शुक्रवार, मार्च 24, 2017

एक ग़ज़ल

ज़िन्दगी धूप का एक सफ़र है


एक शायर जो जब तलक ज़िन्दा रहा, शाने-अदब-ए-भोपाल रहा। भोपाल के अदबी गलियारों में आज भी ज़िक्र होता है मरहूम जनाब अख़्तर सईद ख़ां साहब का, तो महफ़िलों में यादों की एक चमकीली सी लक़ीर खिंच जाती है। अदब के बदलते ज़मानों से रूबरू होने का मौक़ा है अख़्तर साहब की यह ग़ज़ल -


जाते-जाते ठहर गयी रात
दामन थामे हुए सहर का।

इस शेर को आप किसी ज़ाती तजुर्बे से भी हासिल कर सकते हैं और किसी दुनियावी मसअले के हवाले से भी बामआनी का ख़िताब दे सकते हैं। फिर अर्ज़ करता चलूं कि यह शायर की नाकामी नहीं है कि शेर बहुत से अर्थों की प्रतीति देता है बल्कि यह हुनर है तहदारी का। परत अंदर परत शेर कहने का। ऐसे शेरों को मैं प्याज़ी शेर भी कहता हूं। ख़ैर, इस शेर का अस्ल मफ़हूम क्या है, इसका अंदाज़ा लगाना बहुत मुश्किल तो नहीं है लेकिन मैं आपको शायर के दिल की बात बता सकता हूं क्यूंकि शायर ने मुझे ख़ुद ये ग़ज़ल सुनायी और मेरी जवान होती हुई समझ को अपने पास बिठाकर समझायी है।

Akhtar Saeed Khan

पुराने भोपाल के अट्टा सराय काले ख़ां की एक तंग गली में पुराने पुश्तैनी मकान में अख़्तर साहब 80 बरस के पार की उम्र में रहते थे। उनसे दो-तीन मुलाक़ातें उसी घर में उनके कमरे में हुईं। एक अंतरंग मुलाक़ात में इस ग़ज़ल का ज़िक्र निकला और मेरी ख़ुशनसीबी कि वो लमहे मुझे आज भी लफ़्ज़-ब-लफ़्ज़ याद हैं। 1921 की पैदाइश थी अख़्तर साहब की। यानी शायरी के कितने दौर, कितनी उथल-पुथल और कितने हादसे-तजुर्बे उनकी यादों के ख़ज़ाने में रहे होंगे, आप अंदाज़ा लगा सकते हैं। यह शेर उन्होंने शायरी के ज़मानों को निशाना बनाकर कहा। एक नये दौर की आमद की तहरीक़ किस क़दर उम्मीद जगाती है और फिर किसी धुंधलके में दम तोड़ देती है, यह अख़्तर साहब के शायर ने एक से ज़्यादा बार महसूस किया था। और, इसी एहसास को बारीक़ अल्फ़ाज़ में दर्ज करता है यह शेर।

मत्ला यूं है -

क्या जानिए क़स्द है किधर का
मुंह देख रहा हूं राहबर का।

यह शेर सियासत पर तन्ज़ है। 26 साल के रहे थे अख़्तर साहब जब देश आज़ाद हुआ। तमाम नज़रियों, ख़्वाबों और उम्मीदों से लबरेज़ एक जवान शायर जिसने कुछ ही सालों में आज़ाद हिन्दोस्तान में गुलामी में जां निसार करने वाले लीडरों और फ़नक़ारों का हर सपना लगभग ज़मींदोज़ होता देखा होगा, उसके दिल पे क्या गुज़री होगी? क्या नाचारी रही होगी? इन सवालों का जवाब देगा आपको यह मत्ला। उस वक़्त के अवाम की दुविधा का एक जीता-जागता सबूत है ये शेर। और कमाल देखिए कि कितने ज़मानों में ज़िंदा रहेगा। यह होती है समय से होड़ लेती शायरी की मिसाल जो वक़्ती या तत्कालीन भर नहीं होती।

ऐसे हालात फिर मजबूर करते हैं अर्ज़ करने के लिए-

जीना एक धूप का सफ़र है
साया क्या ढूंढ़िए शजर का।

टैगोर के एकला चलो रे... की धुन भी इस शेर में सुनायी देगी और ग़ालिब के उस शेर की भी- क़ैदे हयातो-बन्दे-ग़म अस्ल में दोनों एक हैं... इन गूंजों के बावजूद यह शेर अपने आप में एक आवाज़ भी है। और फिर, एक मुद्दत तक ऐसे पेचीदा सफ़र में बड़े तजुर्बे से हासिल होता है एक इल्म, इल्हाम से आती है आवाज़ -

जिस मोड़ पे अब भटक रहा हूं
रस्ता तो यही था मेरे घर का।

किस मोड़ पे आती है, यह हर ज़िन्दगी का अलहदा सफ़र ही तय करता है। बहरहाल, अख़्तर साहब ने क्लासिकल शायरी, आज़ाद होते हिन्द की शायरी और तरक़्क़ीपसंद तहरीक़ की शायरी के दौर देखे। फ़िराक़, जोश जैसे शायरों की सुहबत में नौजवानी यानी टीनेज में मुशायरा पढ़ा और अपने आख़िरी पड़ाव पर मुझ जैसे शायर को कुछ पढ़ाया, बताया, समझाया। उनके बचपन की दुनिया उनकी जवानी की दुनिया से कितनी अलग थी और उनकी जवानी की दुनिया उनके बुढ़ापे की दुनिया से। तेज़ी से बदलती दुनिया की रफ़्तार से वह अपनी रफ़्तार मिला पाये या नहीं, यह सवाल ज़रूरी नहीं, ज़रूरी यह है कि इस रफ़्तार का सफ़र उन्होंने जिया और शिद्दत से महसूस किया।

जो कुछ मैं देखता हूं अख़्तर
धोखा तो नहीं मेरी नज़र का।

अगर नहीं जिया होता, बारीक़ निगाह न रखी होती तो यह मक़्ता कहां से लाते अख़्तर साहब..। उन मुलाक़ातों में अख़्तर साहब ने मुझसे कहा था कि "उर्दू शायरी जिस दौर से गुज़र रही है, उसे देखकर फ़िक्र और परेशानी होती है। शायर अपने ज़ाती फ़ायदों के लिए कलम उठा रहे हैं। शायरों का क़िरदार गिर रहा है तो शायरी का मेयार क्या होगा.."।

ये तमाम बातें कहने के लिए नहीं कह रहे थे अख़्तर साहब। उनकी इस चिंता को मैंने उनकी आवाज़ के भारीपन, माथे की शिक़न और कंपकंपाती उंगलियों से भी महसूस किया था। हम जैसे शायरों का फ़र्ज़ बनता है कि अख़्तर साहब जैसे बुज़ुर्गों ने शायरी के जिस मेयार और शायर के जिस क़िरदार के ख़्वाब देखे, उन्हें पूरा करने की कोशिश करें हम। वादा करना चाहता हूं मैं कि इंशाअल्लाह मैं पूरी कोशिश करूंगा।

आज भी पुराने भोपाल की पटियेबाज़ी, नशिस्तों और उर्दू के कुछ रिसालों में गाहे-ब-गाहे अख़्तर साहब की यादें ताज़ा होती रहती हैं। भोपाल के किसी पटिये, किसी महफ़िल, झील के किसी किनारे या उस पुरानी मस्जिद की सीढ़ियों पर बैठी अख़्तर साहब की रूह हमें हसरत भरी निगाहों से देख रही है, हममें कुछ टटोल रही है और मैं जब भी कोई पाये का शेर कहता-सुनता हूं तो लगता है कि ये वही रूह है जो किसी और ज़ुबां से बोल रही है।

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