मंगलवार, दिसंबर 12, 2017

चिट्ठी

दिल दे चुके हैं आपको, और क्या दें दिलीप साहब..?


सालगिरह के मौक़े पर लिविंग लीजेंड फ़नक़ार दिलीप कुमार के नाम एक दीवाने का ख़त


दिलीप साहब,
आदाब, सादर चरण स्पर्श

कहां से छेड़ूं फ़साना, कहां तमाम करूं... आपको ख़त लिखने बैठा हूं तो यही पसोपेश है। आपको याद होगा कि एक मशहूर इंटरव्यू में आपने यह शेर बतौर अपनी गायकी का सबूत अदा किया था। जबसे आपकी आवाज़ में तरन्नुम में सुना है ये शेर, कई जगह कोट करता रहा हूं। कुछ तो इस शेर की ख़ूबी है लेकिन मुझे यह अज़ीज़ इसलिए हुआ कि मैंने आपसे, आपकी आवाज़ में सुना जब आपसे गाने की फ़रमाइश की गयी। कोई और एक्टर होता तो शायद अपनी फिल्म का अपने पर ही फिल्माया हुआ कोई गाना गा देता लेकिन आप दिलीप साहब हैं। आपकी बात और है, आपका अंदाज़ और है। मैं जानता हूं कि आप शायरी के चाहने वालों में रहे हैं और माशा अल्लाह ख़ुद भी एक शायर रहे हैं। लेकिन, हमारी बदक़िस्मती रही कि एक शायर के तौर पर हम आपको उस तरह समझ नहीं सके जिस तरह दरकार था। आप उर्दू, हिन्दी और अंग्रेज़ी बोलने, बरतने में जो महारत रखते हैं, वो एक जादू जैसा असर करने वाला ज़ाविया रहा है मेरे लिए। कितने कम कलाकार हैं, फिल्म इंडस्ट्री में, जो इस तरह बात कर सकते हैं। उनमें आप सिर्फ़ एक ही हैं।

Dilip Kumar's roles. image source: Google

मुग़ले-आज़म की बात करना चाहता हूं। एक ऐसी फिल्म जो बचपन से अब तक सौ से ज़्यादा बार देखी है, कैसेट में सुनी है और रेडियो पर भी। कह सकता हूं कि ज़बानी याद है। आपकी एक-एक अदा, आवाज़ का उतार-चढ़ाव, आंखें, भ्ज्ञंगिमाएं और चाल सब कुछ हर बार मुझे किसी तिलिस्म में बांधता रहा है। अपनी शायरी में कुछेक दफ़्अ इस फिल्म के हवाले महफ़ूज़ कर सका हूं लेकिन भरोसा है कि अभी और कई बार करूंगा। अक्सर सोचा कि आपका कोई समकालीन इस क़िरदार को इतनी ख़ूबी से निभा ही नहीं सकता था। यही क्या, आपके निभाये लगभग सभी क़िरदारों में किसी और का तसव्वुर ही मुमकिन नहीं हो पाता। गंगा जमुना, दीदार, दाग़, अमर, देवदास, संघर्ष कितने ही क़िरदार हैं जो आपने अमर कर दिये। मैं शर्तिया कह सकता हूं कि ये क़िरदार किसी और अदाकार ने अदा किये होते तो इतने पुरख़ुलूस और पुरअसर ढंग से यादों में नहीं रह पाते।

आपकी रेंज का क़ायल रहा हूं। ट्रैजडी किंग का ख़िताब हासिल कर लेने के बाद आपने कॉमेडी की तो कमाल किया, सलीम और देवदास से एक दीवाने आशिक़ की इमेज पायी तो सगीना महतो जैसा जनवादी और यथार्थपरक क़िरदार ऐसे जिया जिसका सानी नहीं, दाग़ का शराबी, दीदार का नेत्रहीन और अमर का एक मनोरोगी आपने जिस परिपक्वता और दूरदर्शिता के साथ प्ले किये, उसकी दाद कला को समझने वाला हर शख़्स देगा। आने वाले तमाम कलाकारों के लिए एक बड़ा पैमाना तो बनाया ही, आपने एक गाइडलाइन भी दी कि ऐसे निभाये जाते हैं ऐसे रोल। इसकी एक बड़ी और सच्ची मिसाल तो यही है कि देवदास आपसे पहले से आज तक दर्जनों अदाकार निभा चुके लेकिन देवदास की असली पहचान का नाम दिलीप कुमार ही है।

मुझे हमेशा लगता रहा है कि आपके समकालीन रहे हों, पूर्ववर्ती या परवर्ती, आपसे बेहतर अभिनेता हिंदी फिल्म जगत तो क्या भारतीय फिल्म जगत ने नहीं देखा। कहना नहीं चाहिए लेकिन मेरे एहसास की सच्चाई है कि अंदाज़ में राज कपूर साहब, इंसानियत में देव साहब, मुग़ले-आज़म में पृथ्वीराज साहब और सौदाग़र में राज कुमार साहब पर आप बिलाशक़ बीस साबित हुए। अमिताभ बच्चन साहब के इस जुमले से इत्तेफाक़ कौन कमबख़्त नहीं रखेगा कि - "जो अभिनेता यह कहता है कि वह दिलीप कुमार साहब से प्रभावित नहीं रहा है, वह झूठ बोलता है"।

मुसाफ़िर में आपने एक गीत को अपनी आवाज़ दी थी - लागी नाहीं छूटे रामा चाहे जिया जाये... लता जी के साथ आपने यह गीत गाया था। जिसे पता न हो कि यह गीत आपने ख़ुद ही गाया है, वह अगर सुन ले तो शायद यही समझे कि किसी प्रशिक्षित और दक्ष गायक ने गाया है। फिर आपका वही इंटरव्यू, जिसमें आपने फ़रमाइश पर एक ग़ज़ल के कुछ शेर सुनाये थे। अक्सर सोचता रहा कि फिल्मी अभिनेताओं के साथ आत्ममुग्धता के क़िस्से जुड़े रहे हैं। लेकिन, बावजूद इस हुनर के आपने अपने स्टारडम का उपयोग गायकी के लिए नहीं किया। और, गिने-चुने मौकों पर ही अपनी आवाज़ गीतों को दी। आपके संयम और कला के प्रति समर्पण को प्रणाम।

यूं कहता रहूं तो जाने क्या-क्या कहता चलूं लेकिन यह ज़रूर कहना चाहता हूं कि मुझे कभी ऐसा महसूस नहीं हुआ कि मैं कभी आपसे मिला नहीं या हम एक-दूसरे से अजनबी रहे हैं। यही महसूस हुआ है कि आपके साथ बेहतरीन और बहुत वक़्त गुज़ारा है। उम्र में तो आप मेरे दादू के बराबर होंगे लेकिन कहीं ऐसा लगता रहा है कि आपके बचपन में मैं भी कहीं बच्चा था, आपकी जवानी में आपके साथ मैं जवान हुआ था और आपके सफ़र में कहीं-कहीं आपके साथ रहा।

उम्र बरसों में नहीं होती, आप जानते हैं। आप अमर हो चुके हैं, यह भी आप जानते हैं। सालगिरह की मुबारकबाद देता हूं आपको लेकिन दुख होता है कि एक अरसे से आपको काफ़ी तक़लीफ़ रही है। जैसे देने वाला उस सब की क़ीमत वसूल रहा है, जो आपको दिया उसने। इस पूरे मंज़र में वो ही ख़ुदगर्ज़ लगता है, क्यूंकि आप तो ख़ामोशी से वो क़ीमत भी अता कर रहे हैं। आपको कष्टों से मुक्ति मिले, यही दुआ है। जानता हूं सालगिरह पर इस तरह की दुआ देने का रिवाज नहीं है लेकिन क्या करूं, जो अज़ाब दे रहा है, उसे शर्मिंदा करना चाहता हूं। आप हमेशा थे, हैं और हमेशा रहेंगे। हम अपने बच्चों को बता रहे हैं कि आपने क्या क़रिश्मे किये। उनसे वादा लेकर ही जाएंगे हम कि वो भी अपने बच्चों को बताएं कि दिलीप कुमार होने के मआनी क्या होते हैं।

हमें और कई नस्लों को ख़ुशक़िस्मत होने का मौक़ा दिया आपने दिलीप साहब। तहेदिल से शुक्रिया। एक मेरे नाना थे, जो आपकी हर फिल्म देखने के लिए ट्रेन से तक़रीबन सौ मील का सफ़र करते थे, क्यूंकि उनके क़स्बे में उस वक़्त कोई सिनेमा हॉल नहीं था। नाना ने अपने बेटे यानी मेरे मामा का नाम दिलीप सिर्फ़ इसलिए रखा था क्यूंकि वो मोहम्मद युसूफ़ ख़ान को दिलीप कुमार के नाम से जानते थे और आपसे मुहब्बत करते थे। मेरे नाना ही नहीं, जाने कितने ऐसे दीवाने रहे आपके। शायद आपको कोई अंदाज़ा भी हो लेकिन इन दीवानों की संख्या और दीवानगी के पूरे हाल से तो आप ख़ुद भी वाकिफ़ नहीं होंगे।

आपके जादू में गिरफ़्तार मैं, आपके तमाम चाहने वालों की जानिब से आपको शुक्रिया भेज रहा हूं। जानता हूं यह बहुत बोरिंग और बेमानी लफ़्ज़ बन चुका है और इस लफ़्ज़ को मआनीख़ेज़ बनाने के लिए ही पहले इतना कुछ कहना लाज़िमी था। हमारी तरफ़ से एक सच्चा और एहसासों में पुरनम शुक्रिया क़ुबूल फ़रमाकर इनायत करें हम पर। ज़िंदाबाद, ज़िंदाबाद, दिलीप कुमार ज़िंदाबाद।

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शनिवार, दिसंबर 09, 2017

सिनेमा

कट्टरपंथ के निशाने पर फिर कला जगत


अब समाज को तय करना ही होगा कि वह किसके पक्ष में है - कला और स्वतंत्रता के या अराजक व्यवस्था और लचर सियासत के? हम अपने सम्मान, मूल्यों एवं औचित्यों के साथ मज़बूती से खड़े हों या हाथ में तलवार अथवा बंदूक लेकर हर आवाज़ के क़ातिल बन जाएं?


सोच में जब भी हार जाता है
वो मुझे गोली मार जाता है।

पहलाज निहलाणी साहब के विदा होने के बाद प्रसून जोशी जी आये। ऐसा लगा कि अब बेहतर कार्यशैली नज़र आएगी। लेकिन, भंसाली जी की फिल्म से जुड़े नये विवाद के स्पष्ट हो गया है कि सेंसर बोर्ड एक विचारधारा विशेष के कुछ समूहों व संगठनों के इशारे पर ही थिरक रहा है। जोशी जी की चुप्पी, निष्क्रियता एवं अस्पष्टता देखकर लगता है कि वे दिन हवा हो चुके जब राष्ट्रीय फिल्म प्रमाणन बोर्ड को सेंसर बोर्ड कहा जा सकता था। अब तो यह केवल नॉनसेंस बोर्ड प्रतीत होता है जो अपना औचित्य एवं प्रासंगिकता दरकिनार कर चुका है, प्रतिष्ठा तो ख़ैर बात ही दूर की है।

संजय लीला भंसाली साहब हमारे समय के प्रमुख एवं प्रतिष्ठित फिल्मकारों में शुमार हैं। यह और बात है कि मैं ज़ाती तौर पर पिछले लंबे समय से उनकी फिल्मों से निराश हूं लेकिन उनकी अपनी एक शैली और नज़रिया है, जिसके कारण उनका नाम सम्मान का हक़दार है। भंसाली साहब की आगामी फिल्म पर विवाद हो रहा है। मैं दरअस्ल, एक ऐसे मोड़ के इंतज़ार में था, जो इस विवाद की काली सुरंग में संवाद का प्रकाशद्वार खोले। लगभग दो महीने से चल रही हमाहमी के बाद यह मौक़ा नसीब हुआ।

एक अहम बयान आया बॉम्बे हाईकोर्ट की जानिब से जिसमें साफ कहा गया है -

"यह दुख की बात है कि एक व्यक्ति फिल्म बनाता है और सैकड़ों लोग दिन-रात काम करके उसे पूरा करते हैं, लेकिन लगातार मिल रही धमकियों के चलते फिल्म रिलीज नहीं हो पा रही है। यह एक अलग किस्म का सेंसर बोर्ड है। हम कहां पहुंच गए हैं? कोई खुलेआम धमकी दे रहा है कि जो भी अभिनेत्री को जान से मार देगा, उसे इनाम दिया जाएगा। यहां तक कि एक मुख्यमंत्री कह रहे हैं कि वह अपने राज्य में फिल्म को रिलीज नहीं होने देंगे। इससे देश का नाम खराब हो रहा है। हमारी चिंता देश के लोकतंत्र एवं छवि को लेकर है।"

इस बयान के पार्श्व में गोविंद पानसरे और नरेंद्र दाभोलकर की हत्या के मामले में जांच एजेंसियों के रवैये और समाज के बुद्धिजीवी वर्ग के सदस्यों की हत्या जैसी घटनाओं के प्रति दुख एवं रोष भी शामिल है। हाईकोर्ट की उपरोक्त टिप्पणी कुछ ज़रूरी पहलुओं पर सोचने के साथ ही एक किस्म की अराजकता के खिलाफ आवाज़ उठाने के लिए प्रतिबद्ध होने की दिशा दिखाने के लिहाज़ से महत्वपूर्ण है। तीन बिंदुओं पर फोकस करता हूं -

पहला
कोई संगठन खुलेआम किसी कलाकार की हत्या पर इनाम घोषित कर रहा है और टीवी पर यह बयानबाज़ी दिखायी जा रही है लेकिन उस व्यक्ति के खिलाफ कोई ठोस कार्रवाई नहीं की जा रही। कलाकार और उसके परिवार को सुरक्षा दी जा रही है।

यह व्यवस्था की स्पष्ट नपुंसकता है। हिंदू हो या मुसिल्म या किसी और धर्म से संबंधित, व्यक्ति हो या संगठन, कोई भी इस प्रकार की धमकी खुलेआम देता है तो साफ़ ज़ाहिर होता है कि निशाने पर लिये गये व्यक्ति के लिए नहीं बल्कि पूरी व्यवस्था और सत्ता के लिए यह खुली चुनौती है। और ऐसे मामले में यदि सत्ता निष्क्रिय एवं निष्प्रभावी नज़र आती है तो दो ही कारण हो सकते हैं - या तो सत्ता नपुंसक है या फिर इसमें सत्ता की मिलीभगत है।

दूसरा
किसी राज्य के मुख्यमंत्री द्वारा यह बयान दिया जाना कि हम अमुक फिल्म को राज्य में रिलीज़ नहीं होने देंगे, यह किस तरह की मानसिकता का परिचायक है? अब तक ऐसी कोई पुष्ट खबर नहीं है कि यह बयान उन मुख्यमंत्री जी ने फिल्म देख लेने के बाद दिया है।

कला में राजनीति नहीं होनी चाहिए। लेकिन राजनीतिक लाभ के लिए, एक संप्रदाय विशेष की भावनाओं को उकसाकर अपना उल्लू सीधा करने के लिए राजनीति का यह कदम घिनौना होता है। ऐसी संकुचित और अपरिपक्व मानसिकता वाले बयान देने वाले राजनेताओं का सार्वजनिक रूप से इम्तिहान लिया जाना चाहिए और उनसे इतिहास, कला एवं साहित्य की समझ संबंधी प्रश्न खुले मंच से पूछे जाने चाहिए। उनकी योग्यता को परखा जाना चाहिए।

तीसरा
फिल्म के कलाकारों और हालिया अतीत में लेखकों व पत्रकारों को हत्या की धमकी दिया जाना, क़त्ल कर दिया जाना लोकतंत्र की किस छवि का निर्माण करना है? देश का नाम और पहचान विश्व में किस तरह से बन रही है?

सहिष्णुता, अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और सर्वधर्म समभाव जैसे शब्द कागज़ी मालूम होते हैं जो भारत की एक ग्लोबल छवि प्रस्तुत करने के लिए इस्तेमाल किये जाते हैं। ऐसे प्रसंग आने पर यह कोरा झूठ साबित हो जाता है। हम एक हिंसक, पक्षपाती एवं सांप्रदायिक सोच का मुज़ाहिरा करते हैं। हाईकोर्ट ने यह भी कहा है कि कलाकारों और बुद्धिजीवियों को धमकाने से देश की छवि खराब होती है। चिंता का विषय यह है कि देश का चरित्र कितना अच्छा है जो इसे छवि की चिंता हो? जो लोग छवि एवं चरित्र का नुकसान कर रहे हैं, वे यह भूल रहे हैं कि बुद्धिजीवी और कलाकार ही इस तस्वीर को अंजाम देते हैं। वैसे भी, अयोग्य चेहरों को पद एवं सम्मान देने वाली यह सरकार अपनी बौद्धिक कंगाली समय-समय पर साबित कर चुकी है।

गांधी जी ने कहा था - "एक लेख का उत्तर दूसरा लेख ही हो सकता है।"

यह भी विचारणीय बिंदु है कि कोई सरकार क्या गांधीजी से सिर्फ स्वच्छता का सबक ही सीखेगी, बाकी कुछ नहीं? अहिंसा, सत्य, स्वाबलंबन आदि शिक्षाएं भी गांधीजी ने दी हैं लेकिन ये क्यों नहीं सीखी जा रहीं? क्या ये सबक किसी सरकार की ब्रांडिंग के आड़े आते हैं? या उस सरकार पर कोई दबाव है कि आप हर अच्छी बात गांधीजी से ग्रहण नहीं करेंगे?

बहरहाल, गांधी जी के कोट की ज़बान में कहूं तो एक फिल्म का उत्तर उसकी समीक्षा व आलोचना या दूसरी फिल्म ही हो सकती है। कोई धमकी या अंकुश नहीं। और जैसा पहले हो चुका है, कलाकार के सीने पर गोली तो कतई नहीं। संस्कृति का हल्ला मचाने वालों को यह समझना चाहिए कि संस्कृति से पहले होती है सभ्यता। अगर आप सभ्य समाज ही नहीं हैं तो आपके मुंह से संस्कृति शब्द सिवाय बकवास के कुछ नहीं है।

शनिवार, दिसंबर 02, 2017

एक फ़नकार

ये वो नज़्म है जो भूली नहीं जाती


29 नवंबर को यौमे-पैदाइश पर ख़िराजे-अक़ीदत


फ़ैज़ और साहिर, मजरूह जैसे शायरों के समकालीन और उर्दू अदब के एक बेहद नायाब शायर अली सरदार जाफ़री; सोवियत लैंड नेहरू अवार्ड, पद्मश्री और भारतीय ज्ञानपीठ से उर्दू शायर के रूप में नवाज़े जा चुके अली सरदार जाफ़री; तरक़्क़ीपसंद तहरीक़ की शायरी की शक़्ल रचने वाले बेमिसाल शायर अली सरदार जाफ़री... कई परिचय हो सकते हैं इस फ़नक़ार के लेकिन मेरे लिए नजि़्मया शायरी के शहंशाह का नाम है अली सरदार जाफ़री।


कहां से छेड़ूं फ़साना कहां तमाम करूं... इसी पसोपेश में हूं सरदार और उनकी नज़्मों का ज़िक्र करने बैठा हूं तो। मेरे कुछ दोस्त और अज़ीज़ आपको गवाही दे सकते हैं कि पिछले कई बरसों से सरदार की नज़्म "मेरा सफ़र" मैं अक्सर सुनाता रहा हूं और मुझसे यह नज़्म सुने बिना दोस्तों की बहुत सी महफ़िलें उठी नहीं हैं। बरसों का रिश्ता बन चुका है इस नज़्म से। ज़बानी याद है और कई बार अकेले में इस नज़्म को दुहराता रहा हूं। कभी इसने हौसला दिया है तो कभी यक़ीन, कभी ताक़त तो कभी सूरते-तख़लीक़।

Ali Sardar Jafri. image source: Google

सरदार के ही समकालीन रहे हिन्दी के विराट् कवि नरेश मेहता। मेहता जी ने एक अमर काव्य लिखा है "महानिर्वाण"। इसके पन्ने पलटने पर पता चलता है कि इसमें और सरदार की नज़्म "मेरा सफ़र" में कई स्तरों पर कितना जुड़ाव है। बस भाषा का मिज़ाज अलग-अलग है। मेहता जी अपनी शैली में जिस अमरत्व और कालजयत्व का ज़िक्र कर रहे हैं, इंसान की उसी सत्ता और इंसानियत की उसी जाविदानी को रेखांकित कर रहे हैं सरदार। एक ऐसी नज़्म जिससे गुज़रकर उसे भुलाया जाना एक गुनाह से कम नहीं। मौत से शुरू होती और ज़िंदगी तक आती यह नज़्म अमरता पर मुक़म्मल हो जाती है। यह भारत के हर समय में पल्लवित हुए दर्शन का एक ऐसा कोण है जो इस नज़्म में सरदार ने पूरी शिद्दत के साथ इस तरह बुन दिया है कि एक बारीक़ दर्शन का समझने के लिए आपको मोटे-मोटे ग्रंथ न खंगालने पड़ें।

नज़्मों का ख़याल आते ही हमारे ज़हन में पहला नाम फ़ैज़ का गूंजने लगता है। मैं यह नहीं कहता कि ऐसा होना ग़लत है। और, ये भी एक हिमाक़त ही होगी कि मैं फ़ैज़ और सरदार के बीच किसी किस्म की तुलना करने लगूं। दरअस्ल, बात यह है कि फ़ैज़ की शायरी पूरी तरह से अवामी शायरी है। फ़ैज़ चूंकि सीधे तौर पर कम्युनिस्ट पार्टी से जुड़े और पाकिस्तान में तो इसके संस्थापकों में रहे तो जनगीतों या नारा बनने वाली शायरी की आवाज़ बने फ़ैज़। उनकी नज़्में भी गायी गयीं और बड़ी सहजता के साथ अवाम में घुल-मिल गयीं।

दूसरी तरफ़, सरदार की नज़्में अपने आकार में, अपनी लय में और अपनी सूरत में ज़रा ज़्यादा मुश्किल मालूम होती हैं। अब यह मुश्किल नाजायज़ नहीं है क्योंकि इनमें गंभीरता और बारीक़बयानी कम नहीं। सरदार की नज़्मों ने नारों की शक़्ल अख़्तियार नहीं की। किसी पार्टी या विचारधारा विशेष का झंडा लेकर जुलूस की अगुआ नहीं बनीं लेकिन ये अवाम की नज़्में नहीं हैं, ऐसा नहीं है। अवाम में गयीं, लेकिन अदब के साथ, बेतक़ल्लुफ़ी के साथ नहीं, रखरखाव के साथ। सज्जाद ज़हीर कहते हैं -

"सरदार जाफ़री की बड़ी कविताओं में बड़ी दीवारी चित्रकारी का आनंद है। उनके शब्द शक्तिशाली हैं, उनकी लय जोश से भरी हुई है, निश्चित रूप से उनकी शैली उपदेशकों जैसी है... क्या रूमी की मसनवी का, मीर अनीस के मर्सियों का, इक़बाल के शिक़वे का, शेक्सपियर के नाटकों का अंदाज़ उपदेशकों जैसा नहीं है..?"

प्रभाव के स्तर पर सरदार की नज़्में उतनी ही कामयाब हैं जितनी फ़ैज़ या किसी और कामयाब शायर की हैं या हो सकती हैं। सरदार ने अपनी नज़्मों में अपनी विश्व दृष्टि को भरपूर जगह दी है और उनकी नजि़्मया शायरी के हवाले से स्पष्ट कहा जा सकता है कि वह समाजवाद जैसी अवधारणा में विश्वास रखते रहे और पूंजीवाद के ख़िलाफ़ रहे। "एशिया जाग उठा", "हाथों का तराना" जैसी नज़्में इस बयान की तस्दीक़ करती हैं।

"पत्थर की दीवार", "भूखी मां भूखा बच्चा", "अनाज" और "एक ख़्वाब और" जैसी नज़्मों के रूबरू आते ही कोई भी पाठक सरदार की आवाज़ की सच्चाई को दिल में ख़ंजर की तरह उतरता हुआ पाता है। अपने समय के सच को पकड़कर शब्दों में घोल देना और आने वाले समय के लिए कई इशारे उन शब्दों के बीच के ख़ाली वक़्फ़ों में छुपा देना सरदार की शायरी का एक ऐसा पहलू है जिसकी बदौलत दुनिया उन्हें याद रख सकेगी। सिद्दीकुर्रहमान किदवाई के शब्दों में -

"... दरअस्ल, प्रगतिशील आंदोलन इसी युग का प्रतीक है और सरदार जाफ़री की शाइरी के बग़ैर इस इतिहास को मुक़म्मल नहीं कहा जा सकता। इसी सिलसिले में उनकी नज़्म "नयी दुनिया को सलाम" इस युग के शे'री सरमाये में एक ख़ास मुक़ाम रखती है। ऐसी कोई दूसरी मिसाल उस ज़माने में हमें नहीं मिलती।"

चन्द मिसरों की नज़्मों से लेकर चन्द पन्नों तक की नज़्मों तक, सरदार हमेशा मेरे लिए उन ज़रूरी शायरों में रहे हैं और रहेंगे जो मेरे दिल के बहुत क़रीब हैं। मैंने जिनसे ज़िंदगी के कुछ दर्स हासिल किये हैं और कर रहा हूं। इन तमाम नज़्मों के शायर सरदार को सलाम करते हुए मैं फिर दुहराना चाहता हूं कि "मेरा सफ़र" एक ऐसी नज़्म है, जिसे अदब और शायरी के हर चाहने वाले को अपनी ज़िंदगी में ज़रूर पढ़, समझ और कंठस्थ कर लेना चाहिए।

..और सारा ज़माना देखेगा हर क़िस्सा मेरा अफ़साना है
हर आशिक़ है सरदार यहां हर माशूक़ा सुल्ताना है...