बुधवार, मार्च 01, 2017

नज़्म

इश्क़ इबादत


इश्क़ इबादत - इस उन्वान से अब तक मैंने 8 नज़्में कही हैं। ये नज़्में ख़ुद मेरे लिए किसी जादू से कम नहीं रहीं। कब, कैसे मुझे हासिल हो गयीं, कुछ नहीं पता... आज एक नज़्म साझा करने का मन है। यह नज़्म इश्क़ में बग़ावत करने का मन और संसार रचने की बात करती है। सिर्फ़ दैहिकता को नहीं बल्कि उस दैहिकता के बहाने दुनिया की उस सोच के ख़िलाफ़ बात करती है जो इश्क़ के अलौकिक आनंद के आड़े आती है। इश्क़ को बेमानी ज़ंजीरों और बेड़ियों से आज़ाद करने की छटपटाहट इस नज़्म में बड़ी साफ़गोई और शिद्दत से उभरकर आती है। इस नज़्म के बारे में कुछ दोस्तों का ऐसा ख़याल है। देखिए, शायद आपको इस एक नज़्म से गुज़रकर सफ़र का कोई आनंद या रस हाथ लग जाये।

नज़्म


चलो, रुख़सत करो जाऊं अभी कुछ रात बाकी है.

सुबह हो जाएगी तो लोग फिर बातें करेंगे कुछ
कमीने हैं लिहाज़ो-शर्म-अदब भी क्यूं रखेंगे कुछ
तुम्हें बदनाम कर देंगे मुझे ताने भी देंगे कुछ
चलो, रुख़सत करो जाऊं अभी कुछ रात बाकी है.

मगर फिर सोचता हूं इश्क़ कब बदनाम होता है
इसी जज़्बे में तो रोशन ख़ुदा या राम होता है
तो फिर ये ख़ौफ़ क्या है फ़िक्ऱ क्यूं है उलझनें क्यूं हैं
अभी कुछ रात बाकी है तो फिर ये अड़चनें क्यूं हैं...

तमन्ना पूछती है ये तुम्हारा हाथ क्यूं छोड़ूं
संवारूं क्या अभी से लट हर इक चूड़ी न क्यूं तोड़ूं
अभी कुछ रात बाकी है लिपटकर तुमसे लेटूं मैं
अभी कुछ और लमहों और वक़्फ़ों को समेटूं मैं...

मगर दुनिया ये कहती है गलत इस पाक़ रिश्ते को
गज़ब के नाम देती है इस इक मासूम जज़्बे को
कई आलिम किताबें मज़हबों की खोल देते हैं
ज़रा से सच से अक्सर झूठ कितना तोल देते हैं...

यहां फिर चंद दानिशमंद भी हैं फ़ल्सफ़ों वाले
नज़र में जिनकी ये रिश्ते हैं रूहों पर पड़े जाले
किसी ने जोश कह डाला तो कोई मोह कहता है
जुनूं कैसा ये जाने सबके सर पर हावी रहता है...

ख़ुदाओं की पनाहों और भगवानों की शरणों में
सब अपना सर झुका देते हैं अनदेखे से चरणों में
मगर मैं मानता हूं ये मुहब्बत कर रहा हूं मैं
यही महसूस होता है इबादत कर रहा हूं मैं...

मुझे इन फ़ल्सफ़ों से क्या मैं इतना जान पाता हूं
तुम्हारे साथ होता हूं तो ख़ुद से जुड़ सा जाता हूं
थकानें मेरी लेकर मुझको सीने से लगाती हो
सुक़ूं की नींद आती है तुम ऐसे जब सुलाती हो...

तुम्हें तस्क़ीन मिलती है लिपटकर मुझसे रोने में
बड़ा महफ़ूज़ पाती हो मेरी बांहों में होने में
हर इक दौलत हर इक शय जो तुम्हें लगती है बेमानी
मुझे देखे बिना बेचैन रहती है ये पेशानी...

कई सदियां हुईं रोज़ाना सुब्हें होती हैं, अफ़सोस
अभी तक रात बाकी है ज़माने भर के ज़हनों में
ज़हीनों ने जो कुछ बोला था बेफ़िक्ऱी में गफ़लत में
वही हर बात बाकी है ज़माने भर के ज़हनों में...

अभी कुछ रात बाकी है अभी हम सुब्ह देखेंगे
मुझे रुख़सत नहीं करना कि जब तक उम्र बाकी है.

- दिलशाद

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