गुरुवार, मार्च 23, 2017

यादें

...दरिया हूं समन्दर में उतर जाउंगा


2006 में जहाने-फ़ानी से कूच कर गये मशहूर शायर और ख़बरनवीस मरहूम जनाब अहमद नदीम क़ासमी साहब के इन्तक़ाल के बाद एक मुख़्तसर सी याद लिखी थी। यादों के सरमाये से हाज़िर...


अमृता प्रीतम ने एक बार कहा था कि "ख़लील जिब्रान ने एक जाम मेरे नाम का भी पिया था"। मुझे महसूस होता है कि बाबा ने भी एक शेर के लिए मेरा तसव्वुर किया था। अहमद नदीम क़ासमी साहब को गुलज़ार साहब बाबा कहा करते थे सो मैं भी बाबा कहने लगा हूं। बाबा के गुज़रने के चन्द रोज़ पहले ही उन्हें पढ़ना शुरू किया था। उनकी ग़ज़लें और नज़्में सुनीं-पढ़ीं और बेइंतहा अपनी सी लगीं। बिल्कुल यही महसूस हुआ, जैसा बाबा ने कहा था -

हैरतों के सिलसिले सोज़े-निहां तक आ गये
हम तो दिल तक चाहते थे तुम तो जां तक आ गये।

बाबा के गुज़रने पर पाकिस्तान के अख़बार में लिखा गया - He was the last of the literary giants,और भी कई बातें लिखी गयीं। अफ़सोस कि हिन्दोस्तान ने उतनी तवज्जो नहीं दी। मैं हमेशा से मानता रहा हूं कि फ़न चूंकि जात, धर्म और देश देखकर नहीं बख़्शता, बख़्शने वाला इसलिए फ़नक़ार को भी इस नज़रिये से नाप तौल कर नहीं देखना चाहिए। हालिया दौर में फ़न ही सरहदों के पार दिलों को जोड़ने के लिए एक पुल तामीर कर रहे हैं। बाबा की एक नज़्म है "पत्थर"। इसमें छुपी तल्ख़ियां एक बहुत बड़े उदास मंज़र का सच हैं -

रेत से बुत न बना ऐ मेरे अच्छे फ़नक़ार
एक लमहे को ठहर मैं तुझे पत्थर ला दूं।

फिर बाबा पेश करते हैं - "दिल का सुर्ख़ पत्थर", "पथरायी आंख का नीला पत्थर" और आगे कहते हैं कि इस दौर के सारे मेयार पत्थर हैं। उनकी इस नज़्म को पढ़कर सवाल उठा कि आख़िर किसने, कैसे, कहां, कब ये बीज बो दिये हैं हमारे खेतों में कि पत्थरों की फसलें लहलहाने लगीं। हैरानी भी हुई कि लोग ख़ामोशी से इस फसल को पानी भी दे रहे हैं। बाबा की फ़िक्र अक्सर इस तरह के सवाल खड़े कर देती है। एक और नज़्म "बहार" पढ़ लीजिए तो रूह कांप जाती है। न सिर्फ़ अदीब बल्कि अख़बारनवीस के नाते भी उन्होंने अपनी फ़िक्र ज़ाहिर की। उनका बेबाक लेखन एक विरासत के तौर पर महफ़ूज़ किये जाने की ज़रूरत है। इस तरक़्क़ीपसंद बेमिसाल फ़नक़ार ने सिर्फ़ ख़ेमेबाज़ी में न उलझकर तख़लीक़ को एक आज़ाद परवाज़ दी। उनके एक शेर पर तहरीक़ के नुमाइंदों को कड़ा ऐतराज़ रहा लेकिन यही शेर उनकी बेबाकी और खुलेपन के इज़हार की मिसाल बना -

सब्ज़ हो सुर्ख़ हो कि उन्नाबी
फूल का रंग उसकी बास में है।

बाबा के क़लाम से गुज़रते हुए कई बार ये महसूस होने लगता है कि कोई सूफ़ी रूबरू है। हिंदोस्तान की तहज़ीब (जो पाकिस्तान की तहज़ीब से अलग नहीं) और दर्शन उनके अशआर में ख़ूबसूरती से उतरता है। बाबा ने एक शेर में यूं अर्ज़ किया कि -

कौन कहता है कि मौत आयी तो मर जाउंगा
मैं तो दरिया हूं समन्दर में उतर जाउंगा।

बाबा की शख़्सियत कुछ ऐसी लगती है कि कहना चाहूं तो क्या कुछ न कहूं लेकिन कहने लगूं तो बहुत कुछ कह न सकूं। उन्हीं के अल्फ़ाज़ में कहूं तो - "लफ़्ज़ सूझा तो मानी ने बग़ावत कर दी"।

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें