भीष्म साहनी के न रहने के मायने
अनेक प्रसिद्ध कहानियों के साथ ही नाटक और सिनेमा के माध्यम से भीष्म साहनी को याद रखा जा सकता है। भीष्म साहनी के व्यक्तित्व और कृतित्व के कई आयाम हैं जिन पर कई पुस्तकों का सृजन संभव है। यहां प्रस्तुत संक्षप्त आलेख उनके दुनिया-ए-फ़ानी से कूच करने के ऐन बाद श्रद्धांजलि स्वरूप लिखा गया था, जो साहित्य सागर पत्रिका के अगस्त 2003 अंक में प्रकाशित हुआ था।
यों तो साहित्य की भी एक दुनिया है। दुनिया की फितरत होती है कि वह किसी के चले जाने से रुक नहीं जाती। बिल्कुल ज़िंदगी की ही तरह। कई लोग इस दुनिया की रिदा पर अपना कोई निशान छोड़े बिना ही रुख़सत हो जाते हैं। चन्द ही लोग होते हैं जिनके रहने के मायनों पर उनके जाने के मायने हावी रहते हैं। जो वक़्त के सांचे बदल दें, वक़्त भी उनका पैकर धुंधला नहीं होने देता। वक़्त की रफ़्तार से रफ़्तार मिलाकर उसे एक नया रूप देने वाले भीष्म की स्कृति के आकारों को मिटा सकने की ताब वक़्त में भी नहीं है।
Bhisham Sahni. image source : Google |
भीष्म की रचनाएं उनकी सोच, नज़रिये, सवेदन, मानस और बेशक उनके वक़्त को साफ़-साफ़ बयान करती हैं। शेष तो अन्य साहित्यकारों में भी पर्याप्त होने के साथ-साथ सौम्य रूप में मिल जाता है। लेकिन मानस और वक़्त का रूपांकन ही भीष्म को एक अलग कैनवास और दर्जा दिलाता है। ख़ुद भीष्म ने भी कहा था -
"लेखक सत्यान्वेषी है, सच्चाई की खोज करने वाला.... सत्य की खोज न कहें तो प्रामाणिकता की खोज कह लें, बात करीब-करीब एक ही है। हमारी जो रचना हमारे काल की सच्चाई को पकड़ पाती है, वह रचना सार्थक हो जाती है और यदि कोई लेखक बार-बार अपनी रचना में संशोधन करता है तो इसमें भी उसका मूल अभिप्राय उस सच्चाई को अधिक स्पष्टता के साथ लक्षित कर पाना ही है।"
और, भीष्म के वक़्त की सच्चाइयां एक और मार्मिक, दारुण, दर्दनाक और भयावह थीं तो दूसरी ओर, मूल्यपरक, कलात्मक और रचनात्मक सौम्यता से युक्त। दरअस्ल, भीष्म के लेखक का दर्द उस वक़्त को बेधते हुए गुज़रता नहीं है, बल्कि उसके मायाजाल या उसके इर्द-गिर्द चक्कर लगाता रहता है, हां उनका लेखक इस ताने-बाने में घुटकर नहीं रह जाना चाहता। यह दर्द वही था जो "तमस" से पहले यशपाल के "झूठा सच" में अंतस तक बेध गया और "तमस" के बाद मोहन राकेश, रांगेय राघव और गुलज़ार के ज़रीये बार-बार अपना एहसास कराता रहा।
भीष्म अपने वक़्त की चेतना के कथाकार थे और उनके उपन्यासों व अन्य रचनाओं में भी उनकी समसामयिक संवेदना निरन्तर रहती है। भीष्म के लेखक का मुख्य संघर्ष अपने समय और सोच के बीच है। वह समय की नब्ज़ जांचता है और इलाज करने की बजाय उसकी तक़लीफ़ को समझना और उसकी वज्ह को खोजना चाहता है। यहीं भीष्म के लेखक का वजूद असर दिखाता है। न सिर्फ़ पात्र जीवंत लगने लगते हैं, बल्कि उनके हालात, दायरे, प्रतिक्रियाएं और द्वंद्व भी बेमानी नहीं लगते।
इसी द्वंद्व व सच्चाई को वैचारिक धरातल पर कलात्मक रूप में प्रस्तुति देने वाले वक़्त के अनोखे फ़नक़ार भीष्म साहनी की यादें साहित्य की दुनिया में ही क़ैद नहीं रह जाएंगी, वरन् इंसान की हदों के स्पर्श तक पहुंच सकेंगी।
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