बुधवार, मार्च 29, 2017

एक फ़नक़ार

जो नहीं भूल पाया कई आंसू...


भोपाल में जिस दौर में हमारा बचपन गुज़र रहा था और नौजवानी बाहें फैला रही थी, उस दौर में भोपाल के अदबी गलियारों में नाम गूंजता था मरहूम जनाब इशरत क़ादरी साहब का। जवानी में उनसे कुछ मुलाक़ातें हुईं और मुलाक़ातें, जिन्हें यादों का उजाला कहते हैं। वही कुछ यादें हैं -


पुराने भोपाल में रहते थे क़ादरी साहब। मैं चूंकि हमीदिया कॉलेज का एल्युमिनाई हो गया था और मेरे पासआउट होने के बाद हमीदिया और एमएलबी कॉलेज की इमारतें आपस में बदल दी गयी थीं। तो, जहां पहले एमएलबी कॉलेज लगता था, वहां हमीदिया पहुंच गया, सो कॉलेज जाने का सिलसिला लगा ही रहता था। वहीं, कॉलेज से सटी एक गली में ध्यानसिंह तोमर राजा साहब का पुराना बड़ा मकान हुआ करता था और उसके सामने वाली गली में मेरा कभी जाना हुआ नहीं था।

एक रोज़ कॉलेज से लौटते वक़्त यूं ही दुपहिए का हैंडल मोड़ दिया कि देखूं तो इस गली में है क्या। देखता क्या हूं कि कुछ पुराने मकान के हिस्से हैं। बाहर खुले-खुले दालान या बरामदे कह लीजिए और जैसे तरतीब में बने अलग-अलग कमरानुमा मकान। किसी की आवाज़ सुनी जिसमें इशरत क़ादरी साहब का नाम लिया जा रहा था। एक बुज़ुर्ग एक कमरे से बाहर निकले और दो-तीन लोगों से मुख़ातिब हुए। मैं दुपहिए से एक चक्कर काटकर वापस आया तो वो लोग दुआ-सलाम करते हुए लौटते से लगे। मैंने फिर एक चक्कर काटकर उसी दरवाज़े के सामने दुपहिया रोक दिया।

एक अजनबी के तौर पर मिला जनाब क़ादरी साहब से। और यक़ीन मानिए कि कुछ ही लमहों बाद हम अजनबी नहीं थे। एक ठीक-ठाक तआरुफ़ के बाद कुछ बातें कीं और उनसे जल्द ही दोबारा मिलने आने का वादा कर मैं चला गया। मुतास्सिर हुआ मैं एक ऐसे शायर से मिलकर जिसका नाम सुना था और बड़े हासिल मुक़ाम शायर के तौर पर। लेकिन, मिलकर लगा कि घर के ही कोई बुज़ुर्ग हैं। पहली मुलाक़ात में ही मुझे गली के दूसरे तरफ बने उस घर के भी दर्शन करा दिये क़ादरी साहब ने जहां वो रहते थे। जिस जगह मुलाक़ात हुई थी, वह उनकी दिन भर की बैठक थी, एक छोटी सी लाइब्रेरी की शक़्ल लिये हुए वह जगह बहुत शांत और मुफ़ीद थी काम की बातें करने के लिए।

Ishrat Qadri

ख़ैर साहब अगली मुलाक़ात जल्द हुई और इस दफ़ा लगभग पूरा दिन हम बैठे रहे और दो-एक लोगों के बीच में दख़्ल देने के बावजूद हमने काफ़ी बातें की। सिलसिला ज़ाहिर है, ग़ज़ल से ही शुरू हुआ था। मैंने उनके कुछ नायाब शेर उनकी ज़ुबान से सुने और फिर जब उन्हें बताया कि ग़ज़ल कहने की कोशिश करता हूं तो उन्होंने हुक़्म दिया कि मैं सुनाउं कुछ। मैंने झिझक ज़ाहिर की तो कहने लगे, "बरख़ुरदार झिझकने की आदत शायर में होना नहीं चाहिए और फिर अकेले में क्या डर, ऐसे ही तो इल्म हासिल हुआ करता है"। कुछ हिम्मत बंधी और मैंने एक ग़ज़ल उनके हुक़्म पर अता की। बहुत दुआएं दीं उन्होंने मुझे और कहा "मुस्तक़बिल रोशन है और जिस तरह सीखने के सफ़र में हो, इसे हमेशा जारी रखना"।

शायरी के गुज़रे, मौजूदा और आइंदा कल को लेकर उनकी सोच व समझ बिल्कुल आसान और साफ़ थी। फ़रमाते थे कि "तरक़्क़ीपसंद तहरीक़ के ख़त्म होने के बावजूद अब भी उसकी जानिब शायरों का रुझान है और माशा अल्लाह मुस्तक़बिल रोशन होगा, बेहतर होगा, मुझे उम्मीद भी है और मेरी दुआ भी है"।

तरक़्क़ीपसंद तहरीक़ जिस दौर में अपने शबाब पर थी, उसी दौर में ही क़ादरी साहब की शायरी ने परवाज़ ली थी। 1926 की पैदाइश और 20 साल की उम्र से ही शायरी की उड़ान भरने वाले क़ादरी साहब बातों-बातों में 1948 के उस ऑल इंडिया मुशायरे की यादों में खो गये जिसमें उन्होंने पहली बार इतने बड़े स्तर पर क़लाम पढ़ा था। उस मुशायरे में साहिर लुधियानवी, मजरूह सुल्तानपुरी जैसे बावक़ार और कद्दावर शायर शरीक़ हुए थ। यहां तक कि उन्हें इस मुशायरे की तारीख़ तक याद थी, 18 फरवरी 1948। फिर गुफ़्तगू के दौरान मैंने पूछा कि आपकी ज़िन्दगी के सबसे यादगार पल कौन से रहे होंगे..। मेरा ख़याल था कि साहिर या मजरूह या ऐसे ही किसी नामवर शायर से मुतालिक़ वो किसी एनकाउंटर की बात करेंगे लेकिन जो उन्होंने कहा वो एक नया ही तजरुबा था।

फ़रमाने लगे "ज़िंदगी में कुछ वाक़ये ऐसे होते हैं जो आपके एहसासों में इस तरह घुल जाते हैं कि आपको ताउम्र अलग-अलग सत्हों पर ले जाते रहते हैं। ऐसा एक वाक़या तो वह था जब वालिद साहब से किसी ने झूठी शिकायत कर दी कि मैं शराब पीने लगा हूं। मुझ पर क्या गुज़री, तुम सोच भी नहीं सकते जब वालिद साहब मेरे पास आये बहुत देर तक रोते रहे। उनका रोना आज तक नहीं भुला सका मैं। वो आंसू अलग-अलग तासीर लेकर मेरे अंदर अब भी पिघलते रहते हैं"।

क़ादरी साहब चूंकि सिंचाई विभाग में नौकरी में रहे तो 1956-57 में हथाईखेड़ा में एक सर्वे के दौरान एक सांप के हमले से बाल-बाल बचे थे। यह घटना भी उनके यादगार लमहों में से थी। उन्होंने कहा था कि "मौत को इतने क़रीब देखने का ख़ौफ़ क्या होता है, मैं समझ पाया"। एक और दिलचस्प वाक़या उन्होंने यह बताया कि "तामोट में अपने साथियों के साथ कैंप था। वहां हमने शेर के बच्चों को छेड़ दिया था, बस यूं ही मज़े-मज़े में। अपने कैंप लौट आये और खाना-पीना व गुफ़्तगू चल रही थी। काफ़ी देर बाद हमारे कैंप में एक शेरनी आयी और उसने जिस तरह घूमकर और जिन आंखों से देखकर हमें ख़ौफ़ज़दा कर दिया था, वो भूलने की बात नहीं है। कुछ देर बाद वह चली गयी तो मुझे यही महसूस हुआ और होता रहा कि वह हमसे यही कहने आयी थी कि ख़बरदार..."।

कमाल का दिन था वो। क्या ख़ूब और कितनी सारी बातें हुईं। क़ादरी साहब से मिलकर एक अपनापन सा लगता था। एक और मुलाक़ात हुई उनसे, उसी जगह। दूसरी के कुछ रोज़ बाद। इस मुलाक़ात में उन्होंने मुझे अपने परिवार के बारे में बताया। न जाने किस रौ में उनसे मैं माज़रत के साथ पूछ बैठा कि कभी इश्क़ हुआ उन्हें? तो, ज़रा सा मुस्कुराकर पूरी दास्तान मेरे सामने खोलकर रख दी।

फ़रमाया - "1948-49 में भोपाल में ही थीं अख़्तर साहिबा। घर के पास ही रहा करती थीं और दूर के रिश्ते में भी थीं। उस ज़माने में ख़त लिखे जाते थे तो हमने भी एक-दूसरे को बेशुमार ख़त लिखे। ख़तों के ज़रीये ही इश्क़ परवान चढ़ता रहा। लेकिन, उनकी शादी कहीं और हो गयी। उनके लिखे ख़त मैंने अब भी संभालकर रखे हैं। लेकिन बहुत अफ़सोस होता है अब कि शादी के बाद जब उन्होंने मुझे मेरे लिखे ख़त लौटाये तो तैश में आकर मैंने वो जला दिये। अब सोचता हूं काश, न जलाये होते"।

यह दास्तान सुनाते-सुनाते उनकी आवाज़ भारी हो गयी थी। मैंने फिर मुआफ़ी मांगी। तो मेरे कंधे पर हाथ रखकर बोले कोई बात नहीं। कोई अच्छी ग़ज़ल कही हो तो अर्ज़ करो। मैंने एक ग़ज़ल और अता कर दी। सुबहान अल्लाह कहकर मेरे सर पे हाथ फेरा और बहुत शाबाशी दी। एक-दो सुधार बताकर कहने लगे "इस उम्र में ये फ़िक्र और तमीज़ है, बहुत उम्मीद जगाते हो बेटा"। और मैं शुक्रिया भी न कह सकता था। यह पहली बार मेरे साथ हो रहा था कि इतने बड़े शायर से मुझे दाद तो ख़ैर ठीक है, लेकिन इतनी अंतरंगता और मुहब्बत मिल रही थी। उस मुलाक़ात में जाते-जाते कहने लगे कि अब तुम भी मुझे अपने बेटे की तरह लगने लगे हो। आते रहना।

इसके बाद एकाध छोटी सी मुलाक़ात और रही। फिर कुछ बीमार थे क़ादरी साहब, तो एक बार उनकी ख़ैर-ख़बर लेने भी गया था। फिर ज़िंदगी ने एक अलग सफ़र दे दिया और भोपाल छूट गया कुछ वक़्त के लिए मुझसे। कुछ बरस बाद लौटा तो पता चला कि क़ादरी साहब नहीं रहे, कुछ दो बरस पहले। क़ादरी साहब अचानक कभी भी चले आते हैं मरे पास अब भी। कभी ग़ज़लें सुनाते हैं, कभी कोई दास्तान, कभी अपने तजरुबात से ज़िंदगी का कोई सबक़। एक शायर नहीं एक मुक़म्मल फ़नक़ार की सी शख़्सियत की तरह याद आते हैं मोहतरम जनाब इशरत क़ादरी। उनके शेर जो मुझे बरसों से याद रहते हैं -

हाथ में जब तक कलम था तजरुबे लिखते रहे
हम ज़मीं पर आस्मां के मशवरे लिखते रहे।

हमीं हैं वो जिन्हें आती है ज़िंदगी की अदा
सुलग रहे हैं दिलो-जां दिमाग़ रौशन हैं।

टूटकर दोस्तों से मिलते रहो
जाने किस मोड़ पर बिछड़ जाएं।

मैं उनसे और वो मुझसे इसलिए टूटकर मिलते रहे क्योंकि शायद वक़्त ने लिख दिया था कि हम यूं ही किसी मोड़ पर अचानक बिछड़ जाएंगे। फिर भी, ज़िंदगी की अदा उन्हें आती थी और इस क़दर आती थी कि अपने तजरुबों और मशबरों से कुछ-कुछ मुझे भी सिखाकर गये हैं। शुक्रिया क़ादरी साहब।

मंगलवार, मार्च 28, 2017

नोट्स

कामायनी - विद्वानों की दृष्टि में - अंतिम भाग


निम्नलिखित विचार अथवा लेख के लेखक का नाम मुझे याद नहीं और जिन कागज़ों पर ये लिखे मिले हैं, उनमें भी दर्ज नहीं। लेकिन जहां तक मेरी याददाश्त काम करती, संभवतः शचीरानी गुर्टू लिखित हो सकते हैं क्योंकि तुलनात्मक अध्ययन पर एक अद्भुत शोध पुस्तक उन्होंने लिखी है। फिर भी, यह मेरा अनुमान ही है। लेकिन, ये नोट्स बहुत दिलचस्प भी हैं और काम के भी -


जयशंकर प्रसाद और जर्मनी के महान साहित्यकार गेटे में वास्तव में काफी समानता है। दोनों के ग्रंथों के अनुशीलन से यह तथ्य तार्किक प्रतीत होता हैकामायनी से पहले इन दोनों ही महान कलाकारों की शुरुआती रचनाओं पर बात करें तो ऐसा लगता है कि जैसे प्रसाद के आंसू गेटे के ग्रंथ The sorrows of werther में भी बहुत गहरा संबंध है। गेटे और प्रसाद के विचित्र जीवन में जो करुण अनुभूतियां हुईं, जो आघात लगे और जो वेदनाएं तथा निराशाएं इकट्ठी हुईं वही दोनों ने इन कृतियों के माध्यम से अभिव्यक्त कीं।

...बेशक अंतर है, लेकिन तत्वों और अनुभूति के स्तर पर दोनों के सुर मेल खाते हैं। जैसे गेटे के फॉस्ट और प्रसाद की कामायनी को लेकर तालमेल दिखता है।

...हां तो, बात करते हैं फॉस्ट और कामायनी पर। असल में प्रसाद और गेटे की सबसे बड़ी उपलब्धि यह है कि उन्होंने मानव जीवन के तकरीबन हर पहलू को छुआ। और यह हुआ प्रमुख रूप से, कामायनी और फॉस्ट में। चित्रों में जैसे स्थूलता दिखायी दे और रेखाएं व बिंदु सूक्ष्म से सूक्ष्मतम होते जाएं। एक अद्भुत विचार और विश्व दृष्टि जैसे अभिीाूत कर दे।

...गेटे ने फॉस्ट में रहस्य को बखूबी अभिव्यक्त किया है, खासकर वह दृश्य जिसमें नायिका मारग्रेट से फॉस्ट कहता है कि उसे ईश्वर की सत्ता हर कण, हर क्षण में दिखती है। उसके अनुभव को नकारा नहीं जा सकता। 

...कविता केवल विचारों, विचारधाराओं या दर्शन की जटिल अर्थ प्रतीतियों का ही नाम नहीं है, वह सौंदर्य को भी साधती है और मत को भी, वह भावना को भी पोसती है और अभिमत को भी। अब यदि सौंदर्य की बात करें तो फिर प्रसाद को गेटे के साथ खड़ा करना ठीक नहीं क्योंकि गेटे के रचनाकर्म में सौंदर्य प्रमुख नहीं है जबकि रोमांसिज़्म के पोषक रहे प्रसाद इससे अधिक मोहित रहे हैं। इस दृष्टि से अंग्रेज़ी साहित्य के एक महान लेखक व कवि थॉमस हार्डी से प्रसाद का तालमेल समझा जा सकता है। प्रसाद जब प्राकृतिक सौंदर्य को देखते हैं तो वैचित्रृय उत्पन्न होता है -

अंतरिक्ष विशाल में है मिल रही
चंद्रमा पीयूष वर्षा कर रहा
दृष्टि पथ में सृष्टि है आलोकमय
विश्व-वैभव से धरा यह धन्य है।

हार्डी का प्रकृति चित्रण एक सूक्ष्म और अनुभवजन्य जगत से परिचय कराता है। जैसे -

The sky was clear - remarkably clear - and the twinkling of all the stars seemed to be but throbs of one body, timed by a common pulse.

यानी हार्डी का प्रकृति के प्रति आकर्षण बौद्धिकता से भी सराबोर है जबकि प्रसाद की प्रकृति के प्रति दृष्टि सम्मान व्यक्त करती हुई और चेतना का खुलासा करने वाली है।

दोस्तों, कामायनी पर विद्वानों के अभिमतों के इस सिलसिले को अभी यहीं समाप्त करते हैं। भविष्य में कभी फिर कुछ साझा करने योग्य प्राप्त करूंगा तो अवश्य करूंगा। साहित्य के किसी और विषय पर नोट्स लेकर जल्द ही हाज़िर होने के वादे के साथ।

सोमवार, मार्च 27, 2017

ग़ज़ल

तुम क्यूं ग़ज़ल कहो, मैं क्यूं ग़ज़ल कहूं..?


25 मार्च 2017 को ग़ज़लों के एक संकलन को मंज़रे-आम पर शाया किये जाने का जलसा हुआ जिसमें देश के कई कोनों से नये ग़ज़लगो शायर शामिल हुए। यह किताब चूंकि उन ढाई दर्जन शायरों की कुछ ग़ज़लों को पेश करती है जो ग़ज़ल की दुनिया में आमद दर्ज करा रहे हैं इसलिए इस मौके पर मेहमाने-ख़ुसूसी के तौर पर मैंने शायरी की दुनिया में कदम रखने वालों के लिए ग़ज़ल पर तक़रीर पेश की। उसी बयान के हिस्से -


- हिन्दी ग़ज़ल जैसी कोई चीज़ होती है, इस बात से मैं मुत्तफ़िक़ नहीं हूं। ग़ज़ल को भाषा के आधार पर या किसी ऐसे ही किसी और आधार पर बांटने का अर्थ सांप्रदायिकता बढ़ावा देना है और शायर या एक फ़नकार होने के नाते मैं तो इसका समर्थक नहीं हूं। ग़ज़ल कई भाषाओं में कही जा रही है, मराठी, गुजराती लेकिन यहां ग़ज़ल के विधान को बदलने या उसमें फेरबदल करने या अपनी सुविधानुसार उसका नामकरण करने की कोई चेष्टा नहीं है जबकि हिन्दी में तथाकथित लोग ऐसा करने की कोशिश में निरंतर लगे हुए हैं। नयी पौध के शायरों को गंभीरता से इस बारे में सोचना चाहिए।

- दूसरी बात - जो नये कवि ग़ज़ल सृजन के लिए उत्साह या रुझान दिखा रहे हैं, उनमें एक प्रवृत्ति साफ तौर पर बड़े पैमाने पर दिख रही है कि वे रदीफ़, काफ़िये बहर वगैरह की तकनीकी जानकारी जुटाकर उस खांचे में कुछ शब्द फिट कर देने को ग़ज़ल मान रहे हैं। ऐसा नहीं होता है। ये तकनीकी जानाकरी एक क्वालिफिकेशन है जो आपको शायरी या कविता को ग़ज़ल की शक्ल में कहना बताती है। कविता या शायरी की तमीज़ और तहज़ीब और प्रतिभा समझने की और महसूस करने की बात है इसका कोई फिक्स खांचा या पैटर्न नहीं है। तो, सतर्क रहें और औसत लेखन की बाढ़ में खुद को न झोंकें और उस इल्ज़ाम से बचने की कोशिश करें कि जिन लोगों के कारण खराब शायरी की मिसालें पेश की जाती हैं उनमें आपका नाम न हो। वैसे भी, वाते साहब इसकी तस्दीक़ करते हैं ग़ज़ल के बारे में कुछ बातें तो सीखी जाती हैं लेकिन सीखकर ग़ज़ल नहीं कही जाती।

- तीसरी बात यह है कि - आजकल के शायरों पर इल्ज़ाम लग रहा है कि वे कही हुई बातें या मफ़हूम नक़ल कर रहे हैं या दोहरा रहे हैं। ऐसा इसलिए होता है क्योंकि या तो हमने ज़्यादा अध्ययन नहीं किया है या फिर हम किसी से बहुत अधिक प्रभावित हैं और हमारी मौलिक सोच-समझ या तो है ही नहीं या किसी के साये में है। कारण जो भी हो, इससे बचना होगा। ऐसे इल्ज़ाम एक शायर के लिए तो खतरा हैं ही, शायरी के सामने खतरा यह पैदा करते हैं कि शायरी में कोई इज़ाफ़त नहीं होती। दूसरे जो शायर हक़दार हैं जिस मुक़ाम के, कई बार उनका हक़ कम हक़दार या बेदख़ली के काबिल शायर चुरा और हथिया लेते हैं। मैं जो कहना चाह रहा हूं एक उदाहरण से समझाता हूं। कैफ़ी आज़मी साहब का शेर देखें 

जिस तरह हंस रहा हूं मैं पी पी के गर्म अश्क़
यूं दूसरा हंसे तो कलेजा निकल पड़े।

अब इसी बात को अपने अंदाज़ में जॉन एलिया कहते हैं

जो गुज़ारी न जा सकी हमसे
हमने वो ज़िंदगी गुज़ारी है।

कैफ़ी साहब का शेर भरपूर है और कलेजा निकल पड़े जैसा मुहावरा कहन को पुख़्ता ढंग से संप्रेषित भी करता है और बात को संवेदना के एक स्तर से जोड़ देता है। जॉन साहब का शेर इसी मफ़हूम को अधिक सरलता से संप्रेषित करता है। संवेदना तो है ही और बात में एक तहदारी इस कारण भी आ रही है कि कोई सामान्य प्रतीक या बिम्ब योजना नहीं है इसलिए पाठक अपनी कल्पनाशीलता का इस्तेमाल करते हुए एक भावना से जुड़ सकता है। अब देखिए आजकल के एक शायर का शेर -

ऐसे हालात भी जिये हमने
और कोई जिये तो मर जाये।

अब आप खुद ही विचार करें कि यह शेर दोहराव और नकल का इल्ज़ाम लगाने लायक है कि नहीं। मेरे विचार से है। ख़याल का टकराना एक बात है लेकिन जिस मफ़हूम पर कई बार कई शेर कहे जा चुके हैं, उसे उठाना और फिर पहले कहे जा चुके शेरों से हल्का शेर कहना किसी तरह भी जायज़ नहीं ठहराया जा सकता। मैं यही कहना चाह रहा हूं कि पुराने मफ़हूम पर नयी बात पैदा करना पड़ेगी या फिर नये और बेहतर ढंग से कहने की चुनौती का सामना करना होगा वरना इल्ज़ाम ही लगेंगे।

- आख़िरी बात - शायरी का जदीद होना जैसे एक पहलू है, वैसे ही उसमें नज़ाक़त और मुहब्बत का होना दूसरा पहलू है। किसी को नकारने में या किसी के प्रति आसक्त होकर उसके पैरोकार बनने में ध्यान और उर्जा को नष्ट करने से बचें और शायरी के साथ दिली मुहब्बत का रिश्ता क़ायम करने वाले शायर बनें। कई पत्र पत्रिकाएं, ख़ास तौर से ग़ज़ल को लेकर बहुत सी भ्रामक जानकारियां भी परोसने में लगे हैं, इसके प्रति सतर्क रहना भी ज़रूरी है। एक उदाहरण के साथ बात करूं तो ग़ज़ल पर एक कुछ चर्चित पत्रिका है दरवेश भारती जी के संपादन में निकल रही ग़ज़ल के बहाने। पिछले दिनों उसके हवाले से तग़ज़्ज़ुल लफ़्ज़ को ग़लत ढंग से परिभाषित किया गया। तग़ज़्ज़ुल किसे कहते हैं, इस बारे में एक ग़लत राइटअप प्रस्तुत हुआ। तग़ज़्ज़ुल की व्याख्या ग़लत अर्थों में कर दी गयी। 

अपने मिट्टी से घर बनाकर भी
लोग बरसात भूल जाते हैं

काबा किस मुंह से जाओगे ग़ालिब
शर्म तुमको मगर नहीं आती

इन शेरों को कोट करते हुए यह साबित किया गया कि ऐसे शेरों में माना जाता है कि तग़ज़्ज़ुल है। मैं यहां कहना चाहता हूं कि ऐसी भ्रामक जानकारियों के प्रति सतर्क रहें और किसी सही जानकार से बातों को समझें। जो लोग तथाकथित हिन्दी ग़ज़ल का शोर मचा रहे हैं, सब तो नहीं, लेकिन कुछ लोग अपने विश्वासों या पूर्वाग्रहों के अनुसार इस तरह की गलत व्याख्याएं और बातें पेश कर रहे हैं। यह खतरनाक भी है और निंदनीय भी। ऐसा नहीं होना चाहिए।

कुछ और बातें भी हैं।

- क्या वर्तमान और नये कवि जो ग़ज़ल में आ रहे हैं, वे अपना कोई ख़ास अंदाज़, तेवर या मुहावरा बना पा रहे हैं?

- कुछ अच्छा नहीं लिखा जा रहा, ऐसा नहीं है लेकिन अभी भी बहुत संभावनाएं और चुनौतियां हमारे सामने हैं, बहुत अपेक्षाओं पर हमें खरा उतरना है, क्या इसके लिए हमारी तैयारी है?

- एक शायर होने के नाते ख़ेमेबाज़ी, गुटबाज़ी और जुमलेबाज़ी को आप बढ़ावा देते हैं या वाक़ई शायरी के सच्चे तरफ़दार होकर एक बेहतर सृजन के पैरोकार बनते हैं, यह आपको ही तय करना है।

रविवार, मार्च 26, 2017

यादें

हमनाम मुहब्बत के सफ़र पर दो ख़ुश्बुएं


मुहब्बत / क़ौसे कुज़ह की तरह / क़ायनात के एक किनारे से / दूसरे किनारे तक तनी हुई है / और इसके दोनों सिरे / दर्द के अथाह समन्दर में डूबे हुए हैं। यह शायराना एहसास और फ़ल्सफ़ा है मीना जी की ज़ाती शख़्सियत का। अब्र-बहार ने / फूल का चेहरा / अपने बनफ़्शी हाथ में लेकर / इस तरह चूमा / फूल के सारे दुख / ख़ुश्बू बनकर बह निकले हैं... इस नज़्म का उन्वान परवीन ने प्यार मुक़र्रर किया।

क़ौसे कुज़ह या इन्द्रधनुष का पहला सिरा दर्द के अथाह समन्दर में डूबा है और दूसरा सिरा भी यानी आह से उपजी होगी वाह। जैसे दोनों सिरे, दो तड़पती आत्माओं के मायने में ही जानिए। फूल के सारे दुखों का ख़ुश्बू बनकर बह निकलना, प्यार की गहराई और सच्चाई को रूह से महसूस करने से तअल्लुक़ रखता है। सतरंगी महराब कहीं यही ख़ुश्बू तो नहीं ! ये सतरंगी ख़ुश्बू, दूख से उपजा एक सुक़ून, एक नशा तो नहीं जो अपने सिरों पर आकर फिर अपने ज़ाती मुक़ाम को हासिल करती है और दर्द का अथाह समन्दर कहलाने लगती है। ये तो एक तलाश है और तलाश कब किस पगडंडी पर ले चले, क्या कहूं? फिर भी चलते हैं -

Meena Kumari source - google

गुलज़ार साहब ने कहा - "मीनाजी चली गयीं... लगता है, दुआ में थीं। दुआ ख़त्म हुई, आमीन कहा, उठीं और चली गयीं"। मगर चली कहां गयीं? इसका इल्म गुलज़ार साहब को नहीं शायद दिलशाद को हुआ। मीना जी कहती थीं, कहती क्या थीं, कुछ तलाशती थीं, और अपनी तलाश के इन्हीं तानों-बानों में घुटती रहती थीं - क्यूं इक अजनबी सदा पे नाज़ / रूह का हर तार झनझनाता है। इसी अजनबी सदा का पीछा करती हुई शायद चली गयीं। एक गुमनाम रास्ते का निशां / लमहा-लमहा किसे बुलाता है। लगता है ये गुमनाम रास्ते का निशां उन्हीं के लिए था और शोहरत के बाद के एक सफ़र पर उनसे चलने का इसरार किया करता था। मीना जी इस निशां से बतियाती रहीं, सवाल-जवाब करती रहीं और इस सफ़र को टालती रहीं क्योंकि शायद दुआ में थीं, लेकिन आख़िकार दुआ ख़त्म हुई। गौरतलब ये है कि मीना जी बतौर शायर गुमनाम रहीं और गुलज़ार साहब को अपने क़लाम का मुहाफ़िज़ न बना गयी होतीं तो कई क़िरदारों में सांस लेने के बावजूद उनके इस एक पहलू का न होना खटकता रहता। अपने एहसास को समेटने और खुद से मुख़ातिब होने के लिए ही वो इस गुमनाम सफ़र पर चल पड़ीं। मुमक़िन है ये क़लाम उनके सफ़र के सितारे हों।

एक वीरान सी ख़मोशी में / कोई साया सा सरसराता है। सोचने लगता हूं कि कौन है जो सिर्फ़ साये की शक़्ल ही इख़्तियार करना चाहता है? कबीर के क़लाम को आबिदा की आवाज़ में पेश करते हुए गुलज़ार साहब कहते हैं - "सूफ़ियों-संतों के यहां मौत का तसव्वुर बड़े ख़ूबसूरत रूप लेता है। कबीर के यहां ये ख़याल कुछ और करवटें लेता है, एक बेतक़ल्लुफ़ी है मौत से जो ज़िन्दगी से कहीं भी नहीं..." मीना जी के शायर के यहां मौत का जो तसव्वुर है, उसके लिए बेतक़ल्लुफ़ी सी है लेकिन मौत से वो लिहाज़ बरत लेती हैं। ज़िन्दगी तो ख़ैर उनसे ही तक़ल्लुफ़ से पेश आती रही। मीना जी कहती हैं -

एक मर्क़ज़ की तलाश एक भटकती ख़ुश्बू
कभी मंज़िल कभी तम्हीदे-सफ़र हुई जाती है।
और
बस एक एहसास की ख़ामोशी है गूंजती है
बस एक तक़मील का अंधेरा है जल रहा है।

मंज़िल या सफ़र के आमुख के रूप में मौत का ख़याल सीधा है लेकिन मर्क़ज़ की तलाश व भटकती ख़ुश्बू के बहलावे लेकर मीनाजी मौत के लिए लिहाज़ बरत गयीं। एहसास की ख़ामोशी और तक़मील का अंधेरा, तसव्वुर के लिए इस क़दर बेतक़ल्लुफ़ी मीना जी की ज़ात का हिस्सा ही था। फिर ख़ामोशी का गूंजना और उनका अपने ख़यालों से गुफ़्तगू करने का अंदाज़ इस मिसरे की जान है। एक ख़याल और मीना जी के यहां गूंजता है - 

उफ़क़ के पार जो देखी है रोशनी तुमने
वो रोशनी है ख़ुदा जाने कि अंधेरा है।

मीना जी की शायरी के दूसरे पहलुओं की तरफ़ नज़र करें। याद है? पाक़ीज़ा की साहिब जान और वो जुमला - आपके पैर देखे, बहुत हसीन हैं। ज़मीन पर मत उतारिएगा, मैले हो जाएंगे। और नज़र के सामने रखा है मीना जी का ये शेर -

आबलापा कोई इस दश्त में आया होगा
वरना आंधी में दीया किसने जलाया होगा।

आंधी में दीया जलाने के लिए हौसला और सब्र चाहिए। कोई आबलापा था, कमाल कर गया। यक़ीनन ये छालों में धड़कते हुए पैर बहुत हसीन रहे हैं। ख़ूब रास आयी मीना जी को यह आबलापाई। उनकी इसी आबलापाई का एक मुक़ाम और क़ाबिले-ग़ौर है - बहती हुई नदिया घुलते हुए किनारे / कोई तो पार उतरे कोई तो पार गुज़रे। ख़्वाहिश भी जैसे एक ज़िद सी है। ज़िद भी यूं कि मासूमियत की इस इंतिहा पर फ़िदा हो जाइए लेकिन हुआ वही जो होता है। ऐसी ख़्वाहिशें पूरी होती दिखती तो ज़रूर हैं लेकिन -

न हाथ थाम सके न पकड़ सके दामन
बड़े क़रीब से उठकर चला गया कोई।

रुपहले पर्दे पर मीना जी के जिये हुए क़िरदार हों या फिर उनके शायराना एहसास और उड़ानें, मैं अक्सर यही देखता हूं कि - पलाश के साये में बैठी मीना / घोलती है रेशम के रंग। फिर इसके बाद खो-सा जाता हूं इन्हीं रेशमी रंगों में। मीना जी एक भरपूर ज़िन्दगी की सूरत और एक मुसाफ़िरे-मुहब्बत की सीरत में नज़्म हो जाया करती है, मुस्कुराना चाहती है तो शेर कहती है - आंखों की कसम दी आंसू को / गालों पे हरदम यूं न ढलक। और कभी उदासी की प्यासी नमी के लिए एक शेर यूं भी कहती हैं - सोचा था ख़ुश्बुओं में से सांसें बसाएंगे / चीखा लहू कि देखना क़ौसे-कुज़ह न हो। आख़िर कतराते-कतराते धनक बन ही गयीं मीना जी। दोनों सिरे दर्द के अथाह समन्दर में डूबे रहे, ऐसी एक सतरंगी ख़ुश्बू।

यक़ायक़ मीना जी का वो दूसरा सिरा पहले सिरे में तब्दील होता है और इस बार इस सतरंगी ख़ुश्बू का उन्वान पढ़ता हूं परवीन शाक़िर। उसी नाम की मुहब्बत के सफ़र पर चल पड़ी एक और ख़ुश्बू। इस दफ़ा सात रंगों की तरतीब तो वही है लेकिन हर रंग की छटा उस महराब से मुख़्तलिफ़। परवीन कहती हैं -

अक़्से-ख़ुश्बू हूं बिखरने से न रोके कोई
और बिखर जाउं तो मुझको न समेटे कोई।

एक आज़ाद परवाज़। एक शिग़ुफ़्ता बयान। उस शाइस्ता क़लाम की रोशनी किसी पहलू की तरह - रोएंगे हम हज़ार बार कोई हमें रुलाये क्यूं। अपने वजूद का एहसास कराने की ज़िद और किसी क़ीमत पर अपने दामन पर किसी और की मीनाक़ारी का बोझ न उठाने के इरादे का इसरार-सा।

Parveen Shakir source - google

परवीन भी नहीं हैं। एक शेर है -

जुनंपसंद है दिल और तुझ तक आने में
बदन को नाव लहू को चनाब कर देगा।

किसी सफ़र की तलाश में थीं। उम्र तो बस तलाश के सफ़र में गुज़ार दी। अपने उस सफ़र पर जाने से पहले मेर लिए अपने एहसास के कई सदबर्ग बतौर इस सफ़र की निशानी छोड़ गयीं। और कहती भी तो हैं - कल के सफ़र में आज की ग़र्दे-सफ़र न जाये। निशानी नहीं कहतीं। कहती हैं ग़र्दे-सफ़र। ठीक ही तो है, सफ़र में धूल मुसाफ़िरों या काफ़िलों की मर्ज़ी से जो नहीं उड़ती। निशानी तो फिर भी हमारे इख़्तियारों की बात है। आख़िर तलाश किसकी थी? कौन से सफ़र पर चली गयीं परवीन..? बड़ी मुद्दत से तनहा थे मेरे दुख / ख़ुदाया मेरे आंसू रो गया कौन। परवीन के आंसू रो गया था कोई, उसी को तलाशने गयी हैं। जिसके आंसू परवीन रो गयी हैं, वो भी परवीन को तलाशता होगा।

परवीन उससे मिली तो थीं - उसके ही बाज़ुओं में और उसको ही सोचते रहे / जिस्म की ख़्वाहिशों पे थे रूह के और जाल भी। जब मिलीं तो जान नहीं पायीं, वही है। उसी को सोचती रहीं। जब रूह के जालों से निजात मिली, वो नहीं था। ये इल्म हुआ परवीन को - बदन मेरा छुआ था उसने लेकिन / गया है रूह को आबाद करके। अब तो सफ़र की पूरी तम्हीद तैयार थी। राह नहीं मिलती थी। सो, तलाश के सफ़र में रहीं और फिर तलाश ख़त्म हुई। एकबारगी बेहोश हो गयीं, कुछ देर में पलट कर देखा, इस सफ़र के पड़ावों पर मुस्कुरा दीं और आंखें मूंदकर चल दीं।

अब अक्सर मिला करती हैं मुझसे। कहा करती हैं मुझे सरापा ग़ज़ल कर दो और किसी किसी गुलाबी नज़्म का लिबास ओढ़ा दो। कहता हूं, नज़्म बुनने के लिए अभी बहुत सा रेशम, बहुत सा सन्दल चाहिए मुझे। कुछ सब्र करो। मगर इसरार करती रहती हैं और इसी तरह की बातों में ख़त्म हो जाता है हमारी मुलाक़ात का वक़्त। कभी अलविदा नहीं कहतीं, मीना जी की तरह ही कहती हैं, फिर मिलेंगे। इन मुलाक़ातों के बारे में सोचता हूं, परवीन का ही शेर है -

उसके वस्ल की साअत हमपे आयी तो जाना
किस घड़ी को कहते हैं ख़्वाब में बसर होना।

नोट्स

कामायनी - विद्वानों की दृष्टि में - भाग तीन


आचार्य नन्ददुलारे वाजपेयी

कामायनी का कथानक या वस्तु विन्यास सरल किन्तु मार्मिक है। ...कामाययनी का वस्तु निर्माण पश्चिमी ट्रेजडी और पूर्वी आनन्द कल्पना के योग से समन्वित होने के कारण समीक्षकों के समक्ष थोड़ी सी कठिनाई उपस्थित करता है। वस्तु विन्यास की द1ष्टि से कामायनी को दुखान्त रचना मान लेने में काई आपत्ति नहीं। उपसंहार के आनन्दात्मक दृश्यों को हम संधियों के परे काव्य की दार्शनिक और आलंकारिक पूर्ति मानकर संतोष कर लेते हैं। कामायनी चरित्र प्रधान रचना नहीं है, जो चरित्र हैं भी, उनमें स्वभावगत विशेषताओं का अधिक निरूपण नहीं हुआ है। वास्तव में, कामायनी के चरित्र जीवन की दार्शनिक इकाइयों के प्रतिनिधि हैं।

महाकाव्यतत्व - जायसी में रूपक और वास्तविक भाव-योजना समान वैशिष्ट्य रखते हैं, शुक्ल जी इसे समासोक्ति पद्धति कहा है। कबीर की पद्धति अन्योथ्कत की है। तीसरी पद्धति प्रकृति काव्य पद्धति है। प्रसादजी की कामायनी की रचना प्राकृतिक भावभूमि पर ही की गयी है यद्यपि उसमें एक दार्शनिक तथ्य निर्देश भी हुआ है। प्रसाद जी भारतीय आध्यात्मिक दर्शन के अध्येता और अनुयायी हैं। त्रिपुरदाह के रूप में त्रिगुणात्मिका सृष्टि के छन्द का परिहार और उसका सामंजस्य दिखाया है। अतः कामायनी की मूल कल्पना उदात्त है और उक्त उदात्त कल्पना का व्यक्तिकरण भी सफलतापूर्वक किया गया है। प्रसाद की काव्य शैली में नवीनता और उनके भाषा प्रयोगों में पर्याप्त व्यंजकता और काव्यानुरूपता है।
- "कामायनी के मूल्यांकन के कुछ बिन्दु" शीर्षक लेख से अंश

डॉ वचनदेव कुमार

कामायनी में वह सहज संप्रेषणशीलता नहीं मिलती जो रामचरितमानस में विद्यमान है। मानस और कामायनी का स्वरूप प्रबंधात्मक है और दोनों का प्रबंधत्व महाकाव्य पद्धति का है। ...मानस का रस भक्ति रस है जिसे परंपरानिष्ठ शास्त्रियों ने रस नहीं माना है। कामायनी का रस आनन्द रस है, जिसकी चर्चा अभिनवगुप्त ने अभिनव भारती में की है। किन्तु प्रसाद के पूर्व किसी ने प्रबंध के रस के रूप में इसकी प्रतिष्ठा नहीं की।

दोनों के कथानक प्रधानतया इतिहास पर आश्रित हैं इसलिए वस्तु और विस्तार के दृष्टिकोण से साम्य-वैषम्य के अनेक बिन्दु हैं। ...दोनों रचनाओं में जीवन के प्रति एक विशिष्ट दृष्टिकोण की अभिव्यक्ति हुई है। वह दृष्टिकोण या दर्शन पर्याप्त प्रेरणास्पद है लेकिन मानस का विराट फलक जितना बड़ा है उतना कामायनी का नहीं। कामायनी में शैव दर्शन का आधार है किन्तु उस शैव दर्शन की परिसीमा उनकी प्रत्यभिज्ञा नाम की शाखा है। अतः दर्शन के स्तर पर भी मानस में जितने मतवादों का समाहरण हुआ है उतने का कामायनी में नहीं।

दोनों ग्रंथों में एक विशेष प्रकार की पारिभाषिक शब्दावली का प्रयोग मिलता है। दोनों में शब्दों के अर्थों का विवेचन दार्शनिक संदर्भों में ही संभव है किन्तु कामायनी में कुछ मनोवैज्ञानिक शब्दों का प्रयोग भी मिलता है। दोनों में अलंकारों, प्रतीकों और बिम्बों का प्रचुर प्रयोग हुआ है। तुलसी अलंकारवादी नहीं थे फिर भी मानस में सभी अलंकार समाविष्ट हो गये हैं। कामायनी में भी सालंकार शैली मिलती है। ...मानस की भाषा शैली में ऐसा बहुत कुछ है जो कामायनी में नहीं है। मानस की भाषा मुख्यतः जनवादी है जबकि कामायनी की अभिजातवादी। मानस में उच्चकोटि की साहित्यिकता के बावजूद भाषा के संप्रेषण की वह व्यापकता है जिसका कामायनी में अभाव रहा है।
- "रामचरित मानस और कामायनी" शीर्षक लेख से अंश

गजानन माधव मुक्तिबोध

कामायनी इस अर्थ में कथा काव्य नहीं है जिसमें साकेत है। कामायनी की कथा केवल एक फैंटेसी है। जिस प्रकार एक फैंटेसी में मन की निगूढ़ वृत्तियों का, अनुभूत जीवन-समस्याओं का, इच्छित विश्वासों और इच्छित जीवन स्थितियों का प्रक्षेप होता है, उसी प्रकार कामायनी में हुआ है। ...फैंटेसी के प्रयोग में, कई प्रकार की सुविधाएं होती हैं। एक तो यह कि जिये और भोगे गये जीवन की वास्तविकता के बौद्धिक या सारभूत निष्कर्षों को जीवन ज्ञान को, कल्पना के रंगों में प्रस्तुत किया जा सकता है।

...प्रसाद जी ने अतीत की भावुक गौरव-छायाओं से ग्रस्त, वेदोपनिषदिक आर्ष वातावरण से अनुप्राणित समाजादर्श से प्रेरित होकर, अपनी विश्व दृष्टि तैयार की। यह विश्व दृष्टि कामायनी में प्रकट हुई। संक्षेप में, कामायनीकार अपने युग से न केवल प्रभावित था, वरन अपनी युग समस्याओं के प्रति उसने बहुत आवेग और विश्वास के साथ प्रतिक्रियाएं कीं।

...जिन प्रसाद जी ने अपने नाटकों और कहानियों में कर्म क्षेत्र के अत्यंत भव्य, वीर तथा संकल्पनिष्ठ चरित्रों को खड़ा किया, आत्मगरिमामय व्यक्तित्वों को उभारा, वे ही प्रसाद जी कामायनी में आकर मनु जैसे अक्षमताग्रस्त चरित्रों को न केवल सहानुभति प्रदान करते हैं वरन उसके उद्धार को, पुनः कर्मक्षेत्र की अग्नि-परीक्षाओं द्वारा उपस्थित न कर मात्र वायवीय दार्शनिक, मानसिक धरातल पर ही प्रस्तुत करते हैं। ...वस्तुतः कहानी कृत्रिम रूप से बढ़ायी जाती है, सिर्फ इसलिए कि उसमें प्रसादजी के दर्शन का प्रदर्शन हो, यह बात अलग है कि उनका रहस्य सर्ग उत्तम है।
- "कामायनी: एक पुनर्विचार" पुस्तक से कुछ अंश

क्रमशः

शनिवार, मार्च 25, 2017

रिपोर्ताज

सोशल मीडिया ने एक घबराहट तो पैदा की है


पिछले दिनों भोपाल में पत्रकारिता के क्षेत्र में एक सम्मान समारोह व परिचर्चा का भव्य आयोजन हुआ। चर्चित पत्रकार रहे श्री भुवन भूषण देवलिया की स्मृति में आयोजित इस पुरस्कार समारोह व परिचर्चा में भोपाल और मध्य प्रदेश के दर्जनों पत्रकारों ने उपस्थिति दर्ज करायी और पत्रकार कालोनी में स्थित सप्रे संग्रहालय का सभागार लगभग पूरा भर गया। भुवन भूषण देवलिया राज्य स्तरीय पुरस्कार इस साल इंदौर के युवा पत्रकार श्री अर्जुन रिछारिया को वेब पत्रकारिता क्षेत्र में उल्लेखनीय उपलब्धियों के आधार पर प्रदान किया गया। यह पुरस्कार समिति को बधाई देने का उपक्रम है क्योंकि युवाओं की प्रतिभा को पहचान कर उन्हें प्रोत्साहित करने का जो निर्णय लिया गया, वह स्वागत योग्य है।

मेरे लिए व्यक्तिगत तौर पर उपलब्धि है अर्जुन को पुरस्कृत किया जाना क्योंकि अर्जुन ने अपनी पत्रकारिता के आरंभिक दिनों में मेरे साथ कार्य किया है और तबसे हम दोंनों घनिष्ठ मित्र रहे हैं या वह मेरे अनुजवत रहा है। अर्जुन को बधाई देते हुए कार्यक्रम के दूसरे पहलू पर विमर्श किया जाना अभीष्ट है।

समारोह का दूसरा पहलू था परिचर्चा जिसका विषय "सोशल मीडिया : अवसर और चुनौतियां" रखा गया था। इस विषय पर विमर्श करने के लिए मंच पर उपस्थित थे श्री राजेश बादल और श्री प्रदीप कृष्णात्रे। इस कार्यक्रम के मुख्य अतिथि मप्र सरकार में कुछ ही समय पहले मंत्री बने श्री विश्वास सारंग। जैसा कि राजनीतिकों के साथ अक्सर होता है, श्री सारंग भी देर से आये और तब तक लगभग विमर्श का आधा हिस्सा संपन्न हो चुका था। श्री सारंग ने अपनी बात एक राजनीतिक दृष्टिकोण से रखते हुए यह सिद्ध करने की कोशिश की कि सोशल मीडिया कभी-कभी हदें पार कर जाता है, नैतिकता की सीमाएं लांघ जाता है, जनभावनाओं को आहत कर जाता है और कभी-कभी बेलगाम हो जाता है। इस तक़रीर के बाद श्री सारंग यह कहने से भी नहीं चूके कि इस पर सोशल ऑडिट करने की ज़रूरत है। लगाम लगाने के उपाय ढूंढ़ने होंगे। कुछ नियम कानून बनाने होंगे। कुछ अंकुश लगाने का प्रबंध करना होगा। आदि आदि।

इधर, श्री राजेश बादल ने एक गंभीर नोट से बात शुरू की लेकिन वह भी सोशल मीडिया के ख़िलाफ़ ज़्यादा नज़र आये। उनकी दृष्टि में भी सोशल मीडिया एक ऐसा प्लेटफॉर्म नज़र आया जो अनियंत्रित है और जिस पर नियंत्रण होना शायद इस समय की सबसे बड़ी समस्या है जिसे पहली प्राथमिकता में हल करना चाहिए। वास्तव में, श्री बादल और श्री सारंग दोनों की चिंता कुछ दिन पहले हुई जेएनयू की घटनाओं को लेकर थी जिस पर सोशल मीडिया अधिक वाचाल हो उठा था और एक तरह से सत्ता के खिलाफ़ खड़ा हो गया था। और ऐसी ही कुछ अन्य घटनाओं को लेकर भी जहां सत्ता के विरोध के स्वर उठते हैं।

बताता चलूं कि श्री बादल राज्यसभा टीवी चैनल में एक प्रमुख पद पर हैं। पहले भी वह लंबे समय तक दूरदर्शन के लिए विभिन्न पदों पर रह चुके हैं। और श्री सारंग ने वक्तव्य में कह ही दिया कि उनकी शुरुआती राजनीति के कुछ कार्यक्रमों को श्री बादल ने ही कवर किया था तो दोनों के एक सुर में बात करने के पीछे का राज़ आप समझ सकते हैं।

इन दोंनों सम्माननीयों के अलावा जो वक्ता थे, श्री प्रदीप कृष्णात्रे, वह अपने वक्तव्य में लगभग विपरीत स्वरों में बात करते दिखे। उनकी दृष्टि में सोशल मीडिया कोई हानिकारक प्लेटफॉर्म नहीं है बल्कि देश के हर नागरिक के लिए अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का अधिकार मुहैया कराने वाला एक मंच है। इन वक्तव्यों के बाद हुई परिचर्चा में दो-एक सवालों के जवाब में भी श्री प्रदीप कृष्णात्रे ने यह स्पष्ट किया कि जेएनयू में हुई हालिया घटनाओं पर सोशल मीडिया में जो भी संवाद या विमर्श हुआ, वह इतना बड़ा मुद्दा नहीं है जिसके कारण सोशल मीडिया पर किसी तरह के प्रतिबंध की बात उठायी जाये।

तीनों वक्तव्यों के बाद मेरे मन में सवाल था लेकिन मंच को जल्दी थी सभा भंग करने की तो जो सवाल-जवाब सत्र 15 मिनट का होना था, वह 5 मिनट में दो-एक सवालों के बाद ही समाप्त कर दिया गया।

लेकिन विचार व प्रश्न यहां उपस्थित है -

तुम्हारे पास है डायस तुम्हारे पास है माइक
तुम्हारा शोर ज़्यादा है जो मेरा हो नहीं सकता।

श्री विजय वाते का यह शेर पूरी व्यवस्था और आम आदमी की आवाज़ के संकट को सीधे संप्रेषित करता है। सोशल मीडिया ने कुछ न किया हो, मगर इतना तो किया है कि आम आदमी, जिसकी आवाज़ दिल्ली तो दूर किसी राजधानी के कान तक नहीं पहुंचती, अपनी बात कह सकता है, अपना रोना रो सकता है, अपना मत रख सकता है। सत्ता और पत्रकारों की चिंता क्या यह है कि अगर आम आदमी बोलने लगा तो हम क्या करेंगे? क्या इसलिए सत्ता और सत्ता के पैरोकार कुछ पत्रकार सोशल मीडिया पर प्रतिबंध या लगाम लगाने की वक़ालत कर रहे हैं कि आम आदमी की आवाज़ कुचल दिया जाये? क्या यह अपनी सत्ता के दंभ और व्यवस्था को अपने हाथ में बचाये रखने के लिए बौखलाहट नहीं है?

और अंतिम प्रश्न - क्या मतदाता 5 साल में एक बार अपना मत देकर सरकार चुनेगा और 5 साल तक खामोश बैठा रहेगा? एक बार मतदान के बाद अगर सोशल मीडिया उसे यह सहूलत दे रहा है कि वह चुने हुए जनप्रतिनिधियों के हर काम पर अपना मत प्रकट कर सके, तो क्या यह सत्ता को नागवार गुज़रना चाहिए? क्या सोशल मीडिया अभिव्यक्ति को जन सामान्य का मत स्वीकार नहीं किया जाना चाहिए?

शुक्रवार, मार्च 24, 2017

यादें

दर्द की सिगरेट.. इल्हाम का धुआं.. अदब की राख..


1919 में जन्मीं 20वीं सदी के सर्वाधिक महत्वपूर्ण लेखकों में शुमार या शायद सर्वाधिक महत्वपूर्ण लेखक अमृता प्रीतम 2005 में दुनिया को सूना कर गयी थीं, तब उनके लिए एक यादनुमा लेख लिखा था। मामूली संशोधनों के बाद वही लेख...


पाकिस्तान के एक अंग्रेज़ी अख़बार ने अमृता प्रीतम के अदबी क़द के हवाले से स्वीडन की नोबेल प्राइज़ कमेटी को उनकी तरफ़ तवज्जो देने की बात कही। हिन्दुस्तान में भी इस तरह की बात किसी ने उठायी हो। दुनिया के लिए दुनिया का अदब मुहैया कराने वालों में अमृता प्रीतम का नाम यक़ीनन लिया जा सकता है। जब दुनिया भर का दर्द, एक बड़े कैनवास पर रूह की सत्हों को साथ लेकर दर्ज किया जाता है तो देश, भाषा और विधा के बन्धनों को तोड़ देता है और दिल-दिमाग़ में उतर जाने का तकाज़ा करता है। एक हद इल्म की और एक हद इश्क़ की अगर मुक़र्रर की जा सकती है तो मानता हूं कि एक हद किसी मुल्क़ की तय हो सकती है। सारी धरती, सारा आसमां और इसके परे का सारा कुछ किसी का हो जाये तो फिर? जो पूरी दुनिया से मुहब्बत कर बैठे, उसे दुनिया यह कहकर नहीं नज़रअंदाज़ कर सकती कि वह फ़लाने मुल्क़ की मिट्टी की उपज है। बात सिर्फ़ मिट्टी की है, मिट्टी की मिट्टी से मुहब्बत की है। मिट्टी की तासीर है रचना और मिट्टी से मुहब्बत के मायने हैं रचना के लिए रचना। अगर मुहब्बत मिट्टी ही कर रही है तो रचने वाला रचने वाले के लिए ही रचने की तमन्ना कर रहा है। यही तमन्ना, यही तड़प रचने वाले की एक अमिट छाप बनती है यानी मिट्टी की एक न मिटने वाली छाप। ऐसी ही किसी छाप का नाम तसव्वुर में आता है तो अमृता प्रीतम की तस्वीर उभरती है।

Amrita Pritam source - google

जिस साल के माथे पर चिताएं सुलग रही थीं, बारूद हवा में घुली हुई थी और ज़िन्दा-जावेद लोग ख़ाक़ के एक ढेर से ज़्यादा कुछ नहीं थे, उस साल एक ऐसे मासूम ने इस ज़मीन पर अपनी आंखें खोलीं जो दर्द की सिगरेट की तरह सुलगा सकने का माद्दा रखता था। इस सिगरेट से उठने वाले धुएं को इल्हाम का वक़ार देने की ताक़त उसमें थी और इसी सिगरेट की राख को अदब से झाड़कर अपनी पहचान बनाने का हुनर उसमें था। उसने साबित किया कि इश्क़ का मस्लक़ हर दौर में अपने आप को सर्वश्रेष्ठ साबित कर सकता है। मासूम इश्क़ के धागों में गूंथी गयी अमृता प्रीतम की रूह एक दीये की तरह दुनिया को रोशन करती रही मगर दीये की तरह ही उसकी अंदरूनी सत्हों का रंग अंधेरा ही राह। यह इस सच का सबूत है कि अंधेरे पीने की हिम्मत रखने वालों के नसीब में ही उजाले की नेमतें बांटने के फ़र्ज़ लिखे होते हैं। साहिर से मुहब्बत करने वाली अमृता और इमरोज़ को चाहने वाली अमृता दो नहीं एक है, लेकिन एक के दोनों क़िरदार पाकीज़ा हैं। ख़ैर, यहां उनके अदब से रूबरू होते हैं।

रसीदी टिकट में अमृता ने लिखा है कि "वारिस शाह की बेल को दिल का पानी दिया था, दिल का भी, आंसुओं का भी", यह जुमला उनकी पूरी अदबी विरासत का जैसे सूत्र वाक्य है। कुछ जुमले और हैं जिनमें मुझे अमृता के रचना संसार की रूह दिखती है। ये जुमले उन्होंने एक नज़्म में दजै किये हैं। नज़्म का उन्वान है "अमृता प्रीतम" - 

एक दर्द था / जो सिगरेट की तरह / मैंने चुपचाप पिया है
सिर्फ़ कुछ नज़्में हैं / जो सिगरेट से मैंने / राख की तरह झाड़ी हैं

सिगरेट को अगर किसी रूप में समेटा या सहेजा जा सकता है तो वह राख का रूप है। धुआं सिगरेट तक रहता है लेकिन उसकी महक सदियां भी महका सकती है। ज़मीनी बात है दर्द, कैसा दर्द? किसका दर्द? कितना और किसके लिए दर्द को सिगरेट की तरह पीना पड़ा? सिलसिलेवार सारे सवालों के जवाब अमृता के अदब के साये में देखते हैं।

ऐसा दर्द जिसकी न कोई शुरुआत है, न कोई इख़्तिमाम। गोया कि - न था कुछ तो दर्द था, कुछ न होता तो दर्द होता... दर्द भी वो जिसमें इश्क़ सांस लेता है और इल्हाम बुलंद होता है। ऐसा दर्द जो आदमी को नेक इंसान बनाता है। एक अरसे में अपना वजूद उस दिल और जान के वजूद के साथ इस तरह जोड़ देता है कि अद्वैतवाद और गुद्ध का दुखवाद सच्चा ही नहीं, अच्छा लगने लगता है।

उसका दर्द जो न कभी जन्मा है न कभी मरा है। जिसका वज्द बिंदु भी है और अनंत भी। दर्द उसका जिसका धर्म, कर्म, मर्म सिवाय मुहब्बत के कुछ नहीं। दर्द उसका जो कभी नहीं था, जो अब भी नहीं है और शायद कभी होगा भी नहीं, बावजूद इसके जो हमेशा से कहीं है, अब भी कहीं है और हमेशा कहीं होगा। हर हाल में जिसको तलाशना हैख् उसका दर्द और उसको तलाशने का रास्ता इश्क़ की तमाम गलियों की सैर कराता है। गोया कि - जब कभी कोई दिल दरबदर हो गया / हुस्न से इश्क़ तक का सफ़र हो गया।

इतना दर्द, जिसका ओर-छोर नहीं, इतना जो कई सौ सदियों में समा न सके और एक दिल में समा जाये। इतना दर्द जितना एक सृजन के लिए चाहिए और उस सृजन को मिटा देने के वक़्त चाहिए। दर्द इतना जितना, हीर, सोहनी और शकुंतला के हिस्से में आया और इतना जो उनके हिस्से में आ नहीं पाया। दर्द इतना कि दुनिया को रोशनी मिले, बलन्दी मिले, तरक़्क़ी मिले और एजाज़ मिले। दर्द इतना, जितना हो सके।

सबसे पहले दर्द के लिए, फिर अपने लिए और फिर सबके लिए। दर्द उसके लिए भी जिसके लिए सब कुछ है। उसके लिए भी जिसके लिए कुछ नहीं। उसके लिए जिसके लिए दर्द का वजूद है और उसके लिए भी जिसका वजूद ही दर्द के लिए है। दर्द पूरी क़ायनात के लिए, हर फूल, हर नूर, हर सच, तमाम ख़ुश्बुओं और सभी आने-जाने वालों के लिए। हर उस भावना, संवेदना और कल्पना के लिए जो दुनिया को ख़ूबसूरत करना चाहती है।

ऐसे, इसके, इतने और इसके लिए दर्द को अमृता ने एक सिगरेट की तरह पिया, चुपचाप। अमृता की कहानियों, उपन्यासों और कविताओं में भारतीयता के मूल्यों का लिबास पहने विश्व दृष्टि से सराबोर यह दर्द एक कैनवास पर सबसे बड़ा सच दर्ज कराता है कि अपने एहसासों के दायरों में सिमटना ख़ुदगर्ज़ी ही नहीं गुनाह है। अपने घावों से दूसरों को मरहम देना सीखना होगा। अमृता के क़िस्सों और नज़्मों में दरिया का सा असर होता है। और यहीं से मैं सूत्र वाक्य को छूना शुरू करता हूं -

अज आखां वारिस शाह नूं / कित्तो क़ब्रां विच्चो बोल

मुमक़िन नहीं कि पांचों दरियाओं का रंग लाल और पंजाब का सारा जिस्म नीला पड़ जाये और ऐसे वक़्त में अमृता की यह आवाज़ वारिस शाह तक न पहुंचे। बेशक़ पहुंची और वारिस शाह का पैग़ाम भी उन्हें मिला इसलिए तो सारी फ़ज़ा में इश्क़ के रंग भरने के लिए वो बतौर हल एक तक़रीर अपनी नज़्म "सोख़्ता" में देती हैं -

सो इस तरह जिस भी / सोख़्ते पर जितने भी हर्फ़ हैं / वह असली इबारत के उल्टे हैं... और फिर धीरे-धीरे अमृता महसूस करती हैं कि वारिस शाह का पैग़ाम उन तक नहीं आया बल्कि उनकी तड़पती आवाज़ सुनकर ख़ुद वारिस ही चले आये हैं और इस दौर में वारिस शाह का नाम अमृता हो गया है -

कि पत्थरों के नगर में / जो वारिस की आग थी
यह मेरी आग भी / उसी की जांनशीन है
आग, आग की वारिस

अमृता ने वारिस शाह की बेल को दिल का पानी दिया था और रूह से दिया था इसलिए वारिस शाह अमृता बनने के लिए मजबूर हो गये। यह कोई मनोवृत्ति या विसंगति नहीं बल्कि आध्यात्मिक उत्कर्ष है। "अहं ब्रह्मास्मि" वाली स्थिति है। इस बुलन्दी पर पहुंचना आसान नहीं है। इसके लिए ऐसा, इसका, इतना और इसके लिए दर्द को एक सिगरेट की तरह चुपचाप पीना पड़ता है। अपनी जाति, धर्म, देश से उठकर पूरी क़ायनात को अपनी सोच का हिस्सा बनाना होता है। अमृता की एक और नज़्म है - "ऐश-ट्रे", शुरुआत यूं है -

इल्हाम के धुएं से लेकर / सिगरेट की राख तक
उम्र का सूरज का ढले / माथे की सोच बले
एक फेफड़ा गले / एक वीयतनाम जले

कभी-कभी सोचता हूं कि इस दौर में सियासत, नफ़रत, अलगाव और भेद भाव इतना क्यूं है कि शक़ होता है, अगर कबीर और ग़ालिब बीसवीं सदी में का हिस्सा होते तो क्या उन्हें साहित्य के सबसे बड़े सम्मान नोबेल प्राइज़ से नवाज़ा जाता?

एक ग़ज़ल

ज़िन्दगी धूप का एक सफ़र है


एक शायर जो जब तलक ज़िन्दा रहा, शाने-अदब-ए-भोपाल रहा। भोपाल के अदबी गलियारों में आज भी ज़िक्र होता है मरहूम जनाब अख़्तर सईद ख़ां साहब का, तो महफ़िलों में यादों की एक चमकीली सी लक़ीर खिंच जाती है। अदब के बदलते ज़मानों से रूबरू होने का मौक़ा है अख़्तर साहब की यह ग़ज़ल -


जाते-जाते ठहर गयी रात
दामन थामे हुए सहर का।

इस शेर को आप किसी ज़ाती तजुर्बे से भी हासिल कर सकते हैं और किसी दुनियावी मसअले के हवाले से भी बामआनी का ख़िताब दे सकते हैं। फिर अर्ज़ करता चलूं कि यह शायर की नाकामी नहीं है कि शेर बहुत से अर्थों की प्रतीति देता है बल्कि यह हुनर है तहदारी का। परत अंदर परत शेर कहने का। ऐसे शेरों को मैं प्याज़ी शेर भी कहता हूं। ख़ैर, इस शेर का अस्ल मफ़हूम क्या है, इसका अंदाज़ा लगाना बहुत मुश्किल तो नहीं है लेकिन मैं आपको शायर के दिल की बात बता सकता हूं क्यूंकि शायर ने मुझे ख़ुद ये ग़ज़ल सुनायी और मेरी जवान होती हुई समझ को अपने पास बिठाकर समझायी है।

Akhtar Saeed Khan

पुराने भोपाल के अट्टा सराय काले ख़ां की एक तंग गली में पुराने पुश्तैनी मकान में अख़्तर साहब 80 बरस के पार की उम्र में रहते थे। उनसे दो-तीन मुलाक़ातें उसी घर में उनके कमरे में हुईं। एक अंतरंग मुलाक़ात में इस ग़ज़ल का ज़िक्र निकला और मेरी ख़ुशनसीबी कि वो लमहे मुझे आज भी लफ़्ज़-ब-लफ़्ज़ याद हैं। 1921 की पैदाइश थी अख़्तर साहब की। यानी शायरी के कितने दौर, कितनी उथल-पुथल और कितने हादसे-तजुर्बे उनकी यादों के ख़ज़ाने में रहे होंगे, आप अंदाज़ा लगा सकते हैं। यह शेर उन्होंने शायरी के ज़मानों को निशाना बनाकर कहा। एक नये दौर की आमद की तहरीक़ किस क़दर उम्मीद जगाती है और फिर किसी धुंधलके में दम तोड़ देती है, यह अख़्तर साहब के शायर ने एक से ज़्यादा बार महसूस किया था। और, इसी एहसास को बारीक़ अल्फ़ाज़ में दर्ज करता है यह शेर।

मत्ला यूं है -

क्या जानिए क़स्द है किधर का
मुंह देख रहा हूं राहबर का।

यह शेर सियासत पर तन्ज़ है। 26 साल के रहे थे अख़्तर साहब जब देश आज़ाद हुआ। तमाम नज़रियों, ख़्वाबों और उम्मीदों से लबरेज़ एक जवान शायर जिसने कुछ ही सालों में आज़ाद हिन्दोस्तान में गुलामी में जां निसार करने वाले लीडरों और फ़नक़ारों का हर सपना लगभग ज़मींदोज़ होता देखा होगा, उसके दिल पे क्या गुज़री होगी? क्या नाचारी रही होगी? इन सवालों का जवाब देगा आपको यह मत्ला। उस वक़्त के अवाम की दुविधा का एक जीता-जागता सबूत है ये शेर। और कमाल देखिए कि कितने ज़मानों में ज़िंदा रहेगा। यह होती है समय से होड़ लेती शायरी की मिसाल जो वक़्ती या तत्कालीन भर नहीं होती।

ऐसे हालात फिर मजबूर करते हैं अर्ज़ करने के लिए-

जीना एक धूप का सफ़र है
साया क्या ढूंढ़िए शजर का।

टैगोर के एकला चलो रे... की धुन भी इस शेर में सुनायी देगी और ग़ालिब के उस शेर की भी- क़ैदे हयातो-बन्दे-ग़म अस्ल में दोनों एक हैं... इन गूंजों के बावजूद यह शेर अपने आप में एक आवाज़ भी है। और फिर, एक मुद्दत तक ऐसे पेचीदा सफ़र में बड़े तजुर्बे से हासिल होता है एक इल्म, इल्हाम से आती है आवाज़ -

जिस मोड़ पे अब भटक रहा हूं
रस्ता तो यही था मेरे घर का।

किस मोड़ पे आती है, यह हर ज़िन्दगी का अलहदा सफ़र ही तय करता है। बहरहाल, अख़्तर साहब ने क्लासिकल शायरी, आज़ाद होते हिन्द की शायरी और तरक़्क़ीपसंद तहरीक़ की शायरी के दौर देखे। फ़िराक़, जोश जैसे शायरों की सुहबत में नौजवानी यानी टीनेज में मुशायरा पढ़ा और अपने आख़िरी पड़ाव पर मुझ जैसे शायर को कुछ पढ़ाया, बताया, समझाया। उनके बचपन की दुनिया उनकी जवानी की दुनिया से कितनी अलग थी और उनकी जवानी की दुनिया उनके बुढ़ापे की दुनिया से। तेज़ी से बदलती दुनिया की रफ़्तार से वह अपनी रफ़्तार मिला पाये या नहीं, यह सवाल ज़रूरी नहीं, ज़रूरी यह है कि इस रफ़्तार का सफ़र उन्होंने जिया और शिद्दत से महसूस किया।

जो कुछ मैं देखता हूं अख़्तर
धोखा तो नहीं मेरी नज़र का।

अगर नहीं जिया होता, बारीक़ निगाह न रखी होती तो यह मक़्ता कहां से लाते अख़्तर साहब..। उन मुलाक़ातों में अख़्तर साहब ने मुझसे कहा था कि "उर्दू शायरी जिस दौर से गुज़र रही है, उसे देखकर फ़िक्र और परेशानी होती है। शायर अपने ज़ाती फ़ायदों के लिए कलम उठा रहे हैं। शायरों का क़िरदार गिर रहा है तो शायरी का मेयार क्या होगा.."।

ये तमाम बातें कहने के लिए नहीं कह रहे थे अख़्तर साहब। उनकी इस चिंता को मैंने उनकी आवाज़ के भारीपन, माथे की शिक़न और कंपकंपाती उंगलियों से भी महसूस किया था। हम जैसे शायरों का फ़र्ज़ बनता है कि अख़्तर साहब जैसे बुज़ुर्गों ने शायरी के जिस मेयार और शायर के जिस क़िरदार के ख़्वाब देखे, उन्हें पूरा करने की कोशिश करें हम। वादा करना चाहता हूं मैं कि इंशाअल्लाह मैं पूरी कोशिश करूंगा।

आज भी पुराने भोपाल की पटियेबाज़ी, नशिस्तों और उर्दू के कुछ रिसालों में गाहे-ब-गाहे अख़्तर साहब की यादें ताज़ा होती रहती हैं। भोपाल के किसी पटिये, किसी महफ़िल, झील के किसी किनारे या उस पुरानी मस्जिद की सीढ़ियों पर बैठी अख़्तर साहब की रूह हमें हसरत भरी निगाहों से देख रही है, हममें कुछ टटोल रही है और मैं जब भी कोई पाये का शेर कहता-सुनता हूं तो लगता है कि ये वही रूह है जो किसी और ज़ुबां से बोल रही है।

नोट्स

कामायनी - विद्वानों की दृष्टि में - भाग दो


सुमित्रानंदन पन्त

कामायनी हिमालय सी दूर्लंघ्य न हो, पर श्रद्धा और मन की समरस तन्मयता की पावन समाधि ताजमहल सी आश्चर्यजनक अवश्य है। यह अपने युग की सर्वांग पूर्ण कृति न हो, पर सर्वश्रेष्ठ कृति निश्चयपूर्वक कही जा सकती है।

रूप से अरूप की ओर आरोहण, सत्य से स्वप्न की ओर आकर्षण, जो एक नवीन रूप तथा नवीन सत्य के आह्वान का सूचक था, सर्वप्रथम कवीन्द्र रवीन्द्र की भुवन मोहिनी हृत्तंत्री में जाग्रत तथा प्रस्फुटित हुआ। वह भारतीय दर्शन तथा उपपनिषदों के अध्यात्म के जागरण का युग था, जिसकी चेतना हिन्दी में खड़ी बोली की उबड़-खाबड़ धरती से संघर्ष करती हुई प्रसादजी के काव्य में अंकुरित हुई। प्रसादजी मानवों के आदि पुरुष मनु तथा कामगोत्रजा श्रद्धा और तर्क बुद्धि इड़ा का संक्षिप्त विवरण देते हुए अन्त में लिखते हैं - मनु, श्रद्धा और इड़ा अपना ऐतिहासिक अस्तित्व रखते हुए सांकेतिक अर्थ की भी अभिव्यक्ति करें तो मुझे कोई आपत्ति नहीं।

...मानव मन की मुख्य वृत्तियों एवं भावनाओं के स्वरूप निरूपण तथा मानवीकरण में प्रसादजी ने जो रसात्मक श्रम तथा शिल्प कौशल दिखलाया है, वह कवि की विकसित सौंदर्य-दृष्टि तथा कला-बोध का साक्षी है, उसमें सभी कुछ उच्च श्रेणी का भले न हो, पर कुछ भी निम्न श्रेणी का नहीं है।

...कला चेतना की दृष्टि से कामायनी छायावादी युग का प्रतिनिधि काव्य कही जा सकती है। ...कामायनी की कला चेतना में जैसा निखार मिलता है, कला-शिल्प अथवा शब्द-शिल्प में वैसी प्रौढ़ता नहीं मिलती। कहीं-कहीं छन्द भंग तो असावधानी या छापे की गलती से भी हो सकता है किन्तु बेमेल शब्द तथा श्लथ पद विन्यास इस महान कृति के अनुकूल नहीं लगते।

...यह सब होने पर भी कामायनी इस युग की एक अपूर्व, अद्वितीय, महान काव्यकृति है, इसमें मुझे संदेह नहीं है। ...नये जीवन मूल्य तथा नये भावबोध की दृष्टि से कामायनी केवल छायावादी हाथीदांत की मीनार भर है, भले ही इसे कैलास-शिखर की संज्ञा दी जाये।
- "यदि मैं कामायनी लिखता" एवं "कामायनी: एक पुनरावलोकन" शीर्षक लेख से अंश

इलाचन्द जोशी

कामायनी की रचना मानवात्मा की उस चिरन्तन पुकार को लकर हुई है जो मानव-मन में आदिकाल से जड़ीभूत अन्ध तमिस्र पुंज का विदारण कर जीवन के नव-नव वैचित्र्यपूर्ण आलोक पथों से होते हुए अन्त में चिर-अमर आनन्द भास के अन्वेषण की आकांक्षा से व्याकुल है।

इसका तू सब संताप निचय-हर ले, हो मानव भाग्य उदय
सब की समरसता कर प्रचार, मेरे सुत! सुन मां की पुकार।

अपने इस अंतिम त्यागमय महान संदेश के उपरांत कामायनी दोनों को छोड़कर चली जाती है, काव्य की वास्तविक समाप्ति यहीं पर हो जानी चाहिए थी क्योंकि उसकी नाट्यात्मक अभिव्यक्ति उस स्थान पर पराकाष्ठा को प्राप्त हो जाती है, यहां पर अंतिम यवनिका पड़ जाने से काव्य के नाटकीय अंत का चरम सौंदर्य प्रस्फुटित हो उठता। पर कवि को शायद नाटकीय सौंदर्य की अपेक्षा पूर्णानंदमयी मांगलिक परिणति दिखाना अधिक अभीष्ट था इसलिए उसने श्रद्धा, इड़ा, मनु और मानव, चारों का मिलन पुण्य प्रशांत मानस-प्रदेश में संघटित करके समरसता के स्निग्धयुक्त आनंद की पीयूषवर्षा से सबको अभिषिक्त किया है।
- "साहित्य सर्जना" में संकलित अगस्त 1937 के लेख से अंश

आचार्य हज़ारीप्रसाद द्विवेदी

एक अंग्रेज़ समालोचक ने कहा था, शैली कवि का कोट है। प्रसिद्ध अंग्रेज़ मनीषी कार्लाइल ने संशोधन करते हुए बताया था, शैली कवि का कोट नहीं उसका चर्म है। शैली से कवि के व्यक्तित्व को पहचाना जाता है। प्रसादजी की शैली शायद किसी भी हिन्दी कवि की अपेक्षा अधिक अपनी है।

कामायनी की दुनिया एक फिलॉसफर की दुनिया है, जिसमें समस्याओं की तह तक पहुंचने की कोशिश तो है, पर इसी कोशिश के कारण समस्याओं की अपील जोरदार नहीं हो सकी। प्रेम, घृणा, शोक और अनुकंपा, कामायनी में आकर विचारों को उत्तेजित कर देते हैं लेकिन मनुष्य को हिला नहीं देते। वे मनुष्य के हृदय की अपेक्षा मनुष्य के विचारों को अधिक अपील करते हैं।

कामायनी के कवि में और जितने भी दोष हों, वह नख से शिख तक मौलिक है। उसकी मौलिकता कभी-कभी जटिल और दुर्बोध तक हो जाती है।
- "कामायनी - एक सर्वेक्षण" शीर्षक लेख से अंश

क्रमशः

गुरुवार, मार्च 23, 2017

समीक्षा

ग़ज़ल के चार पड़ाव


साल 2000 से 2003 के बीच प्रकाशित हुए चार ग़ज़ल संग्रहों पर यह समीक्षा 2003 के आसपास ही लिखी थी लेकिन न तो किताबें पुरानी होती हैं और न ही उन पर लिखे हुए शब्द (मामूली संशोधन के बाद यहां प्रस्तुत हैं)। अब भी ताज़ा हैं ये शब्द और इनमें एक आंच भी है कि नहीं?


धूप का लहरों पर बलखाते हुए चलना, फूलों पर से फिसलकर शबनम का सौंधी ख़ुशबू में तब्दील होना और टाट के पर्दों से रेशमी उजाले को महसूस करना बिल्कुल उसी तरह है जिस तरह अंजुमन-ए-ग़ज़ल में मुज़फ़्फ़र की ग़ज़लों का सरग़ोशियां करना। लहरों की तरह लय का उतार-चढ़ाव और रेशमी उजालों की तरह साफ़ सत्ह मुज़फ़्फ़र की हर ग़ज़ल को तारीख़ का एक पन्ना बना देती है। महकते, शबनमी जज़्बात और स्पष्ट सत्ह तो प्रेम किरण की ग़ज़लों में भी सरासर है। साथ ही, वह लहरों के उतार-चढ़ाव की मानिन्द दो भाषाओं हिन्दी और उर्दू का ख़ूबसूरत बाना भी बड़ी आसानी से बुन पाये हैं। हिन्दी और उर्दू की शेरी रिवायत की मिली-जुली तस्वीर दीक्षित दनक़ौरी की ग़ज़लों में भी सांस लेती है लेकिन प्रेम किरण की बात जुदा है -

आग से गुज़रो तो सोने का बदन रख लेना
वरना कुछ और अगर हो तो निखरता कम है।
रोशनी तो इक अमल पैहम अमल का नाम है
रोशनी का ज़ायक़ा कुछ आग चखकर लीजिए।

प्रेम किरण के ये दो शेर उनकी क़ैफ़ियत और ज़ेह्नी खनक को बयां करते हैं पर जब आप प्रेमकिरण से गुज़रेंगे तो आप यक़ीनन एक ज़िंदादिली और नाज़ुकी का भी एहसास पाएंगे। प्रेमकिरण से गुज़रने का यह सफ़र इस किताब आग चखकर लीजिए की एक नायाब देन है। कहना आसान है कि ये किताब प्रेमकिरण का आईना है लेकिन क्या इसे आईना बनाना उनके लिए आसान था? बेशक़ नहीं -

मुद्दतों देखा किये हम आईना बनने का ख़्वाब
पर तुम्हारे आईने पर धूल होकर रह गये।

शायरी की से विरासती ज़ुबान जो कभी महरूमियों और कभी संभावनाओं की ज़्यादतियों को बयान करती रही है वो मुज़फ़्फ़र के यहां अलग लहजा लेकर सामने आती है -

हज़ारों अलअतश कहते हुए दौड़े चले आये
जहां बालिश्त भर साया मेरी दीवार से निकला।

यहां इस बात का ज़िक्र लाज़िमी है कि जहां प्रेमकिरण और दीक्षित की ग़ज़लों में इंसान का गिरता चरित्र और दिनबदिन बढ़ता हुआ स्व-वाद साफ़ दिखायरी देता है वहीं मुज़फ़्फ़र में इसकी हल्की सी झलक के साथ शायरी का परंपरागत स्वरूप निखरकर सामने आता है। इसी सिलसिले में हम अगर राही भोजपुरी की बात करें तो पाएंगे कि ग़ज़लों में वह सिर्फ़ अपने आपको ही बयां करना पसंद करते हैं।

हो न पाएंगे पूरे शेर जो अधूरे हैं
क़ब्र पे मेरे दिलबर अश्क़ जो बहाओगे।

राही में शेरियत के साथ कवित्व भी साफ़ झलकता है जबकि प्रेमकिरण इस कवित्व को टाल जाने में माहिर हैं। वो चाहते हैं कि वो जब ग़ज़ल लिखें तो वो ग़ज़ल ही लगे।

दीक्षित की किताब डूबते वक़्त से पार होकर प्यार को संवेदनाओं की ज़मीन मिलती है। कहीं-कहीं वह दुष्यंत स्कूल के एक पुरज़ोर शायर की हैसियत से भी शेर कहते हैं। हालांकि शेखर वैष्णवी और निशान्त केतु ने दनकौरी को सदी का दूसरा दुष्यंत घोषित कर दिया है लेकिन यह बात वैसी ही लगती है जैसे आजकल मुंबई में फिल्म के रिलीज़ होने पर पेड रिव्यू लिखे जाते हैं। इस मुआमले में शशि जोशी का जुमला फिर भी तवज्जो देने लायक है कि दुष्यंत सरीखे तेवर ग़ज़ल में एक लम्बे अरसे बाद दिखायी पड़ रहे हैं। वास्तव में, दीक्षित जी एक संपादक के ओहदे पर रहे हैं तो अंदाज़ा लग जाता है कि विद्वानों की राय उनकी ग़ज़लों पर कुछ ज़्यादा ही मेहरबानी कर देती है।

दरअस्ल दुष्यंत ने अपनी ग़ज़ल और शेर आम आदमी के लिए उसी के लहजे में कहे लेकिन उनमें ख़ास असर यह था कि वह कई सत्हों पर आम होते हुए भी झकझोरने में माहिर थे। ग़ज़ल अपने मिज़ाज के हिसाब से सदाक़त और नज़ाक़त की भी पैरवी करती है जो दुष्यंत की ग़ज़ल में नज़रिये के फ़र्क से दिखती है। पहली नज़र में नज़ाक़त को नकारा जा सकता है लेकिन आग को रोशनी का मानी देने पर उसकी शिद्दत तो कम नहीं होती, हां ख़तरा ज़रूर कम हो जाता है। दौर में बदलाव आने की वजह से दुष्यंत स्कूल के शायरों में इस नज़रिये को परिभाषित और रूपायित करना पेचीदा सा लगता है। दीक्षित भी जब आग को ग़ज़ल बनाते हैं तो वह रोशनी का अर्थ उद्घाटित नहीं करती और बिल्कुल इसी तरह से प्रेमकिरण के शेरों में भी आग का खतरा कम नहीं दिखता। इधर मुज़फ़्फ़र रोशनी का ज़िक्र करते हैं मगर उनकी शेरियत से वह रोशनी आग की शक़्ल अख़्तियार करने का ज़र्फ़ रखती है -

बुझते-बुझते भी ज़ालिम ने अपना सर झुकने न दिया
फूल गयी है सांस हवा की एक चिराग़ बुझाने में।

हवा से चिराग़ की जंग का ज़िक्र न करते हुए दीक्षित ने चिराग़ से रोशनी की ही मुख़ालफ़त की बात की है। न जाने क्या सहा है रोशनी ने  / चिराग़ों से बग़ावत कर रही है। यह बदलाव का ही परिणाम है। दुष्यंत के दौर में सामाजिक मूल्यों में जो गिरावट दर्ज की गयी वह इस दौर में अपने पतन के चरम पर दिखती है। इससे इतर राही अपनी किताब में जज़्बाती सत्ह पर ज़्यादा बात करते हैं। कभी-कभी विसंगतियों पर व्यंग्य भी करते हैं, हालांकि यह उनका मुख्य स्वर नहीं है।

उछलेंगे शेर आपके दुनिया में एक दिन
अपनी ग़ज़ल को पास बिठाकर ग़ज़ल कहें।

राही भोजपुरी ने जो अशआर विसंगतियों पर कहे हैं, उनमें वह भरपूर असंतोष और नाराज़गी व्यक्त करने में कम सफल हुए हैं जबकि प्यार के शेरों में वह गहराइयां को छूने की कोशिश करते दिखते हैं लेकिन प्यार में डूबे हुए और मजबूर आदमी को जी लेते हैं। इसी सफल-असफल परन्तु मुक़म्मल प्यार का ज़िक्र करने में दीक्षित खुद को भूले हुए नज़र आते हैं। यह उनकी अजीब ख़ूबी है कि वह अपनी हर ग़ज़ल में अमूमन हर तरह के शेर कहते हैं जो कहीं-कहीं सप्रयास भी महसूस होता है।

बहरहाल, कुल मिलाकर इन चार किताबों में से मुज़फ़्फ़र और प्रेम किरण के शेरी मजमुए मेरे नज़दीक ज़्यादा क़ीमती हैं और बाकी दो अपनी ख़ूबियों और ख़ामियों के साथ-साथ पढ़े जा सकते हैं, सराहे भी जा सकते हैं। ग़ज़ल ज़िंदाबाद।

कृतियां - आग चखकर लीजिए - प्रेम किरण, डूबते वक़्त - दीक्षित दनक़ौरी
मुज़फ़्फ़र की ग़ज़लें - मुज़फ़्फ़र हनफ़ी, तुम्हारी आंखों में - राही भोजपुरी

यादें

...दरिया हूं समन्दर में उतर जाउंगा


2006 में जहाने-फ़ानी से कूच कर गये मशहूर शायर और ख़बरनवीस मरहूम जनाब अहमद नदीम क़ासमी साहब के इन्तक़ाल के बाद एक मुख़्तसर सी याद लिखी थी। यादों के सरमाये से हाज़िर...


अमृता प्रीतम ने एक बार कहा था कि "ख़लील जिब्रान ने एक जाम मेरे नाम का भी पिया था"। मुझे महसूस होता है कि बाबा ने भी एक शेर के लिए मेरा तसव्वुर किया था। अहमद नदीम क़ासमी साहब को गुलज़ार साहब बाबा कहा करते थे सो मैं भी बाबा कहने लगा हूं। बाबा के गुज़रने के चन्द रोज़ पहले ही उन्हें पढ़ना शुरू किया था। उनकी ग़ज़लें और नज़्में सुनीं-पढ़ीं और बेइंतहा अपनी सी लगीं। बिल्कुल यही महसूस हुआ, जैसा बाबा ने कहा था -

हैरतों के सिलसिले सोज़े-निहां तक आ गये
हम तो दिल तक चाहते थे तुम तो जां तक आ गये।

बाबा के गुज़रने पर पाकिस्तान के अख़बार में लिखा गया - He was the last of the literary giants,और भी कई बातें लिखी गयीं। अफ़सोस कि हिन्दोस्तान ने उतनी तवज्जो नहीं दी। मैं हमेशा से मानता रहा हूं कि फ़न चूंकि जात, धर्म और देश देखकर नहीं बख़्शता, बख़्शने वाला इसलिए फ़नक़ार को भी इस नज़रिये से नाप तौल कर नहीं देखना चाहिए। हालिया दौर में फ़न ही सरहदों के पार दिलों को जोड़ने के लिए एक पुल तामीर कर रहे हैं। बाबा की एक नज़्म है "पत्थर"। इसमें छुपी तल्ख़ियां एक बहुत बड़े उदास मंज़र का सच हैं -

रेत से बुत न बना ऐ मेरे अच्छे फ़नक़ार
एक लमहे को ठहर मैं तुझे पत्थर ला दूं।

फिर बाबा पेश करते हैं - "दिल का सुर्ख़ पत्थर", "पथरायी आंख का नीला पत्थर" और आगे कहते हैं कि इस दौर के सारे मेयार पत्थर हैं। उनकी इस नज़्म को पढ़कर सवाल उठा कि आख़िर किसने, कैसे, कहां, कब ये बीज बो दिये हैं हमारे खेतों में कि पत्थरों की फसलें लहलहाने लगीं। हैरानी भी हुई कि लोग ख़ामोशी से इस फसल को पानी भी दे रहे हैं। बाबा की फ़िक्र अक्सर इस तरह के सवाल खड़े कर देती है। एक और नज़्म "बहार" पढ़ लीजिए तो रूह कांप जाती है। न सिर्फ़ अदीब बल्कि अख़बारनवीस के नाते भी उन्होंने अपनी फ़िक्र ज़ाहिर की। उनका बेबाक लेखन एक विरासत के तौर पर महफ़ूज़ किये जाने की ज़रूरत है। इस तरक़्क़ीपसंद बेमिसाल फ़नक़ार ने सिर्फ़ ख़ेमेबाज़ी में न उलझकर तख़लीक़ को एक आज़ाद परवाज़ दी। उनके एक शेर पर तहरीक़ के नुमाइंदों को कड़ा ऐतराज़ रहा लेकिन यही शेर उनकी बेबाकी और खुलेपन के इज़हार की मिसाल बना -

सब्ज़ हो सुर्ख़ हो कि उन्नाबी
फूल का रंग उसकी बास में है।

बाबा के क़लाम से गुज़रते हुए कई बार ये महसूस होने लगता है कि कोई सूफ़ी रूबरू है। हिंदोस्तान की तहज़ीब (जो पाकिस्तान की तहज़ीब से अलग नहीं) और दर्शन उनके अशआर में ख़ूबसूरती से उतरता है। बाबा ने एक शेर में यूं अर्ज़ किया कि -

कौन कहता है कि मौत आयी तो मर जाउंगा
मैं तो दरिया हूं समन्दर में उतर जाउंगा।

बाबा की शख़्सियत कुछ ऐसी लगती है कि कहना चाहूं तो क्या कुछ न कहूं लेकिन कहने लगूं तो बहुत कुछ कह न सकूं। उन्हीं के अल्फ़ाज़ में कहूं तो - "लफ़्ज़ सूझा तो मानी ने बग़ावत कर दी"।

नोट्स

कामायनी - विद्वानों की दृष्टि में - भाग एक


पिछले 150 सालों से अधिक समय में हिन्दी साहित्य की दस सर्वाधिक महत्वपूर्ण पुस्तकों में से एक निःसंदेह कामायनी है। जयशंकर प्रसाद की यह कालजयी रचना अपने परिचय तथा विस्तार की शिनाख़्त के लिए कतई मोहताज नहीं है। कहते हैं कि बाबू देवकीनंदन खत्री रचित चंद्रकांता पढ़ने के लिए देश भर के विभिन्न कोनों के लोगों ने हिन्दी सीखी थी। यह भी उतना ही बड़ा अजूबा है कि कामायनी पढ़ने के लिए लोगों ने शुद्ध हिन्दी सीखने व समझने के प्रति रुझान दिखाया। दूसरे अर्थों में कामायनी ने यह सिद्ध किया कि छायावादी भाषा और बुनावट में विश्व स्तरीय काव्य की रचना की जा सकती है। बहरहाल, अनेकानेक शोध हो चुके हैं और कामायनी की परतों को खंगाला जा चुका है। कुछ विद्वानों की मानें तो आजकल के शिक्षक तो शिष्यों को कामायनी न तो सही ढंग से पढ़ा-समझा सकते हैं, न ही ख़ुद उसके चौथाई तत्व को समझ पाते हैं।

बहरहाल, एमए करते हुए मैंने कामायनी को गहराई से समझने का प्रयास किया। बहुत तो नहीं, लेकिन हां, कुछ तो समझ सका और उसका कारण कई विद्वानों की दृष्टि। प्रसाद जी के समकालीनों और परवर्तियों ने कामायनी को किस प्रकार देखा, समझा, समझाया, इस बाबत कई लेख और पुस्तकें पढ़ीं। नोट्स की शक्ल में कुछ यहां प्रस्तुत कर रहा हूं। अनावश्यक हो सकता है लेकिन हिन्दी के वर्तमान विद्यार्थियों, नवोदित साहित्यकारों और कुछ सुधी पाठकों के लिए लाभकारी हो सकते हैं, इसी विश्वास के साथ...

सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला

कामायनी रहस्यवाद का प्रथम महाकाव्य है। सृष्टि के रहस्य पर मुख्य रूप से दो विचारधाराएं हैं, एक भारतीय और दूसरी पाश्चात्य - डारविन कृत। भारतीय विचार मनस्तत्व प्रधान है और डारविन का जीव-जंतुओं के विकास क्रम को दर्शाता हुआ मुख्यतः भौतिकतावादी है। वास्तव में, सृष्टि तत्व को समझने के लिए माया की व्याख्या सबसे उत्तम है, यद्यपि हज़ारों वर्षों में आज तक बहुत कम लोगों की समझ में यह व्याख्या आयी है।

...हिन्दी के युगान्तर साहित्य के जो तीन प्रजापति हैं, उनमें प्रसादजी एक "श्रद्धा देवो वै मनुः" हैं। शेष दो हैं स्व. प्रेमचंद और बाबू मैथिलीशरण। कविवर प्रसाद मनु और श्रद्धा को स्थूल रूप में भी मानते हैं। साहित्य का उनका रहस्यवादी या छायावादी पक्ष एक ओर करने पर हिन्दी का अष्ट बज्र सम्मेलन होता है और प्रसाद जी उसमें सर्वमान्य अग्रणी हैं।

हिमगिरि के उत्तुंग शिखर पर, बैठ शिला की शीतल छांह
एक पुरुष भीगे नयनों से देख रहा था प्रलय प्रवाह
नीचे जल था उपर हिम था, एक तरल था एक सघन
एक तत्व की ही प्रधानता कहो उसे जड़ या चेतन।

"मैकबैथ" के प्रारंभ में भी महाकवि शेक्सपियर ने नाटक का पूरा भाव जैसे एक गीत में दर्शा दिया है, जैसे "अभिज्ञान शाकुन्तलम्" का पूरा तत्व कवकिुल गुरु कालिदास ने या सृष्टिः स्रष्टुराधा वाले पद्य में बांध दिया है, वैसे ही वर्तमान युग के प्रवर्तक कविश्रेष्ठ प्रसाद ने उक्त चार पंक्तियों में मानव सृष्टि की व्याख्या-सी कर दी है।

...इस कथा को महाकाव्य कामायनी में कविवर प्रसाद की लेखनी जिन रूपों में चित्रित करती है, देखते ही बनता है। मनुष्य मन का इतना अच्छा चित्र जिस समझदारी के साथ इस पुस्तक में चित्रित हुआ, मैंने हिन्दी और बंग्ला के नवीन साहित्य में अन्यत्र नहीं देखा।
- "कामायनी: एक युगान्तकारी महाकाव्य" शीर्षक लेख के अंश

रामधारी सिंह दिनकर 

अपार संख्या तो उन्हीं आलोचकों की है जो कथानक की दिव्यता और शैव दर्शन के वैभ्राज्य के सिवा कामायनी में और कुछ देख ही नहीं पाते।

इस स्थूल कथा से जो सूक्ष्म कथा ध्वनित होती है, वह यह है कि मनुष्स स्वभाव से पशु है। मानवता और मृदुलता उसमें श्रद्धा एवं बुद्धि के योग से आती है। कामायनी का कथा सूत्र विरल होता हुआ भी व्यापकता में कम नहीं है। उसका एक छोर यदि सभ्यता के आदिकाल में है तो दूसरा भविष्य के गह्वर तक जाता है।

...कविता केवल विचार और भाव को लेकर सफल नहीं होती। सफल वह तब होती है जब भाव और विचार अनुकूल भाषा में अनुकूल ढंग से व्यक्त होते हैं। कामायनी का अधिकांश भाग तो ऐसा ही है, जहां भाषा लचर, अभिव्यक्तियां लद्दड़ और सफाई बिल्कुल शून्य है। आचार्य कुंतक ने यह कहकर व्यक्त किया है कि सफल कविता में भाव और भाषा के बीच परस्पर स्पर्धा की भावना काम करती है। कुंतक के मत पर गहराई से विचार किया जाये तो अनुमान होता है कि सफल काव्य रचना की अगली कुंजी भाषा के ही हाथों में होती है। कामायनी में कुछ विद्वान यति दोष अथवा छंदोभंग की भी चर्चा करते हैं। किन्तु, मेरे जानते इस दृष्टि से कामायनी सदोष काव्य नहीं है।

..."रहस्यवाद वह धूमिल वाणी है जो अदृश्य वास्तविकता की कल्पना से फूटती है, जो उस मनुष्य के मुख से निकलती है, जो अदृश्य सत्यों की काल्पनिक झांकी से अभिभूत हो उठा है।"
- "कामायनी: दोषरहित दूषणसहित" शीर्षक लेख से अंश

आगामी भागों में आचार्य नंददुलारे वाजपेयी, सुमित्रानंदन पंत, मुक्तिबोध, इलाचंद्र जोशी आदि-आदि विद्वानों के दृष्टिकोणों का समावेश करने की चेष्टा रहेगी।
क्रमशः

बुधवार, मार्च 22, 2017

समीक्षा

रहबर साहब के ख़ुश्बू में बसे ख़त


मशहूर शायर जनाब राजेंद्रनाथ रहबर की मक़बूल किताब "तेरे ख़ुश्बू में बसे ख़त", मेरी नज़र में...


मोहतरम रतन पंडोरवी के शागिर्द जनाब राजेंद्रनाथ रहबर साहिब की शायरी का शाहक़ार है, यह मजमूआ - "तेरे ख़ुश्बू में बसे ख़त"। उनकी ग़ज़लें, नज़्में, ख़मसे, उनकी शायरी उनके फ़न को आंकने के लिए काफ़ी हैं। रहबर साहिब की शायरी अदबी सत्ह पर खरी उतरती ही है, काफ़ी मशहूर भी हुई है। उनकी एक नज़्म जिस पर किताब का उन्वान तय किया गया है, मक़बूल गायक जगजीत सिंह की आवाज़ में जादू बिखेर चुकी है।

मैं इक चिराग़ हूं दहलीज़ पर सजा मुझको
बुझा न दे कहीं ये सरफिरी हवा मुझको।

और भी कुछ इसी तरह के अच्छे अशआर इस किताब में मयस्सर हैं, लेकिन दरअस्ल, रहबर साहिब आशिक़ी की शायरी ज़्यादा करते हैं। उनकी शायरी की परम्परा सदियों पहले की शायरी से मानी जा सकती है। फिर भी, उसमें शिगुफ़्तगी है। कहीं-कहीं तन्ज़ करती उनकी शायरी उन्हें हालिया दौर से जोड़ती है और कहीं-कहीं फ़ल्सफ़ा बयान करने की वजह से उनकी सोच और मौजूदा हालात पर उनका नज़रिया साफ़ हो जाता है। लेकिन इसका मतलब यह कतई नहीं निकाला जाना चाहिए कि वह किसी इन्क़लाब से वाबस्ता या समाज की मुश्क़िलात को मरक़ज़ में रखने वाली शायरी के फ़नक़ार हैं।

नज़्म और ग़ज़ल, हालांकि दोनों उन्होंने बक़ौल जनाब 'रिज़ा' साहब, कहने की तरह कही हैं, फिर भी लगता है कि नज़्म में रहबर साहिब ज़्यादा रमते हैं। उनके पास अच्छे अशआर हैं लेकिन उनका कमाल नज़्म में और बड़ा मुक़ाम हासिल करता है। दरअस्ल, नज़्म की एक ख़ूबी है कि वह जज़्बात और ख़यालात को ऐसा कैनवास देती है जिसमें लमहा-लमहा जोड़कर एक सदी की तस्वीर बनायी जा सकती है। इसी कैनवास पर एक अच्छे मुसव्विर की तरह रहबर साहिब ने भी कुछ क़ीमती तसावीर अंजाम दी हैं। "अजमेर कौर", "मिन्नत", "नादान बुज़ुर्ग", "तेरे ख़ुश्बू में बसे ख़त" कुछ ऐसी ही नज़्में हैं। एक मर्सिया भी उन्होंने ख़ूब कही है जिसमें एक शायर को तहे-दिल से याद गया है।

रहबर साहिब की उर्दू शायरी में कहीं-कहीं पंजाबी का लहजा चार चांद लगा देता है। कहीं-कहीं नस्री शायरी को छोड़ दें तो उनका शायराना फ़न बेशक़ कसा हुआ है। ग़ज़लियात में बहरें और बाक़ी मस्लक भी उनके पास क़ायदे का है। कुछेक जगह तो सलीक़ा इस क़दर हावी है कि फ़िक्र और शेर की कहन फीकी पड़ जाती है। कुछेक जगह काफ़ियों का दोहराव भी खलता है। नज़्म बिला शक़ उनके फ़न की पैरवी करती है। "अजमेर कौर" में रहबर साहिब सिर्फ़ एक क़िरदार ही कहते हैं, दूसरा जो ख़ुद हैं, उसका खुलासा ही नहीं करते जिस तरह "तेरे ख़ुश्बू में बसे ख़त" में उन्होंने किया है। "मिन्नत" नज़्म भी अच्छी बन पड़ी है। ख़मसे कहने के लिए भी उन्होंने अच्छे अशआर चुने हैं।

कुल मिलाकर रहबर साहिब की शायरी को नज़रअंदाज़ कर पाना मुमक़िन नहीं है। बेहतर अशआर का मुताला करने वालों के लिए ये किताब वाकई फ़ायदेमंद है। किताब के आख़िर में रहबर साहिब ने चन्द मुतफ़र्रिक अशआर भी रखे हैं, जिनके बारे में क्रिटिक्स की राय एक सी हो, यह ज़रूरी नहीं है।

किताब - तेरे ख़ुश्बू में बसे ख़त
शायर - राजेंद्र नाथ रहबर
प्रकाशक - दर्पण पब्लिकेशन्स, पठानकोट/2003

अनुवाद

अवरोध के पार


एमए के प्रथम वर्ष के दौरान अंग्रेज़ी के विक्टोरियन कवि अल्फ्रेड टेनिसन की एक कविता "क्रॉसिंग द बार" का अनुवाद किया था मैंने। वरिष्ठ साहित्यकारों से सराहना तो मिली ही इस पर, मुझे सबसे ज़्यादा संतुष्टि तब हुई जब अंग्रेज़ी विभाग में सेवारत मेरी प्रिय प्रोफेसर डॉ कुमुद तिवारी जी ने इस अनुवाद पर 'करेक्ट' और 'एक्सीलेंट' जैसे शब्दों की मुहर लगा दी।

डॉ तिवारी मैम से बीए के तीन साल अंग्रेज़ी साहित्य पढ़ने का सौभाग्य मिला मुझे। तिवारी मैम और डॉ मीता वर्मा मैम के समझाने और पढ़ाने का अंदाज़ आज तक मेरी स्मृतियों की धरोहर है। तिवारी मैम से संपर्क पिछले कुछ समय तक बना रहा, जब तक वह भोपाल में रहीं, रिटायरमेंट के कुछ साल बाद तक भी। शादी के बाद जोड़े से उनका आशीर्वाद लेने भी उनके घर गया था। तब उन्होंने बहुत सी बातें की और मेरी पत्नी को बहू की तरह स्नेह व विदाई दी। अभिभूत हुआ मैं। उनकी सौम्य, तरल, सरल और शांत छवि मेरे मन में बेहद सम्मान के साथ स्थापित है। हालांकि उनका कहा पूरा नहीं कर पाया और अनुवाद का सिलसिला आगे बढ़ा नहीं, फिर भी उनके आशीष से सिक्त इस अनुवाद को तकरीबन 15 साल बाद भी अपनी डायरी में सहेज रखा है।

यहां टैनिसन की मूल अंग्रेज़ी कविता और उसका हिन्दी अनुवाद साझा करता हूं जो एक तरह से मेरे लिए धरोहर है, जिसकी वजह मैं अभी-अभी बता गया हूं।


अवरोध के पार                                        Crossing the Bar


ढलता सूरज और सांझ का सितारा,                                Sunset and evening star,
और मेरे लिए एक बिल्कुल साफ़ आवाज़!                        And one clear call for me! 
ऐ काश! कोई भी क्रन्दन न करे किनारा,                          And may there be no moaning of the bar,
जब मैं करूं समुद्री सफ़र का आगाज़                             When I put out to sea,

ज्वार भाटे मचलते हैं यूं तो शांत से,                                But such a tide as moving seems asleep,
लेकिन ध्वनि व फ़ेन से लबालब,                                     Too full for sound and foam,
जबकि आया था जिस अतल गहरे प्रांत से                        When that which drew from out the boundless deep
लौट रहा हूं उसकी को फिर अब!                                   Turns again home.

गोधूलि का उजाला और संध्या की घण्टियां,                       Twilight and evening bell, 
और उसके बाद बस एक अंधकार!                                 And after that the dark!
और न हों विदाई की कोई उदासियां,                              And may there be no sadness of farewell,
जब होउं मैं जहाज़ पर सवार;                                        When I embark;

देश काल की हमारी सीमाओं को चीरते हुए                     For tho' from out our bourne of Time and Place
यह समुद्र ले जाएगा दूर मुझे पार,                                  The flood may bear me far,
मुझे पता है मिलूंगा अपने पायलट से                               I hope to see my Pilot face to face
जब कर चुकूंगा इस अवरोध को पार.                              When I have crost the bar.


AN OVERVIEW OF THE POEM - Wikipedia

Tennyson is believed to have written the poem (after suffering a serious illness) while on the sea, crossing the Solent from Aldworth to Farringford on the Isle of Wight. Separately, it has been suggested he may have written it on a yacht anchored in Salcombe. "The words", he said, "came in a moment" Shortly before he died, Tennyson told his son to "put 'Crossing the Bar' at the end of all editions of my poems".The poem contains four stanzas that generally alternate between long and short lines. Tennyson employs a traditional ABAB rhyme scheme. Scholars have noted that the form of the poem follows the content: the wavelike quality of the long-then-short lines parallels the narrative thread of the poem.

मंगलवार, मार्च 21, 2017

काव्य

तुम और मैं - एक यात्रा रैदास से दिलशाद तक


प्रभु जी तुम चन्दन हम पानी...
संभवतः हिन्दी कविता में "तुम और मैं" की यात्रा इस भजन से शुरू हुई। रैदास रचित इस भजन की धुन आज भी लोक में गुनगुन है और काव्य जगत में अब भी कवियों को आकर्षित करती है। निर्गुण और सगुण उपासना के मत-मतांतरों का भेद मिटाती यह रचना उस परमशक्ति के साथ हर मन का तादात्म्य स्थापित करती है जो हर मन को संभवतः अलग अनुभव में प्राप्त होती है।

तुम और मैं - शीर्षक में ही अद्भुत विस्तार है। रैदास से शुरू हुआ यह सिलसिला उनके कुछ परवर्ती कवियों की रचनाओं में स्थान पाता है और इस विषय पर कुछ और भक्तिपरक रचनाएं मिलती हैं लेकिन विषय साम्य के कारण रैदास की मौलिकता के समानांतर स्थापित नहीं हो पातीं। एक स्तर पर रैदास की रचना का दोहराव ही प्रतीत होती हैं। हिंदी कविता के आधुनिक युग में इस विषय पर लम्बे समय बाद एक रचना आलोक बिखेरती है और अमर हो जाती है।

निराला, सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला रचित रचित "तुम और मैं" कविता। यह कविता भेदाभेद दर्शन को अंतस में छुपाये हुए एक सम्वाद शैली की उच्च कोटि की रचना है। छायावाद के युग में आयी इस रचना में स्वाभाविक रूप से छायावादी और रहस्यवादी दोनों ही प्रकृतियां विद्यमान हैं। इस रचना ने आधुनिक कविता में श्रेष्ठता के कीर्तिमान तो स्थापित किये ही, समकालीन और परवर्ती कवियों को प्रभावित व प्रेरित भी किया कि इस विषय को पुनः पुनः स्पर्श किया जाये। निराला के काव्य संग्रह "परिमल" में यह रचना प्रथमतः प्रकाशित हुई थी, इसके कुछ अंश देखें -

तुम तुंग हिमालय श्रृंग /और मैं चंचल.गति सुर.सरिता।
तुम विमल हृदय उच्छवास /और मैं कांत कामिनी कविता
... तुम अम्बर मैं दिग्वसना
तुम चित्रकार घनपटल श्याम /मैं तड़ित् तूलिका रचना।
तुम रण ताण्डव उन्माद नृत्य /मैं मुखर मधुर नूपुर ध्वनि
तुम नाद वेद ओंकार सार /मैं कवि श्रृंगार शिरोमणि।

छायावादी कवि महादेवी वर्मा भी अपनी कुछ रचनाओं में इस विषय को स्पर्श करती हैं। हालांकि वह पूर्णरूपेण या स्पष्ट रूप से इस विषय को किसी कविता में मुखरित करती हैं या नहीं, मेरे सीमित अध्ययन में यह खुलासा हो नहीं पाया लेकिन कुछ कविताएं मिली हैं, जिनसे अंदाज़ा लगा कि इस विषय के प्रति वह आकर्षित तो रहीं। उनके एक गीत "तुम मुझमें प्रिय फिर परिचय क्या", का अंश देखें -

चित्रित तू मैं हूँ रेखा क्रम /मधुर राग तू मैं स्वर संगम
तू असीम मैं सीमा का भ्रम /काया.छाया में रहस्यमय
प्रेयसी प्रियतम का अभिनय क्या?

गीतों और छंबद्ध कविता में ही यह विषय सीमित रहा हो, ऐसा नहीं है। छन्दमुक्त या उस समय नयी कविता की संज्ञा प्राप्त करने वाले काव्य में भी यह विषय मुखरित हुआ। अज्ञेय और रामदरश मिश्र जैसे नयी कविता के शीर्ष कवि इस विषय को अपनी काव्य में स्वर देते हैं। छन्दबद्ध काव्य में जहां यह विषय भक्ति, राग-विराग, रहस्यवाद, समष्टि-व्यष्टि संबंध में चित्रित होता है, वहीं छन्दमुक्त कविता में यह विषय भौतिक प्रेम और सामाजिक यथार्थवाद को भी खुद में समाहित करता है।

एक पहलू और है - इस विषय की सार्थकता और विस्तार का प्रमाण। हिन्दी ही नहीं बल्कि अन्य भारतीय भाषाओं के काव्य में भी यह विषय ध्वनित होता है। उड़िया के मशहूर कवि सीताकांत महापात्र की कुछ रचनाएं इस विषय को स्पर्श करती हैं तो उर्दू के समर्थ कवि गुलाम नबी फ़िराक़ इसी शीर्षक से एक पूरी कवता लिखते हैं। मेरे विचार से यह शीर्षक इतना स्वाभाविक और उत्प्रेरक है कि हर कवि जीवन में कभी न कभी इसके आग़ोश में पनाह लेता ही होगा।

मेरे अध्ययन की सीमाएं हैं लेकिन मुझे पूरा विश्वास है कि विश्व की हर समर्थ भाषा के काव्य में यह विषय कम से कम एक कालजयी रचना तो प्रस्तुत करता ही होगा। मध्य पूर्व के एक कवि हैं नाज़िम हिक़मत, उनकी एक कविता का अनुवाद भी मिलता है इसी शीर्षक से। इन्हीं कुछ कारणों से मेरा यह विश्वास बना है। वैसे, ज़ाती तौर पर मैं इस विषय से बहुत प्रभावित रहा हूं और शायद इन्हीं प्रेरणाओं के कारण एकाधिक रचनाएं इस विषय के इर्द-गिर्द रच चुका हूं। पिछले कुछ समय से मन भी है कि कभी भविष्य में मौक़ा मिला तो इस विषय पर न केवल हिन्दी बल्कि सभी भाषाओं की प्रतिनिध रचनाओं का एक संकलन पाठकां को सौंप सकूं।

बहरहाल, इस विषय पर दो सिरों से और बात कर लूं। एक, इस शीर्षक पर जो कविताएं आधुनिक युग में रची गयी हैं, उन पर कहीं न कहीं निराला की रचना का प्रभाव या प्रेरणा है, यह मैं पुख़्ता तौर पर कहता हूं। प्रवर्तन निराला ने ही किया। निराला की कविता इतनी लोकप्रिय तथा आदर्श सिद्ध हुई कि बेढब बनारसी ने उस कविता की एक हास्य पैरोडी लिखी और यह हास्य विशुद्ध है। आजकल के फूहड़ हास्य की श्रेणी का नहीं बल्कि स्वस्थ एवं मनोरंजक। कुछ अंश देखें -

तुम ताजा हो मैं बासी 
तुम सिटी लखनऊ हो सुन्दर मैं मस्त नगर हूँ काशी 
मैं बथुआ का हूँ साग और तुम हो कश्मीरी केसर 
मैं सेशन कोर्ट का अपराधी तुम बैठी बनी अफीसर
...तुम मटनचाप मैं भरता 
तुम 'सिमसन' मैं 'एडवर्ड', प्रेम हित जो गद्दी 'किक' करता 
मैं अनपढ़ हूँ बेढब गँवार तुम 'अपटूडेट' लासानी
मैं हिन्दी भाषा दीन हीन तुम हो अंगरेजी बानी
तुम तोप और मैं लाठी 
तुम रामचरित मानस निर्मल मैं रामनरेश त्रिपाठी

अंतिम छोर पर यह भी अर्ज़ कर दूं कि बीसवीं सदी में फिल्मी गीतों को जितनी लोकप्रियता मिली, उतनी शायद साहित्यिक रचनाओं को नहीं। और, ऐसा भी नहीं है कि फिल्मी गीतों में साहित्य या स्तरीयता का सर्वथा अभाव रहा हो। कुछ गीत, नग़मे वास्तव में फिल्मों ने ऐसे दिये हैं जिन पर हमारे समय के साहित्य को गर्व हो सकता है। इस विषय के हवाले से कहूं तो पंडित भरत व्यास और नक़्श लायलपुरी रचित दो रचनाएं सहसा ही स्मृति में कौंधती हैं जो पुराने फिल्मी गीतों के रसिकों को अब भी याद होंगी -

तुम गगन के चंद्रमा हो, मैं धरा की धूल हूं
तुम प्रलय के देवता हो, मैं समर्पित फूल हूं
- पंडित भरत व्यास

पिया तुम हो सावन, मैं जलती कली हूं
अगर तुम हो सागर, मैं प्यासी नदी हूं
- नक़्श लायलपुरी

मैं जानता हूं कि यह विषय एक संक्षिप्त लेख नहीं बल्कि एक विस्तृत शोधपरक लेख या संभवतः एक पुस्तक तक का हक़दार है। मेरा मन है कि इस पर भविष्य में कुछ महत्वपूर्ण काम कर सकूं। होगा या नहीं, यह तो भविष्य के गर्भ में ही है। अंत में सभी सुधी पाठकों से निवेदन है कि इस विषय के संदर्भ में कोई भी उपयोगी जानकारी, रचना या स्वयं का किसी भी प्रकार का सृजन यदि साझा करना चाहें तो कृपा होगी। भविष्य में, इस विषय पर मेरे आने वाले शोधपरक कार्य के लिए यह योगदान होगा ताकि आपके द्वारा प्रदत्त सूचना या सृजन को उसमें स्थान मिल सके। शेष फिर कभी।

तुम और मैं - दिलशाद 

इक तमन्ना है इक इबादत है
दोनों मिलते हैं आस्मानों में...

तू कोई लफ़्ज़ है मैं मानी हूं
तू समंदर है और मैं पानी हूं
तू समय मैं तेरी रवानी हूं
तू है लाफ़ानी तो मैं सानी हूं
तू कोई नज़्म है मैं लय तेरी
हम मचलते हैं दो जहानों में...

तू सफ़र है तो रास्ता हूं मैं
तू है मंज़िल तेरा पता हूं मैं
तू कोई जश्न है मज़ा हूं मैं
तू कोई जाम है नशा हूं मैं
तू कोई शम्अ है मैं लौ तेरी
दोनों जलते हैं शम्अख़ानों में...

तू मेरी सोच मैं ख़याल तेरा
तू मेरा फ़न है मैं कमाल तेरा
तू मेरी बोली मैं ज़ुबान तेरी
तू मेरी रूह है मैं जान तेरी
तू दुआ है कोई मैं आयत हूं
चल कि चलते हैं आस्मानों में...