बुधवार, मार्च 22, 2017

समीक्षा

रहबर साहब के ख़ुश्बू में बसे ख़त


मशहूर शायर जनाब राजेंद्रनाथ रहबर की मक़बूल किताब "तेरे ख़ुश्बू में बसे ख़त", मेरी नज़र में...


मोहतरम रतन पंडोरवी के शागिर्द जनाब राजेंद्रनाथ रहबर साहिब की शायरी का शाहक़ार है, यह मजमूआ - "तेरे ख़ुश्बू में बसे ख़त"। उनकी ग़ज़लें, नज़्में, ख़मसे, उनकी शायरी उनके फ़न को आंकने के लिए काफ़ी हैं। रहबर साहिब की शायरी अदबी सत्ह पर खरी उतरती ही है, काफ़ी मशहूर भी हुई है। उनकी एक नज़्म जिस पर किताब का उन्वान तय किया गया है, मक़बूल गायक जगजीत सिंह की आवाज़ में जादू बिखेर चुकी है।

मैं इक चिराग़ हूं दहलीज़ पर सजा मुझको
बुझा न दे कहीं ये सरफिरी हवा मुझको।

और भी कुछ इसी तरह के अच्छे अशआर इस किताब में मयस्सर हैं, लेकिन दरअस्ल, रहबर साहिब आशिक़ी की शायरी ज़्यादा करते हैं। उनकी शायरी की परम्परा सदियों पहले की शायरी से मानी जा सकती है। फिर भी, उसमें शिगुफ़्तगी है। कहीं-कहीं तन्ज़ करती उनकी शायरी उन्हें हालिया दौर से जोड़ती है और कहीं-कहीं फ़ल्सफ़ा बयान करने की वजह से उनकी सोच और मौजूदा हालात पर उनका नज़रिया साफ़ हो जाता है। लेकिन इसका मतलब यह कतई नहीं निकाला जाना चाहिए कि वह किसी इन्क़लाब से वाबस्ता या समाज की मुश्क़िलात को मरक़ज़ में रखने वाली शायरी के फ़नक़ार हैं।

नज़्म और ग़ज़ल, हालांकि दोनों उन्होंने बक़ौल जनाब 'रिज़ा' साहब, कहने की तरह कही हैं, फिर भी लगता है कि नज़्म में रहबर साहिब ज़्यादा रमते हैं। उनके पास अच्छे अशआर हैं लेकिन उनका कमाल नज़्म में और बड़ा मुक़ाम हासिल करता है। दरअस्ल, नज़्म की एक ख़ूबी है कि वह जज़्बात और ख़यालात को ऐसा कैनवास देती है जिसमें लमहा-लमहा जोड़कर एक सदी की तस्वीर बनायी जा सकती है। इसी कैनवास पर एक अच्छे मुसव्विर की तरह रहबर साहिब ने भी कुछ क़ीमती तसावीर अंजाम दी हैं। "अजमेर कौर", "मिन्नत", "नादान बुज़ुर्ग", "तेरे ख़ुश्बू में बसे ख़त" कुछ ऐसी ही नज़्में हैं। एक मर्सिया भी उन्होंने ख़ूब कही है जिसमें एक शायर को तहे-दिल से याद गया है।

रहबर साहिब की उर्दू शायरी में कहीं-कहीं पंजाबी का लहजा चार चांद लगा देता है। कहीं-कहीं नस्री शायरी को छोड़ दें तो उनका शायराना फ़न बेशक़ कसा हुआ है। ग़ज़लियात में बहरें और बाक़ी मस्लक भी उनके पास क़ायदे का है। कुछेक जगह तो सलीक़ा इस क़दर हावी है कि फ़िक्र और शेर की कहन फीकी पड़ जाती है। कुछेक जगह काफ़ियों का दोहराव भी खलता है। नज़्म बिला शक़ उनके फ़न की पैरवी करती है। "अजमेर कौर" में रहबर साहिब सिर्फ़ एक क़िरदार ही कहते हैं, दूसरा जो ख़ुद हैं, उसका खुलासा ही नहीं करते जिस तरह "तेरे ख़ुश्बू में बसे ख़त" में उन्होंने किया है। "मिन्नत" नज़्म भी अच्छी बन पड़ी है। ख़मसे कहने के लिए भी उन्होंने अच्छे अशआर चुने हैं।

कुल मिलाकर रहबर साहिब की शायरी को नज़रअंदाज़ कर पाना मुमक़िन नहीं है। बेहतर अशआर का मुताला करने वालों के लिए ये किताब वाकई फ़ायदेमंद है। किताब के आख़िर में रहबर साहिब ने चन्द मुतफ़र्रिक अशआर भी रखे हैं, जिनके बारे में क्रिटिक्स की राय एक सी हो, यह ज़रूरी नहीं है।

किताब - तेरे ख़ुश्बू में बसे ख़त
शायर - राजेंद्र नाथ रहबर
प्रकाशक - दर्पण पब्लिकेशन्स, पठानकोट/2003

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