शुक्रवार, मार्च 24, 2017

नोट्स

कामायनी - विद्वानों की दृष्टि में - भाग दो


सुमित्रानंदन पन्त

कामायनी हिमालय सी दूर्लंघ्य न हो, पर श्रद्धा और मन की समरस तन्मयता की पावन समाधि ताजमहल सी आश्चर्यजनक अवश्य है। यह अपने युग की सर्वांग पूर्ण कृति न हो, पर सर्वश्रेष्ठ कृति निश्चयपूर्वक कही जा सकती है।

रूप से अरूप की ओर आरोहण, सत्य से स्वप्न की ओर आकर्षण, जो एक नवीन रूप तथा नवीन सत्य के आह्वान का सूचक था, सर्वप्रथम कवीन्द्र रवीन्द्र की भुवन मोहिनी हृत्तंत्री में जाग्रत तथा प्रस्फुटित हुआ। वह भारतीय दर्शन तथा उपपनिषदों के अध्यात्म के जागरण का युग था, जिसकी चेतना हिन्दी में खड़ी बोली की उबड़-खाबड़ धरती से संघर्ष करती हुई प्रसादजी के काव्य में अंकुरित हुई। प्रसादजी मानवों के आदि पुरुष मनु तथा कामगोत्रजा श्रद्धा और तर्क बुद्धि इड़ा का संक्षिप्त विवरण देते हुए अन्त में लिखते हैं - मनु, श्रद्धा और इड़ा अपना ऐतिहासिक अस्तित्व रखते हुए सांकेतिक अर्थ की भी अभिव्यक्ति करें तो मुझे कोई आपत्ति नहीं।

...मानव मन की मुख्य वृत्तियों एवं भावनाओं के स्वरूप निरूपण तथा मानवीकरण में प्रसादजी ने जो रसात्मक श्रम तथा शिल्प कौशल दिखलाया है, वह कवि की विकसित सौंदर्य-दृष्टि तथा कला-बोध का साक्षी है, उसमें सभी कुछ उच्च श्रेणी का भले न हो, पर कुछ भी निम्न श्रेणी का नहीं है।

...कला चेतना की दृष्टि से कामायनी छायावादी युग का प्रतिनिधि काव्य कही जा सकती है। ...कामायनी की कला चेतना में जैसा निखार मिलता है, कला-शिल्प अथवा शब्द-शिल्प में वैसी प्रौढ़ता नहीं मिलती। कहीं-कहीं छन्द भंग तो असावधानी या छापे की गलती से भी हो सकता है किन्तु बेमेल शब्द तथा श्लथ पद विन्यास इस महान कृति के अनुकूल नहीं लगते।

...यह सब होने पर भी कामायनी इस युग की एक अपूर्व, अद्वितीय, महान काव्यकृति है, इसमें मुझे संदेह नहीं है। ...नये जीवन मूल्य तथा नये भावबोध की दृष्टि से कामायनी केवल छायावादी हाथीदांत की मीनार भर है, भले ही इसे कैलास-शिखर की संज्ञा दी जाये।
- "यदि मैं कामायनी लिखता" एवं "कामायनी: एक पुनरावलोकन" शीर्षक लेख से अंश

इलाचन्द जोशी

कामायनी की रचना मानवात्मा की उस चिरन्तन पुकार को लकर हुई है जो मानव-मन में आदिकाल से जड़ीभूत अन्ध तमिस्र पुंज का विदारण कर जीवन के नव-नव वैचित्र्यपूर्ण आलोक पथों से होते हुए अन्त में चिर-अमर आनन्द भास के अन्वेषण की आकांक्षा से व्याकुल है।

इसका तू सब संताप निचय-हर ले, हो मानव भाग्य उदय
सब की समरसता कर प्रचार, मेरे सुत! सुन मां की पुकार।

अपने इस अंतिम त्यागमय महान संदेश के उपरांत कामायनी दोनों को छोड़कर चली जाती है, काव्य की वास्तविक समाप्ति यहीं पर हो जानी चाहिए थी क्योंकि उसकी नाट्यात्मक अभिव्यक्ति उस स्थान पर पराकाष्ठा को प्राप्त हो जाती है, यहां पर अंतिम यवनिका पड़ जाने से काव्य के नाटकीय अंत का चरम सौंदर्य प्रस्फुटित हो उठता। पर कवि को शायद नाटकीय सौंदर्य की अपेक्षा पूर्णानंदमयी मांगलिक परिणति दिखाना अधिक अभीष्ट था इसलिए उसने श्रद्धा, इड़ा, मनु और मानव, चारों का मिलन पुण्य प्रशांत मानस-प्रदेश में संघटित करके समरसता के स्निग्धयुक्त आनंद की पीयूषवर्षा से सबको अभिषिक्त किया है।
- "साहित्य सर्जना" में संकलित अगस्त 1937 के लेख से अंश

आचार्य हज़ारीप्रसाद द्विवेदी

एक अंग्रेज़ समालोचक ने कहा था, शैली कवि का कोट है। प्रसिद्ध अंग्रेज़ मनीषी कार्लाइल ने संशोधन करते हुए बताया था, शैली कवि का कोट नहीं उसका चर्म है। शैली से कवि के व्यक्तित्व को पहचाना जाता है। प्रसादजी की शैली शायद किसी भी हिन्दी कवि की अपेक्षा अधिक अपनी है।

कामायनी की दुनिया एक फिलॉसफर की दुनिया है, जिसमें समस्याओं की तह तक पहुंचने की कोशिश तो है, पर इसी कोशिश के कारण समस्याओं की अपील जोरदार नहीं हो सकी। प्रेम, घृणा, शोक और अनुकंपा, कामायनी में आकर विचारों को उत्तेजित कर देते हैं लेकिन मनुष्य को हिला नहीं देते। वे मनुष्य के हृदय की अपेक्षा मनुष्य के विचारों को अधिक अपील करते हैं।

कामायनी के कवि में और जितने भी दोष हों, वह नख से शिख तक मौलिक है। उसकी मौलिकता कभी-कभी जटिल और दुर्बोध तक हो जाती है।
- "कामायनी - एक सर्वेक्षण" शीर्षक लेख से अंश

क्रमशः

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें