ग़ज़ल गायकी: एक सफरनामा
ग़ज़ल के गायन से जुड़ी तक़रीबन डेढ़ हज़ार सालों की तारीख़ को प्रामाणिक ग्रंथों के हवाले से समेटता यह संक्षिप्त आलेख साहित्य सागर, अर्बाबे-कलम और देव भारती आदि कुछ पत्रिकाओं में प्रकाशित हो चुका है।
19वीं सदी के पूर्वार्ध की बात है जब मिर्ज़ा ग़ालिब को दरबारों में एक शायर के तौर पर नकारा जाता था। ग़ालिब को अपने कलाम पर पूरा यक़ीन था, बावजूद इसके उन्हें जब एक शायर की हैसियत और वक़ार हासिल नहीं हो रहा था, उस दौरान उन्होंने अपने एक कलाम को एक कोठे से एक तवायफ़ की आवाज़ में सुना और वहां जाकर उन्होंने यह मालूम किया कि उन तक ये ग़ज़ल कैसे पहुंची। इसके कुछ ही दिनों बाद गली-कूचों में गाते हुए भीख मांगते हुए एक फ़कीर को उन्होंने सुना तो वह भी उनका ही कलाम गुनगुना रहा था। तब बेसाख़्ता उनके मुंह से निकला "जो कलाम कोठे में तवायफ़ और कूचे में फ़कीर की ज़ुबान पर हो, उसे कौन मार सकता है !" इस घटना के संदर्भ में गौर करें तो ग़ज़ल गायकी अपने इब्तिदाई दौर में फ़कीरों और तवायफ़ों से जुड़ी रही। हज़रत अमीर खुसरौ न सिर्फ एक मुकम्मल शायर थे, बल्कि संगीत का भरपूर ज्ञान रखते थे। उन्होंने एक तरह के सितार के ईजाद की थी। हज़रत खुसरौ और उनके बाद ग़ज़ल गायन की यात्रा से पहले कुछ बात उनसे पहले की ज़रूरी है।
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आचार्य बृहस्पति लिखित संगीत चिंतामणि में एक हवाला दिया गया है "हज़रत मुहम्मद के जन्म से पूर्व के कुछ अरबी ग्रंथ रामपुर के रज़ा पुस्तकालय में सुरक्षित हैं जिनमें कुछ गीतों की विशिष्ट स्वर-लिपि भी है"। इसी ग्रंथ में एक और बात स्पष्ट की गयी है कि 8वीं सदी के पूर्वार्ध में "मोहम्मद बिन कासिम के आक्रमण के बाद मनसूरा, कदावेल, वैजा, महफूज़ा और मुल्तान जैसी बस्तियां अरब और भारत के संगीत का संगमस्थल बन गयी थीं"। गोया कि यहां से हम उस तहज़ीब का बीजारोपण मान सकते हैं जो बाद में गंगा-जमुनी तहज़ीब के नाम से जानी गयी। 8वीं और 9वीं सदी में संगीत की विभिन्न धाराओं का प्रचार शुरू हुआ। नतीजा यह हुआ कि भारत के संगीत के साथ-साथ अरब के मुसलमानों का प्रचलित संगीत और फारस का संगीत भारतीय सीमाओं में गूंजने लगा। वस्तुतः हर संगीत के स्वभाव एवं गुणों में फर्क था। उपरोक्त ग्रंथ के ही अनुसार मुल्तान क्षेत्र में अरब मुसलमानों के प्रभाव से धुनों और रागों का जन्म हो रहा था, वहीं मोइनुद्दीन चिश्ती अजमेरी अजमेर की लोक भाषा के छंदों और प्रचलित धुनों में गायकी के लिए कव्वालों को प्रेरित कर रहे थे। यह कोई प्रतिद्वंद्विता जैसी स्थिति नहीं थी, लेकिन अपनी मान्यताओं और कलाओं का प्रचार अवश्य था। 1967 के संगीत पत्रिका के अंक में उल्लेख है कि बनी अब्बास के ज़माने तक स्थायी कला के रूप में ग़ज़ल गाने का प्रचार हो गया था। यह भी बताया जाता है कि इब्राहीम बिन महदी, इब्राहीम मुसली, इसहाक इब्ने इब्राहीम और हमीद इब्ने इसहाक बड़े-बड़े गायक उस ज़माने में पैदा हुए।
अलक़िस्सा, 12वीं सदी तक ग़ज़ल गायन मौसिक़ी की एक महत्वपूर्ण धारा बनकर उभरा। डॉ. प्रेम भंडारी लिखते हैं कि भारतीय संगीत में ग़ज़ल गायकी के प्रचार का एक बहुत बड़ा श्रेय सूफ़ी संतों को है। अनेक आलोचक मानते हैं कि भारत में ग़ज़ल गायकी का प्रचलन 13वीं शताब्दी के पूर्व ही हो चुका था। डॉ. श. श्री. परांजपे लिखते हैं कि सूफियों ने प्रार्थना संगीत में फ़ारस की ग़ज़ल को स्थान दिया और उसे भारतीय रागों और तालों में ढालने की शुरुआत की। कुछ ग्रंथों में उल्लेख मिलता है कि सन् 1210 से 1388 तक ग़ज़ल आम जनजीवन और दरबारों में शोहरत पा चुकी थी। इस वक़्त में कव्वाल मेहमूद, मोहम्मद और खुदादी जैसे ग़ज़ल गायकों के नाम लिये जाते हैं। कहा जाता है इल्तुतमिश, बलबन, खिलजी, तुग़लक जैसे शासकों के युग में ग़ज़ल गायकी को सम्मान मिला। इसी समय के बीच में हज़रत खुसरौ हुए जो ग़ज़ल के साहित्यिक और सांगीतिक विकास के एक महत्वपूर्ण स्तंभ माने गये। अनेक लेखकों और ग्रंथों में माना गया है कि भारत के लोकजीवन में ग़ज़ल को प्रचलित और प्रतिष्ठित करने में उनकी भूमिका सराहनीय रही। "मुसलमान और भारतीय संगीत" नामक पुस्तक में ज़िक्र है कि दक्षिण के मोहम्मद शाह प्रथम के दरबार में 300 गायकों द्वारा खुसरौ की ग़ज़लें गायी गयीं।
इसके बाद संगीत कला की उन्नति हुई, लेकिन ग़ज़ल का साहित्यिक सफर कुछ ठहर सा गया। चूंकि ग़ज़ल एक मुक़ाम हासिल कर चुकी थी इसलिए ग़ज़ल का सांगीतिक सफ़र जारी रहा, लेकिन 14वीं और 15वीं सदी में ही ये हालात बन गये कि गायक पूर्ववर्ती शायरों की ही ग़ज़लें गाते थे, समकालीनों की ग़ज़लें बहुत कम। इंडियन म्यूज़िक नामक किताब में गार्ली ओबिंस लिखते हैं कि सिकंदर लोदी विद्वानों का आदर करता था और उसके समय में भारतीय संगीत की उन्नति हुई। ख़्याल और ग़ज़ल अधिक बने। फिर, मुग़लकाल भारतीय कलाओं के स्वर्ण काल के रूप में जाना जाता है। इस समय में एक तरफ़ तो हिंदी का कालजयी लोक काव्य रचा जा रहा था, दूसरी ओर, कुछ उल्लेखनीय शायर ऐसा काव्य रच रहे थे जो एक नयी भाषा की आमद का संकेत था, जिसे बाद में उर्दू कहा गया। यह हिंदोस्तान में पैदा हुई एक ऐसी ज़ुबान थी, जिसमें बहुत से रंग मिले-जुले थे।
मुगल बादशाह अकबर के समय में फ़ैज़ी, नज़ीरी, शेख सादी मक़बूल शायर थे और तानसेन, बैजू और रामदास जैसे सिद्ध गायकों द्वारा ग़ज़लें गाये जाने के उल्लेख मिलते हैं। जहांगीर कलाओं का शौकीन था और भगवतीशरण शर्मा लिखते हैं कि उसे संसार में कुछ पसंद था तो शांति और संगीत। इसके बाद शाहजहां के काल में रोज़ा और अकबर प्रमुख ग़ज़ल गायक हुए तो नासिर अफ़ज़ली इलाहाबादी और पंडित चंद्रभान उर्दू के प्रमुख शायर। शर्मा जी लिखित "भारतीय संगीत का इतिहास" नामक पुस्तक में उल्लेख है कि शाहजहां के समय में संगीत नये सांचों में ढला, नयी राग-रागिनियों की रचना हुई और ईरानी-अरबी संगीत का भारतीय संगीत में तीव्रता से सम्मिश्रण हुआ।
फिर, औरंगज़ेब के समय में संगीत और शायरी को दरबार में जगह नहीं मिली, लेकिन इसका फायदा यह हुआ कि संगीत, शायरी और ग़ज़ल गायन को छोटी-छोटी रियासतों में पनाह मिली जिससे इन कलाओं का विस्तार हुआ और ये लोकजीवन से जुड़ने लगीं। इसके बाद, मोहम्मद शाह रंगीले के समय को भारत में ग़ज़ल और ठुमरी गायन का उत्कर्ष काल माना जाता है। औरंगज़ेब की एक पुत्री दिलरस बानो उर्फ़ ज़ेबुन्निसा विद्वान संगीतज्ञ थी। उसी परंपरा में, रंगीले के समय में घूमन और हसीना दो प्रमुख ग़ज़ल गायिकाएं हुईं। इस काल में अनेक प्रसिद्ध संगीतज्ञों के नाम आते हैं। इसी सिलसिले को बुलंदी मिली बहादुर शाह ज़फ़र के समय में। ज़फ़र खुद एक बड़े शायर थे। रंगीले और ज़फ़र के बीच के समय में मीर और दर्द जैसे महान शायर हुए तो ज़फ़र के समय में ग़ालिब, मोमिन, ज़ौक़ आदि अनिवार्य शायर हुए। इस समय में प्रसिदु जी, विश्वेश्वर मिश्र, मनहर मिश्र जैसे आला ग़ज़ल गायक भी हुए और डोमनी नाम की प्रसिद्ध ग़ज़ल गायिका भी इसी समय में हुई। कहा जाता है कि शास्त्रीय संगीत के उत्कृष्ट गायक मौलाबख़्श भी ग़ज़ल गाते थे।
मुग़लों के पतन के बाद, अंग्रेज़ी हुकूमत के दौरान ग़ज़ल गायकी परवान चढ़ती गयी और लगातार विकसित होती रही। मुग़लकाल के पतन के प्रारंभ के समय से ही ग़ज़ल कोठों तक आम हो चुकी थी। तवायफ़ें मुजरों में ग़ज़लें गाती थीं और उनसे ठुमरियों और ग़ज़लों की ही फरमाइशें हुआ करती थीं। अंग्रेज़ी शासनकाल में यह सिलसिला चलता ही रहा, लेकिन इसके साथ ही ऐसे कुछ संगीतज्ञ ग़ज़ल से जुड़ने लगे जो समाज और धर्म में प्रतिष्ठित थे। इन्होंने ग़ज़ल गायकी को नये आयाम दिये। फैयाज़ खां, रशीद अहमद खां, मजी खां, पंडित लक्ष्मण प्रसाद, आदि उस्ताद संगीतज्ञ थे जिन्होंने ग़ज़ल गायी और ख्याति पायी।
20वीं सदी के प्रारंभ में एक महत्वपूर्ण घटना यह घटी कि एक ऐसी तकनीक का आविष्कार हुआ जो संगीत को रिकॉर्ड कर सकती थी। इसके बाद गायकों को धीरे-धीरे अधिक लोकप्रियता मिलना शुरू हुई। भारत में 1908 के बाद रिकॉर्डिंग शुरू होने के प्रमाण मिलते हैं, जिसे प्रचलन में आने में करीब 20 साल का समय लगा। इसके बाद कोठों में ग़ज़लें गाने वाली डेढ़ दर्जन से ज़्यादा गायिकाएं प्रमुख ग़ज़ल गायिकाओं के रूप में दर्ज हो गयीं। डॉ. प्रेम भंडारी ने 1913 के बाद से स्वतंत्रता प्राप्ति के पहले तक के प्रमुख ग़ज़ल गायकों की गायकी का विश्लेषण करते हुए लिखा है कि इस समय की ग़ज़लों पर ठुमरी, दादरा, ठप्पा और कव्वाली शैलियों का प्रभाव रहा। साथ ही, ग़ज़ल गायकी शास्त्रीय संगीत की रागों पर आधारित रही।
स्वतंत्रता के बाद के ग़ज़ल गायन में कुछ तब्दीलियां दिखायी देती हैं। ग़ज़लों पर दिखने वाली ठुमरी, दादरा आदि की छाप धीरे-धीरे ख़त्म होने लगी। शुद्ध रागों के अलावा ग़ज़लों में विवादी स्वरों का प्रयोग होने लगा और रागों से अलग हटकर भी ग़ज़लें गायी गयीं। दो-एक फ़र्क ऐसे भी आये जो पूर्ववर्ती युग की ग़ज़ल गायकी में सुधार करते थे जैसे ग़ज़ल की भावना और संवेदना को समझकर उसके अनुकूल रागों या धुनों का चयन किया जाना और ग़ज़ल के अलफ़ाज़ के सही और शुद्ध उच्चारण पर ध्यान दिया जाना आदि। सरगम, आलाप और तानें भी इस दौर की ग़ज़ल गायकी में इज़ाफ़ा मालूम होती हैं।
फिल्मों के संगीत ने ग़ज़ल को बेहद लोकप्रिय बनाया और कई गायकों ने ग़ज़ल गायक के तौर पर खुद को स्थापित किया तो कुछ ने गीतों के साथ ग़ज़लें भी बखूबी गायीं। बेग़म अख़्तर, केएल सहगल, तलत मेहमूद, मोहम्मद रफ़ी आदि गायकों को ग़ज़ल गायकी में अपार सफलता मिली। तलत मेहमूद की मखमली आवाज़ ग़ज़ल के लिए बेहद माकूल साबित हुई।
50 के दशक के उत्तरार्ध में एक नाम ग़ज़ल की दुनिया में बड़ी तेज़ी से उभरा और कुछ ही समय में शहंशाहे ग़ज़ल कहा जाने लगा। यह नाम था मेंहदी हसन। विभाजन के बाद पाकिस्तान चले गये हसन ने रेडियो लाहौर से मीर की ग़ज़ल गायी "देख तो दिल कि जां से उठता है" और उसके बाद उनकी ग़ज़ल गायकी को पीछे मुड़कर नहीं देखना पड़ा। हसन ने मीर, ग़ालिब, दाग़ जैसे शायरों के साथ ही समकालीन शायरों की ग़ज़लें गायीं और न सिर्फ खुद को बल्कि अपने हमअस्र शायरों को भी शोहरत दिलायी। इन शायरों में अहमद फ़राज़, क़तील शिफ़ाई, परवीन शाकिर, फ़रहत शहज़ाद और खातिर आदि के नाम प्रमुख हैं। हसन की बेजोड़ गायकी ने ग़ज़ल गायन परंपरा में जो योगदान दिया उसकी मिसाल यह है कि कई ग़ज़ल गायक उनकी गायन शैली से प्रभावित होकर भी प्रसिद्ध हुए और उनके नाम से ग़ज़ल गायकी में हसन घराना सोने के सिक्के की तरह प्रचलित है। हसन से प्रभावित होने वाले मशहूर ग़ज़ल गायकों में जगजीत सिंह, परवेज़ मेंहदी, राजकुमार रिज़वी, हरिहरण, असलम खान आदि प्रमुख हैं।
इसी तरह बेग़म अख़्तर से प्रभावित ग़ज़ल गायकों में नैना देवी, इकबाल बानो, शोभा गुर्टू, रीता गांगुली, नूरजहां, छाया गांगुली आदि के नाम प्रमुख हैं। इसके अलावा एक ऐसी धारा के कुछ गायक भी अपना नाम स्थापित करने में कामयाब हुए जो ग़ज़ल गायकी की किसी खास शैली से प्रभावित नहीं रहे लेकिन उनकी गायकी में हर शैली की छाप कहीं न कहीं कमोबेश दिखती है। ऐसे गायक अपने अलहदा और ख़ास अंदाज़ की वजह से मक़बूल हुए लेकिन जिस तरह ग़ालिब ने मीर का ऐहतराम किया, उसी तरह ये गायक भी अपने पूर्ववर्ती हसन, बेगम अख़्तर, मलिका पुखराज और उनसे पहले के गायकों का प्रभाव खुद पर स्वीकार करते रहे। इस धारा के गायकों में सबसे बड़ा नाम गुलाम अली का है जिनके भारत और पाकिस्तान में अनेक मुरीद हैं। फ़रीदा खानम, पंकज उधास, अनूप जलोटा और मोहम्मद हुसैन-अहमद हुसैन आदि कुछ ऐसे नाम हैं जिन्हें इसी धारा के अंतर्गत प्रमुख ग़ज़ल गायक तस्लीम किया जा सकता है।
पिछले दिनों मेंहदी हसन, जगजीत सिंह के निधन के बाद ग़ज़ल के गलियारों में एक सन्नाटा पसरा रहा। ग़ज़ल के भविष्य को लेकर आए-दिन कलाजगत में चर्चाएं होती हैं। ग़ज़ल गायन के आने वाले कल को लेकर एक संशय की स्थिति बनी हुई है। इसका एक कारण तो यह है कि ग़ज़ल के प्रति गायकों का रुझान कम हो रहा है क्योंकि इसे व्यावसायिकता की दृष्टि से एक विशिष्ट वर्ग की वस्तु मान लिया गया है। और, बड़ा कारण यह है कि इस समय में ग़ज़ल और खासकर उस खास ज़ुबान, जो ग़ज़ल के लिए मुफ़ीद मानी जा सकती है, को सामाजिक जीवन में बहिष्कार जैसी स्थिति का सामना करना पड़ रहा है। जब ग़ज़ल सुनने, समझने और चाहने वालों के वर्ग को समाप्त कर दिया जाएगा तो ग़ज़ल गाने वाले वर्ग का महदूद होते जाना स्वाभाविक ही है। फ़िलहाल पाकिस्तान में यह स्थिति कम ख़तरनाक दिख रही है, लेकिन भौतिकवादिता की जड़ें और अंग्रेज़ियत का भूत वहां भी पनपने लगा है। भारत में यह चिंता का विषय है।
शायरी में इज़ाफ़त तो दूर, फ़िक्रो-तसव्वुर का खूबसूरती और मानीखेज़ तरीके से दिखायी देना दुर्लभ होता जा रहा है। शायरी की बदहाली का आलम यह है कि शायरों के घरों में उनकी क़द्र नहीं होती और खुद शायर अपने बच्चों को यह समझा पाने में दिलचस्पी नहीं रखते कि वे एक कला के साधक हैं और वे जो हैं, वह सम्मानजनक है। ग़ज़ल की शायरी और गायकी को एक धरोहर मानकर उसे सहेजे जाने की ज़रूरत है और यह तभी संभव है कि जब शिक्षा और परिवारों के परिवेश में संस्कारों और अपनी निजी संस्कृति से आने वाली पीढ़ियों को परिचित कराया जाये और जोड़ा जाये।
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