अवाम के हक़ में लिखने की आदत
1928 में पैदा हुए और 1993 में जहाने फ़ानी से कूच कर गये हमारे वक़्त के एक अहम शायर हबीब जालिब की एक ग़ज़ल के बहाने कुछ ज़रूरी बातें कर लें
न सिले की न सताइश की तमन्ना हमको
हक़ में लोगों के हमारी तो है आदत लिखना।
शायरी कोई मन की मौज नहीं है। यह कला का शायद सबसे प्राचीन प्रारूप है। इसके अपने मक़सद भी हैं और मायने भी। इस बात से भी ऐतराज़ रहा है मुझे कि कोई कहे कि मैं तो अपने लिए ही लिखता हूं। निहायती बेईमान जुमला है ये। किसी और के पढ़ने के लिए नहीं होता तो कोई लिखता ही नहीं। ख़ैर, हबीब साहब का ये शेर हमारे दौर की शायरी एक ज़रूरी सुतून की तरफ़ इशारा करता है। शायरी का लोगों की आवाज़ होना या बड़े अर्थों में कला का जनता का प्रतिनिधि होना क्यों ज़रूरी है? इसलिए है क्यूंकि और जितनी भी संस्थाएं रही हैं, भ्रष्ट और पाखंडी हो चली हैं। सबसे ज़्यादा अफ़सोस इस बात का है कि अख़बार की दुनिया यानी पत्रकारिता, जो सीधे तौर पर जनता की आवाज़ होना चाहिए थी, इस क़दर भ्रष्ट हो चुकी है कि अब तो लोगों को प्रताड़ित कर रही है, मुजरिमों की हिमायती तक है, और तो और कई जुर्मों में बराबर की शरीक़ भी है।
ऐसे माहौल में जबकि अवाम की आवाज़ की अलमबरदारी कोई भी नहीं कर रहा है, कला जगत को यह ज़िम्मेदारी लेना ही होगी। पूरी व्यवस्था के ख़िलाफ़ कला को खड़ा होना होगा। ऐसा होता रहा भी है, हो भी रहा है और, और ज़्यादा मज़बूती से होना चाहिए भी। हबीब साहब का यह शेर इसी बात की पुरज़ोर हिमायत भी करता है और गीता के उस मंत्र को अपनाने का भी समर्थन करता है कि इसके लिए कलाकार को किसी प्रतिफल की उम्मीद नहीं करना चाहिए, बस अपने कर्म में जुटे रहना चाहिए।
और सब भूल गये हर्फ़े-सदाक़त लिखना
रह गया काम हमारा ही बग़ावत लिखना।
हबीब साहब यही कह रहे हैं कि जिन्हें हमने लोकतंत्र के चार स्तंभ की संज्ञा दी थी, जिन पर ज़िम्मेदारी थी आम आदमी की आवाज़ बनने की या जिन पर बड़े ख़ुलूस से हमने ऐतबार कर रखा था, उन सबने कहीं न कहीं हमें धोखा दिया या हमें छला। अब फ़नक़ारों को ही ये बीड़ा उठाना होगा और पूरे सिस्टम के विरुद्ध आवाज़ बुलंद करनी होगी। हबीब साहब का यह तेवर एक ग़ज़ल के शेरों तक ही सीमित नहीं रहा है। एक और ग़ज़ल में वह इसी ज़ायक़े का मतला कहते हैं, देखिए -
हुजूम देख के रस्ता नहीं बदलते हम
किसी के डर से तक़ाज़ा नहीं बदलते हम।
बहरहाल, इस ग़ज़ल के और दो शेर ख़ास तवज्जो के हक़दार हैं -
हमने तो भूल के भी शह का क़सीदा न लिखा
शायद आया इसी ख़ूबी की बदौलत लिखना।
कुछ भी कहते हैं कहें शह के मुसाहिब जालिब
रंग रखना यही अपना इसी सूरत लिखना।
इन शेरों को पढ़कर आपको यक़ीनन ग़ालिब का बड़ा मशहूर शेर याद आया होगा। मफ़हूम के लिहाज़ से हम कह सकते हैं कि ये बातें जो इस शेर में हैं, होती रही हैं लेकिन इन शेरों का इस दौर में होना यह भी तो ज़ाहिर करता है कि यह विसंगति आज भी जारी है। फिर शह का क़सीदा न लिखने की ख़ूबी ही आपको शायर या फ़नक़ार बनाती है, यह बात हबीब साहब ने बहुत पते की रखी है। पिछले शेर में जो इशारा है कि सिले की तम्मना नहीं रखना चाहिए, उसके समानांतर इस शेर में तन्ज़ है कि तमाम ज्ञानियों ने जो संदेश दिया, उसको भूलकर कुछ कलाकार ऐशो-अय्याशी की ज़िंदगी के लिए अपनी कला से समझौते कर रहे हैं और सत्ता के पैरोकार बने हुए हैं। क्या इन्हें शायर या फ़नक़ार कहना चाहिए? कतई नहीं।
हमारे समय का ही उदाहरण हैं एक तथाकथित बड़े शायर जो सोनिया गांधी पर कविता लिखते हैं और कई मंच और पुरस्कार प्राप्त कर लेते हैं। अब यह क़िरदार की लड़ाई है। कुछ कलाकारों का क़िरदार महत्वाकांक्षाओं की पूर्ति के लिए समझौता करता है तो कुछ ऐसे हैं जो भूखे और गुमनाम मर रहे हैं लेकिन समझौता नहीं करने की ज़िद पर क़ायम हैं। फ़ैसला वक़्त और आती नस्लें करेंगी कि कौन सा क़िरदार दुनिया के हित में है।
इस ग़ज़ल के ज़रूरी शेरों के मारफ़त इस ज़रूरी बात को अपने उन शेरों से ख़त्म करता हूं जो इसी कड़ी के तेवरों का मुज़ाहिरा करते हैं -
तालियों के लिए हल्का नहीं लिख पाउंगा
जी मैं शायर हूं लतीफ़ा नहीं लिख पाउंगा।
तुम ये ऐजाज़ इदारे किसी और को दे दो
मैं हुक़ूमत का क़सीदा नहीं लिख पाउंगा।
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