रविवार, मार्च 19, 2017

एक ग़ज़ल

उसूलों की हिफ़ाज़त ज़रूरी है


1940 में जन्मे मशहूर और बाइज़्ज़त शायर श्री वसीम बरेलवी की शायरी हमारे दौर का आईना तो है ही, अमानत भी है। आइए वसीम साहब की एक ग़ज़ल के साथ सफ़र करते हैं

उसूलों पर जहां आंच आये टकराना ज़रूरी है
जो ज़िंदा हो तो फिर ज़िंदा नज़र आना ज़रूरी है।

ये है ग़ज़ल का मतला। सीधा सवाल है आपसे हमसे। एक ऐसा सवाल जो भीतर तक भेदकर आपको मजबूर कर देता है कि आप अपने गिरेबान में झांकें और झांककर एकबारगी शर्मिन्दा हो जाएं। क्या तुम ज़िंदा हो? हां, तो नज़र क्यूं नहीं आते? क्यूंकि अपने उसूलों की हिफ़ाज़त के लिए तुम नहीं टकराते। ये हमारे समाज के दोगलेपन, कायरता और डर को उघाड़कर एकदम हमारे सामने रख देता है। ये शेर वो बात अचानक कर देता है जिससे हम नज़र चुराना चाहते हैं, बचना चाहते हैं। यह शेर इस बात को भी रेखांकित करता है कि उसूलों पर आंच आ रही है और इसके लिए ज़रूरी लड़ाई कमज़ोर पड़ रही है इसलिए शायर को कहना पड़ रहा है कि टकराना ज़रूरी है।

शेर की ख़ूबी मानता हूं मैं, कि वो कई पहलुओं को अपने भीतर समेट ले। कुछ कवि और समीक्षक इस बात से इत्तेफ़ाक़ नहीं रखते और तर्क देते हैं कि अगर एक शेर को चार पाठकों ने अलग-अलग ढंग से महसूस किया तो शायर कैसे सफल हुआ? वो जो कहना चाहता था, वह तो संप्रेषित हुआ ही नहीं ठीक से। अस्ल में ऐसा नहीं है। बात इससे आगे की है या इससे कुछ अलग है। शायर इस शेर के मारफ़त रूह या एहसास के किसी एक ख़ास तार को छेड़ना चाहता था और वह छेड़ गया। विभिन्न पाठकों के लिए उस तार के छिड़ने के कारण अलग-अलग हो सकते हैं। यह शेर की ख़ासियत है। यहां वसीम साहब पहले मिसरे में किसी ख़ास उसूल का ज़िक्र नहीं करते इसलिए पाठक अपने हिसाब से अपनी शर्मिंदगी, डर या अपने समझौते के साथ इस शेर से जुड़ जाता है।

अब शेर देखें -

थके हारे परिन्दे जब बसेरे के लिए लौटें
सलीक़ामन्द शाख़ों का लचक जाना ज़रूरी है।

चूंकि ग़ज़ल का हर शेर अपने आप में स्वतंत्र होता है और बस एक बहर, रदीफ़ और काफ़िये के तार में बंधा होता है इसलिए इस शेर को मतले से जोड़कर नहीं देखेंगे। यह शेर भारतीय समाज की एक तहज़ीब का आईना है। घर-घर में हर शाम होने वाली प्रेम में पगी एक दास्तान है यह शेर। शेर रवायती है लेकिन भरपूर है, लुत्फ़अंदोज़ है। यहां "सलीक़ामन्द" और "लचक" दो लफ़्ज़ मुझे पूरे शेर की जान लगते हैं। एक शब्द में पूरी तहज़ीब सांस ले रही है और दूसरे में वो अदा, वो हया, वो नाज़ुकी और वो अन्दाज़ धड़क रहा है जो एक रिश्ते को जीवन्त बनाये रखने के लिए कारगर है।

इस ग़ज़ल में एक शेर आया है जो आध्यात्मिकता में ले जाता है और दर्शन के द्वार खोल देता है-

सलीक़ा ही नहीं शायद उसे महसूस करने का
जो कहता है ख़ुदा है तो नज़र आना ज़रूरी है।

इस शेर में कोई पेंच नहीं है और यह सरलता से सीधे आपके सामने खुल जाता है। लेकिन इस शेर के पीछे भारतीय दर्शन की पूरी परंपरा जुड़ी हुई है। किसी भी बात की पुष्टि के दो मार्ग बताये जाते हैं। पहला तर्क और दूसरा विश्वास। काई इन दोनों समुदायों के बीच लंबा संघर्ष रहा है। तर्क वाला विश्वास वाले से और विश्वास वाला तर्क वाले से प्रश्न करता रहता है। इन दोनों जिरह के बीच एक और पहलू है, वह है अनुभव। मिसाल के तौर पर मैं जंगल से जा रहा था और मैंने मोर को नाचते हुए देखा। अब इसे आप झूठ कह सकते हैं क्योंकि यह न तो मेरे विश्वास का प्रश्न है और न ही इसे साबित करने के लिए कोई तर्क है। लेकिन यह अनुभव है। आपके न मानने से यह झूठ नहीं होगा। ऐसा ही ईश्वर के संबंध में भारतीय दर्शन कहता है कि यह अनुभव है। अनुभव का सत्य है, तर्क और विश्वास से परे। इस पूरे दर्शन को दो मिसरों में वसीम साहब ने बख़ूबी समेटा है।

इस ग़ज़ल में और तीन शेर हैं जिनमें से मुझे एक और बहुत पसंद है-

बहुत बेबाक आंखों में तअल्लुक टिक नहीं पाता
मुंहब्बत में कशिश रखने को शर्माना ज़रूरी है।

हालांकि यह शेर भी सीधा और एक ही तह का है लेकिन बात ज़ोरदार है। आख़िर में मैं यह बात भी साफ़ करता चलूं कि किसी शेर को पसन्द करना और उसमें कही गयी बात से सहमत होना दो अलग बातें हैं। शेर अपने आर्टिस्टिक एक्सलेंस और कंटेंट के कन्विक्शन के कारण पसंद आता है और उसके कंटेंट से सहमति बहुत ज़ाती मुआमला होता है। सहमत न होते हुए भी किसी शेर में कही गयी बात को इसलिए भी सराहा जा सकता है कि वह पूरी शिद्दत और सोच-समझ के साथ कही गयी है।

इससे जुड़ा एक क़िस्सा साझा करता हूं ताकि यह बात और खुल सके। जनाब राजेश रेड्डी का एक शेर है-

जितनी बंटना थी बंट चुकी ये ज़मीं
अब तो बस आसमान बाक़ी है।

यह एक कामयाब शेर है और लाजवाब भी है। बावजूद इसके मरहूम निदा साहब कहते थे कि इस शेर का मफ़हूम उन्हें जंचा नहीं क्योंकि आसमान भी तो बंट चुका। हर मुल्क़ ने अपने हिस्से का आसमान कब्ज़ा रखा है। ख़ैर कहने का मक़सद यह कि किसी शेर का अच्छा होना, उस शेर का पसंद करना और उससे सहमत होना अलग-अलग बातें हैं, इन्हें समझने की समझ एक अनुभव से आ जाती है, यह कोई अजूबा नहीं है।

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