मंगलवार, मार्च 31, 2020

ग़ज़ल

समकालीन ग़ज़लों के 11 बेहतरीन मतले


इस दौर के 85 शायरों की एक-एक ग़ज़ल को शामिल करता शेरी मजमूआ है 'समकालीन ग़ज़लकारों की बेहतरीन ग़ज़लें'. युवा शायर केपी अनमोल इस मजमूए के संकलक हैं, जो राजस्थान के किताबगंज प्रकाशन से शाया हुआ है. इसी संकलन में शुमार ग़ज़लों से चंद मतलों का इंतख़ाब.


इस संकलन में नाचीज़ की भी एक ग़ज़ल का शुमार है, जिसके लिए भाई अनमोल का शुक्रियादा करना लाज़िमी है. यह एक मोह रहता ही है कि अपना क़लाम हर कागज़ पर दर्ज हो जाए इसलिए इसे संजीदगी से न लें (यानी यहां नाचीज़ के मतलों के इंतख़ाब को रस्म अदायगी ही समझें). इस मजमूए पर विस्तार से बात तो शायद फिर कभी कर सकूं लेकिन यहां दो तीन ज़ावियों पर मुख़्तसर अपनी राय ज़रूर रखूंगा और फिर तमाम मुंतख़ब मतलों पर अपनी एक छोटी सी राय भी.

Book Cover of "Behtareen Ghazlein".
अव्वल तो ये कि भाई अनमोल की कोशिश को सौ में सौ नंबर देने के बावजूद इस संकलन की सीमाओं को दरकिनार मैं नहीं कर सका. शायर होने के साथ जैसे कोई समीक्षक या मद्दाह बन जाया करता है, वैसे ही मैं शुरू से नुक़्ताचीं या नक़्क़ाद यानी आलोचक ज़्यादा रहा हूं इसलिए फ़ितरतन वो नुक़्ते ज़्यादा देखता हूं, जो सुनने पढ़ने वाले को अपने लिए थोड़े सख़्त भी लग सकते हैं, लेकिन उनका मक़सद आगे और बेहतरी का ही होता है.

एक तो भाई अनमोल को 'ग़ज़लकारों' लफ़्ज़ की बनावट को समझना चाहिए. शायरों या क़लमकारों शब्द यहां ज़्यादा उचित होते क्योंकि ग़ज़लकार एक जबरन बनाया हुआ शब्द है, इसमें कोई मौलिकता या सार्थकता नहीं है. दूसरी बात, इस संकलन की भूमिका पढ़ने के बावजूद इस संकलन का मक़सद साफ़ नहीं होता कि क्यों इस किताब की ज़रूरत थी या पड़ी या क्यों यह किताब शाया की गयी. यह शायद मेरी हद्दे-अक़्ल भी हो सकती है. बहरहाल, कुछ ज़रूरी समकालीन शायरों के नाम इस संकलन में छूट जाने के बावजूद जितने नाम शुमार हुए हैं, उनमें से कई को ज़रूरी क़रार दिया जा सकता है और इसके लिए भाई अनमोल तारीफ़ के हक़दार हैं.

एक तरफ, जहां ग़ज़लकार लफ़्ज़ से मैं मुत्तफ़िक़ नहीं हूं, वहीं समकालीन लफ़्ज़ के लिए इस किताब को तैयार करने वाली टीम को मुबारकबाद देना चाहता हूं. ये ठीक हुआ कि इस लफ़्ज़ की जगह हिंदी/उर्दू या नये लफ़्ज़ का इंतख़ाब नहीं किया गया. ऐसा होता तो संकलन बेहद सीमित सोच के टैग से ग्रस्त हो जाता. बहरहाल, अब आपके और बेहतरीन मतलों के बीच से हटता हूं, लेकिन बीच-बीच में बना रहता हूं.

सितारे हार चुकी थी सभी जुआरी रात
बस एक चांद बचा था सो वो भी हारी रात.
- भवेश दिलशाद

हादसा कौन सा हुआ पहले
रात आयी कि दिन ढला पहले.
- ऐन इरफ़ान
(इस मजमूए का शायद सबसे असरदार मतला मुझे यही लगा. एक बहुत बारीक़ पार्टिशन के दो पहलुओं से ख़ूबसूरत शेर निकालने पर शायर को भरपूर दाद बेसाख़्ता देना पड़ती है.)

कैसे आहें भर रहे थे एकदम चुप हो गये
वास्ता तेरा दिया तो सारे ग़म चुप हो गये.
- आसिफ़ अमान सैफ़ी

जो नंगे पांव कांटों पर मचलना सीख जाते हैं
वो अपने दौर से आगे निकलना सीख जाते हैं.
- अशोक वर्मा
(जदीद शायरी में ऐसे शेर कम नहीं हैं, फिर भी यह मतला एक ख़ास अदा और हुनर की बानगी के तौर पर रचाव पैदा करता है.)

न कोई शाख़ भी इतनी घनी है
कि जितनी छांव तुमने मांग ली है.
- हेमंत शर्मा मोहन

ये पत्तियों पे जो शबनम का हार रक्खा है
न जाने किसने गले से उतार रक्खा है.
- केपी अनमोल

ये धूप गिरी है जो मेरे लॉन में आ कर
ले जाएगी जल्दी ही इसे शाम उठा कर.
- स्वप्निल तिवारी
(अनमोल और स्वप्निल दोनों के मतलों की ज़ुबान किस क़दर नाज़ुक है और यह नाज़ुकी है भी कितनी एक जैसी. बहरहाल, अनमोल का मतला रवायती होने के बावजूद रस से सराबोर है तो स्वप्निल का मतला संपन्न और संतुष्ट वर्ग की सत्ही चिंता को ख़ूबसूरती से बयान कर रहा है.)

मेरी चाहत है कि इक दिन मुझे हैरान करे
मैं उसे भूल गया हूं ये दिल ऐलान करे.
- तरकश प्रदीप

ये कहकर ले गये बच्चे पिता की जान किस्तों में
खरीदेंगे नयी दुनिया इन्हीं आसान किस्तों में.
- प्रबुद्ध सौरभ

जाने वाले कब लौटे हैं क्यों करते हैं वादे लोग
नासमझी में मर जाते हैं हम-से सीधे सादे लोग.
- श्रद्धा जैन
(इस मजमूए में शायराएं गिनी चुनी ही शामिल हुई हैं और जहां तक बात मतलों के इंतख़ाब की रही है, तो श्रद्धा का यह मतला इसलिए नहीं चुना गया कि किसी शायरा का मतला भी चुनना था, बल्कि इसलिए कि यह मतला ख़ुद इसरार करता है कि मुझे चुनो. मीर या नज़ीर से होते हुए कहन का जो अंदाज़ इब्ने-इंशा और हबीब जालिब के यहां भी दिखता रहा, उस अंदाज़ की ये फ्रेज़िंग बरबस ध्यान खींचती है और शेर का मफ़हूम फिर क़ायल कर ही लेता है.)

आख़िरश, एक हुस्न-ए-मतला भी...

बताओ कैसे कहां तुमने कल गुज़ारी रात
उठायी सूद पे या क़र्ज़ पर उतारी रात.
- भवेश दिलशाद

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