ग़ज़ल के चार पड़ाव
साल 2000 से 2003 के बीच प्रकाशित हुए चार ग़ज़ल संग्रहों पर यह समीक्षा 2003 के आसपास ही लिखी थी लेकिन न तो किताबें पुरानी होती हैं और न ही उन पर लिखे हुए शब्द (मामूली संशोधन के बाद यहां प्रस्तुत हैं)। अब भी ताज़ा हैं ये शब्द और इनमें एक आंच भी है कि नहीं?
धूप का लहरों पर बलखाते हुए चलना, फूलों पर से फिसलकर शबनम का सौंधी ख़ुशबू में तब्दील होना और टाट के पर्दों से रेशमी उजाले को महसूस करना बिल्कुल उसी तरह है जिस तरह अंजुमन-ए-ग़ज़ल में मुज़फ़्फ़र की ग़ज़लों का सरग़ोशियां करना। लहरों की तरह लय का उतार-चढ़ाव और रेशमी उजालों की तरह साफ़ सत्ह मुज़फ़्फ़र की हर ग़ज़ल को तारीख़ का एक पन्ना बना देती है। महकते, शबनमी जज़्बात और स्पष्ट सत्ह तो प्रेम किरण की ग़ज़लों में भी सरासर है। साथ ही, वह लहरों के उतार-चढ़ाव की मानिन्द दो भाषाओं हिन्दी और उर्दू का ख़ूबसूरत बाना भी बड़ी आसानी से बुन पाये हैं। हिन्दी और उर्दू की शेरी रिवायत की मिली-जुली तस्वीर दीक्षित दनक़ौरी की ग़ज़लों में भी सांस लेती है लेकिन प्रेम किरण की बात जुदा है -
आग से गुज़रो तो सोने का बदन रख लेना
वरना कुछ और अगर हो तो निखरता कम है।
रोशनी तो इक अमल पैहम अमल का नाम है
रोशनी का ज़ायक़ा कुछ आग चखकर लीजिए।
प्रेम किरण के ये दो शेर उनकी क़ैफ़ियत और ज़ेह्नी खनक को बयां करते हैं पर जब आप प्रेमकिरण से गुज़रेंगे तो आप यक़ीनन एक ज़िंदादिली और नाज़ुकी का भी एहसास पाएंगे। प्रेमकिरण से गुज़रने का यह सफ़र इस किताब आग चखकर लीजिए की एक नायाब देन है। कहना आसान है कि ये किताब प्रेमकिरण का आईना है लेकिन क्या इसे आईना बनाना उनके लिए आसान था? बेशक़ नहीं -
मुद्दतों देखा किये हम आईना बनने का ख़्वाब
पर तुम्हारे आईने पर धूल होकर रह गये।
शायरी की से विरासती ज़ुबान जो कभी महरूमियों और कभी संभावनाओं की ज़्यादतियों को बयान करती रही है वो मुज़फ़्फ़र के यहां अलग लहजा लेकर सामने आती है -
हज़ारों अलअतश कहते हुए दौड़े चले आये
जहां बालिश्त भर साया मेरी दीवार से निकला।
यहां इस बात का ज़िक्र लाज़िमी है कि जहां प्रेमकिरण और दीक्षित की ग़ज़लों में इंसान का गिरता चरित्र और दिनबदिन बढ़ता हुआ स्व-वाद साफ़ दिखायरी देता है वहीं मुज़फ़्फ़र में इसकी हल्की सी झलक के साथ शायरी का परंपरागत स्वरूप निखरकर सामने आता है। इसी सिलसिले में हम अगर राही भोजपुरी की बात करें तो पाएंगे कि ग़ज़लों में वह सिर्फ़ अपने आपको ही बयां करना पसंद करते हैं।
हो न पाएंगे पूरे शेर जो अधूरे हैं
क़ब्र पे मेरे दिलबर अश्क़ जो बहाओगे।
राही में शेरियत के साथ कवित्व भी साफ़ झलकता है जबकि प्रेमकिरण इस कवित्व को टाल जाने में माहिर हैं। वो चाहते हैं कि वो जब ग़ज़ल लिखें तो वो ग़ज़ल ही लगे।
दीक्षित की किताब डूबते वक़्त से पार होकर प्यार को संवेदनाओं की ज़मीन मिलती है। कहीं-कहीं वह दुष्यंत स्कूल के एक पुरज़ोर शायर की हैसियत से भी शेर कहते हैं। हालांकि शेखर वैष्णवी और निशान्त केतु ने दनकौरी को सदी का दूसरा दुष्यंत घोषित कर दिया है लेकिन यह बात वैसी ही लगती है जैसे आजकल मुंबई में फिल्म के रिलीज़ होने पर पेड रिव्यू लिखे जाते हैं। इस मुआमले में शशि जोशी का जुमला फिर भी तवज्जो देने लायक है कि दुष्यंत सरीखे तेवर ग़ज़ल में एक लम्बे अरसे बाद दिखायी पड़ रहे हैं। वास्तव में, दीक्षित जी एक संपादक के ओहदे पर रहे हैं तो अंदाज़ा लग जाता है कि विद्वानों की राय उनकी ग़ज़लों पर कुछ ज़्यादा ही मेहरबानी कर देती है।
दरअस्ल दुष्यंत ने अपनी ग़ज़ल और शेर आम आदमी के लिए उसी के लहजे में कहे लेकिन उनमें ख़ास असर यह था कि वह कई सत्हों पर आम होते हुए भी झकझोरने में माहिर थे। ग़ज़ल अपने मिज़ाज के हिसाब से सदाक़त और नज़ाक़त की भी पैरवी करती है जो दुष्यंत की ग़ज़ल में नज़रिये के फ़र्क से दिखती है। पहली नज़र में नज़ाक़त को नकारा जा सकता है लेकिन आग को रोशनी का मानी देने पर उसकी शिद्दत तो कम नहीं होती, हां ख़तरा ज़रूर कम हो जाता है। दौर में बदलाव आने की वजह से दुष्यंत स्कूल के शायरों में इस नज़रिये को परिभाषित और रूपायित करना पेचीदा सा लगता है। दीक्षित भी जब आग को ग़ज़ल बनाते हैं तो वह रोशनी का अर्थ उद्घाटित नहीं करती और बिल्कुल इसी तरह से प्रेमकिरण के शेरों में भी आग का खतरा कम नहीं दिखता। इधर मुज़फ़्फ़र रोशनी का ज़िक्र करते हैं मगर उनकी शेरियत से वह रोशनी आग की शक़्ल अख़्तियार करने का ज़र्फ़ रखती है -
बुझते-बुझते भी ज़ालिम ने अपना सर झुकने न दिया
फूल गयी है सांस हवा की एक चिराग़ बुझाने में।
हवा से चिराग़ की जंग का ज़िक्र न करते हुए दीक्षित ने चिराग़ से रोशनी की ही मुख़ालफ़त की बात की है। न जाने क्या सहा है रोशनी ने / चिराग़ों से बग़ावत कर रही है। यह बदलाव का ही परिणाम है। दुष्यंत के दौर में सामाजिक मूल्यों में जो गिरावट दर्ज की गयी वह इस दौर में अपने पतन के चरम पर दिखती है। इससे इतर राही अपनी किताब में जज़्बाती सत्ह पर ज़्यादा बात करते हैं। कभी-कभी विसंगतियों पर व्यंग्य भी करते हैं, हालांकि यह उनका मुख्य स्वर नहीं है।
उछलेंगे शेर आपके दुनिया में एक दिन
अपनी ग़ज़ल को पास बिठाकर ग़ज़ल कहें।
राही भोजपुरी ने जो अशआर विसंगतियों पर कहे हैं, उनमें वह भरपूर असंतोष और नाराज़गी व्यक्त करने में कम सफल हुए हैं जबकि प्यार के शेरों में वह गहराइयां को छूने की कोशिश करते दिखते हैं लेकिन प्यार में डूबे हुए और मजबूर आदमी को जी लेते हैं। इसी सफल-असफल परन्तु मुक़म्मल प्यार का ज़िक्र करने में दीक्षित खुद को भूले हुए नज़र आते हैं। यह उनकी अजीब ख़ूबी है कि वह अपनी हर ग़ज़ल में अमूमन हर तरह के शेर कहते हैं जो कहीं-कहीं सप्रयास भी महसूस होता है।
बहरहाल, कुल मिलाकर इन चार किताबों में से मुज़फ़्फ़र और प्रेम किरण के शेरी मजमुए मेरे नज़दीक ज़्यादा क़ीमती हैं और बाकी दो अपनी ख़ूबियों और ख़ामियों के साथ-साथ पढ़े जा सकते हैं, सराहे भी जा सकते हैं। ग़ज़ल ज़िंदाबाद।
कृतियां - आग चखकर लीजिए - प्रेम किरण, डूबते वक़्त - दीक्षित दनक़ौरी
मुज़फ़्फ़र की ग़ज़लें - मुज़फ़्फ़र हनफ़ी, तुम्हारी आंखों में - राही भोजपुरी
मुज़फ़्फ़र की ग़ज़लें - मुज़फ़्फ़र हनफ़ी, तुम्हारी आंखों में - राही भोजपुरी
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