सोमवार, मार्च 27, 2017

ग़ज़ल

तुम क्यूं ग़ज़ल कहो, मैं क्यूं ग़ज़ल कहूं..?


25 मार्च 2017 को ग़ज़लों के एक संकलन को मंज़रे-आम पर शाया किये जाने का जलसा हुआ जिसमें देश के कई कोनों से नये ग़ज़लगो शायर शामिल हुए। यह किताब चूंकि उन ढाई दर्जन शायरों की कुछ ग़ज़लों को पेश करती है जो ग़ज़ल की दुनिया में आमद दर्ज करा रहे हैं इसलिए इस मौके पर मेहमाने-ख़ुसूसी के तौर पर मैंने शायरी की दुनिया में कदम रखने वालों के लिए ग़ज़ल पर तक़रीर पेश की। उसी बयान के हिस्से -


- हिन्दी ग़ज़ल जैसी कोई चीज़ होती है, इस बात से मैं मुत्तफ़िक़ नहीं हूं। ग़ज़ल को भाषा के आधार पर या किसी ऐसे ही किसी और आधार पर बांटने का अर्थ सांप्रदायिकता बढ़ावा देना है और शायर या एक फ़नकार होने के नाते मैं तो इसका समर्थक नहीं हूं। ग़ज़ल कई भाषाओं में कही जा रही है, मराठी, गुजराती लेकिन यहां ग़ज़ल के विधान को बदलने या उसमें फेरबदल करने या अपनी सुविधानुसार उसका नामकरण करने की कोई चेष्टा नहीं है जबकि हिन्दी में तथाकथित लोग ऐसा करने की कोशिश में निरंतर लगे हुए हैं। नयी पौध के शायरों को गंभीरता से इस बारे में सोचना चाहिए।

- दूसरी बात - जो नये कवि ग़ज़ल सृजन के लिए उत्साह या रुझान दिखा रहे हैं, उनमें एक प्रवृत्ति साफ तौर पर बड़े पैमाने पर दिख रही है कि वे रदीफ़, काफ़िये बहर वगैरह की तकनीकी जानकारी जुटाकर उस खांचे में कुछ शब्द फिट कर देने को ग़ज़ल मान रहे हैं। ऐसा नहीं होता है। ये तकनीकी जानाकरी एक क्वालिफिकेशन है जो आपको शायरी या कविता को ग़ज़ल की शक्ल में कहना बताती है। कविता या शायरी की तमीज़ और तहज़ीब और प्रतिभा समझने की और महसूस करने की बात है इसका कोई फिक्स खांचा या पैटर्न नहीं है। तो, सतर्क रहें और औसत लेखन की बाढ़ में खुद को न झोंकें और उस इल्ज़ाम से बचने की कोशिश करें कि जिन लोगों के कारण खराब शायरी की मिसालें पेश की जाती हैं उनमें आपका नाम न हो। वैसे भी, वाते साहब इसकी तस्दीक़ करते हैं ग़ज़ल के बारे में कुछ बातें तो सीखी जाती हैं लेकिन सीखकर ग़ज़ल नहीं कही जाती।

- तीसरी बात यह है कि - आजकल के शायरों पर इल्ज़ाम लग रहा है कि वे कही हुई बातें या मफ़हूम नक़ल कर रहे हैं या दोहरा रहे हैं। ऐसा इसलिए होता है क्योंकि या तो हमने ज़्यादा अध्ययन नहीं किया है या फिर हम किसी से बहुत अधिक प्रभावित हैं और हमारी मौलिक सोच-समझ या तो है ही नहीं या किसी के साये में है। कारण जो भी हो, इससे बचना होगा। ऐसे इल्ज़ाम एक शायर के लिए तो खतरा हैं ही, शायरी के सामने खतरा यह पैदा करते हैं कि शायरी में कोई इज़ाफ़त नहीं होती। दूसरे जो शायर हक़दार हैं जिस मुक़ाम के, कई बार उनका हक़ कम हक़दार या बेदख़ली के काबिल शायर चुरा और हथिया लेते हैं। मैं जो कहना चाह रहा हूं एक उदाहरण से समझाता हूं। कैफ़ी आज़मी साहब का शेर देखें 

जिस तरह हंस रहा हूं मैं पी पी के गर्म अश्क़
यूं दूसरा हंसे तो कलेजा निकल पड़े।

अब इसी बात को अपने अंदाज़ में जॉन एलिया कहते हैं

जो गुज़ारी न जा सकी हमसे
हमने वो ज़िंदगी गुज़ारी है।

कैफ़ी साहब का शेर भरपूर है और कलेजा निकल पड़े जैसा मुहावरा कहन को पुख़्ता ढंग से संप्रेषित भी करता है और बात को संवेदना के एक स्तर से जोड़ देता है। जॉन साहब का शेर इसी मफ़हूम को अधिक सरलता से संप्रेषित करता है। संवेदना तो है ही और बात में एक तहदारी इस कारण भी आ रही है कि कोई सामान्य प्रतीक या बिम्ब योजना नहीं है इसलिए पाठक अपनी कल्पनाशीलता का इस्तेमाल करते हुए एक भावना से जुड़ सकता है। अब देखिए आजकल के एक शायर का शेर -

ऐसे हालात भी जिये हमने
और कोई जिये तो मर जाये।

अब आप खुद ही विचार करें कि यह शेर दोहराव और नकल का इल्ज़ाम लगाने लायक है कि नहीं। मेरे विचार से है। ख़याल का टकराना एक बात है लेकिन जिस मफ़हूम पर कई बार कई शेर कहे जा चुके हैं, उसे उठाना और फिर पहले कहे जा चुके शेरों से हल्का शेर कहना किसी तरह भी जायज़ नहीं ठहराया जा सकता। मैं यही कहना चाह रहा हूं कि पुराने मफ़हूम पर नयी बात पैदा करना पड़ेगी या फिर नये और बेहतर ढंग से कहने की चुनौती का सामना करना होगा वरना इल्ज़ाम ही लगेंगे।

- आख़िरी बात - शायरी का जदीद होना जैसे एक पहलू है, वैसे ही उसमें नज़ाक़त और मुहब्बत का होना दूसरा पहलू है। किसी को नकारने में या किसी के प्रति आसक्त होकर उसके पैरोकार बनने में ध्यान और उर्जा को नष्ट करने से बचें और शायरी के साथ दिली मुहब्बत का रिश्ता क़ायम करने वाले शायर बनें। कई पत्र पत्रिकाएं, ख़ास तौर से ग़ज़ल को लेकर बहुत सी भ्रामक जानकारियां भी परोसने में लगे हैं, इसके प्रति सतर्क रहना भी ज़रूरी है। एक उदाहरण के साथ बात करूं तो ग़ज़ल पर एक कुछ चर्चित पत्रिका है दरवेश भारती जी के संपादन में निकल रही ग़ज़ल के बहाने। पिछले दिनों उसके हवाले से तग़ज़्ज़ुल लफ़्ज़ को ग़लत ढंग से परिभाषित किया गया। तग़ज़्ज़ुल किसे कहते हैं, इस बारे में एक ग़लत राइटअप प्रस्तुत हुआ। तग़ज़्ज़ुल की व्याख्या ग़लत अर्थों में कर दी गयी। 

अपने मिट्टी से घर बनाकर भी
लोग बरसात भूल जाते हैं

काबा किस मुंह से जाओगे ग़ालिब
शर्म तुमको मगर नहीं आती

इन शेरों को कोट करते हुए यह साबित किया गया कि ऐसे शेरों में माना जाता है कि तग़ज़्ज़ुल है। मैं यहां कहना चाहता हूं कि ऐसी भ्रामक जानकारियों के प्रति सतर्क रहें और किसी सही जानकार से बातों को समझें। जो लोग तथाकथित हिन्दी ग़ज़ल का शोर मचा रहे हैं, सब तो नहीं, लेकिन कुछ लोग अपने विश्वासों या पूर्वाग्रहों के अनुसार इस तरह की गलत व्याख्याएं और बातें पेश कर रहे हैं। यह खतरनाक भी है और निंदनीय भी। ऐसा नहीं होना चाहिए।

कुछ और बातें भी हैं।

- क्या वर्तमान और नये कवि जो ग़ज़ल में आ रहे हैं, वे अपना कोई ख़ास अंदाज़, तेवर या मुहावरा बना पा रहे हैं?

- कुछ अच्छा नहीं लिखा जा रहा, ऐसा नहीं है लेकिन अभी भी बहुत संभावनाएं और चुनौतियां हमारे सामने हैं, बहुत अपेक्षाओं पर हमें खरा उतरना है, क्या इसके लिए हमारी तैयारी है?

- एक शायर होने के नाते ख़ेमेबाज़ी, गुटबाज़ी और जुमलेबाज़ी को आप बढ़ावा देते हैं या वाक़ई शायरी के सच्चे तरफ़दार होकर एक बेहतर सृजन के पैरोकार बनते हैं, यह आपको ही तय करना है।

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