मंगलवार, मार्च 21, 2017

काव्य

तुम और मैं - एक यात्रा रैदास से दिलशाद तक


प्रभु जी तुम चन्दन हम पानी...
संभवतः हिन्दी कविता में "तुम और मैं" की यात्रा इस भजन से शुरू हुई। रैदास रचित इस भजन की धुन आज भी लोक में गुनगुन है और काव्य जगत में अब भी कवियों को आकर्षित करती है। निर्गुण और सगुण उपासना के मत-मतांतरों का भेद मिटाती यह रचना उस परमशक्ति के साथ हर मन का तादात्म्य स्थापित करती है जो हर मन को संभवतः अलग अनुभव में प्राप्त होती है।

तुम और मैं - शीर्षक में ही अद्भुत विस्तार है। रैदास से शुरू हुआ यह सिलसिला उनके कुछ परवर्ती कवियों की रचनाओं में स्थान पाता है और इस विषय पर कुछ और भक्तिपरक रचनाएं मिलती हैं लेकिन विषय साम्य के कारण रैदास की मौलिकता के समानांतर स्थापित नहीं हो पातीं। एक स्तर पर रैदास की रचना का दोहराव ही प्रतीत होती हैं। हिंदी कविता के आधुनिक युग में इस विषय पर लम्बे समय बाद एक रचना आलोक बिखेरती है और अमर हो जाती है।

निराला, सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला रचित रचित "तुम और मैं" कविता। यह कविता भेदाभेद दर्शन को अंतस में छुपाये हुए एक सम्वाद शैली की उच्च कोटि की रचना है। छायावाद के युग में आयी इस रचना में स्वाभाविक रूप से छायावादी और रहस्यवादी दोनों ही प्रकृतियां विद्यमान हैं। इस रचना ने आधुनिक कविता में श्रेष्ठता के कीर्तिमान तो स्थापित किये ही, समकालीन और परवर्ती कवियों को प्रभावित व प्रेरित भी किया कि इस विषय को पुनः पुनः स्पर्श किया जाये। निराला के काव्य संग्रह "परिमल" में यह रचना प्रथमतः प्रकाशित हुई थी, इसके कुछ अंश देखें -

तुम तुंग हिमालय श्रृंग /और मैं चंचल.गति सुर.सरिता।
तुम विमल हृदय उच्छवास /और मैं कांत कामिनी कविता
... तुम अम्बर मैं दिग्वसना
तुम चित्रकार घनपटल श्याम /मैं तड़ित् तूलिका रचना।
तुम रण ताण्डव उन्माद नृत्य /मैं मुखर मधुर नूपुर ध्वनि
तुम नाद वेद ओंकार सार /मैं कवि श्रृंगार शिरोमणि।

छायावादी कवि महादेवी वर्मा भी अपनी कुछ रचनाओं में इस विषय को स्पर्श करती हैं। हालांकि वह पूर्णरूपेण या स्पष्ट रूप से इस विषय को किसी कविता में मुखरित करती हैं या नहीं, मेरे सीमित अध्ययन में यह खुलासा हो नहीं पाया लेकिन कुछ कविताएं मिली हैं, जिनसे अंदाज़ा लगा कि इस विषय के प्रति वह आकर्षित तो रहीं। उनके एक गीत "तुम मुझमें प्रिय फिर परिचय क्या", का अंश देखें -

चित्रित तू मैं हूँ रेखा क्रम /मधुर राग तू मैं स्वर संगम
तू असीम मैं सीमा का भ्रम /काया.छाया में रहस्यमय
प्रेयसी प्रियतम का अभिनय क्या?

गीतों और छंबद्ध कविता में ही यह विषय सीमित रहा हो, ऐसा नहीं है। छन्दमुक्त या उस समय नयी कविता की संज्ञा प्राप्त करने वाले काव्य में भी यह विषय मुखरित हुआ। अज्ञेय और रामदरश मिश्र जैसे नयी कविता के शीर्ष कवि इस विषय को अपनी काव्य में स्वर देते हैं। छन्दबद्ध काव्य में जहां यह विषय भक्ति, राग-विराग, रहस्यवाद, समष्टि-व्यष्टि संबंध में चित्रित होता है, वहीं छन्दमुक्त कविता में यह विषय भौतिक प्रेम और सामाजिक यथार्थवाद को भी खुद में समाहित करता है।

एक पहलू और है - इस विषय की सार्थकता और विस्तार का प्रमाण। हिन्दी ही नहीं बल्कि अन्य भारतीय भाषाओं के काव्य में भी यह विषय ध्वनित होता है। उड़िया के मशहूर कवि सीताकांत महापात्र की कुछ रचनाएं इस विषय को स्पर्श करती हैं तो उर्दू के समर्थ कवि गुलाम नबी फ़िराक़ इसी शीर्षक से एक पूरी कवता लिखते हैं। मेरे विचार से यह शीर्षक इतना स्वाभाविक और उत्प्रेरक है कि हर कवि जीवन में कभी न कभी इसके आग़ोश में पनाह लेता ही होगा।

मेरे अध्ययन की सीमाएं हैं लेकिन मुझे पूरा विश्वास है कि विश्व की हर समर्थ भाषा के काव्य में यह विषय कम से कम एक कालजयी रचना तो प्रस्तुत करता ही होगा। मध्य पूर्व के एक कवि हैं नाज़िम हिक़मत, उनकी एक कविता का अनुवाद भी मिलता है इसी शीर्षक से। इन्हीं कुछ कारणों से मेरा यह विश्वास बना है। वैसे, ज़ाती तौर पर मैं इस विषय से बहुत प्रभावित रहा हूं और शायद इन्हीं प्रेरणाओं के कारण एकाधिक रचनाएं इस विषय के इर्द-गिर्द रच चुका हूं। पिछले कुछ समय से मन भी है कि कभी भविष्य में मौक़ा मिला तो इस विषय पर न केवल हिन्दी बल्कि सभी भाषाओं की प्रतिनिध रचनाओं का एक संकलन पाठकां को सौंप सकूं।

बहरहाल, इस विषय पर दो सिरों से और बात कर लूं। एक, इस शीर्षक पर जो कविताएं आधुनिक युग में रची गयी हैं, उन पर कहीं न कहीं निराला की रचना का प्रभाव या प्रेरणा है, यह मैं पुख़्ता तौर पर कहता हूं। प्रवर्तन निराला ने ही किया। निराला की कविता इतनी लोकप्रिय तथा आदर्श सिद्ध हुई कि बेढब बनारसी ने उस कविता की एक हास्य पैरोडी लिखी और यह हास्य विशुद्ध है। आजकल के फूहड़ हास्य की श्रेणी का नहीं बल्कि स्वस्थ एवं मनोरंजक। कुछ अंश देखें -

तुम ताजा हो मैं बासी 
तुम सिटी लखनऊ हो सुन्दर मैं मस्त नगर हूँ काशी 
मैं बथुआ का हूँ साग और तुम हो कश्मीरी केसर 
मैं सेशन कोर्ट का अपराधी तुम बैठी बनी अफीसर
...तुम मटनचाप मैं भरता 
तुम 'सिमसन' मैं 'एडवर्ड', प्रेम हित जो गद्दी 'किक' करता 
मैं अनपढ़ हूँ बेढब गँवार तुम 'अपटूडेट' लासानी
मैं हिन्दी भाषा दीन हीन तुम हो अंगरेजी बानी
तुम तोप और मैं लाठी 
तुम रामचरित मानस निर्मल मैं रामनरेश त्रिपाठी

अंतिम छोर पर यह भी अर्ज़ कर दूं कि बीसवीं सदी में फिल्मी गीतों को जितनी लोकप्रियता मिली, उतनी शायद साहित्यिक रचनाओं को नहीं। और, ऐसा भी नहीं है कि फिल्मी गीतों में साहित्य या स्तरीयता का सर्वथा अभाव रहा हो। कुछ गीत, नग़मे वास्तव में फिल्मों ने ऐसे दिये हैं जिन पर हमारे समय के साहित्य को गर्व हो सकता है। इस विषय के हवाले से कहूं तो पंडित भरत व्यास और नक़्श लायलपुरी रचित दो रचनाएं सहसा ही स्मृति में कौंधती हैं जो पुराने फिल्मी गीतों के रसिकों को अब भी याद होंगी -

तुम गगन के चंद्रमा हो, मैं धरा की धूल हूं
तुम प्रलय के देवता हो, मैं समर्पित फूल हूं
- पंडित भरत व्यास

पिया तुम हो सावन, मैं जलती कली हूं
अगर तुम हो सागर, मैं प्यासी नदी हूं
- नक़्श लायलपुरी

मैं जानता हूं कि यह विषय एक संक्षिप्त लेख नहीं बल्कि एक विस्तृत शोधपरक लेख या संभवतः एक पुस्तक तक का हक़दार है। मेरा मन है कि इस पर भविष्य में कुछ महत्वपूर्ण काम कर सकूं। होगा या नहीं, यह तो भविष्य के गर्भ में ही है। अंत में सभी सुधी पाठकों से निवेदन है कि इस विषय के संदर्भ में कोई भी उपयोगी जानकारी, रचना या स्वयं का किसी भी प्रकार का सृजन यदि साझा करना चाहें तो कृपा होगी। भविष्य में, इस विषय पर मेरे आने वाले शोधपरक कार्य के लिए यह योगदान होगा ताकि आपके द्वारा प्रदत्त सूचना या सृजन को उसमें स्थान मिल सके। शेष फिर कभी।

तुम और मैं - दिलशाद 

इक तमन्ना है इक इबादत है
दोनों मिलते हैं आस्मानों में...

तू कोई लफ़्ज़ है मैं मानी हूं
तू समंदर है और मैं पानी हूं
तू समय मैं तेरी रवानी हूं
तू है लाफ़ानी तो मैं सानी हूं
तू कोई नज़्म है मैं लय तेरी
हम मचलते हैं दो जहानों में...

तू सफ़र है तो रास्ता हूं मैं
तू है मंज़िल तेरा पता हूं मैं
तू कोई जश्न है मज़ा हूं मैं
तू कोई जाम है नशा हूं मैं
तू कोई शम्अ है मैं लौ तेरी
दोनों जलते हैं शम्अख़ानों में...

तू मेरी सोच मैं ख़याल तेरा
तू मेरा फ़न है मैं कमाल तेरा
तू मेरी बोली मैं ज़ुबान तेरी
तू मेरी रूह है मैं जान तेरी
तू दुआ है कोई मैं आयत हूं
चल कि चलते हैं आस्मानों में...

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