शनिवार, अप्रैल 04, 2020

कार्यशाला

समीक्षा और आलोचना में अंतर


ब्लॉग पर यह एक प्रयास है, जिसके माध्यम से आपके साथ मैं भी समझूंगा और मेरे साथ आप भी कुछ समझ सके, तो बात बन जाएगी. साहित्य की दो स्थापित विधाओं के अंतर को पहले पूर्ववर्ती लेखकों के विचार,​ फिर थ्योरिटिकली और चार्ट रूप में और फिर उदाहरणार्थ लेखन के रूप में यहां प्रस्तुत करने की चेष्टा है. इस प्रयोग को हरी झंडी देंगे, तो आगे भी इसे जारी रखने का मन है. आइए, चर्चा शुरू करते हैं.

Drawing Hands, lithograph by Dutch artist M. C. Escher. (Image: Wikipedia)

वास्तव में, आलोचना और समीक्षा दोनों ही किसी कृति की गुणवत्ता का मूल्यांकन करने वाले उपकरण हैं, लेकिन दोनों के औज़ार और मिज़ाज में कुछ अंतर हैं. एक तरफ, समीक्षा बहुत औपचारिक एवं कोमल उपकरण इस्तेमाल करती है, वहीं आलोचना अनौप​चारिक और कड़े. लेकिन, आलोचना का मकसद बेहतरी के रास्ते खोलना होता है इसलिए इसे 'साहित्य का मस्तिष्क' और 'सभ्य समाज में एक रिसोर्स' तक कहा गया है.

एक तरफ, समीक्षा में हृदय तत्व प्रधान होता है तो आलोचना में बुद्धि या तर्क तत्व. बहरहाल, इन दोनों विधाओं की उत्पत्ति और विकास कैसे हुआ? कौन से पड़ाव आये? इनके कितने प्रकार हैं? जैसे पहलुओं में न पड़ते हुए यहां दोनों के बीच अंतर पर चर्चा अभिप्रेय है. इस अंतर को समझनें में भी हम साहित्य और हिंदी जगत की स्थापनाओं अथवा प्रवृत्तियों को प्राथमिकता में रखेंगे. आइए, सर्वप्रथम दोनों विधाओं को विद्वानों के शब्दों में समझें. 

आलोचना

"साहित्य जीवन की व्याख्या है और आलोचना उस व्याख्या की व्याख्या." (अर्थात् आलोचना किसी कृति का वस्तुपरक विश्लेषण है.) - पंडित श्यामसुंदर दास

"आलोचना खोज सरीखा आनन्द है, निष्पत्ति के मूल्यांकन का. यह जीवन का आलोचनात्मक परीक्षण है. सर्वेक्षण कर निर्णय देना आलोचना की रोमांचक अन्तर्यात्रा का महत्वपूर्ण पक्ष है." - केआर श्रीनिवास (दि एडवेंचर ऑफ क्रिटिसिज़्म)

"आलोचना कला और साहित्य के क्षेत्र में निर्णय की स्थापना है." - रामेश्वरलाल खंडेलवाल, सुरेशचंद्र गुप्त (हिंदी आलोचना के आधार स्तंभ)

"आलोचना प्रच्छन्नता का उद्घाटन है." (अर्थात् किसी कृति के तत्वों में क्या अर्थ छुपे हैं, इसका प्रकाशन आलोचना करती है.) - नामवर सिंह

"साहित्य नवीन मानव मूल्यों की स्थापना कर एक शाश्वत सत्य की स्थापना में संलग्न होता है. आलोचना का उद्देश्य इस शाश्वत सत्य एवं मानव मूल्यों का अन्वेषण है.' - डॉ. सुरेश सिन्हा (हिंदी आलोचना का विकास)

समीक्षा (समालोचना शब्द को पर्यायवाची ही समझें)

"सत्य, शिव सुन्दर का समुचित अन्वेषण, उसका पृथक्करण तथा अभिव्यंजना ही सच्ची समालोचना है." - माधुरी, वर्ष सात, खंड 1

"समीक्षा का आदर्श रूप सामान्यत: कृति जनित वैयक्तिक भावोद्बोधक की प्रेरणास्वरूप समीक्षक की प्रतिक्रिया कृति का सम्यक अध्ययन और फिर समीक्षक की कृति पर अपना निर्णय माना जाता है." - रामशंकर शुक्ल रसाल (आलोचनादर्श)

"समालोचना से अभिप्राय कवि के काव्य के गुण-दोषों पर विचार करने तथा उसकी उत्कृष्टता और हीनता के निर्णय करने से है." - पद्मसिंह शर्मा (मतिराम ग्रंथावली)

 आलोचना एवं समीक्षा

"आलोचक काव्य के सर्वोत्तम गुण एवं वैशिष्ट्य के परिज्ञान के निमित्त अमूर्त रूप में विद्यमान काव्य तत्वों को अधिक परिश्रम से अनुसंधान करते हैं. (यह आलोचना का अर्थ समझा जाये.) किंतु इससे सरल मार्ग है मूर्त उदाहरणों में निहित गुणों एवं तत्वों का अनुसंधान और उसके आधार पर काव्य के गुण का आख्यान. (यह समीक्षा का अर्थ समझा जाये.)" - आरए स्कॉट जेम्स (द मेकिंग ऑफ लिटरेचर)
चार्ट रूप में आलोचना एवं समीक्षा के अंतर का सारांश.
इस पूरे ब्योरे के बाद अब संक्षेप में कहा जाये कि आलोचना एक विशेषज्ञ कर्म है, जबकि समीक्षा एक सुरुचिपूर्ण. संगीतज्ञ डेविड लीबमैन ने भी इस विषय में प्रकाश डालते हुए लिखा है कि आलोचना मुख्यत: दोषों पर ज़्यादा चर्चा करती है जबकि समीक्षा समझाने के उद्देश्य से किसी कृति के विषय व तत्वों की विस्तृत व्याख्या ही है, जिसमें दोषों की चर्चा अनावश्यक होती है. अस्ल में, यह मत एक तो पाश्चात्य दृष्टि बताता है और यह साहित्य नहीं, बल्कि अन्य कलाओं के लिए ज़्यादा मुफ़ीद नज़रिया है क्योंकि डेविड समीक्षा को तो एक तरह का प्रचार ही क़रार देते हैं और आलोचना को वह हथियार समझते हैं, जिससे कलाकार भयाक्रांत रहता है. जबकि भारतीय विचार कहता है कि कवि और आलोचक दोनों ही भावुक और लगभग बराबर प्रतिभासंपन्न होते हैं और एक दूसरे के पूरक.

अंतत: इस कार्यशाला के लिए विशेष रूप से सद्य: प्रकाशित एक ही कृति की समीक्षा और आलोचना प्रस्तुत है.
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आलोचना

नवगीत की सीमाओं व समस्याओं को बेनक़ाब करता संग्रह


'और एक बार, जाल फेंक रे मछेरे
जाने किस मछली में बन्धन की चाह हो...' डॉ. बुद्धिनाथ मिश्र का यह गीत बेहद चर्चित और प्रशंसित रहा है. वह स्वयं इसका सरस पाठ करते हैं और सिर्फ़ पढ़ना ही नहीं, इस गीत को सुनना भी रससिक्त करता है. मूल बात यह है कि इस मुखड़े में कथ्य अपनी व्यंजना में कितना प्रभावी है. एक ही समय में ये दो पंक्तियां भौतिक दुख एवं अलौकिक आनंद का गठबंधन बख़ूबी करती हैं और प्रचलित कथन से उलट ये दो पंक्तियां गीत की एक नयी भूमि खोज लेती हैं. अब इससे इतर एक और मुखड़ा सामने आता है और मिश्र जी के बरसों पुराने गीत के बरसों बाद, देखें :

'नदी नदी में घूम रहे हैं / लिये मछेरे जाल
सांस नहीं ले सकीं मछरियां / दुबकी कीचड़ बीच मिंदरियां...' गीत का यह मुखड़ा एक स्वाभाविक स्थिति या घटना की रपट मात्र नहीं लगता? फ़र्ज़ कीजिए कि आप टीवी पर किसी रिपोर्टर को समाचार सुनाते हुए सुन व देख रहे हैं : 'मैं यहां फलां नदी के पास मौजूद हूं, जहां मछेरों ने अपने जाल डाल दिये हैं. इसका असर यह हुआ है कि मछलियां तड़पने लगी हैं और जलीय जीवों में अपने आप को बचाने के लिए खलबली मच गयी है.' यह अभिधा मात्र है और मेरी दृष्टि में कविता की अंतर्दृष्टि यह नहीं है. यहां से समकालीन गीति साहित्य अथवा नवगीत सवालों के घेरे में आ जाता है क्योंकि यह दृष्टांत किसी अपरिपक्व कवि नहीं, अपितु आचार्य भगवत दुबे जैसे वरिष्ठ रचनाकार के नवीनतम संग्रह से लिया गया है.

Book Cover Image.
गीत, नयी कविता या नवगीत, विधा कोई भी हो, वस्तुत: काव्य रचना तभी सार्थक है जब उसमें काव्य के कुछ सर्वमान्य तत्व न्यूनतम तो हों. अंतर्दृष्टि, संवेदना का अनछुआ धरातल या दुर्लभ होते हुए भी साधारणीकृत होने वाली अनुभूति/अभिव्यक्ति एवं नवनवोन्मेषशालिनी मेधा का सरस प्रकाशन, ये कुछ ऐसे मानक हैं, जिनके आधार पर किसी काव्य रचना को कसौटी पर कसा जाना चाहिए. पांच दशकों से काव्य यात्रा के मुसाफ़िर आचार्य दुबे जी का सद्य: प्रकाशित नवगीत संग्रह 'भूखे भील गये' पर इसलिए चर्चा की चेष्टा है क्योंकि इस बहाने से नवगीत के सामने जो समसामयिक चुनौतियां और प्रश्न उपस्थित हैं, उन पर विमर्श हो सके.

छायावाद तक गीत की प्रकृति व्यष्टिपरक रही, लेकिन विकास कालखंडों में जिसे नवगीत कहा गया, उसकी प्रकृति समष्टिपरक हुई, ऐसा विशेषज्ञ मानते हैं. प्रश्न यह है कि किसी रचना में हम कैसे समझें कि यह व्यष्टिपरक है या समष्टिपरक? मज़दूर, किसान, श्रमिक, आदिवासी या लोक से जुड़े ऐसे किसी शब्द की उपस्थिति मात्र ही क्या रचना को समष्टिपरक मानने का आधार हो जाती है? 'भूखे भील गये' के एक गीत का यह अंश देखें :

पीठ-पेट चिपकाये फिरते / ये गरीब वनवासी
श्रमिकों के चेहरों पर / छायी रहती सदा उदासी
पर्वत को भी धूल चटाते / जो सीने फ़ौलादी...

वास्तव में, जब तक कवि तीसरे व्यक्ति अथवा तमाशबीन की तरह किसी घटना को देखकर वर्णन करता है, तब कविता में इस तरह के अंशों की भरमार होती है. कवि ने अनुभूति के स्तर पर एकाकार नहीं किया, इसलिए यह कोरा अवलोकन मात्र है, बस इसलिए कि आप भाषा और मात्रा गणना आदि को समझ पाते हैं इसलिए आप इसे गेय पद में वर्णित कर पाते हैं, अन्यथा कथन में ऐसा कुछ नहीं, जो कोई भी व्यक्ति यानी अकवि न कह सके. कवि को एक व्याख्या में साक्षी मात्र ही कहा गया है, लेकिन महत्वपूर्ण यह है कि कवि भौतिक जगत की घटना या दृश्य आदि का साक्षी होना नहीं है, बल्कि इन दृश्यों के बाद भाव या विचार या मनोभूमि पर जो यात्रा या घटना होती है, उसका साक्षी होना कवि होना है.

नवगीत के सामने पहली चुनौती इसी 'अकाव्य' प्रवृत्ति को माना जाये. 'भूखे भील गये' संग्रह में ऐसी अनेक रचनाएं हैं, जिन पर यह आरोप लगता है. इन्हें अभिधा प्रधान ऐसी रचनाएं भी कहा जा सकता है, जिनमें अंतर्दृष्टि एवं किसी भी स्तर पर नूतनता के अभाव स्पष्ट तौर पर चीन्हे जा सकते हैं और ये रचनाएं बजाय काव्य के, अवलोकन या अवलोकनोपरांत वर्णन मात्र ही होकर रह जाती हैं. यहां यह अहम है कि अभिधा में भी काव्य सृजन संभव है, लेकिन यह रस्सी पर चलने के समान है. ज़रा से असंतुलन से अभिधा की कविता अकविता हो जाती है.

इस संग्रह की रचनाओं से गुज़रने के बाद एक प्रश्न यह भी खड़ा होता है कि क्या 'नवगीत' के पास नये विषयों या नये कथ्यों का भारी टोटा पैदा हो गया है? इस संग्रह में एक-दो स्थानों पर प्रथम दृष्ट्या ऐसा प्रतीत ज़रूर होता है कि किसी नये विषय का सूत्रपात हुआ, लेकिन इतनी उथली रचनाएं हैं कि ज़रा ठहरते ही भ्रम दूर हो जाता है. एक रचना के उदाहरण से समझें :

'व्याधिग्रस्त दिखते / गांवों से ज़्यादा आज शहर
शक्कर महंगी किन्तु / ख़ून में बढ़ने लगी शुगर...' इस गीत का विषय रोचक है कि शहर और गांव की जीवन शैली बदले पारिवेशिक संदर्भों में कितनी भिन्न है और इसके स्वास्थ्य पर क्या प्रभाव हैं. यहां कवि ने शहरियों को आलसी जीवन जीने के कारण रोगों का शिकार होना पाया है, यहां तक तो ठीक है लेकिन इसके बाद कवि दावा करता है : 'जो मेहनतकश / उन्हें न कोई रोग सताते हैं.' यह अवैज्ञानिक दृष्टि से किया गया तुलनात्मक अध्ययन है. ग्रामीण या श्रमिक किसी रोग के शिकार नहीं हैं या होते, यह दावा इस पूरे गीत के विषय को दूषित करने के साथ ही एक नयी भूमि खोजने जा रही रचना के प्राण हर लेता है. यदि यह रचना मेहनत के बावजूद मेहनतकशों और उनके बच्चों के कुपोषण तक बात ले जाती और संसाधनों के असमान वितरण जैसे पहलुओं को रेखांकित कर पाती तो संभवत: यह एक श्रेष्ठ रचना की कीर्ति पा जाती.

इस संग्रह के बहाने से नवगीत के सामने खड़ी तीसरी समस्या उभरकर सामने आती है कि रचनाएं समस्यामूलक हैं यानी सिर्फ़ समस्या को ही केंद्र में रखती हैं. इस बात को आप उपरोक्त पहली चुनौती के एक और विस्तार के रूप में समझ सकते हैं. 'भूखे भील गये' संग्रह से कुछ अंश उदाहरणस्वरूप देखें :

1. सारस्वत मंचों ने कैसी ओढ़ी फूहड़ता / जहां चुटकुलेबाज़ बड़ी बेशर्मी से पढ़ता
2. कविता में युगबोध नहीं बस आडम्बर है झूठा / मौलिकता है लुप्त पिष्टपेषण मिलता है जूठा
3. राजा भोज आज के मंत्री दुखी श्रमिक हैं गंगू तेली / श्रमसेवी को झोपड़पट्टी जमाखोर की तनी हवेली
4. करती रही छलावा हमसे अर्थव्यवस्था पूंजीवादी / प्रतिभाओं का हुआ पलायन, बाट जोहते दादा-दादी
5. मम्मी डैडी बहुत व्यस्त हैं अधिक कमाने की मजबूरी / स्वर्णिम सपने पूरे करने हुई बुज़ुर्गों से भी दूरी...

क्या रचनाधर्मिता समस्या मात्र गिनाना ही है? या विद्रूपताओं पर कटाक्ष भर करना ही है? ये रचनाएं समस्याओं को समस्याओं के दृश्यों और समस्याओं के अवलोकन को ही प्रस्तुत करती हैं, बगैर किसी अनुभूति, संवेदना या कारण-हेतु-समाधान के. उपरोक्त उदाहरणों में नंबर 5 के बरक़्स नवगीत के चर्चित रचनाकार दादा माहेश्वर तिवारी के एक गीत का बंद देखें :

अमलतास गहराकर फूले / हवा नीमगाछों पर झूले,
चुप हैं गाँव, नगर, आदमी / हमको, तुमको, सबको भूले
हर तरफ़ घिरी-घिरी उदासी / आओ हम मिल-जुल कर छाँटें...

'मिल-जुल कर छाँटें', कहा सुना ही सही, लेकिन एक संबल तो है, एक समाधान मूलक चेतना तो है कि समस्याओं से जूझा कैसे जाये. समकाल के नवगीतों को चेतना होगा कि समस्या को ही बांचने की इस प्रवृत्ति से बचा जाये अन्यथा रचनाएं रचनाएं नहीं प्रतिक्रियाएं अथवा ब्योरा मात्र बनकर रह जाएंगी.

'भूखे भील गये' संग्रह को कुछ और प्रश्नों व आरोपों का उत्तर भी देना होगा. मसलन, इस संग्रह की 105 गीति रचनाओं में से अधिकतर का भाषा व शैली इतनी एक जैसी है कि पढ़ते-पढ़ते एक तिहाई रचनाओं के बाद लगने लगता है कि आप दोहराव ही पढ़ रहे हैं. ऐसा क्यों है? संग्रह का शीर्षक कितना मुनासिब है? एक गीत के अंश के तौर पर नहीं, पुस्तक के शीर्षक के तौर पर यह क्या अर्थ देता है? सर्वश्री देवेंद्र शर्मा इंद्र, मधुकर अष्ठाना, मयंक श्रीवास्तव एवं कुमार रवींद्र ने इस संग्रह पर जो सम्मतियां दी हैं, उनमें इतनी प्रशंसाएं हैं कि जैसे यह संग्रह पूर्णत: दोषमुक्त एवं कालजयी हो, ऐसा क्यों है?

अंतत: इस संग्रह से कुछ सकारात्मक ग्रहण करने की चेष्टा की जाये तो कहा जा सकता है कि 105 रचनाओं में से करीब एक दर्जन रचनाएं पठनीय हैं और किसी स्तर पर काव्य की श्रेणी में शुमार की जा सकती हैं. तमाम दोषों के बावजूद कुछ नये प्रतीक और कुछ नये विषयों को उठाने के प्रयास के लिए भी रचनाकार को साधुवाद दिया जाना चाहिए. फिर भी, जैसा मैंने पहले कहा कि यह संग्रह वर्तमान काव्य जगत में रचनाधर्मिता की चुनौतियों, सीमाओं एवं समस्याओं को उजागर ज़्यादा करता है. इस संग्रह की एक रचना का अंश है :

“देने गये द्वार पर सादर जिनको अक्षत पीले / लौटाये ब्यौहार उन्हीं ने हमें निपट ज़हरीले...” हो सकता है इस आलोचना के बाद दुबे जी मेरे लिए अपनी यही पंक्तियां दोहराना चाहें. आचार्य दुबे जी मेरे पिताश्री के मित्रवत एवं अग्रजवत रहे हैं, इसलिए व्यक्तिगत तौर पर मेरे लिए श्रद्धेय रहे हैं, किंतु कविता की कसौटी पर ही कविता का मूल्यांकन मुझे संगत लगता है, वरना जिस तरह इस संग्रह पर नामचीन वरिष्ठों ने गिन गिनकर 'ब्यौहार लौटाये' या बनाये हैं, मेरे लिए भी संभव था, परन्तु मुझे कवि का ताना मंज़ूर है, कविता का नहीं.
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समीक्षा

लोक एवं व्यवस्था के संदर्भों को चीन्हते नवगीत


काव्य संग्रह : भूखे भील गये; कवि : आचार्य भगवत दुबे; प्रकाशक : पाथेय प्रकाशन, जबलपुर


Image Source : Quartz

न्याय मांगने, गांव हमारे
जब तहसील गये
न्यायालय
खलिहान, खेत, घर,
गहने लील गये.
लंबा अरसा हुआ... गीत या छन्द कविता की ऐसी कोई महफ़िल इस गीत के पाठ के बगैर नहीं उठती, जिसमें आचार्य भगवत दुबे मौजूद हों. साल 2009 से तो मैं ख़ुद इस बात का साक्षी हूं, जब श्रद्धेय पिताश्री कमलकांत सक्सेना जी ने मासिक साहित्यिक पत्रिका 'साहित्य सागर' के तत्वावधान में भोपाल में 'नटवर गीत सम्मान' वितरण कार्यक्रम को 'राष्ट्रीय गीत उत्सव' का राष्ट्रव्यापी स्वरूप दिया था. तबसे अब तक करीब आधा दर्जन ऐसे आयोजनों में स्वयं दुबे जी से यह गीत सुनने का आनंद ले चुका हूं.

यह गीत वाक़ई दुबे जी की प्रतिनिधि गीत रचना बन चुका है और वह पूरे देश के काव्य जगत में इससे पहचाने जाते हैं. यह नियति है कि इस गीत की रचना के सालों बाद दुबे जी के नवगीतों का संग्रह प्रकाशित हुआ है 'भूखे भील गये'. यह शीर्षक इसी गीत की पंक्ति का एक अंश है, वह अंश भी पठनीय है :

कभी न छंट पाया जीवन से विपदा का कुहरा
राजनीति का इन्हें बनाया गया सदा मुहरा
दिल्ली, लोककला दिखलाने, भूखे भील गये.

हालांकि संग्रह का शीर्षक सिर्फ़ 'भूखे भील' होता तो ज़्यादा सार्थक रहता. फिर भी, ज़्यादा अहम बात यह है कि इस संग्रह में शामिल गीतों का सुर और तेवर क्या है? इन गीतों या नवगीतों को क्यों पढ़ना चाहिए और इन्हें किस दृष्टि से पढ़ा व समझा जाए? इस बारे में चर्चा करना उचित समझता हूं.

दुबे जी के सद्य: प्रकाशित काव्य संग्रह 'भूखे भील गये' में 105 नवगीत दर्ज हैं, जिनमें मुख्य रूप से लोक जीवन की झांकियां, बदलते पारिवारिक व सामाजिक ढांचे, प्रकृति के साथ खिलवाड़ को लेकर चिंता और स्मृतियों के चित्र प्रधान गीति रचनाएं विशेष हैं. प्रस्तुत संग्रह के इस चतुर्भुज को कुछ संकेतों के माध्यम से प्रकाशित करने की चेष्टा करता हूं.

'आचार्य जी के गीत लोक ​परिवेश से दूर नहीं हैं... गांव की पीड़ा की नब्ज़ का अहसास दुबे जी को भली भांति है.' संग्रह की पूर्व सम्मति में वरिष्ठ गीतकार श्री मयंक श्रीवास्तव के इस कथन के अलावा, लोक जीवन की झांकियों के संदर्भ तो आप इस संग्रह के शीर्षक और शीर्षक गीत से समझ ही सकते हैं. साथ ही, इस संग्रह में कई जगह आपको दमितों, श्रमिकों, मज़दूरों और ग्रामीणों के संदर्भ मिल जाएंगे. उदाहरण के तौर पर यह बंद देखें :

शोषणकारी क्रूर किया करते मनमानी हैं
अब इन दमितों ने मरने-मिटने की ठानी है
एक साथ मिलकर लूटेंगे, ये तहख़ानों को..

यानी सिर्फ़ दमित की पीड़ा ही नहीं, उस दमित वर्ग का बदला हुआ चेहरा भी यहां बेनक़ाब करने की चेष्टा इशारों में है, जो गीत काव्य में सर्वथा नयापन है. एक तरह से यह भी कहा जा सकता है कि दुबे जी की नज़र बदलाव को पकड़ने के लिए सतत स्फूर्त है. 80 बरस की उम्र के करीब पहुंचते हुए और पांच दशकों से ज़्यादा लंबी काव्य यात्रा कर चुकने वाले रचनाकार के लिए यह शायद स्वाभाविक भी होता है. यही कारण है कि परिवारों और सामाजिक रिश्तों, बुनावटों व व्यवस्थाओं में पिछली आधी सदी में जो आमूलचूल बदलाव आये, उन्हें दुबे जी ने अपने गीत काव्य में दर्ज किया है.

श्री कुमार रवींद्र ने अपनी सम्मति में इस संग्रह की रचनाओं को 'फिलवक़्त का हलफ़नामा' कहा है, जो विचारणीय है. यह भी अहम है कि बदलावों के विषय को दर्ज करने में दुबे जी ने चिंतन, विश्लेषण अथवा तर्कों के स्थान पर पीड़ा, संत्रास, प्रश्न एवं चिंता के उपालंभों का प्रयोग किया है.

इस संग्रह के सबसे सार्थक गीत मेरी दृष्टि में प्रकृति विषयक रचनाएं हैं और सबसे रोचक रचनाएं वे हैं, जिनमें स्मृतियों के झरोखे से जीवन का पुनरावलोकन है यानी नॉस्टैल्जिक पोएट्री. 'अग्नि, पवन, जल, व्योम, धरा के बिखरे सूत्र चुनें..' प्रकृति विषयक एक सशक्त रचना में दुबे जी ने इस ग़लती को ठीक से चीन्हा है कि पंचतत्वों के साथ मनुष्य ने किस कदर खिलवाड़ किया है. यही नहीं, इस संग्रह से गुज़रकर लगता है कि प्रकृति से जुड़े गीतों में कवि की लेखनी सर्वाधिक प्रभावशाली हो जाती है. एक बंद और देखें :

टीबी के रोगी सा सावन मुरझाया है
हांफ हांफकर मल्हार मेघों ने गाया है
सावन औ' भादों अब धूल में नहाते हैं..

ये सर्वथा नूतन उपमाएं और बिम्ब अनुभवी कवि की लेखनी की गुणवत्ता बयान करते हैं. इसी तरह, स्मृति के गीतों में ऋजुता, लोकभाषा का चाव और ग्रामीण परिवेश का मोहक चित्रण बरबस ही ध्यान आकर्षित करता है. इनके इतर, दुबे जी के गीतों की भाषा उन गीतों में कठोर और चौक चौराहों पर होने वाले बहस-मुबाहिसों वाली भाषा है, जिनमें राजनीति, व्यवस्था और सामाजिक विद्रूपताओं पर कटाक्ष जैसे विषय प्रकाशित हैं. 

प्रस्तुत संग्रह विविधवर्णी गीति कविताओं का गुलदस्ता है. एकाधिक गीतों में गीत या छन्द विमर्श भी शुमार है, तो एकाधिक गीतों में मिथकीय प्रतीकों के अवलंबन भी उल्लेखनीय हैं. इसके अलावा, समकालीन गीति साहित्य या नवगीत सृजन में जिन चिंताओं को रेखांकित किया जा रहा है, उसके दृष्टांत इस संग्रह में भी उपस्थित हैं. बहरहाल, करीब 50 पुस्तकों के रचनाकार दुबे जी अपने अनुभव और प्रदेय के कारण हमेशा श्रद्धा व श्लाघा के पात्र हैं और वह इसके बाद भी और बेहतरीन रचनाओं से हमें सराबोर करते रहें, इसी आशा एवं कामना के साथ शुभम.

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