शनिवार, मार्च 28, 2020

एक ग़ज़ल

फ़ैज़ : ख़्वाब और उम्मीद के बीच एक उदासी!


क्या ज़िंदगी के एक दौर में फ़ैज़ की शायरी निराशा और हताशा की तर्जुमानी हो गयी थी? बरसों से शायरी के आशिक़ यही कह और समझ रहे हैं कि फ़ैज़ इन्क़िलाब, उम्मीद और हौसले का शायर था इसलिए यह सवाल और अहम हो जाता है. परतें खुलेंगी तो सवाल यह भी उठेगा कि जोश और जज़्बे का एक शायर कितना और क्यों मायूस हो जाता है.


Faiz Ahmed Faiz. (Image Source : Poetry4Ever.Com)

“ज़ालिम के ख़िलाफ बग़ावत किया जाना लाज़िमी है. सही और ग़लत की इस जंग में, ख़ामोशी न सिर्फ़ बेईमानी और ख़ुद मरकज़ी (स्व-केंद्रित) नज़रिया है बल्कि नमकहरामी भी है... इन्क़िलाब किसी लिफ़ाफ़े में नहीं आता है.”

फ़ैज़ का नाम आते ही न सिर्फ़ ये तक़रीर बल्कि ऐसे बेशुमार मिसरे और नज़्मों के बेहिसाब बोल याद आते हैं, जो साबित करते हैं कि फ़ैज़ अपने वक़्त में लोगों के दिलों में एक लौ जगा रहा था. ज़ालिमों यानी ज़ुल्म की हर तरह की सत्ता के ख़िलाफ़ आवाज़ उठा रहा था और सबको समझा रहा था कि 'बोल कि लब आज़ाद हैं तेरे...'

ज़ुल्म की सियह और डरावनी रात में सच, हक़ और इंसाफ़ की सुब्ह 'हम देखेंगे', ऐसी उम्मीद देने वाले शायरों में एक नाम था फ़ैज़. लेकिन एक पूरी ग़ज़ल मुक़द्दमा दायर करती है कि फ़ैज़ एक दौर में नाउम्मीदी की गिरफ़्त में रहे. यही नहीं बल्कि इस मुक़द्दमे में मुल्ज़िम के खिलाफ़ गवाहों की भी कमी नहीं.

हर सम्त परेशान तेरी आमद के क़रीने
धोके दिये क्या क्या हमें बादे-सहरी ने.

जिस सुब्ह के ख़्वाब देखे-दिखाये थे, उसके नख़रे हैं कि ख़त्म होने का नाम नहीं ले रहे. वो सुब्ह आकर भी नहीं आती, हर बार तरह तरह के धोके दिया करती है. अस्ल में, यह बेहतरीन ग़ज़ल 1965 में शाया हुए मजमूए दस्ते-तहे-संग में शामिल है. इस वक़्त तक फ़ैज़ करीब 54 साल की उम्र के थे और कई तरह की उथल पुथल से गुज़र चुके थे. इस वक़्त के आसपास के कुछ वाक़िआत के ज़िक्र से पहले एक शेर में दर्ज एक और एहसास यूं है :

हर मंज़िले-ग़ुर्बत पे गुमां होता है घर का
बहलाया है हर गाम बहुत दर-ब-दरी ने.

अब ये शेर न सिर्फ़ शायर या अवाम का कलाम समझा जाये बल्कि इसे उसी सुब्ह की तरफ़ से इक़बालिया बयान भी समझा जाना चाहिए. वो सुब्ह ख़ुद भी भटक रही है? दर-ब-दर होती सुब्ह भी तो हक़दार की तलाश में है और उसे सिर्फ़ मक्कार, झूठे या अदाकार मिल रहे हैं इसलिए किसी न किसी बहाने से वह हर बार चली जाती है. यही ज़ाविया फ़ैज़ ने कभी यूं दर्ज किया था :

तुम आये हो न शबे-इन्तिज़ार गुज़री है
तलाश में है सहर बार-बार गुज़री है.

1958 में पाकिस्तान में पहली बार सेना ने तख़्ता पलट किया था और जनरल अयूब ख़ान ने तानाशाही का दौर शुरू किया था. पाकिस्तान टाइम्स को कुर्क कर दिया गया था, जिसके एडिटर फ़ैज़ हुआ करते थे. उसके बाद अभिव्यक्ति की आज़ादी और दूसरे मानवाधिकारों को कुचलने का सिलसिला शुरू हुआ. एक केस में किसी तरह फंसाकर फ़ैज़ को जेल में डाल दिया गया था. यहां तक की कहानी तो फ़ैज़ के शायर के लिए बड़ी कारगर साबित हुई. ज़िन्दानामां और दस्ते सबा जैसे यादगार मजमूए फ़ैज़ के जेल के दिनों की शायरी है, जो शोहरत और इज़्ज़त पा चुकी है.

दूसरी तरफ, ख़तरा या ख़ौफ़नाक मंज़र ये था कि अख़बार, साहित्य और एक पूरा सिस्टम बतौर एंटीथीसिस तैयार हो चुका था, जो तानाशाही का पैरोकार बन चुका था. ज़ुल्म के ख़िलाफ़ आवाज़ उठाने के बजाय ज़ालिम के सुर में सुर मिलाने वाला एक सिस्टम. पाकिस्तान में उन दिनों पत्रकारिता के ज़वाल को लेकर फ़ैज़ ने ख़ुद कहा था :

“एक तो ये कारोबार हो चुका है, दूसरे ये लोग डर चुके हैं और तीसरे इस पेशे में जो फ़ख़्र का जो एहसास था, वो अब खो चुका है.”

क़लम के किरदार की इस गिरावट को अगर आप सिर्फ़ उस एक समय की बात समझ रहे हैं तो आप न इतिहास से वाक़िफ़ हैं और न ही वर्तमान से. तानाशाह सबसे पहले आवाज़ और क़लम को ही अपनी कठपुतली बनाने की कोशिश किया करते हैं. बहरहाल, यहां से ग़ज़ल के अगले दो शेरों की ज़मीन तैयार होती है :

थे बज़्म में सब दूदे-सरे-बज़्म से शादां
बेकार जलाया हमें रौशन नज़री ने.
मयख़ाने में आजिज़ हुए आज़ुर्दा-दिली से
मस्जिद का न रक्खा हमें आशुफ़्ता-सरी ने.

ये निराशा, हताशा और माथाफोड़ मजबूरी का एहसास बहुत मानवीय है. कोमल सपनों और कठोर हक़ीक़तों के बीच भावुक योद्धाओं के साथ हुआ करता है कि किसी लमहे या दौर में उन्हें घोर निराशा घेर लिया करती है. 'राम की शक्तिपूजा' में निराला ने राम के निराश मन को बेहद कारीगरी के साथ उकेरा था. वही, बीटल्स के भंग हो जाने के बाद जॉन लैनन ने अपने एक गीत में कहा कि अब वो 'ड्रीमर' नहीं रहा.

दस्ते-तहे-संग में यही ग़ज़ल नहीं बल्कि और भी कलाम है, जो फ़ैज़ की वैचारिक मनोदशा और मानवीय टूटन के एहसासात की गवाही दर्ज कराता है. देखिए : दर्दे-शबे-हिज्राँ की जज़ा क्यों नहीं देते / खूने-दिले-वोशी का सिला क्यों नहीं देते... तेरे ग़म को जाँ की तलाश थी तेरे जाँ-निसार चले गए / तेरी रह में करते थे सर तलब सरे-रहगुज़ार चले गए... कब ठहरेगा दर्द-ए-दिल, कब रात बसर होगी / सुनते थे वो आएंगे, सुनते थे सहर होगी... इसके अलावा मजमूए की पहली ग़ज़ल है 'जमेगी कैसे बिसाते यारां', इसकी रदीफ़ है 'बुझ गये हैं'. एक उदासी और टूटन इस रदीफ़ से किस कदर बयां होती है, जब मिसरा आता है 'किरण कोई आरज़ू की लाओ कि सब दरो-बाम बुझ गये हैं'.

तो क्या यह कहना मुनासिब है कि शायरी के इस दौर में फ़ैज़ पूरी तरह से नाउम्मीदी के शिकार हो चुके थे? अगर इस सवाल का जवाब 'हां' है भी, तब भी यह कहना मुनासिब नहीं है कि अब तक फ़ैज़ की एक झूठी तस्वीर गढ़ी गयी है और उन्हें इन्क़िलाब और हौसले का शायर क़रार दिया जाता रहा. इसे एक दौर और शायर का एक दर्दमंद व जज़्बाती तेवर कहना ही वाजिब है, जहां जोश का एक शायर यहां तक टूट गया है कि कहता है : कब तक अभी रह देखें ऐ क़ामाते-ज़नाना / कब हश्र मुअय्यन है तुझको तो ख़बर होगी.

बावजूद इसके, ऐसा नहीं है कि फ़ैज़ ने अपनी फ़िक़्र और वैचारिक ज़मीन छोड़ दी हो क्योंकि ऐसा होना ऐन मुमकिन नहीं दिखता. ख़ुद फ़ैज़ ने ही फ़रमाया था : 'मैं ऐसे किसी फ़नकार, मुसव्विर या मौसीक़ीकार को नहीं जानता जिसकी कोई विचारधारा या अपने वक़्त को लेकर कोई साफ रवैया/सोच न हो.' फ़ैज़ ने साफ़ तौर पर माना था कि जब शायर अपनी ज़ात के साथ एकाकार हो जाता है, तभी बेहतरीन शायरी कर पाता है. तो फिर इस दौर के बारे में किस तरह सोचा जाये? यह मायूसी और उदासी फ़ैज़ के शायर के तेवर का कौन सा पहलू बयान करती है?

“विचारधारा के लेंस से शायर दुनिया को देखता है. मेरी भी अपनी एक विचारधारा है... लेकिन इसका मतलब यह नहीं होता है कि शायर को हर वक़्त अपनी विचारधारा की राजनीति के बारे में ही बात करना चाहिए.” फ़ैज़ की ये तक़रीर बहुत वाजिब है और शायर बतौर इन्सान कई रंग अपनी ज़िंदगी में महसूस करता है और जीता है इसलिए हर लम्हा एक ही रंग में रंगा हो, यह इंसाफ़ की बात नहीं है. जिसके बहाने से बात यहां तक आ गयी है, उस ग़ज़ल का मक़्ता यूं है :

ये जामा-ए-सदचाक बदल लेने में क्या था
मोहलत ही न दी फ़ैज़ कभी बख़्या-गरी ने.

एक कामयाब और बेहतरीन अंदाज़ के शेर के साथ ग़ज़ल मुकम्मल होती है. अपनी मायूसी का ख़ुलासा भी यहां कर देती है कि पूरी ज़िंदगी विचार और सोच को देने में गुज़र गयी इसलिए ज़ख़्म या हादसों की इस ज़िंदगी को तब्दील करने के बारे में सोचने का ख़याल तक न आया. ये मक़्ता क़ौल है कि फ़ैज़ के जोश और इख़्लास के तेवर मुर्दा या जाली नहीं थे. सिवाय इसके, फ़ैज़ के इस मक़्ते में जीवन का पूरा फ़ल्सफ़ा है, जो संस्कृत के उस श्लोक की झलक देता है कि 'आत्मा शरीर रूपी लिबास बदलती है' और मीर के उस बयान की परछाईं भी दिखाता है कि 'दैर में बैठा कश्का खेंचा कबका तर्क इस्लाम किया'.

बात का एक पहलू ये भी है कि अचानक इसी वक़्त ऐसा क्यों हुआ कि फ़ैज़ ने इस रंग की शायरी की? तो ऐसा है नहीं. अचानक नहीं हुआ. इसकी भी एक भूमिका तैयार थी. 1947 में जब बंटवारा हुआ तब फ़ैज़ ने 'सुब्हे-आज़ादी' नज़्म में साफ़ कहा था कि 'यह दाग़-दाग़ उजाला, यह शब गज़ीदा सहर / वो इंतज़ार था जिसका यह वो सहर तो नहीं...' यही विडंबनाएं समय के साथ जब और बढ़ती चली गयीं तो शायर का मन भी और रंजीदा होता चला गया, बिल्कुल माना जा सकता है. लेकिन यह मन हार गया हो, ऐसा नहीं है. फ़ैज़ के आख़िरी सालों यानी 1978 में जो मजमूआ शाया हुआ 'शामे-शह्‍रे-याराँ', उसमें एक ग़ज़ल का शेर यूं है :

रवाँ है नब्ज़े-दौराँ, गार्दिशों में आसमाँ सारे
जो तुम कहते हो सब कुछ हो चुका, ऐसे नहीं होता.

“जेल में रहने के बावजूद उन्होंने उम्मीद नहीं छोड़ी थी. उनकी शायरी डार्क नहीं है, निराशा से भरी हुई नहीं है... इसमें नाटकीय भावुकता नहीं है.” अदाकार, थिएटर कलाकार और दास्तानगो दानिश हुसैन की बात समग्रता में मान ली जाना चाहिए क्योंकि इससे पहले भी शायरी के क़द्रदानों और नुक़्ताचीनों ने फ़ैज़ को इस इल्ज़ाम से बरी किया है कि उनकी शायरी 'निराशावादी' रही. और आख़िरश, मेरी नज़र में फिर वही बात है कि कमोबेश फ़नकारों की ज़िंदगी में तरह तरह के दौर आया करते हैं. हर दौर को शिद्दत के साथ जीना फ़नकार के वजूद का सरमाया है और समझना यह भी चाहिए 'निराशावाद' कोई इल्ज़ाम नहीं है बल्कि शायरी में एक किस्म का रस और कॉंटेंट है.

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