कामायनी - विद्वानों की दृष्टि में - भाग एक
पिछले 150 सालों से अधिक समय में हिन्दी साहित्य की दस सर्वाधिक महत्वपूर्ण पुस्तकों में से एक निःसंदेह कामायनी है। जयशंकर प्रसाद की यह कालजयी रचना अपने परिचय तथा विस्तार की शिनाख़्त के लिए कतई मोहताज नहीं है। कहते हैं कि बाबू देवकीनंदन खत्री रचित चंद्रकांता पढ़ने के लिए देश भर के विभिन्न कोनों के लोगों ने हिन्दी सीखी थी। यह भी उतना ही बड़ा अजूबा है कि कामायनी पढ़ने के लिए लोगों ने शुद्ध हिन्दी सीखने व समझने के प्रति रुझान दिखाया। दूसरे अर्थों में कामायनी ने यह सिद्ध किया कि छायावादी भाषा और बुनावट में विश्व स्तरीय काव्य की रचना की जा सकती है। बहरहाल, अनेकानेक शोध हो चुके हैं और कामायनी की परतों को खंगाला जा चुका है। कुछ विद्वानों की मानें तो आजकल के शिक्षक तो शिष्यों को कामायनी न तो सही ढंग से पढ़ा-समझा सकते हैं, न ही ख़ुद उसके चौथाई तत्व को समझ पाते हैं।
बहरहाल, एमए करते हुए मैंने कामायनी को गहराई से समझने का प्रयास किया। बहुत तो नहीं, लेकिन हां, कुछ तो समझ सका और उसका कारण कई विद्वानों की दृष्टि। प्रसाद जी के समकालीनों और परवर्तियों ने कामायनी को किस प्रकार देखा, समझा, समझाया, इस बाबत कई लेख और पुस्तकें पढ़ीं। नोट्स की शक्ल में कुछ यहां प्रस्तुत कर रहा हूं। अनावश्यक हो सकता है लेकिन हिन्दी के वर्तमान विद्यार्थियों, नवोदित साहित्यकारों और कुछ सुधी पाठकों के लिए लाभकारी हो सकते हैं, इसी विश्वास के साथ...
सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला
कामायनी रहस्यवाद का प्रथम महाकाव्य है। सृष्टि के रहस्य पर मुख्य रूप से दो विचारधाराएं हैं, एक भारतीय और दूसरी पाश्चात्य - डारविन कृत। भारतीय विचार मनस्तत्व प्रधान है और डारविन का जीव-जंतुओं के विकास क्रम को दर्शाता हुआ मुख्यतः भौतिकतावादी है। वास्तव में, सृष्टि तत्व को समझने के लिए माया की व्याख्या सबसे उत्तम है, यद्यपि हज़ारों वर्षों में आज तक बहुत कम लोगों की समझ में यह व्याख्या आयी है।
...हिन्दी के युगान्तर साहित्य के जो तीन प्रजापति हैं, उनमें प्रसादजी एक "श्रद्धा देवो वै मनुः" हैं। शेष दो हैं स्व. प्रेमचंद और बाबू मैथिलीशरण। कविवर प्रसाद मनु और श्रद्धा को स्थूल रूप में भी मानते हैं। साहित्य का उनका रहस्यवादी या छायावादी पक्ष एक ओर करने पर हिन्दी का अष्ट बज्र सम्मेलन होता है और प्रसाद जी उसमें सर्वमान्य अग्रणी हैं।
हिमगिरि के उत्तुंग शिखर पर, बैठ शिला की शीतल छांह
एक पुरुष भीगे नयनों से देख रहा था प्रलय प्रवाह
नीचे जल था उपर हिम था, एक तरल था एक सघन
एक तत्व की ही प्रधानता कहो उसे जड़ या चेतन।
"मैकबैथ" के प्रारंभ में भी महाकवि शेक्सपियर ने नाटक का पूरा भाव जैसे एक गीत में दर्शा दिया है, जैसे "अभिज्ञान शाकुन्तलम्" का पूरा तत्व कवकिुल गुरु कालिदास ने या सृष्टिः स्रष्टुराधा वाले पद्य में बांध दिया है, वैसे ही वर्तमान युग के प्रवर्तक कविश्रेष्ठ प्रसाद ने उक्त चार पंक्तियों में मानव सृष्टि की व्याख्या-सी कर दी है।
...इस कथा को महाकाव्य कामायनी में कविवर प्रसाद की लेखनी जिन रूपों में चित्रित करती है, देखते ही बनता है। मनुष्य मन का इतना अच्छा चित्र जिस समझदारी के साथ इस पुस्तक में चित्रित हुआ, मैंने हिन्दी और बंग्ला के नवीन साहित्य में अन्यत्र नहीं देखा।
- "कामायनी: एक युगान्तकारी महाकाव्य" शीर्षक लेख के अंश
रामधारी सिंह दिनकर
अपार संख्या तो उन्हीं आलोचकों की है जो कथानक की दिव्यता और शैव दर्शन के वैभ्राज्य के सिवा कामायनी में और कुछ देख ही नहीं पाते।
इस स्थूल कथा से जो सूक्ष्म कथा ध्वनित होती है, वह यह है कि मनुष्स स्वभाव से पशु है। मानवता और मृदुलता उसमें श्रद्धा एवं बुद्धि के योग से आती है। कामायनी का कथा सूत्र विरल होता हुआ भी व्यापकता में कम नहीं है। उसका एक छोर यदि सभ्यता के आदिकाल में है तो दूसरा भविष्य के गह्वर तक जाता है।
...कविता केवल विचार और भाव को लेकर सफल नहीं होती। सफल वह तब होती है जब भाव और विचार अनुकूल भाषा में अनुकूल ढंग से व्यक्त होते हैं। कामायनी का अधिकांश भाग तो ऐसा ही है, जहां भाषा लचर, अभिव्यक्तियां लद्दड़ और सफाई बिल्कुल शून्य है। आचार्य कुंतक ने यह कहकर व्यक्त किया है कि सफल कविता में भाव और भाषा के बीच परस्पर स्पर्धा की भावना काम करती है। कुंतक के मत पर गहराई से विचार किया जाये तो अनुमान होता है कि सफल काव्य रचना की अगली कुंजी भाषा के ही हाथों में होती है। कामायनी में कुछ विद्वान यति दोष अथवा छंदोभंग की भी चर्चा करते हैं। किन्तु, मेरे जानते इस दृष्टि से कामायनी सदोष काव्य नहीं है।
..."रहस्यवाद वह धूमिल वाणी है जो अदृश्य वास्तविकता की कल्पना से फूटती है, जो उस मनुष्य के मुख से निकलती है, जो अदृश्य सत्यों की काल्पनिक झांकी से अभिभूत हो उठा है।"
- "कामायनी: दोषरहित दूषणसहित" शीर्षक लेख से अंश
आगामी भागों में आचार्य नंददुलारे वाजपेयी, सुमित्रानंदन पंत, मुक्तिबोध, इलाचंद्र जोशी आदि-आदि विद्वानों के दृष्टिकोणों का समावेश करने की चेष्टा रहेगी।
क्रमशः
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