शनिवार, मार्च 25, 2017

रिपोर्ताज

सोशल मीडिया ने एक घबराहट तो पैदा की है


पिछले दिनों भोपाल में पत्रकारिता के क्षेत्र में एक सम्मान समारोह व परिचर्चा का भव्य आयोजन हुआ। चर्चित पत्रकार रहे श्री भुवन भूषण देवलिया की स्मृति में आयोजित इस पुरस्कार समारोह व परिचर्चा में भोपाल और मध्य प्रदेश के दर्जनों पत्रकारों ने उपस्थिति दर्ज करायी और पत्रकार कालोनी में स्थित सप्रे संग्रहालय का सभागार लगभग पूरा भर गया। भुवन भूषण देवलिया राज्य स्तरीय पुरस्कार इस साल इंदौर के युवा पत्रकार श्री अर्जुन रिछारिया को वेब पत्रकारिता क्षेत्र में उल्लेखनीय उपलब्धियों के आधार पर प्रदान किया गया। यह पुरस्कार समिति को बधाई देने का उपक्रम है क्योंकि युवाओं की प्रतिभा को पहचान कर उन्हें प्रोत्साहित करने का जो निर्णय लिया गया, वह स्वागत योग्य है।

मेरे लिए व्यक्तिगत तौर पर उपलब्धि है अर्जुन को पुरस्कृत किया जाना क्योंकि अर्जुन ने अपनी पत्रकारिता के आरंभिक दिनों में मेरे साथ कार्य किया है और तबसे हम दोंनों घनिष्ठ मित्र रहे हैं या वह मेरे अनुजवत रहा है। अर्जुन को बधाई देते हुए कार्यक्रम के दूसरे पहलू पर विमर्श किया जाना अभीष्ट है।

समारोह का दूसरा पहलू था परिचर्चा जिसका विषय "सोशल मीडिया : अवसर और चुनौतियां" रखा गया था। इस विषय पर विमर्श करने के लिए मंच पर उपस्थित थे श्री राजेश बादल और श्री प्रदीप कृष्णात्रे। इस कार्यक्रम के मुख्य अतिथि मप्र सरकार में कुछ ही समय पहले मंत्री बने श्री विश्वास सारंग। जैसा कि राजनीतिकों के साथ अक्सर होता है, श्री सारंग भी देर से आये और तब तक लगभग विमर्श का आधा हिस्सा संपन्न हो चुका था। श्री सारंग ने अपनी बात एक राजनीतिक दृष्टिकोण से रखते हुए यह सिद्ध करने की कोशिश की कि सोशल मीडिया कभी-कभी हदें पार कर जाता है, नैतिकता की सीमाएं लांघ जाता है, जनभावनाओं को आहत कर जाता है और कभी-कभी बेलगाम हो जाता है। इस तक़रीर के बाद श्री सारंग यह कहने से भी नहीं चूके कि इस पर सोशल ऑडिट करने की ज़रूरत है। लगाम लगाने के उपाय ढूंढ़ने होंगे। कुछ नियम कानून बनाने होंगे। कुछ अंकुश लगाने का प्रबंध करना होगा। आदि आदि।

इधर, श्री राजेश बादल ने एक गंभीर नोट से बात शुरू की लेकिन वह भी सोशल मीडिया के ख़िलाफ़ ज़्यादा नज़र आये। उनकी दृष्टि में भी सोशल मीडिया एक ऐसा प्लेटफॉर्म नज़र आया जो अनियंत्रित है और जिस पर नियंत्रण होना शायद इस समय की सबसे बड़ी समस्या है जिसे पहली प्राथमिकता में हल करना चाहिए। वास्तव में, श्री बादल और श्री सारंग दोनों की चिंता कुछ दिन पहले हुई जेएनयू की घटनाओं को लेकर थी जिस पर सोशल मीडिया अधिक वाचाल हो उठा था और एक तरह से सत्ता के खिलाफ़ खड़ा हो गया था। और ऐसी ही कुछ अन्य घटनाओं को लेकर भी जहां सत्ता के विरोध के स्वर उठते हैं।

बताता चलूं कि श्री बादल राज्यसभा टीवी चैनल में एक प्रमुख पद पर हैं। पहले भी वह लंबे समय तक दूरदर्शन के लिए विभिन्न पदों पर रह चुके हैं। और श्री सारंग ने वक्तव्य में कह ही दिया कि उनकी शुरुआती राजनीति के कुछ कार्यक्रमों को श्री बादल ने ही कवर किया था तो दोनों के एक सुर में बात करने के पीछे का राज़ आप समझ सकते हैं।

इन दोंनों सम्माननीयों के अलावा जो वक्ता थे, श्री प्रदीप कृष्णात्रे, वह अपने वक्तव्य में लगभग विपरीत स्वरों में बात करते दिखे। उनकी दृष्टि में सोशल मीडिया कोई हानिकारक प्लेटफॉर्म नहीं है बल्कि देश के हर नागरिक के लिए अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का अधिकार मुहैया कराने वाला एक मंच है। इन वक्तव्यों के बाद हुई परिचर्चा में दो-एक सवालों के जवाब में भी श्री प्रदीप कृष्णात्रे ने यह स्पष्ट किया कि जेएनयू में हुई हालिया घटनाओं पर सोशल मीडिया में जो भी संवाद या विमर्श हुआ, वह इतना बड़ा मुद्दा नहीं है जिसके कारण सोशल मीडिया पर किसी तरह के प्रतिबंध की बात उठायी जाये।

तीनों वक्तव्यों के बाद मेरे मन में सवाल था लेकिन मंच को जल्दी थी सभा भंग करने की तो जो सवाल-जवाब सत्र 15 मिनट का होना था, वह 5 मिनट में दो-एक सवालों के बाद ही समाप्त कर दिया गया।

लेकिन विचार व प्रश्न यहां उपस्थित है -

तुम्हारे पास है डायस तुम्हारे पास है माइक
तुम्हारा शोर ज़्यादा है जो मेरा हो नहीं सकता।

श्री विजय वाते का यह शेर पूरी व्यवस्था और आम आदमी की आवाज़ के संकट को सीधे संप्रेषित करता है। सोशल मीडिया ने कुछ न किया हो, मगर इतना तो किया है कि आम आदमी, जिसकी आवाज़ दिल्ली तो दूर किसी राजधानी के कान तक नहीं पहुंचती, अपनी बात कह सकता है, अपना रोना रो सकता है, अपना मत रख सकता है। सत्ता और पत्रकारों की चिंता क्या यह है कि अगर आम आदमी बोलने लगा तो हम क्या करेंगे? क्या इसलिए सत्ता और सत्ता के पैरोकार कुछ पत्रकार सोशल मीडिया पर प्रतिबंध या लगाम लगाने की वक़ालत कर रहे हैं कि आम आदमी की आवाज़ कुचल दिया जाये? क्या यह अपनी सत्ता के दंभ और व्यवस्था को अपने हाथ में बचाये रखने के लिए बौखलाहट नहीं है?

और अंतिम प्रश्न - क्या मतदाता 5 साल में एक बार अपना मत देकर सरकार चुनेगा और 5 साल तक खामोश बैठा रहेगा? एक बार मतदान के बाद अगर सोशल मीडिया उसे यह सहूलत दे रहा है कि वह चुने हुए जनप्रतिनिधियों के हर काम पर अपना मत प्रकट कर सके, तो क्या यह सत्ता को नागवार गुज़रना चाहिए? क्या सोशल मीडिया अभिव्यक्ति को जन सामान्य का मत स्वीकार नहीं किया जाना चाहिए?

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