रविवार, मार्च 26, 2017

नोट्स

कामायनी - विद्वानों की दृष्टि में - भाग तीन


आचार्य नन्ददुलारे वाजपेयी

कामायनी का कथानक या वस्तु विन्यास सरल किन्तु मार्मिक है। ...कामाययनी का वस्तु निर्माण पश्चिमी ट्रेजडी और पूर्वी आनन्द कल्पना के योग से समन्वित होने के कारण समीक्षकों के समक्ष थोड़ी सी कठिनाई उपस्थित करता है। वस्तु विन्यास की द1ष्टि से कामायनी को दुखान्त रचना मान लेने में काई आपत्ति नहीं। उपसंहार के आनन्दात्मक दृश्यों को हम संधियों के परे काव्य की दार्शनिक और आलंकारिक पूर्ति मानकर संतोष कर लेते हैं। कामायनी चरित्र प्रधान रचना नहीं है, जो चरित्र हैं भी, उनमें स्वभावगत विशेषताओं का अधिक निरूपण नहीं हुआ है। वास्तव में, कामायनी के चरित्र जीवन की दार्शनिक इकाइयों के प्रतिनिधि हैं।

महाकाव्यतत्व - जायसी में रूपक और वास्तविक भाव-योजना समान वैशिष्ट्य रखते हैं, शुक्ल जी इसे समासोक्ति पद्धति कहा है। कबीर की पद्धति अन्योथ्कत की है। तीसरी पद्धति प्रकृति काव्य पद्धति है। प्रसादजी की कामायनी की रचना प्राकृतिक भावभूमि पर ही की गयी है यद्यपि उसमें एक दार्शनिक तथ्य निर्देश भी हुआ है। प्रसाद जी भारतीय आध्यात्मिक दर्शन के अध्येता और अनुयायी हैं। त्रिपुरदाह के रूप में त्रिगुणात्मिका सृष्टि के छन्द का परिहार और उसका सामंजस्य दिखाया है। अतः कामायनी की मूल कल्पना उदात्त है और उक्त उदात्त कल्पना का व्यक्तिकरण भी सफलतापूर्वक किया गया है। प्रसाद की काव्य शैली में नवीनता और उनके भाषा प्रयोगों में पर्याप्त व्यंजकता और काव्यानुरूपता है।
- "कामायनी के मूल्यांकन के कुछ बिन्दु" शीर्षक लेख से अंश

डॉ वचनदेव कुमार

कामायनी में वह सहज संप्रेषणशीलता नहीं मिलती जो रामचरितमानस में विद्यमान है। मानस और कामायनी का स्वरूप प्रबंधात्मक है और दोनों का प्रबंधत्व महाकाव्य पद्धति का है। ...मानस का रस भक्ति रस है जिसे परंपरानिष्ठ शास्त्रियों ने रस नहीं माना है। कामायनी का रस आनन्द रस है, जिसकी चर्चा अभिनवगुप्त ने अभिनव भारती में की है। किन्तु प्रसाद के पूर्व किसी ने प्रबंध के रस के रूप में इसकी प्रतिष्ठा नहीं की।

दोनों के कथानक प्रधानतया इतिहास पर आश्रित हैं इसलिए वस्तु और विस्तार के दृष्टिकोण से साम्य-वैषम्य के अनेक बिन्दु हैं। ...दोनों रचनाओं में जीवन के प्रति एक विशिष्ट दृष्टिकोण की अभिव्यक्ति हुई है। वह दृष्टिकोण या दर्शन पर्याप्त प्रेरणास्पद है लेकिन मानस का विराट फलक जितना बड़ा है उतना कामायनी का नहीं। कामायनी में शैव दर्शन का आधार है किन्तु उस शैव दर्शन की परिसीमा उनकी प्रत्यभिज्ञा नाम की शाखा है। अतः दर्शन के स्तर पर भी मानस में जितने मतवादों का समाहरण हुआ है उतने का कामायनी में नहीं।

दोनों ग्रंथों में एक विशेष प्रकार की पारिभाषिक शब्दावली का प्रयोग मिलता है। दोनों में शब्दों के अर्थों का विवेचन दार्शनिक संदर्भों में ही संभव है किन्तु कामायनी में कुछ मनोवैज्ञानिक शब्दों का प्रयोग भी मिलता है। दोनों में अलंकारों, प्रतीकों और बिम्बों का प्रचुर प्रयोग हुआ है। तुलसी अलंकारवादी नहीं थे फिर भी मानस में सभी अलंकार समाविष्ट हो गये हैं। कामायनी में भी सालंकार शैली मिलती है। ...मानस की भाषा शैली में ऐसा बहुत कुछ है जो कामायनी में नहीं है। मानस की भाषा मुख्यतः जनवादी है जबकि कामायनी की अभिजातवादी। मानस में उच्चकोटि की साहित्यिकता के बावजूद भाषा के संप्रेषण की वह व्यापकता है जिसका कामायनी में अभाव रहा है।
- "रामचरित मानस और कामायनी" शीर्षक लेख से अंश

गजानन माधव मुक्तिबोध

कामायनी इस अर्थ में कथा काव्य नहीं है जिसमें साकेत है। कामायनी की कथा केवल एक फैंटेसी है। जिस प्रकार एक फैंटेसी में मन की निगूढ़ वृत्तियों का, अनुभूत जीवन-समस्याओं का, इच्छित विश्वासों और इच्छित जीवन स्थितियों का प्रक्षेप होता है, उसी प्रकार कामायनी में हुआ है। ...फैंटेसी के प्रयोग में, कई प्रकार की सुविधाएं होती हैं। एक तो यह कि जिये और भोगे गये जीवन की वास्तविकता के बौद्धिक या सारभूत निष्कर्षों को जीवन ज्ञान को, कल्पना के रंगों में प्रस्तुत किया जा सकता है।

...प्रसाद जी ने अतीत की भावुक गौरव-छायाओं से ग्रस्त, वेदोपनिषदिक आर्ष वातावरण से अनुप्राणित समाजादर्श से प्रेरित होकर, अपनी विश्व दृष्टि तैयार की। यह विश्व दृष्टि कामायनी में प्रकट हुई। संक्षेप में, कामायनीकार अपने युग से न केवल प्रभावित था, वरन अपनी युग समस्याओं के प्रति उसने बहुत आवेग और विश्वास के साथ प्रतिक्रियाएं कीं।

...जिन प्रसाद जी ने अपने नाटकों और कहानियों में कर्म क्षेत्र के अत्यंत भव्य, वीर तथा संकल्पनिष्ठ चरित्रों को खड़ा किया, आत्मगरिमामय व्यक्तित्वों को उभारा, वे ही प्रसाद जी कामायनी में आकर मनु जैसे अक्षमताग्रस्त चरित्रों को न केवल सहानुभति प्रदान करते हैं वरन उसके उद्धार को, पुनः कर्मक्षेत्र की अग्नि-परीक्षाओं द्वारा उपस्थित न कर मात्र वायवीय दार्शनिक, मानसिक धरातल पर ही प्रस्तुत करते हैं। ...वस्तुतः कहानी कृत्रिम रूप से बढ़ायी जाती है, सिर्फ इसलिए कि उसमें प्रसादजी के दर्शन का प्रदर्शन हो, यह बात अलग है कि उनका रहस्य सर्ग उत्तम है।
- "कामायनी: एक पुनर्विचार" पुस्तक से कुछ अंश

क्रमशः

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