का नाम इंदिरानगर था, फिर अटलनगर हुआ, फिर मायापुरम...' जैसे संवाद रोचकता से वोटरों की ज़ुबान पर आ जाते हैं. या एक विधायक के ऊटपटांग भाषण का दृश्य सरल कटाक्ष हैं.

बुड़बक होने पर गर्व करना शर्म की बात है, जैसे जुमले संवादों में आते तो किसी और प्रसंग में हैं लेकिन गौर किया जाए तो वर्तमान के सियासी (ख़ासकर सत्ता समर्थकों) हालात या माहौल को लेकर तंज़ की तरह सुनाई देते हैं. सियासत, समाज और अशिक्षा की एक पूरी साज़िश के साथ जो परिवेश बनता है, वह किस तरह लड़कियों के भविष्य, समझ और प्रतिभा के साथ अन्याय करता है, एक दमनकारी छलावा साबित होता है, यह फ़िल्म की परतों से छुपा हुआ है, लाउडस्पीकर पर चिल्लाया नहीं गया है.

Laapata Ladies Still

आलोचना के पक्ष

पिछले कुछ समय में समस्या प्रधान फ़िल्में हों, विषय प्रधान, ड्रामाई या फिर बायोपिक, लगभग सभी में एक शोर, एक बयानबाज़ी या एक आक्रामकता महसूस होती रही है. बहुत सी फ़िल्में तो साफ़ तौर से सियासी एजेंडों की वजह से ही बनती हुई नज़र आ रही हैं. ऐसे में एक साफ़ सुथरी, संदेशपरक फ़िल्म बहुत उम्मीद जगाती हुई आती है. इस​ फ़िल्म का सबसे उजला पक्ष भी यही है और मोहभंग करता भी कि हर पात्र अच्छा है या उतना बुरा नहीं है, जितनी वास्तविकता होती है. रिश्वत लेने वाला, भ्रष्टाचार की कल्पना से ही लार टपकाने वाला पुलिस अफ़सर भी अंत में नर्मदिल, संवेदनशील नायक साबित हो जाता है. दुल्हन बनी दो किशोरियां या नवयुवतियां तक़रीबन हफ़्ते भर तक अनजानों के बीच हैं, लेकिन उन्हें किसी भयानक दुर्घटना या दुर्व्यवहार का सामना नहीं करना पड़ता.

यह आशावाद एक आदर्शवाद है. यदि इस कथा को किसी परिचित स्थान से जोड़ दिया जाता तो यह इस फ़िल्म की बड़ी कमज़ोरी हो जाती. एक का​ल्पनिक स्थान 'निर्मल प्रदेश' की ज़मीन पर गढ़ना ठीक रहा. यह यूटोपियन सेटिंग यानी 'लापतागंज' वाला कॉंसेप्ट कोरे आदर्शवाद के आरोप का जवाब बन सकता है. एक पक्ष है, गीत-संगीत जिसके लिए जवाब नहीं मिलता. फ़िल्म का सबसे कमज़ोर पक्ष संभवत: यही है. बेहतरीन लोकगीत और लोकसंगीत के साथ कविताई की बड़ी गुंजाइश का लाभ न उठाया जाना खलता है. पात्र के हिसाब से थिएटर का प्रचलित फॉर्मूला अपनाने वाले रवि किशन कहीं-कहीं कुछ बनावटी अभिनय भी करते दिखते हैं. इसके उलट छाया कदम और गीता अग्रवाल जैसे अभिनेता अपनी परिपक्वता दिखाते हैं. यह बात सही है कि '12वीं फ़ेल' फ़ेम गीता को एक इमेज से हटकर रोल भी करने होंगे. दूसरी ओर, स्पर्श, प्रतिभा, नितांशी जैसे नये कलाकार छाप छोड़ते हैं. विशेष तौर से स्पर्श की भाव-भंगिमाएं अधिकांश दृश्यों को लाजवाब बनाती हैं. कहानीकार बिप्लब गोस्वामी और फ़िल्म लेखक स्नेहा भरपूर दाद के हक़दार हैं.

महिलाओं की, महिलाओं के द्वारा यह फ़िल्म सिर्फ़ महिलाओं के लिए नहीं है, यही इसकी लोकतांत्रिक भावना है. आप सिनेमाप्रेमी हैं तो ज़रूर देखिए और समझकर देखिए यह चित्र, जिसमें अंतर्मुखी विमर्श है जैसे एक अच्छा साहित्य अपने पाठक के मन में सदियों गूंजता है, इसमें एक लय है जैसे अच्छा संगीत श्रोता के साथ सदियों बहता है और ऐसा बहुत कुछ है. इस फ़िल्म को देखने के बाद अपने परिवेश में झांककर देखिए कि कितनी महिलाएं अपने मन से 'लापता' हैं, अपने समाज में, अपने परिवार में रहते हुए. हिंसा और लाउड विज़ुअल्स के इस दौर में यह फ़िल्म एकदम अलग खड़ी दिखती है. बेशक पटाखा, पहेली से लेकर बालिका वधू जैसी कुछ पूर्ववर्ती फ़िल्मों की परंपरा इसके साथ ज़रूर जोड़ी जा सकती है.

शुक्रवार, मार्च 01, 2024

आलेख

'तमाशा' को जानिए, जिससे ज्योतिबा फुले ने की थी क्रांति


विचारक, सुधारक, लेखक ज्योतिराव फुले ने गांवों और दूरदराज के गरीबों और निरक्षरों को क्रांतिकारी बनाने के लिए जिस कला (Folk Art) को साधन बनाया था, वह लुप्त होने की कगार पर है. यह लेख मूलरूप से न्यूज़18 के लिए लिखा गया था, जो 11 अप्रैल 2021 को प्रकाशित हुआ था.


लोकनाट्य तमाशा का आकल्पन. 'हिंदी विवेक' से साभार.

विजयी मराठा अखबार ने लिखा था “ब्राह्मणों की ज़मीन के भाड़े बेतहाशा थे… किसानों के पास गांठ में एक पैसा बचना तक मुहाल था! तब किसानों ने तय किया कि वो ब्राह्मणों की ज़मीनों के इतने अत्याचारी ठेके को नहीं मानेंगे. इस तरह से सत्यशोधक समाज ने ब्राह्मणों की गुलामी से किसानों को आज़ाद करवाया.” इस सत्यशोधक समाज की स्थापना ऐतिहासिक समाज सुधारक ज्योतिबा फुले ने की 1873 में की थी. इस सत्यशोधक समाज ने उस समय पिछड़े और दलित समुदायों के उत्थान के लिए ऐतिहासिक कारनामों को अंजाम दिया, जिसका बेहद खास औज़ार ‘तमाशा’ था.

इकोनॉमिक एंड पॉलिटिकल वीकली में 1973 में छपे एक लेख की मानें तो तमाशा के ज़रिये ही सत्यशोधक समाज ने किसानों और गैर ब्राह्मण नेताओं के बीच एक पुल बनाया और इसी विचार के माध्यम से विद्रोहों को उकसाया. 1919 में सातारा में ब्राह्मण भूमिहारों के खिलाफ कर्ज़दार किरायेदारों की बगावत इसका बड़ा उदाहरण था. आगे है फुले ने किस तरह तमाशा से निशाना साधा. आपको तमाशा की परंपरा के बारे में भी बताएंगे.

सत्यशोधक समाज का हथियार था ‘तमाशा’

महाराष्ट्र में ब्राह्मणवादी विचारधारा और अत्याचारों की आलोचना करना ही फुले की इस संस्था का तरीका था और उद्देश्य था कि ‘शेठजी भटजी’ वाली साहूकारी और अत्याचारी व्यवस्था के ख़िलाफ़ किसानों और दलित समुदाय को आंदोलित किया जाए. चूंकि यह वर्ग शिक्षित नहीं था और महाराष्ट्र के दूरदराज के इलाकों तक फैला था इसलिए व्याख्यानों और भाषणों से उस तक पहुंचना बहुत मुश्किल था.

ऐसे में, फुले के सत्यशोधक समाज ने लोक नाटक की परंपरा तमाशा को हथियार बनाकर अपने संदेश फैलाने शुरू किए. समाज ने तमाशा की मूल परंपरा में ब्राह्मण विरोधी संदेशों को बेहतरीन ढंग से जोड़ा. ‘सत्यशोधकी जलसा’ के नाम से मशहूर रही इस पहल में तमाशा में नुक्कड़ नाटक के कुछ गुणों को जोड़कर नए ढंग से किसानों से संवाद किया गया था.

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इसमें बहुत खास था मंगलाचरण में ‘गणपति वंदन’. इस वंदना में शोषित समाज को समझाया गया कि वास्तव में गणपति ‘गण के देवता’ हैं, सिर्फ ब्राह्मणों के नहीं. इससे यह समझ विकसित की गई कि गण का महत्व है, गण यानी जनता.

तमाशा की रूपरेखा में सत्यशोधक समाज ने ब्राह्मणों के अत्याचारों, धोखेबाज़ियों और शोषण के बारे में किसानों के बीच काफी प्रचार किया, जिससे ग़ैर ब्राह्मण समाज के कई बुद्धिजीवी और नेता भी प्रभावित होकर समाज के इस मकसद में जुड़े. आख़िरकार किसानों ने अत्याचारों के ख़िलाफ़ आवाज़ उठाना सीखा भी.

तमाशा और इसका इतिहास क्या है?

ख़ास तौर से महाराष्ट्र में लोक नाट्य परंपरा को तमाशा नाम से जाना जाता रहा है. यह काफी हद तक नुक्कड़ नाटक की तरह का कॉंसेप्ट रहा. इसके इतिहास को देखा जाए तो पहली सदी में सातवाहन शासकों के समय से इसके प्रयोग के उल्लेख मिलते हैं. यानी तमाशा का इतिहास कम से कम 2000 साल पुराना तो है ही.

महाराष्ट्र में इस परंपरा का चरम 18वीं सदी में पेशवाओं के साम्राज्य के दौरान बताया जाता है. ढोलकी फड़चा और संगीत बारीचा, तमाशा के ये दो रूप प्रचलित रहे. एक अनुमान के मुताबिक़ माना जाता है कि अब भी महाराष्ट्र में करीब 20 फुल टाइम तमाशा पार्टियां सक्रिय हैं. महाराष्ट्र के गांवों के साथ ही कर्नाटक और गुजरात के सीमांत इलाकों तक ये तमाशा मंडल साल में 200 से ज़्यादा दिनों तक कला का प्रदर्शन करते हैं.

पारंपरिक तौर पर तमाशा में नाचने वाले लड़के यानी नच्या, कविताएं लिखने वाले यानी शाइर और नाटक को संचालित करने वाला सूत्रधार या सोंगद्या प्रमुख होते हैं. पहले इसमें महिलाएं भाग नहीं लेती थीं लेकिन आधुनिक समय में यह बाधा नहीं रही. मराठी थिएटर की शुरूआत 1843 के आसपास से मानी जाती है और ​इतिहासकार साफ़ तौर पर इसे तमाशा से ही विकसित हुई परंपरा बताते हैं.

लोकशाइर बशीर मोमिन कवाठेकर ने एड्स्, दहेज और अशिक्षा जैसी कई समस्याओं को लेकर मशहूर सामाजिक तमाशा नाटक लिखे. 19वीं सदी में जब तत्कालीन बॉम्बे में उद्योगों की शुरूआत हुई, तबसे ही ग्रामीणों का शहर की तरफ पलायन शुरू हुआ था और तबसे ही तमाशा की पहचान शहरों में बनी थी. तमाशा कला को बचाए रखने के लिए महराष्ट्र सरकार एक सालाना पुरस्कार भी देती है. लेकिन थिएटर और शहरीकरण के समय में लोक कला बेहद सिमट चुकी है और अब इसके सामने अस्तित्व का संकट खड़ा हुआ है.

आलेख

डार्विन, मार्क्स और ग़ालिब की 19वीं सदी!


(27 दिसंबर 2022 को मूल रूप से न्यूज़18 हिंदी की वेबसाइट पर यह लेख प्रकाशित हुआ था. ग़ालिब की याद के दिन छपे इस लेख में यह नवाचार है कि ग़ालिब के समकालीन दो क्रांतिकारी विचारकों के बरअक्स उनकी शायरी को समझा जाये.)


Hindi.News18.Com से साभार


19वीं सदी में दुनिया के कई कोनों में पीड़ा जीवन का जैसे केंद्र थी. कहीं मज़दूरों का शोषण, कहीं औपनिवेशिक युद्ध व षडयंत्र, कहीं गुलामी तो कहीं दकियानूसी सांप्रदायिक ताकतों का वर्चस्व. मानव समाज बुरी तरह छटपटा रहा था. इसके बरअक्स, 19वीं सदी पूरी दुनिया के लिए बड़े इन्क़िलाब की सदी है. भारत में मुग़ल साम्राज्य का पतन और अंग्रेज़ी सत्ता का वर्चस्व कायम हो रहा था, तो पश्चिम में दो बड़ी क्रांतियां हो रही थीं. एक, चार्ल्स डार्विन अपने जीवविज्ञानी सिद्धांतों के ज़रिये कर रहे थे तो दूसरी, एंगेल्स और कार्ल मार्क्स अपने उन दार्शनिक सिद्धांतों से, जिनके मूल में आर्थिक, सामाजिक और राजनीतिक शोषण के नज़रिये से इतिहास को समझा जा रहा था. आंडबर, पूंजीवाद, उपनिवेशवाद के विरुद्ध विद्रोह के सुरों के बीच मानवाधिकार, प्रगतिशील विचार और समानता जैसे मूल्य बीच बहस में आ रहे थे. इस पूरे परिप्रेक्ष्य में मिर्ज़ा ग़ालिब की शायरी को यक़ीनन एक बड़ी घटना के रूप में दर्ज करने और समझने की ज़रूरत बनी हुई है.

निस्या-ओ-नक़्दे-दोआलम की हक़ीक़त मालूम
ले लिया मुझसे मेरी हिम्मते आली ने मुझे

अतार्किकता को ग़ालिब कई जगह अपनी शायरी में निशाना बनाते हैं. स्वर्ग-नर्क की अवधारणा पर सवाल खड़े करने जैसे उनके रवैये उन्हें कबीर, राबिया और ललदैद (ललद्यद) जैसे सूफ़ी संत कवियों की परंपरा में लाते हैं, तो ऐसे ही बयान उन्हें न्यूटन के बाद की सदी में वैज्ञानिक सोच का कवि भी साबित करते हैं. उनकी जीवन यात्रा में चूंकि अभाव, दुख, असफलता, आरोप और असम्मान के कई प्रसंग रहे इसलिए एक मोहभंग तो उनकी शायरी में स्वाभाविक था ही, लेकिन यह सहज नहीं था कि वह एकदम से प्रगतिशील भी नज़र आये. इस लिहाज़ से भी ग़ालिब के रचनाकर्म को प्रकाश में लाने के कुछ रास्ते तो हैं ही.

समाजी, सियासी और सांस्कृतिक उथल-पुथल

भारत में राजनीतिक उथल-पुथल का आलम यह था कि मिर्ज़ा ग़ालिब अपनी आंखों से बहुत कुछ टूटता देख रहे थे. ब्रितानी सत्ता पिछली सत्ताओं के कई प्रतीकों, दिल्ली की पहचान रहे कई नामों और पहचानों को तबाह कर रही थी. दिल्ली के लिए ग़ालिब की तड़प हो या उनके दिल में दिल्ली की टूटन, कई शेरों में पुरअंदाज़ बयान होती रही.

रोज़ इस शहर में एक हुक्म नया होता है
कुछ समझ में नहीं आता कि क्या होता है

वास्तव में, ये अशआर उस दौर के सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक संकटों के इशारे के रूप में इतिहास के हिस्से भी समझे जा सकते हैं.

न हो बहरज़ा बयाबां नवर्दे-वहमे-वजूद
हनोज़ तेरे तसव्वुर में है नशेब-ओ-फराज़

इससे पिछले शेर में जिस तरह शहर को हम जिंदगी या नियति के तौर पर समझ सकते हैं, उसी तरह इस शेर के भी आध्यात्मिक पहलू हैं. एक दार्शनिक व्याख्या के ख़िलाफ़ ये पंक्तियां समझी जाती हैं, लेकिन मजाज़ी तौर पर इस शेर को इन अर्थों में भी देखा जा सकता है कि हमारे दिमाग में असमानता को पोसने वाले संस्कार कई सच्चाइयों को स्वीकार करने में रोड़ा बन जाते हैं. हम एक रटी हुई ज़ुबान बोलते हैं. यक़ीनन इस तरह की सोच 19वीं सदी के जनजीवन में प्रमुख लक्षण के तौर पर थी. 19वीं सदी भारत में बड़े सांस्कृतिक परिवर्तन के लिहाज़ से भी उल्लेखनीय थी.

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ग़ालिब की उम्र के पूर्वार्द्ध के समकालीन राजा राममोहन राय औेर उत्तरार्ध के समकालीन ज्योतिबा फुले के सुधारात्मक विचारों की एक लहर थी. ऐसे समय में एक शायर का प्रगतिशील हो जाना क्या मायने रखता है? यह बड़ी घटना इसलिए भी था कि ‘ग़ज़ल’ जैसी विधा को तब तक ऐसे काव्य रूप का दर्जा न मिल सका था, जिसमें समाज, सियासत या समय की कड़वी सच्चाइयों को दर्ज किया जाए. ‘पर्दा प्रथा’ के उस दौर में ग़ज़ल को नाज़ुक, रूमानी ख़याल, एक ‘पर्दादार शर्मीली और सुंदर औरत’ के हवाले से ही बखाना जाता रहा. एक बड़ा वर्ग अब तक इस तरह की सोच की पैरवी करता है. उस समय तो ग़ज़ल या शेर में इस तरह के विषयों को उठाना ही किसी क्रांति से कम न था! ‘हुआ है शह का मुसाहिब’ जैसे शेर इस बात की गवाही देते हैं. मिर्जा ग़ालिब की शायरी में उनका समय और समाज तल्ख़ी के साथ दर्ज होने से भी परहेज़ करता नहीं दिखता.

बादशाही का जहां ये हाल हो ग़ालिब तो फिर
क्यों न दिल्ली में हर एक नाचीज़ नवाबी करे

यह भी याद रखना चाहिए कि 19वीं सदी में ही हिंदी और उर्दू के बीच दीवार खड़ी करने की कोशिशें की जा रही थीं. पहले बंगाल की ज़मीन से दोनों भाषाओं के बहाने अंग्रेज़ों की ‘डिवाइड एंड रूल’ पॉलिसी सामने आती है, धीरे-धीरे आधिकारिक भाषा फ़ारसी का विरोध, लिपि पर वबाल और फिर सदी के उत्तरार्ध में खड़ी बोली आंदोलन में तेज़ी. इस पूरे विषय में उपनिवेशवाद की सांप्रदायिक साज़िश को भी ग़ालिब भांपते हैं और उनके कुछ प्रसंग इस सिलसिले में मिलते हैं, जब वह भाषाओं को लेकर सत्ता से लगभग टकराते हैं. परिवर्तन और क्रांतियों के ऐतिहासिक समय में ग़ालिब अपने इल्हाम, ईगो और विद्रोही तेवरों के चलते ख़ुद भी इतिहास होते जाते हैं.

पश्चिम के आंदोलनों की रोशनी में ग़ालिब

ऐतिहासिक तौर पर धर्म की बड़ी सत्ता रही. इस सत्ता ने दुनिया के इतिहास में सर्वाधिक नरसंहार और रक्तपात किया. जब भी इसे चुनौती दी गयी, यह तिलमिलाती सी दिखी. गैलिलियो से लेकर न्यूटन तक. न्यूटन के एक सदी बाद चार्ल्स डार्विन इस सत्ता को हिलाता है. जीवन के विकास के सिद्धांत के ज़रिये दुनिया के बनने की तमाम धार्मिक मान्यताओं को ढकोसला साबित करता है. देखते ही देखते खलबली मच जाती है. विज्ञान की लौ से सांप्रदायिकता के अंधेरे जलने लगते हैं. उस वक़्त इंटरनेट जैसी कोई चीज़ होती तो ग़ालिब की शायरी के मुरीदों में डार्विन का इक़रारनामा भी होता!

हमको मालूम है जन्नत की हक़ीक़त लेकिन
दिल के ख़ुश रखने को ग़ालिब ये ख़याल अच्छा है

दुनिया उस वक़्त चूंकि बहुत बड़ी थी इसलिए किस कोने में, कौन, किसका हमख़याल था या रहा, अरसे में मालूम चलता. नियति यह थी कि उस सदी के दूसरे क्रांतिदूत मार्क्स तक ग़ालिब का यह शेर पहुंच गया. अंग्रेज़ी सत्ता भारत के कुछ चुनिंदा कवियों के कलाम को अनुवाद करवाकर इंग्लैंड पहुंचाया करती थी. ऐसी ही किन्हीं फाइलों में यह ‘जन्नत की हक़ीक़त’ मार्क्स को मिल गयी. वह क़ायल हो गया. अपरिचय की स्थिति में भले ही मार्क्स ने ग़ालिब से अपने आंदोलन पर समर्थन मांगा और बुढ़ापे में थके ग़ालिब ने उल्टे उन्हें नसीहतें भले ही भेज दीं लेकिन इस क़िस्से से दोनों के बीच एक तार यह पकड़ा जा सकता है कि सोच में कहीं दोनों टकरा रहे थे.

ज़बाने अहले ज़बां में है मर्ग़ ख़ामोशी
ये बात बज़्म में रोशन हुई ज़बानिए शम्अ

मार्क्स जिस तरह आवाज़ उठाने की अपील कर रहा था, उसे ग़ालिब पहले ही दर्ज करते हुए मिल जाते हैं. इस प्रसंग से अर्थ थोड़ा साफ होना चाहिए. ‘जब आंख ही से न टपका तो फिर लहू क्या है’, जैसे तेवर उछालने वाले ग़ालिब को डार्विनिस्ट या मार्क्सिस्ट कहना क्या जायज़ होगा? अपने निधन से चार साल पहले बीमारी और बुढ़ापे की हालत में 1865 में एक ख़त में ग़ालिब ने लिखा :

"मुझे ख़ुदा ने इतना न दिया, वरना आरज़ू थी कि मैं तमाम दुनिया की मेहमाननवाज़ी करता और अगर पूरी दुनिया को कुछ न खिला-पिला पाता, तो कम से कम इस शहर में तो कोई भूखा नंगा न रहता."

एक दर्दमंद दिल के इस ख़याल को क्या हमें वैचारिक साम्यता के तौर पर देखना चाहिए? ग़ालिब को इस तरह मार्क्सिस्ट साबित करना मज़ाक होगा. मार्क्सवादी विद्वान एजाज़ अहमद ने भी जब ग़ालिब की शायरी के अंग्रेजी अनुवाद किये तो उन्होंने भी ऐसे किसी पुरज़ोर दावे से परहेज़ ही किया. अस्ल में, एक तो ग़ालिब पूर्ववर्ती हैं, दूसरे उनके परिवेश के समाजी और सियासी हालात के साथ ही जीवन की उलझनें और दर्शन के अंतर भी महत्वपूर्ण हैं. बेशक सोच या ख़याल का टकराना एक घटना के तौर पर देखा जा सकता है, फिर भी इस आधार पर कोई वैचारिक संबंध घोषित करने से पहले पर्याप्त शोध व प्रमाण ज़रूरी होंगे.

‘बाज़ीचा-ए-अतफ़ाल है दुनिया मेरे आगे’ जैसे तेवर वाला यही शायर ‘मैं हूं अपनी शिकस्त की आवाज़’ और ‘कौन जीता है तेरी ज़ुल्फ़ के सर होने तक’ जैसे तसव्वुर और भी शिद्दत से रखता है. एक एक्टिविस्ट और एक शायर में यही फ़र्क भी है. एक स्टैंड या मोर्चे पर डटे रहने के बजाय शायर एक ज़िंदा-जावेद, धड़कता दिल होता है. शायरी को स्टैंड नहीं पूरी ज़िंदगी क़रार देता है. दिल-दिमाग़-रूह के तमाम रंगों को महसूसता हुआ. जो आम इंसान के हक़ में लड़ता है, वही आम इंसान की तरह टूटकर कहता है, ‘रोएंगे हम ज़ार-ज़ार कोई हमें रुलाये क्यूं’. इस तरह कह पाना डार्विन या मार्क्स के बस में था? ग़ालिब किसी ख़ेमे, किसी धारा या किसी वर्ग के नहीं बल्कि भरपूर जीवन यात्रा के शायर थे, हैं.