शुक्रवार, मार्च 24, 2017

यादें

दर्द की सिगरेट.. इल्हाम का धुआं.. अदब की राख..


1919 में जन्मीं 20वीं सदी के सर्वाधिक महत्वपूर्ण लेखकों में शुमार या शायद सर्वाधिक महत्वपूर्ण लेखक अमृता प्रीतम 2005 में दुनिया को सूना कर गयी थीं, तब उनके लिए एक यादनुमा लेख लिखा था। मामूली संशोधनों के बाद वही लेख...


पाकिस्तान के एक अंग्रेज़ी अख़बार ने अमृता प्रीतम के अदबी क़द के हवाले से स्वीडन की नोबेल प्राइज़ कमेटी को उनकी तरफ़ तवज्जो देने की बात कही। हिन्दुस्तान में भी इस तरह की बात किसी ने उठायी हो। दुनिया के लिए दुनिया का अदब मुहैया कराने वालों में अमृता प्रीतम का नाम यक़ीनन लिया जा सकता है। जब दुनिया भर का दर्द, एक बड़े कैनवास पर रूह की सत्हों को साथ लेकर दर्ज किया जाता है तो देश, भाषा और विधा के बन्धनों को तोड़ देता है और दिल-दिमाग़ में उतर जाने का तकाज़ा करता है। एक हद इल्म की और एक हद इश्क़ की अगर मुक़र्रर की जा सकती है तो मानता हूं कि एक हद किसी मुल्क़ की तय हो सकती है। सारी धरती, सारा आसमां और इसके परे का सारा कुछ किसी का हो जाये तो फिर? जो पूरी दुनिया से मुहब्बत कर बैठे, उसे दुनिया यह कहकर नहीं नज़रअंदाज़ कर सकती कि वह फ़लाने मुल्क़ की मिट्टी की उपज है। बात सिर्फ़ मिट्टी की है, मिट्टी की मिट्टी से मुहब्बत की है। मिट्टी की तासीर है रचना और मिट्टी से मुहब्बत के मायने हैं रचना के लिए रचना। अगर मुहब्बत मिट्टी ही कर रही है तो रचने वाला रचने वाले के लिए ही रचने की तमन्ना कर रहा है। यही तमन्ना, यही तड़प रचने वाले की एक अमिट छाप बनती है यानी मिट्टी की एक न मिटने वाली छाप। ऐसी ही किसी छाप का नाम तसव्वुर में आता है तो अमृता प्रीतम की तस्वीर उभरती है।

Amrita Pritam source - google

जिस साल के माथे पर चिताएं सुलग रही थीं, बारूद हवा में घुली हुई थी और ज़िन्दा-जावेद लोग ख़ाक़ के एक ढेर से ज़्यादा कुछ नहीं थे, उस साल एक ऐसे मासूम ने इस ज़मीन पर अपनी आंखें खोलीं जो दर्द की सिगरेट की तरह सुलगा सकने का माद्दा रखता था। इस सिगरेट से उठने वाले धुएं को इल्हाम का वक़ार देने की ताक़त उसमें थी और इसी सिगरेट की राख को अदब से झाड़कर अपनी पहचान बनाने का हुनर उसमें था। उसने साबित किया कि इश्क़ का मस्लक़ हर दौर में अपने आप को सर्वश्रेष्ठ साबित कर सकता है। मासूम इश्क़ के धागों में गूंथी गयी अमृता प्रीतम की रूह एक दीये की तरह दुनिया को रोशन करती रही मगर दीये की तरह ही उसकी अंदरूनी सत्हों का रंग अंधेरा ही राह। यह इस सच का सबूत है कि अंधेरे पीने की हिम्मत रखने वालों के नसीब में ही उजाले की नेमतें बांटने के फ़र्ज़ लिखे होते हैं। साहिर से मुहब्बत करने वाली अमृता और इमरोज़ को चाहने वाली अमृता दो नहीं एक है, लेकिन एक के दोनों क़िरदार पाकीज़ा हैं। ख़ैर, यहां उनके अदब से रूबरू होते हैं।

रसीदी टिकट में अमृता ने लिखा है कि "वारिस शाह की बेल को दिल का पानी दिया था, दिल का भी, आंसुओं का भी", यह जुमला उनकी पूरी अदबी विरासत का जैसे सूत्र वाक्य है। कुछ जुमले और हैं जिनमें मुझे अमृता के रचना संसार की रूह दिखती है। ये जुमले उन्होंने एक नज़्म में दजै किये हैं। नज़्म का उन्वान है "अमृता प्रीतम" - 

एक दर्द था / जो सिगरेट की तरह / मैंने चुपचाप पिया है
सिर्फ़ कुछ नज़्में हैं / जो सिगरेट से मैंने / राख की तरह झाड़ी हैं

सिगरेट को अगर किसी रूप में समेटा या सहेजा जा सकता है तो वह राख का रूप है। धुआं सिगरेट तक रहता है लेकिन उसकी महक सदियां भी महका सकती है। ज़मीनी बात है दर्द, कैसा दर्द? किसका दर्द? कितना और किसके लिए दर्द को सिगरेट की तरह पीना पड़ा? सिलसिलेवार सारे सवालों के जवाब अमृता के अदब के साये में देखते हैं।

ऐसा दर्द जिसकी न कोई शुरुआत है, न कोई इख़्तिमाम। गोया कि - न था कुछ तो दर्द था, कुछ न होता तो दर्द होता... दर्द भी वो जिसमें इश्क़ सांस लेता है और इल्हाम बुलंद होता है। ऐसा दर्द जो आदमी को नेक इंसान बनाता है। एक अरसे में अपना वजूद उस दिल और जान के वजूद के साथ इस तरह जोड़ देता है कि अद्वैतवाद और गुद्ध का दुखवाद सच्चा ही नहीं, अच्छा लगने लगता है।

उसका दर्द जो न कभी जन्मा है न कभी मरा है। जिसका वज्द बिंदु भी है और अनंत भी। दर्द उसका जिसका धर्म, कर्म, मर्म सिवाय मुहब्बत के कुछ नहीं। दर्द उसका जो कभी नहीं था, जो अब भी नहीं है और शायद कभी होगा भी नहीं, बावजूद इसके जो हमेशा से कहीं है, अब भी कहीं है और हमेशा कहीं होगा। हर हाल में जिसको तलाशना हैख् उसका दर्द और उसको तलाशने का रास्ता इश्क़ की तमाम गलियों की सैर कराता है। गोया कि - जब कभी कोई दिल दरबदर हो गया / हुस्न से इश्क़ तक का सफ़र हो गया।

इतना दर्द, जिसका ओर-छोर नहीं, इतना जो कई सौ सदियों में समा न सके और एक दिल में समा जाये। इतना दर्द जितना एक सृजन के लिए चाहिए और उस सृजन को मिटा देने के वक़्त चाहिए। दर्द इतना जितना, हीर, सोहनी और शकुंतला के हिस्से में आया और इतना जो उनके हिस्से में आ नहीं पाया। दर्द इतना कि दुनिया को रोशनी मिले, बलन्दी मिले, तरक़्क़ी मिले और एजाज़ मिले। दर्द इतना, जितना हो सके।

सबसे पहले दर्द के लिए, फिर अपने लिए और फिर सबके लिए। दर्द उसके लिए भी जिसके लिए सब कुछ है। उसके लिए भी जिसके लिए कुछ नहीं। उसके लिए जिसके लिए दर्द का वजूद है और उसके लिए भी जिसका वजूद ही दर्द के लिए है। दर्द पूरी क़ायनात के लिए, हर फूल, हर नूर, हर सच, तमाम ख़ुश्बुओं और सभी आने-जाने वालों के लिए। हर उस भावना, संवेदना और कल्पना के लिए जो दुनिया को ख़ूबसूरत करना चाहती है।

ऐसे, इसके, इतने और इसके लिए दर्द को अमृता ने एक सिगरेट की तरह पिया, चुपचाप। अमृता की कहानियों, उपन्यासों और कविताओं में भारतीयता के मूल्यों का लिबास पहने विश्व दृष्टि से सराबोर यह दर्द एक कैनवास पर सबसे बड़ा सच दर्ज कराता है कि अपने एहसासों के दायरों में सिमटना ख़ुदगर्ज़ी ही नहीं गुनाह है। अपने घावों से दूसरों को मरहम देना सीखना होगा। अमृता के क़िस्सों और नज़्मों में दरिया का सा असर होता है। और यहीं से मैं सूत्र वाक्य को छूना शुरू करता हूं -

अज आखां वारिस शाह नूं / कित्तो क़ब्रां विच्चो बोल

मुमक़िन नहीं कि पांचों दरियाओं का रंग लाल और पंजाब का सारा जिस्म नीला पड़ जाये और ऐसे वक़्त में अमृता की यह आवाज़ वारिस शाह तक न पहुंचे। बेशक़ पहुंची और वारिस शाह का पैग़ाम भी उन्हें मिला इसलिए तो सारी फ़ज़ा में इश्क़ के रंग भरने के लिए वो बतौर हल एक तक़रीर अपनी नज़्म "सोख़्ता" में देती हैं -

सो इस तरह जिस भी / सोख़्ते पर जितने भी हर्फ़ हैं / वह असली इबारत के उल्टे हैं... और फिर धीरे-धीरे अमृता महसूस करती हैं कि वारिस शाह का पैग़ाम उन तक नहीं आया बल्कि उनकी तड़पती आवाज़ सुनकर ख़ुद वारिस ही चले आये हैं और इस दौर में वारिस शाह का नाम अमृता हो गया है -

कि पत्थरों के नगर में / जो वारिस की आग थी
यह मेरी आग भी / उसी की जांनशीन है
आग, आग की वारिस

अमृता ने वारिस शाह की बेल को दिल का पानी दिया था और रूह से दिया था इसलिए वारिस शाह अमृता बनने के लिए मजबूर हो गये। यह कोई मनोवृत्ति या विसंगति नहीं बल्कि आध्यात्मिक उत्कर्ष है। "अहं ब्रह्मास्मि" वाली स्थिति है। इस बुलन्दी पर पहुंचना आसान नहीं है। इसके लिए ऐसा, इसका, इतना और इसके लिए दर्द को एक सिगरेट की तरह चुपचाप पीना पड़ता है। अपनी जाति, धर्म, देश से उठकर पूरी क़ायनात को अपनी सोच का हिस्सा बनाना होता है। अमृता की एक और नज़्म है - "ऐश-ट्रे", शुरुआत यूं है -

इल्हाम के धुएं से लेकर / सिगरेट की राख तक
उम्र का सूरज का ढले / माथे की सोच बले
एक फेफड़ा गले / एक वीयतनाम जले

कभी-कभी सोचता हूं कि इस दौर में सियासत, नफ़रत, अलगाव और भेद भाव इतना क्यूं है कि शक़ होता है, अगर कबीर और ग़ालिब बीसवीं सदी में का हिस्सा होते तो क्या उन्हें साहित्य के सबसे बड़े सम्मान नोबेल प्राइज़ से नवाज़ा जाता?

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