शनिवार, मार्च 28, 2020

भूमिका

सकोरों में भरे गंगाजल से छलछलाते गीत


'ज़िन्दगी ठहरी नहीं है' का अगला संस्करण है 'अभी दूर चलना है'. विगत संग्रह के आमुख के तौर पर मैंने राही जी के काव्य की भावभूमि, विचारभूमि के साथ ही भाषा, शिल्प और प्रदेय को लेकर चर्चा की थी. इस बार कुछ अलग पहलुओं पर बात करने की चेष्टा. राहीजी के प्रस्तुत गीत संग्रह के मद्देनज़र मुख्यत: तीन कोणों इमेजरी, वैचारिक समृद्धि और नॉस्टैल्जिया, के माध्यम से इस 'त्रिकोणीय गीत संग्रह' को सामने रखने का मन है.


इमेजरी. बिम्ब शब्द मैं जानबूझकर इस्तेमाल नहीं करना चाहता. एक तो यह शब्द दुरुपयोग के चलते बहुत कम समय में घिसा हुआ शब्द हो चुका है और दूसरे, इमेजरी शब्द में मुझे बिम्ब के साथ ही इमैजिनेशन यानी कल्पना का पुट भी शामिल लगता है इसलिए ये ज़्यादा विस्तृत है. राही जी के काव्य में इमेजरी हालांकि मुख्य तत्व नहीं कहा जा सकता है लेकिन जितनी मात्रा और गुणवत्ता के साथ है, उसका सानी समकालीन गीत काव्य में मिलना मुश्किल है.

Cover Image of Book By Y.N. Rahi.
दृष्टांत कम करने से बात ज़्यादा हो सकती है और इस संग्रह को पढ़ने का रचाव भी ज़्यादा रह सकता है. इमेजरी के लिए एक पंक्ति देखें :

'फिसल रहे हैं शब्द अधर से/जाने क्या कहने का मन है.'

अभिव्यक्ति की पूर्णता का सार सटीक भाषा और सार्थक बिम्ब में निहित है. काव्यानुशील पाठक यक़ीनन 'बहते शब्द', 'गिरते शब्द', 'रिसते शब्द', 'सुलगते शब्द', 'मचलते शब्द' या 'होंठों पर अटके शब्द' जैसे कई प्रयोग पढ़ चुके होंगे. ये 'फिसल रहे शब्द' एक नयी और अलहदा किस्म की इमेजरी है. जैसे मन में कहने को कुछ है, कहने वाले शब्दों का मन कुछ और है लेकिन द्वार रूपी अधर पर एक फिसलन सी है, कि शब्द पूरी तरह बयान नहीं बन रहे बल्कि लड़खड़ाते हुए निकल रहे हैं. 'जाने क्या कहने का मन है', शब्दों के फिसलने से यह सवाल उपज रहा है और एक भ्रम, संशय तथा कुंठा की स्थिति बन रही है. यहां से यह इमेजरी अपनी कल्पनाशीलता की मदद से समाज की कई स्थितियों को इंगित करती है. पारिवारिक विघटन से लेकर राजनीतिक संकट तक और धार्मिक आडंबरों से लेकर काव्य के पतन तक यही फिसलते हुए शब्द ही ज़िम्मेदार दिखते हैं कि 'मन की बात' भी भ्रामक और संदेहास्पद हुई जा रही है.

इस तरह की कुछ और बेहतरीन इमेजरीज़ आपको राही जी के काव्य में अचानक किसी मोड़ पर अचंभित करती हुई मिलेंगी. ख़ासियत यह भी कि ऐसी हर इमेजरी अलग से जड़ी या मढ़ी हुई नहीं होगी, वह कविता के प्रवाह में इतनी सहजता और अनायास होगी कि बहुत मुमकिन है कि पहली नज़र में आप उसे पकड़ भी न सकें.

'गाल नोंच लें आसमान के', आपने कभी कविता में ऐसा फ्रेज़ पढ़ा है? 'गीत कहां से लाएं' शीर्षक वाले गीत के दूसरे अंतरे में 'बलात्कार' या 'बलात छल' का अघोषित चित्रण पढ़ें. आसमान के गाल नोंचने की बात अनायास एक प्रवाह में आती है लेकिन अगर आप कविता के गंभीर पाठक हैं तो यहां रुकेंगे. फिर देखेंगे कि बलात्कार की कोई भूमिका बनाए बगैर, इस शब्द के प्रयोग के बगैर कैसे एक पूरा अंतरा इस दृश्य को रच रहा है. फिर आप समझेंगे कि यह बलात्कार किसी नवयौवना के साथ अत्याचार का ही नहीं, बल्कि प्रकृति के साथ, समूची मानवता के साथ होने वाला बलात्कार है. इसकी खिन्नता का चरम बिंदु है आसमान के गाल नोंच लेना. लहूलुहान करने वाली कथित दिव्य व्यवस्था को नोंच लेने की इस खिन्नता में हिंसा नहीं, प्रतिरोध और आत्मरक्षा का चरम अधिक है.

अहिंसा को सूक्ष्म सूत्रों तक परिभाषित करने वाले महात्मा गांधी के शब्द भी याद कीजिए कि आत्मरक्षा और प्रतिरोध प्राणिमात्र का नैसर्गिक अधिकार है. राही जी के काव्य को जब आप गंभीरता से समझेंगे तो उसमें आपको गांधीवादी दर्शन के प्रामाणिक सूत्र दिखायी देंगे. अपने जीवन में नितांत सरल, सहज और सभी के प्रति अति उदार राही जी स्वयं एक निश्छल मन हैं. स्वाभाविक तौर पर उनके काव्य में यही गुण स्पष्ट रूप से हैं और व्यवस्था के लाख विरोध के बावजूद उनके काव्य में आपको भड़काऊ नारेबाज़ी, विद्वेषपूर्ण उक्तियां या किसी का चरित्र हनन करने की चेष्टा करने वाली कोई बात नज़र नहीं आएगी. राही जी के काव्य में प्रतिरोध और व्यवस्था विरोध मौजूद है लेकिन नैतिकता के साथ. झंडों और डंडों के बगैर. यह उनके काव्य का गांधीवादी दर्शन के प्रति सहज झुकाव है और बहुत मुमकिन है कि वह स्वयं कभी इस तरह के प्रचार या विज्ञापन में शामिल नहीं रहे हों. लेकिन, पाठकों और आलोचकों को राही जी के काव्य में इस दर्शन के अनुशीलन के बिंदुओं पर गहन चिंतन करना चाहिए.

'पांचजन्य बन गयी बांसुरी', यह सामाजिक प्रवृत्तियों के हिंसा के प्रति झुकाव का एक अद्भुत प्रतीक है. हमारे समाज में पिछले कुछ समय में समरसता कितनी खत्म हुई है, खोखले नारों को लेकर हिंसा कितनी बढ़ गई है, मॉब लिंचिंग जैसे शब्द क्यों ईजाद हुए हैं और सड़क चलते लोग पहले से ज़्यादा कितने आक्रामक हैं... कृष्ण के किस प्रतीक को समाज का आदर्श होना था और कौन सा प्रतीक समाज में घर कर रहा है, जो युद्धभूमि के लिए था? समाज ही युद्धभूमि क्यों बनता जा रहा है? इन तमाम पहलुओं पर विचारें कि एक सभ्य गीत ने क्या इससे बड़ा और बेहतर प्रतीक आपको सौंपा है! क्या इस एक पंक्ति में आपको महात्मा के उस कथन की गूंज सुनाई देती है 'आंख के बदले आंख का क़ाएदा पूरी दुनिया को अंधा कर देगा'?

भावभूमि के साथ ही राही जी की विचारभूमि बेहद समृद्ध है. जीवन के 93 वसंत और 93 शरद देख चुके एक गीतकार से सहज अपेक्षा भी होनी चाहिए.

'अंधे वर्तमान से पूछो/क्या देखे हैं कल के सपने', इस गीत की इस पहली पंक्ति को पढ़ते हुए मेरे मन में सवाल उठा कि वर्तमान को अंधा क्यों कहा गया? वही हमारे समय की विडंबना यहां भी है कि किसी के पास कोई दृष्टि नहीं, जो दिखाया जा रहा है, उस पर आंख मूंद कर भरोसा किया जा रहा है. दृष्टि के बगैर स्वप्न क्या होगा? एक और विसंगति की ओर इशारा. लेकिन, क्या बस यही? इतना ही? मुझे याद आता है इतिहास. सदियों में कितनी बार यही स्थितियां रही हैं. 'कल के सपने' हमने क्या देखे? ये बड़ा सवाल है. महात्मा गांधी के सपनों का भारत तो दूर हम कलाम के विज़न 2020 से भी कोसों दूर खड़े हैं. वर्तमान को अंधा कहने वाली इस एक पंक्ति में ओशो की उस दार्शनिक स्थापना की भी गूंज सुनायी देती है कि 'समय दो ही प्रकार का है, भूत और भविष्य. वर्तमान समय का नहीं शाश्वत का हिस्सा है, जो हमेशा था, हमेशा रहेगा.'

राही जी के संपूर्ण काव्य पर एक से ज़्यादा शोध किये जाने की संभावनाएं हैं, लेकिन अकादमियों और यूनिवर्सिटियों की दुकानदारी कुछ इस तरह की है कि उन कवियों या कृतियों पर शोध होते हैं, जिन्हें कविता का 'क' यानी ककहरा तक हासिल नहीं हुआ. मैं राही जी के गीतों का पाठक हूं, उनके साथ बैठकर उनके गीतों को सुना, गुना और समझा है. एक आमुख, एक आलेख या एक समीक्षा में उनके गीतों को समेट पाना मेरे लिए संभव नहीं है. अंतत: मैं इस संग्रह के गीतों की एक और ख़ासियत नॉस्टैल्जिया पर संक्षेप में और चर्चा करना चाहता हूं.

अतीत की यादें, गीतों का प्रिय विषय रही हैं. शहर के बरक़्स गांव, मिलों के बरक़्स खेत और बिल्डिंगों के बरक़्स नदी व पहाड़ जैसे विषय गीतों में हम और आप बरसों से पढ़ रहे हैं. राही जी के गीत इन मायनों में परंपरावादी करार दिए जा सकते हैं लेकिन, परंपरा से जुड़कर भी यहां राही जी का सृजन कितने अलग आयाम छूता है, यह समझना आपको फिर हैरत में डालेगा. राही जी के नॉस्टैल्जिया की सबसे बड़ी विशिष्टता उनकी समृद्ध देशज भाषा का संस्कार और उनकी अनुभूतियों का अनोखापन है. यहां यादों के बक्से से बेकार की या फटी-पुरानी या सड़ी-गली चीज़ें नहीं निकल रहीं, बल्कि जेब घड़ी, दस्तावेज़ी चिट्ठियों, हाथ के कढ़े रूमाल और इत्र की शीशियों की तरह कुछ ऐसा हाथ लग रहा है, जो रुचिकर है, प्रीतिकर है और विरासत है.

An Image of Published Preface by Bhavesh Dilshaad.

'सकोरों में भरी गंगाजली सा छलछलाता मन', नॉस्टैल्जिया की इस तरह की अनेक पंक्तियां अतीत के प्रसंगों को छूती हुई वर्तमान की विडंबनाओं को रेखांकित करते हुए एक आध्यात्मिक संदेश तक आपको देंगी. मिट्टी के शरीर में एक द्रवित यानी तरल प्रवाहित मन. ये हुआ करता था, अब नहीं है लेकिन होना तो चाहिए. हम प्रकति के खिलाफ़ हैं. क्यों हैं? एक एक पंक्ति से विचार की कई परतें उघड़ जाएं तो नॉस्टैल्जिक कविता परंपरावादी होने से बच जाती है. प्रकृति और मौसम केंद्रित जो गीत इस संग्रह में हैं, उनमें यादों का संसार भी है, परंपरा, दर्शन और समसामयिक चिंतन भी. वृद्धाश्रम भेज दिये गये एक पिता का पुत्र के नाम पत्र रूपी एक गीत है, जो हिन्दी के गीति काव्य में एक नया और शानदार प्रयोग साबित हो सकता है. ये तमाम गीत धरोहर हैं, सहेजिए.

आख़िरश, राही जी के प्रस्तुत संग्रह में आपको कटाक्ष करते गीत मिलेंगे लेकिन सशस्त्र प्रहार करते नहीं, विचार करते गीत मिलेंगे लेकिन अकर्मण्य नहीं, भूली बिसरी यादें समेटते गीत मिलेंगे लेकिन वर्तमान और भविष्य से मुंह फेरकर खड़े नहीं और जो गीत मिलेंगे, उन्हें आपको हर बार पढ़ने पर कुछ नया मिलेगा क्योंकि इनमें अभिव्यक्ति से गहन अनुभूतियां और संवेदनाएं छुपाकर रखी गयी हैं. गहरे उतरिए तो एक पूरा भाव व विचार संसार आपका इंतज़ार कर रहा है.

श्रद्धेय राही जी के पिछले गीत संग्रह के लिए औघड़ समझ के हिसाब से कुछ लिख पाने का दुस्साहस उनके स्नेह और वरदहस्त के कारण ही संभव हो सका था. इस बार भी मैंने राही जी से स्वयं कहकर कुछ अपने मन की कह देने का अधिकार ले ही लिया है. 'ज़िन्दगी ठहरी नहीं है' संग्रह से 'अभी दूर चलना है' तक के बीच हुआ ये कि पेशेवराना हालात के सिलसिले में भोपाल से मैं दिल्ली चला आया, लेकिन मोबाइल फोन वार्ता और साल में भोपाल के संक्षिप्त प्रवासों के दौरान राही जी के दर्शन हर बार करने का सिलसिला तो रहा. उनके गीत सृजन की निरंतरता से वाकिफ़ रहा और फोन पर अनेक ताज़ा गीत उनकी बूढ़ी मगर उत्साही आवाज़ में सुनने की ख़ुशनसीबी भी मुझे हासिल हुई. इस संग्रह के प्रकाशन की तैयारी के साथ वह लगातार रच रहे हैं और अचरज की बात तो हिन्दी गीत जगत के लिए यह हो सकती है कि शायद उनका सर्वश्रेष्ठ आना अभी बाकी है. इस प्रणम्य संग्रह का भरपूर स्वागत कीजिए और फिर कह रहा हूं, राही जी के सृजन का समुचित मूल्यांकन आलोचकों को खुले दिल से कर आने वाले इतिहास के एक बड़े आरोप से बच लेना चाहिए.

(दीवाली 2019 पर प्रकाशित गीत संग्रह 'अभी दूर चलना है' (यतींद्रनाथ राही कृत) के लिए लिखी गयी भूमिका यहां अविकल प्रस्तुत की गयी है.)

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