हमनाम मुहब्बत के सफ़र पर दो ख़ुश्बुएं
मुहब्बत / क़ौसे कुज़ह की तरह / क़ायनात के एक किनारे से / दूसरे किनारे तक तनी हुई है / और इसके दोनों सिरे / दर्द के अथाह समन्दर में डूबे हुए हैं। यह शायराना एहसास और फ़ल्सफ़ा है मीना जी की ज़ाती शख़्सियत का। अब्र-बहार ने / फूल का चेहरा / अपने बनफ़्शी हाथ में लेकर / इस तरह चूमा / फूल के सारे दुख / ख़ुश्बू बनकर बह निकले हैं... इस नज़्म का उन्वान परवीन ने प्यार मुक़र्रर किया।
क़ौसे कुज़ह या इन्द्रधनुष का पहला सिरा दर्द के अथाह समन्दर में डूबा है और दूसरा सिरा भी यानी आह से उपजी होगी वाह। जैसे दोनों सिरे, दो तड़पती आत्माओं के मायने में ही जानिए। फूल के सारे दुखों का ख़ुश्बू बनकर बह निकलना, प्यार की गहराई और सच्चाई को रूह से महसूस करने से तअल्लुक़ रखता है। सतरंगी महराब कहीं यही ख़ुश्बू तो नहीं ! ये सतरंगी ख़ुश्बू, दूख से उपजा एक सुक़ून, एक नशा तो नहीं जो अपने सिरों पर आकर फिर अपने ज़ाती मुक़ाम को हासिल करती है और दर्द का अथाह समन्दर कहलाने लगती है। ये तो एक तलाश है और तलाश कब किस पगडंडी पर ले चले, क्या कहूं? फिर भी चलते हैं -
Meena Kumari source - google |
गुलज़ार साहब ने कहा - "मीनाजी चली गयीं... लगता है, दुआ में थीं। दुआ ख़त्म हुई, आमीन कहा, उठीं और चली गयीं"। मगर चली कहां गयीं? इसका इल्म गुलज़ार साहब को नहीं शायद दिलशाद को हुआ। मीना जी कहती थीं, कहती क्या थीं, कुछ तलाशती थीं, और अपनी तलाश के इन्हीं तानों-बानों में घुटती रहती थीं - क्यूं इक अजनबी सदा पे नाज़ / रूह का हर तार झनझनाता है। इसी अजनबी सदा का पीछा करती हुई शायद चली गयीं। एक गुमनाम रास्ते का निशां / लमहा-लमहा किसे बुलाता है। लगता है ये गुमनाम रास्ते का निशां उन्हीं के लिए था और शोहरत के बाद के एक सफ़र पर उनसे चलने का इसरार किया करता था। मीना जी इस निशां से बतियाती रहीं, सवाल-जवाब करती रहीं और इस सफ़र को टालती रहीं क्योंकि शायद दुआ में थीं, लेकिन आख़िकार दुआ ख़त्म हुई। गौरतलब ये है कि मीना जी बतौर शायर गुमनाम रहीं और गुलज़ार साहब को अपने क़लाम का मुहाफ़िज़ न बना गयी होतीं तो कई क़िरदारों में सांस लेने के बावजूद उनके इस एक पहलू का न होना खटकता रहता। अपने एहसास को समेटने और खुद से मुख़ातिब होने के लिए ही वो इस गुमनाम सफ़र पर चल पड़ीं। मुमक़िन है ये क़लाम उनके सफ़र के सितारे हों।
एक वीरान सी ख़मोशी में / कोई साया सा सरसराता है। सोचने लगता हूं कि कौन है जो सिर्फ़ साये की शक़्ल ही इख़्तियार करना चाहता है? कबीर के क़लाम को आबिदा की आवाज़ में पेश करते हुए गुलज़ार साहब कहते हैं - "सूफ़ियों-संतों के यहां मौत का तसव्वुर बड़े ख़ूबसूरत रूप लेता है। कबीर के यहां ये ख़याल कुछ और करवटें लेता है, एक बेतक़ल्लुफ़ी है मौत से जो ज़िन्दगी से कहीं भी नहीं..." मीना जी के शायर के यहां मौत का जो तसव्वुर है, उसके लिए बेतक़ल्लुफ़ी सी है लेकिन मौत से वो लिहाज़ बरत लेती हैं। ज़िन्दगी तो ख़ैर उनसे ही तक़ल्लुफ़ से पेश आती रही। मीना जी कहती हैं -
एक मर्क़ज़ की तलाश एक भटकती ख़ुश्बू
कभी मंज़िल कभी तम्हीदे-सफ़र हुई जाती है।
और
बस एक एहसास की ख़ामोशी है गूंजती है
बस एक तक़मील का अंधेरा है जल रहा है।
मंज़िल या सफ़र के आमुख के रूप में मौत का ख़याल सीधा है लेकिन मर्क़ज़ की तलाश व भटकती ख़ुश्बू के बहलावे लेकर मीनाजी मौत के लिए लिहाज़ बरत गयीं। एहसास की ख़ामोशी और तक़मील का अंधेरा, तसव्वुर के लिए इस क़दर बेतक़ल्लुफ़ी मीना जी की ज़ात का हिस्सा ही था। फिर ख़ामोशी का गूंजना और उनका अपने ख़यालों से गुफ़्तगू करने का अंदाज़ इस मिसरे की जान है। एक ख़याल और मीना जी के यहां गूंजता है -
उफ़क़ के पार जो देखी है रोशनी तुमने
वो रोशनी है ख़ुदा जाने कि अंधेरा है।
मीना जी की शायरी के दूसरे पहलुओं की तरफ़ नज़र करें। याद है? पाक़ीज़ा की साहिब जान और वो जुमला - आपके पैर देखे, बहुत हसीन हैं। ज़मीन पर मत उतारिएगा, मैले हो जाएंगे। और नज़र के सामने रखा है मीना जी का ये शेर -
आबलापा कोई इस दश्त में आया होगा
वरना आंधी में दीया किसने जलाया होगा।
आंधी में दीया जलाने के लिए हौसला और सब्र चाहिए। कोई आबलापा था, कमाल कर गया। यक़ीनन ये छालों में धड़कते हुए पैर बहुत हसीन रहे हैं। ख़ूब रास आयी मीना जी को यह आबलापाई। उनकी इसी आबलापाई का एक मुक़ाम और क़ाबिले-ग़ौर है - बहती हुई नदिया घुलते हुए किनारे / कोई तो पार उतरे कोई तो पार गुज़रे। ख़्वाहिश भी जैसे एक ज़िद सी है। ज़िद भी यूं कि मासूमियत की इस इंतिहा पर फ़िदा हो जाइए लेकिन हुआ वही जो होता है। ऐसी ख़्वाहिशें पूरी होती दिखती तो ज़रूर हैं लेकिन -
न हाथ थाम सके न पकड़ सके दामन
बड़े क़रीब से उठकर चला गया कोई।
रुपहले पर्दे पर मीना जी के जिये हुए क़िरदार हों या फिर उनके शायराना एहसास और उड़ानें, मैं अक्सर यही देखता हूं कि - पलाश के साये में बैठी मीना / घोलती है रेशम के रंग। फिर इसके बाद खो-सा जाता हूं इन्हीं रेशमी रंगों में। मीना जी एक भरपूर ज़िन्दगी की सूरत और एक मुसाफ़िरे-मुहब्बत की सीरत में नज़्म हो जाया करती है, मुस्कुराना चाहती है तो शेर कहती है - आंखों की कसम दी आंसू को / गालों पे हरदम यूं न ढलक। और कभी उदासी की प्यासी नमी के लिए एक शेर यूं भी कहती हैं - सोचा था ख़ुश्बुओं में से सांसें बसाएंगे / चीखा लहू कि देखना क़ौसे-कुज़ह न हो। आख़िर कतराते-कतराते धनक बन ही गयीं मीना जी। दोनों सिरे दर्द के अथाह समन्दर में डूबे रहे, ऐसी एक सतरंगी ख़ुश्बू।
यक़ायक़ मीना जी का वो दूसरा सिरा पहले सिरे में तब्दील होता है और इस बार इस सतरंगी ख़ुश्बू का उन्वान पढ़ता हूं परवीन शाक़िर। उसी नाम की मुहब्बत के सफ़र पर चल पड़ी एक और ख़ुश्बू। इस दफ़ा सात रंगों की तरतीब तो वही है लेकिन हर रंग की छटा उस महराब से मुख़्तलिफ़। परवीन कहती हैं -
अक़्से-ख़ुश्बू हूं बिखरने से न रोके कोई
और बिखर जाउं तो मुझको न समेटे कोई।
एक आज़ाद परवाज़। एक शिग़ुफ़्ता बयान। उस शाइस्ता क़लाम की रोशनी किसी पहलू की तरह - रोएंगे हम हज़ार बार कोई हमें रुलाये क्यूं। अपने वजूद का एहसास कराने की ज़िद और किसी क़ीमत पर अपने दामन पर किसी और की मीनाक़ारी का बोझ न उठाने के इरादे का इसरार-सा।
Parveen Shakir source - google |
परवीन भी नहीं हैं। एक शेर है -
जुनंपसंद है दिल और तुझ तक आने में
बदन को नाव लहू को चनाब कर देगा।
किसी सफ़र की तलाश में थीं। उम्र तो बस तलाश के सफ़र में गुज़ार दी। अपने उस सफ़र पर जाने से पहले मेर लिए अपने एहसास के कई सदबर्ग बतौर इस सफ़र की निशानी छोड़ गयीं। और कहती भी तो हैं - कल के सफ़र में आज की ग़र्दे-सफ़र न जाये। निशानी नहीं कहतीं। कहती हैं ग़र्दे-सफ़र। ठीक ही तो है, सफ़र में धूल मुसाफ़िरों या काफ़िलों की मर्ज़ी से जो नहीं उड़ती। निशानी तो फिर भी हमारे इख़्तियारों की बात है। आख़िर तलाश किसकी थी? कौन से सफ़र पर चली गयीं परवीन..? बड़ी मुद्दत से तनहा थे मेरे दुख / ख़ुदाया मेरे आंसू रो गया कौन। परवीन के आंसू रो गया था कोई, उसी को तलाशने गयी हैं। जिसके आंसू परवीन रो गयी हैं, वो भी परवीन को तलाशता होगा।
परवीन उससे मिली तो थीं - उसके ही बाज़ुओं में और उसको ही सोचते रहे / जिस्म की ख़्वाहिशों पे थे रूह के और जाल भी। जब मिलीं तो जान नहीं पायीं, वही है। उसी को सोचती रहीं। जब रूह के जालों से निजात मिली, वो नहीं था। ये इल्म हुआ परवीन को - बदन मेरा छुआ था उसने लेकिन / गया है रूह को आबाद करके। अब तो सफ़र की पूरी तम्हीद तैयार थी। राह नहीं मिलती थी। सो, तलाश के सफ़र में रहीं और फिर तलाश ख़त्म हुई। एकबारगी बेहोश हो गयीं, कुछ देर में पलट कर देखा, इस सफ़र के पड़ावों पर मुस्कुरा दीं और आंखें मूंदकर चल दीं।
अब अक्सर मिला करती हैं मुझसे। कहा करती हैं मुझे सरापा ग़ज़ल कर दो और किसी किसी गुलाबी नज़्म का लिबास ओढ़ा दो। कहता हूं, नज़्म बुनने के लिए अभी बहुत सा रेशम, बहुत सा सन्दल चाहिए मुझे। कुछ सब्र करो। मगर इसरार करती रहती हैं और इसी तरह की बातों में ख़त्म हो जाता है हमारी मुलाक़ात का वक़्त। कभी अलविदा नहीं कहतीं, मीना जी की तरह ही कहती हैं, फिर मिलेंगे। इन मुलाक़ातों के बारे में सोचता हूं, परवीन का ही शेर है -
उसके वस्ल की साअत हमपे आयी तो जाना
किस घड़ी को कहते हैं ख़्वाब में बसर होना।
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