जो नहीं भूल पाया कई आंसू...
भोपाल में जिस दौर में हमारा बचपन गुज़र रहा था और नौजवानी बाहें फैला रही थी, उस दौर में भोपाल के अदबी गलियारों में नाम गूंजता था मरहूम जनाब इशरत क़ादरी साहब का। जवानी में उनसे कुछ मुलाक़ातें हुईं और मुलाक़ातें, जिन्हें यादों का उजाला कहते हैं। वही कुछ यादें हैं -
पुराने भोपाल में रहते थे क़ादरी साहब। मैं चूंकि हमीदिया कॉलेज का एल्युमिनाई हो गया था और मेरे पासआउट होने के बाद हमीदिया और एमएलबी कॉलेज की इमारतें आपस में बदल दी गयी थीं। तो, जहां पहले एमएलबी कॉलेज लगता था, वहां हमीदिया पहुंच गया, सो कॉलेज जाने का सिलसिला लगा ही रहता था। वहीं, कॉलेज से सटी एक गली में ध्यानसिंह तोमर राजा साहब का पुराना बड़ा मकान हुआ करता था और उसके सामने वाली गली में मेरा कभी जाना हुआ नहीं था।
एक रोज़ कॉलेज से लौटते वक़्त यूं ही दुपहिए का हैंडल मोड़ दिया कि देखूं तो इस गली में है क्या। देखता क्या हूं कि कुछ पुराने मकान के हिस्से हैं। बाहर खुले-खुले दालान या बरामदे कह लीजिए और जैसे तरतीब में बने अलग-अलग कमरानुमा मकान। किसी की आवाज़ सुनी जिसमें इशरत क़ादरी साहब का नाम लिया जा रहा था। एक बुज़ुर्ग एक कमरे से बाहर निकले और दो-तीन लोगों से मुख़ातिब हुए। मैं दुपहिए से एक चक्कर काटकर वापस आया तो वो लोग दुआ-सलाम करते हुए लौटते से लगे। मैंने फिर एक चक्कर काटकर उसी दरवाज़े के सामने दुपहिया रोक दिया।
एक अजनबी के तौर पर मिला जनाब क़ादरी साहब से। और यक़ीन मानिए कि कुछ ही लमहों बाद हम अजनबी नहीं थे। एक ठीक-ठाक तआरुफ़ के बाद कुछ बातें कीं और उनसे जल्द ही दोबारा मिलने आने का वादा कर मैं चला गया। मुतास्सिर हुआ मैं एक ऐसे शायर से मिलकर जिसका नाम सुना था और बड़े हासिल मुक़ाम शायर के तौर पर। लेकिन, मिलकर लगा कि घर के ही कोई बुज़ुर्ग हैं। पहली मुलाक़ात में ही मुझे गली के दूसरे तरफ बने उस घर के भी दर्शन करा दिये क़ादरी साहब ने जहां वो रहते थे। जिस जगह मुलाक़ात हुई थी, वह उनकी दिन भर की बैठक थी, एक छोटी सी लाइब्रेरी की शक़्ल लिये हुए वह जगह बहुत शांत और मुफ़ीद थी काम की बातें करने के लिए।
ख़ैर साहब अगली मुलाक़ात जल्द हुई और इस दफ़ा लगभग पूरा दिन हम बैठे रहे और दो-एक लोगों के बीच में दख़्ल देने के बावजूद हमने काफ़ी बातें की। सिलसिला ज़ाहिर है, ग़ज़ल से ही शुरू हुआ था। मैंने उनके कुछ नायाब शेर उनकी ज़ुबान से सुने और फिर जब उन्हें बताया कि ग़ज़ल कहने की कोशिश करता हूं तो उन्होंने हुक़्म दिया कि मैं सुनाउं कुछ। मैंने झिझक ज़ाहिर की तो कहने लगे, "बरख़ुरदार झिझकने की आदत शायर में होना नहीं चाहिए और फिर अकेले में क्या डर, ऐसे ही तो इल्म हासिल हुआ करता है"। कुछ हिम्मत बंधी और मैंने एक ग़ज़ल उनके हुक़्म पर अता की। बहुत दुआएं दीं उन्होंने मुझे और कहा "मुस्तक़बिल रोशन है और जिस तरह सीखने के सफ़र में हो, इसे हमेशा जारी रखना"।
शायरी के गुज़रे, मौजूदा और आइंदा कल को लेकर उनकी सोच व समझ बिल्कुल आसान और साफ़ थी। फ़रमाते थे कि "तरक़्क़ीपसंद तहरीक़ के ख़त्म होने के बावजूद अब भी उसकी जानिब शायरों का रुझान है और माशा अल्लाह मुस्तक़बिल रोशन होगा, बेहतर होगा, मुझे उम्मीद भी है और मेरी दुआ भी है"।
तरक़्क़ीपसंद तहरीक़ जिस दौर में अपने शबाब पर थी, उसी दौर में ही क़ादरी साहब की शायरी ने परवाज़ ली थी। 1926 की पैदाइश और 20 साल की उम्र से ही शायरी की उड़ान भरने वाले क़ादरी साहब बातों-बातों में 1948 के उस ऑल इंडिया मुशायरे की यादों में खो गये जिसमें उन्होंने पहली बार इतने बड़े स्तर पर क़लाम पढ़ा था। उस मुशायरे में साहिर लुधियानवी, मजरूह सुल्तानपुरी जैसे बावक़ार और कद्दावर शायर शरीक़ हुए थ। यहां तक कि उन्हें इस मुशायरे की तारीख़ तक याद थी, 18 फरवरी 1948। फिर गुफ़्तगू के दौरान मैंने पूछा कि आपकी ज़िन्दगी के सबसे यादगार पल कौन से रहे होंगे..। मेरा ख़याल था कि साहिर या मजरूह या ऐसे ही किसी नामवर शायर से मुतालिक़ वो किसी एनकाउंटर की बात करेंगे लेकिन जो उन्होंने कहा वो एक नया ही तजरुबा था।
फ़रमाने लगे "ज़िंदगी में कुछ वाक़ये ऐसे होते हैं जो आपके एहसासों में इस तरह घुल जाते हैं कि आपको ताउम्र अलग-अलग सत्हों पर ले जाते रहते हैं। ऐसा एक वाक़या तो वह था जब वालिद साहब से किसी ने झूठी शिकायत कर दी कि मैं शराब पीने लगा हूं। मुझ पर क्या गुज़री, तुम सोच भी नहीं सकते जब वालिद साहब मेरे पास आये बहुत देर तक रोते रहे। उनका रोना आज तक नहीं भुला सका मैं। वो आंसू अलग-अलग तासीर लेकर मेरे अंदर अब भी पिघलते रहते हैं"।
क़ादरी साहब चूंकि सिंचाई विभाग में नौकरी में रहे तो 1956-57 में हथाईखेड़ा में एक सर्वे के दौरान एक सांप के हमले से बाल-बाल बचे थे। यह घटना भी उनके यादगार लमहों में से थी। उन्होंने कहा था कि "मौत को इतने क़रीब देखने का ख़ौफ़ क्या होता है, मैं समझ पाया"। एक और दिलचस्प वाक़या उन्होंने यह बताया कि "तामोट में अपने साथियों के साथ कैंप था। वहां हमने शेर के बच्चों को छेड़ दिया था, बस यूं ही मज़े-मज़े में। अपने कैंप लौट आये और खाना-पीना व गुफ़्तगू चल रही थी। काफ़ी देर बाद हमारे कैंप में एक शेरनी आयी और उसने जिस तरह घूमकर और जिन आंखों से देखकर हमें ख़ौफ़ज़दा कर दिया था, वो भूलने की बात नहीं है। कुछ देर बाद वह चली गयी तो मुझे यही महसूस हुआ और होता रहा कि वह हमसे यही कहने आयी थी कि ख़बरदार..."।
कमाल का दिन था वो। क्या ख़ूब और कितनी सारी बातें हुईं। क़ादरी साहब से मिलकर एक अपनापन सा लगता था। एक और मुलाक़ात हुई उनसे, उसी जगह। दूसरी के कुछ रोज़ बाद। इस मुलाक़ात में उन्होंने मुझे अपने परिवार के बारे में बताया। न जाने किस रौ में उनसे मैं माज़रत के साथ पूछ बैठा कि कभी इश्क़ हुआ उन्हें? तो, ज़रा सा मुस्कुराकर पूरी दास्तान मेरे सामने खोलकर रख दी।
फ़रमाया - "1948-49 में भोपाल में ही थीं अख़्तर साहिबा। घर के पास ही रहा करती थीं और दूर के रिश्ते में भी थीं। उस ज़माने में ख़त लिखे जाते थे तो हमने भी एक-दूसरे को बेशुमार ख़त लिखे। ख़तों के ज़रीये ही इश्क़ परवान चढ़ता रहा। लेकिन, उनकी शादी कहीं और हो गयी। उनके लिखे ख़त मैंने अब भी संभालकर रखे हैं। लेकिन बहुत अफ़सोस होता है अब कि शादी के बाद जब उन्होंने मुझे मेरे लिखे ख़त लौटाये तो तैश में आकर मैंने वो जला दिये। अब सोचता हूं काश, न जलाये होते"।
यह दास्तान सुनाते-सुनाते उनकी आवाज़ भारी हो गयी थी। मैंने फिर मुआफ़ी मांगी। तो मेरे कंधे पर हाथ रखकर बोले कोई बात नहीं। कोई अच्छी ग़ज़ल कही हो तो अर्ज़ करो। मैंने एक ग़ज़ल और अता कर दी। सुबहान अल्लाह कहकर मेरे सर पे हाथ फेरा और बहुत शाबाशी दी। एक-दो सुधार बताकर कहने लगे "इस उम्र में ये फ़िक्र और तमीज़ है, बहुत उम्मीद जगाते हो बेटा"। और मैं शुक्रिया भी न कह सकता था। यह पहली बार मेरे साथ हो रहा था कि इतने बड़े शायर से मुझे दाद तो ख़ैर ठीक है, लेकिन इतनी अंतरंगता और मुहब्बत मिल रही थी। उस मुलाक़ात में जाते-जाते कहने लगे कि अब तुम भी मुझे अपने बेटे की तरह लगने लगे हो। आते रहना।
इसके बाद एकाध छोटी सी मुलाक़ात और रही। फिर कुछ बीमार थे क़ादरी साहब, तो एक बार उनकी ख़ैर-ख़बर लेने भी गया था। फिर ज़िंदगी ने एक अलग सफ़र दे दिया और भोपाल छूट गया कुछ वक़्त के लिए मुझसे। कुछ बरस बाद लौटा तो पता चला कि क़ादरी साहब नहीं रहे, कुछ दो बरस पहले। क़ादरी साहब अचानक कभी भी चले आते हैं मरे पास अब भी। कभी ग़ज़लें सुनाते हैं, कभी कोई दास्तान, कभी अपने तजरुबात से ज़िंदगी का कोई सबक़। एक शायर नहीं एक मुक़म्मल फ़नक़ार की सी शख़्सियत की तरह याद आते हैं मोहतरम जनाब इशरत क़ादरी। उनके शेर जो मुझे बरसों से याद रहते हैं -
हाथ में जब तक कलम था तजरुबे लिखते रहे
हम ज़मीं पर आस्मां के मशवरे लिखते रहे।
हमीं हैं वो जिन्हें आती है ज़िंदगी की अदा
सुलग रहे हैं दिलो-जां दिमाग़ रौशन हैं।
टूटकर दोस्तों से मिलते रहो
जाने किस मोड़ पर बिछड़ जाएं।
मैं उनसे और वो मुझसे इसलिए टूटकर मिलते रहे क्योंकि शायद वक़्त ने लिख दिया था कि हम यूं ही किसी मोड़ पर अचानक बिछड़ जाएंगे। फिर भी, ज़िंदगी की अदा उन्हें आती थी और इस क़दर आती थी कि अपने तजरुबों और मशबरों से कुछ-कुछ मुझे भी सिखाकर गये हैं। शुक्रिया क़ादरी साहब।