गुरुवार, नवंबर 09, 2017

आलेख

इसका मतलब यह साहित्य का सेल्फ़ी युग है..!


तस्वीर बदलने के लिए हैं सभी तैयार
उम्मीद में बैठे हैं पहल होके रहेगी।

साहित्य बदलता रहा है और बदलता रहता है। बदलाव का यह कुदरती नियम चूंकि हर तरफ लागू होता है इसलिए साहित्य पर भी। बदलाव होता है, लेकिन कुछ मूलभूत सिद्धांत या ढांचे नहीं बदलते। इन्हें आधार या बुनियाद भी कहा जा सकता है। यूं भी कह सकते हैं कि इनमें बदलाव आने में बहुत लंबा वक़्त लगता है। तो, साहित्य का स्वरूप बदलता रहता है। उसकी प्रवृत्तियां बदलती रहती हैं। नज़रिये और तेवर बदलते रहते हैं।

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साहित्य के साथ बदलाव अनेक स्तरों पर जुड़ता है। एक उपन्यास के पहले शब्द से लेकर अंतिम शब्द तक लेखन और पाठक के भीतर बहुत कुछ बदल जाता है। उपन्यास तो बहुत बड़ी चीज़ है, एक कविता में भी इतनी ताकत होती है और एक पंक्ति तक में भी। संस्कृत काल के एक कला आचार्य ने कहा था कि "कवि या कलाकार होने के लिए नवनवोन्मेषशालिनी बुद्धि का होना ज़रूरी है"। ज़ाहिर है कि ऐसी बुद्धि नव्यता के माध्यम से बदलाव को ही लक्ष्य करती है। साहित्य में नव्यता आती है दृष्टिकोण, भाषा और शैली जैसे स्तरों पर। संवेदना के धरातल, भावनाओं के प्रवाह एवं विचारों के शून्य संभवतः जल्द नहीं बदलते लेकिन इनसे उपजने वाला कथ्य नव्यता के साथ पनपते हुए अलग रंगों और शेड्स का सृजन करता है।

"ये दुनिया एक रंगमंच है और हम सब क़िरदार हैं जिनका आना-जाना तय है।" शेक्सपियर ने जब यह कहा था तब फिल्में नहीं थीं। कुछ लोग कहते हैं कि अगर उस समय में फिल्में होतीं तो शेक्सपियर दुनिया को रंगमंच नहीं एक फिल्म कहता। चलिए, मान लिया कि ऐसा होता। सवाल यह है कि रंगमंच की जगह फिल्म कह देने से इस विचार में क्या इज़ाफ़ा होता? विचार की अभिव्यंजकता तो वही रहती। उसके अर्थ तो इस शब्द से नहीं बदलते। एक शब्द का यह बदलाव केवल समय के बदलाव की सूचना देता है।

"साहित्य समाज का दर्पण होता है।" महावीर प्रसाद द्विवेदी ने यह कथन शुरुआती 20वीं सदी में किया था। इस वाक्य को भी साहित्य के बदलते वक़्तों और तेवरों के अनुसार कई तरह से बदलकर कहने का प्रयास किया गया। मंतव्य वही रहा। बस, हम नयी तकनीक से पैदा हुए शब्दों के खांचे में इस परिभाषा को समझने की चेष्टा करते हैं। वास्तव में, कुछ कालजयी वाक्यों या शब्दों में इतनी शक्ति होती है कि वह एक मूल विचार या संदेश को अपने में इस तरह कैप्चर कर लेती है कि उसमें एक शब्द बदलने से केवल आप अपने समय को इंगित कर पाते हैं, उसकी मौलिकता से इतर कुछ और कह नहीं पाते।

कुछ लोग जो गंभीरता या बारीक़ी से बदलाव को नहीं समझ पाते, बाहरी बदलावों पर ही रुक जाते हैं। पहले साहित्य में डाकिया या क़ासिद था, लेकिन अब नहीं है। अब फोन, ईमेल और मैसेज है। पहले दीये और चराग़ साहित्य में ज़्यादा जलते-बुझते थे लेकिन अब बल्ब और बिजली के उपकरण आ गये हैं। यह भाषा के स्तर के बदलाव हैं। ये हमेशा होते रहे हैं। गुरुदेव रबींद्रनाथ ने अंग्रेज़ी में लिखा लेकिन उनका कथ्य भारतीय था इसलिए उन्होंने अंग्रेज़ी में घड़ा (GHURRA) ही लिखा क्यूंकि अंग्रेज़ी में उसके लिए कोई शब्द उन्हें मिला ही नहीं।

मूल परिवर्तन के बारे में हमें समय के प्रति एक दृष्टि विकसित करना होगी, तब हम साहित्य के बदलावों को रेखांकित कर सकेंगे। हिंदी के भक्तिकाल में प्रवृत्तियों का विवेचन मिलता है। इन प्रवृत्तियों या चेतनाओं के कारण ही उस समय महान साहित्य रचा गया। उसके बाद कई तरह के विज्ञान, औद्योगिकीकरण और सामाजिक, राजनैतिक क्रांतियों का प्रभाव साहित्य पर देखा गया। अब कथ्य के स्तर पर बदलाव इस तरह से रेखांकित किया जा सकता है कि गुरुदेव के साहित्य में ही ब्राह्मणवाद से मानवतावाद की ओर यात्रा दिखायी दी।

साहित्य अपने समय से चूंकि सीधे तौर पर संबद्ध होता है इसलिए उसमें बाहरी बदलाव जल्दी आते हैं और फिर आंतरिक। इस समय में हम चारों ओर से बाज़ार और तकनीक से घिर चुके हैं। मनुष्य ने रोबोट तक ऐसे विकसित कर लिये हैं जो इंटेलिजेंट भी हैं। स्टीफन हॉकिंग्स मानते हैं कि "कुछ समय बाद इसी नकली बौद्धिकता यानी आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस का मानव सभ्यता की सबेस खतरनाक व खराब घटना के तौर पर याद किया जाएगा"। हॉकिंग्स का यह भी मानना है कि प्रदूषण इसी तरह बढ़ता रहा तो कुछ ही सदियों में हमारी पृथ्वी आग का गोला बन जाएगी।

दूसरी सोच यह है कि मनुष्य विजेता है, वह हर स्थिति से जूझना और उसका विकल्प खोजना जानता है। किसी और ग्रह पर जीवन की तलाश इसलिए मानव का सबसे बड़ा मिशन है। यह हमारे समय की दर्दनाक, खतरनाक परिस्थितियां हैं जो साहित्य में कुछ स्तरों पर प्रवृत्तियों की भांति इंगित हो रही हैं। कुछ प्रवृत्तियों को बिंदुवार देखते हैं -

  1. हमारा सामाजिक ढांचा जिस प्रकार समूह से व्यक्तिपरक होता जा रहा है, उसी प्रकार साहित्य में एक व्यष्टिवादी विचार घर कर रहा है। कृतित्व से लेकर व्यक्तित्व तक।
  2. हमारे साहित्य में एक नकली बौद्धिकता (Artificial Intelligence) का प्रवेश तेज़ी से हो रहा है। क्या हम साहित्य में रोबोट प्रणाली विकसित करने में लगे हैं?
  3. संभवतः पूर्व के किसी भी समय की तुलना में वर्तमान साहित्य में पलायनवादी सोच के उदाहरण बहुत अधिक हैं।
  4. साहित्यकार जिस प्रकार बाज़ार के कब्ज़े में आ रहे हैं, उससे साफ़ है कि वे साहित्य में बाज़ार का विरोध भले कर रहे हों लेकिन अपने यश एवं सम्मान के लिए उसी बाज़ारवाद को बढ़ावा भी दे रहे हैं। साहित्य में भी इसी बाज़ारवाद से प्रेरित सृजन को साफ चीन्हा जा सकता है।

ऐसी ही और प्रवृत्तियों में बदलाव को सीधे तौर पर समझा जा सकता है। और प्रदूषण के स्तर पर साहित्य में प्रदूषण से तो सभी वाकिफ़ हैं। द्विवेदी जी के शब्दों को पुनर्गठित करने का प्रयास किया जाये तो कहा जा सकता है कि हम साहित्य के सेल्फ़ी युग में हैं। यह परिभाषा कुछ नये अर्थ प्रतिपादित कर सकती है। सेल्फ़ी के अर्थ को एक प्रचलित अर्थ के साथ ही अन्य संभावनाओं में भी समझें। इस समय का साहित्य और साहित्यकार जिस तरह आत्ममुग्धता, आत्मव्यामोह और स्वकेंद्रितता के शिकार हैं, जिस तरह समाज के विघटन को रेखांकित किया जा रहा है, जिस तरह एक संकुचित दायरे को पोसा जा रहा है और इसी तरह की और बहुत सी प्रवृत्तियों की रोशनी में सेल्फ़ी के अर्थ को समझा जा सकता है। दर्दनाक अवश्य है लेकिन सवाल सच्चा है कि क्या यह समय वाक़ई साहित्य का सेल्फ़ी युग है? या होने की तरफ अग्रसर है?

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