साहित्यिक गोष्ठियों का मनोरंजक योगदान
यह लेख या व्यंग्य, जो भी है, वर्ष 2002 में लिखा गया था। यह एक सच्ची घटना पर आधारित था और साहित्यिक पत्रिका साहित्य सागर के मार्च 2002 अंक में प्रकाशित हुआ था।
अब मुझे गोष्ठियों का काफी अनुभव हो चुका है और उसमें निरंतर बढ़ोत्तरी हो रही है। वास्तव में, विचार गोष्ठियां साहित्य के सतत मूल्यांकन में महती भूमिका का निर्वाह करती हैं। नवयुवकों तथा नवलेखकों में क्रांतिकारी विचारों की नींव डालती हैं। ऐसे युवकों को जहां-तहां मित्रमंडली में भांति-भांति की गोष्ठियों की रूपरेखा तैयार करते देखा जा सकता है और इनमें इन गोष्ठियों का विषय, भागीदारों के नाम, गोष्ठी की रपट का लेखन और उसका प्रकाशन आदि की चर्चा प्रमुख रूप से की जाती है।
वैसे इन गोष्ठियों का आयोजन कोई सरल कार्य नहीं है। हालांकि कुछ लोगों जो अपने गुट या मंडली या मठों की बैठकों को इस तरह की संज्ञाएं देते हैं और उनके प्रेस तथा मीडिया में अच्छे हस्तक्षेप होते हैं, के लिए यह कार्य कतई मुश्किल नहीं। आयोजक के सिर पर कई सारी धारदार तलवारें लटकी रहती हैं। यदि किसी ने तय कर लिया कि ऐसा आयोजन करना है तो पहली उलझन है कि किस विषय पर? दूसरी समस्या, कहां, तीसरा मसअला, दिन तथा समय? चौथी दिक्कत, कितने लोगों की शिरकत? पांचवी परेशानी कार्यक्रम की रूपरेखाएवं हस्तियों की तलाश? छठा सिरदर्द, स्वल्पाहार का मीनू? सातवीं हैरानी, आमंत्रण पत्र, स्मारिका, प्रपत्र, समीक्षा आदि का प्रकाशन? वगैरा, वगैरा।
चलिए, इन मुद्दों को एक थोड़े विस्तृत कैनवास पर देखें। प्रथमतः विषय। आज के युग में यूं तो विषय हाल उपलब्ध हो जाते हैं लेकिन आयोजक इस पर कई प्रकार से परिक्रमा करते हैं जैसे विषय की व्यापकता, उसकी समकालीनता, उसके वक्तागण, विचारकों की उपलब्धता, कुछ नयापन और हां, अपने इष्ट मित्रों को ऑबलाइज करने का ख़याल आदि-आदि। फिर यह तय करना होता है कि इसे कहां आयोजित किया जाये? यदि स्थान नगर में प्रसिद्ध है तो फिर उसे निशुल्क या सस्ते में हासिल करने की जुगत लगाना होती है। समय तो अक्सर शाम का। रहा दिन, तो अवकाश हो तो बेहतर। उस दिन इतिहास में कोई विशेष घटना या जयंती अथवा पुण्यतिथि के सुयोग विचारणीय बिंदु होते हैं। फिर, खाने-बैठने वाले अदद, मीडिया, साहित्यिक बंधु, आयोजन के सहभागी, मुख्य अतिथिगण और दस-बीस अन्य को जोड़कर लगभग पच्चीस-पचास तो आमतौर पर आ ही जाते हैं।
तत्पश्चात स्वल्पाहार में चाय ही स्सती व सुंदर है और साथ में समोसा या दो बिस्कुट या चखना टाइप की कोई चीज़। किसी को, विशेषकर कार्यक्रम के अध्यक्ष या मुख्य अतिथि को डायबिटीज़ हो तो उसका भी ध्यान रखते हुए शुगर फ्री इंतज़ाम करना होता है। आयोजक सर्वाधिक हैरान रहता है प्रिंटिंग में। कोई सहयोगी न हो तो शुरू-शुरू में यह एक सिरदर्द रहता है। सबसे मनोरंजक परेशानी है क्रमांक पांच। इसमें दिमागी कसरत और शारीरिक ताकत दोनों का उपयोग होता है। कार्यक्रम की शुरुआत, फिर स्वागत बेला, स्वागत उद्बोधन, संचालन, अतिथि, अध्यक्ष तथा प्रमुख व्यक्तियों के वक्तव्यों का क्रम निर्धारण व समय सीमा, वैचारिक परिवेश की मिर्मिति, कृतज्ञता ज्ञापन, प्रकाशन वितरण जैसे अनेक पायदानों की नियति आदि। इन सभी को सेट करने में हर सहभागी अपना-अपना राग अलापता है। अन्य बातें जो समापन के बाद तक चलती रहती हैं उनमें, दो चार वाहनों तथा व्यक्तियों की सदा उपलब्धता, हर व्यवस्था का एक विकल्प आदि आयोजक को दूरदर्शी कहलाने में सहायक सिद्ध होते हैं। आयोजन उपरांत प्रमुख तलवारों में प्रचार, प्रतिक्रियाएं एवं लेनदारों की कतारें शाश्वत हैं।
आइए, एक विचार गोष्ठी के कुलरंग से आपका साक्षात्कार भी करा दूं। फर्ज़ कीजिए कि आप समय से आधे घंटे बाद पहुंचे तो आप देखेंगे कि आपके अलावा गिनती के दो-चार लोग और मिलेंगे। घबराइए मत और भ्रमित भी न होइए, गोष्ठी यहीं होगी। धीरे-धीरे और आएंगे और अगले आधे घंटे यही बात होती रहेगी कि समय से आना चाहिए। आगंतुकों में आप वृद्धों की वैरायटी देखेंगे। एक आपको पहचाना सा या शानदार व्यक्तित्व का मालिक लगेगा जिसके आस-पास अनेक लोग जुटते दिखेगे। समझ लीजिए संभवतः वही कार्यक्रम का मंच सुशोभित करने वाला है।
आप किसी भी ऐसे कार्यक्रम में जाएं, एक न एक शख़्स ऐसा मिल ही जाएगा जो आपका ध्यान आकर्षित करेगा, अपने अजीब चेहरे, लिबास, आवाज़ या हरकतों से। ऐसे शख़्स को आप बहुत दिन तक याद रखेंगे। ख़ैर, कार्यक्रम शुरू होगा तो कुछ देर रस्म अदायगी और औपचारिक हंसी-ठिठोली का दौर चलेगा। धीरे-धीरे कार्यक्रम गंभीर होता जाएगा। कुछ लोग वाक़ई चले जाएंगे और कुछ आएंगे-जाएंगे। आप अपने पड़ोस में बैठे मित्रों से हर वक्तव्य तथा व्यक्तित्व पर तात्कालिक प्रतिक्रियाएं सुनने को विवश होंगे। हां, हूं, ना, नूं भी करना पड़ेगी। कुछेक शब्द जैसे बोरिंग, क्लिष्ट, झिलाउ, केयरफुली केयरलेस, अल्टीमेट, भ्रष्ट आदि आप भिन्न-भिन्न संदर्भों में सुनेंगे। और, आख़िरकार शैकसपियरियन कॉमेडी के तरह का कार्यक्रम अंततः आपको भला लगने लगेगा जब आप स्वल्पाहार के लिए आमंत्रित किये जाएंगे और कुछ प्रकाशित सामग्री अपने हाथ में महसूस करेंगे।
यूं तो मैं कई गोष्ठियों में जा चुका हूं लेकिन हाल में आयोजित एक विचार गोष्ठी ने बहुत प्रभावित किया। दरअस्ल, यह प्रभाव ही इस लेख का कारण है। एक पत्रिका ने ने एक लेखिका पर केंद्रित एक विशेषांक का प्रकाशन किया जिसके विमोचन उपलक्ष्य में इस गोष्ठी का उपक्रम हुआ। गोष्ठी में, लेखिका की पूर्व में प्रकाशित एक पुस्तक पर चर्चा तथा लेखिका के सामाजिक, साहित्यिक सरोकारों से संबंधित विचार प्रस्तुत किये जाने थे। शायद मैं अकेला ही नवयुवक था इस गोष्ठी में, बाकी वृद्ध, प्रौढ़ और महिलाएं। वृद्धों में एक श्वेतकेशी अध्यक्ष पद पर पधारे। एक अदद विचित्र जीव और वही शब्दों की जुगाली। सब कुछ पूर्ववर्णन जैसा ही था लेकिन एक तत्व जो ज़ह्न में उतर गया, वह था, गोष्ठी का आधार और उस पर खड़ी हुई इमारत।
अस्ल में, गोष्ठी उस कृति के विभिन्न पहलुों या मूल्यों पर विचार करने के लिए आयोजित की गयी थी। इसी वज्ह से पहले एक नवोदिता ने अपनी लिखित समीक्षा निवेदित की। तत्पश्चात अन्य आमंत्रितों विद्वानों को उस कृति पर अपने विचार प्रकट करने के साथ ही सवाल-जवाब सत्र शुरू हुआ। लेकिन हुआ कुछ और। और, जो कुछ हुआ वह कम से कम मुझे तो चकित कर गया। मैं तो पहले से ही नर्वस था क्योंकि मैं ही सबसे छोटा था इसलिए कहीं सर्वप्रथम संचालक मुझे अवसर न दे डालें, यह सोचकर। उस कृति को पढ़ना तो दूर, मैंने तो उसका नाम तक न सुना था पहले। जाने कैसे संचालक महोदय का आभार प्रकट करूं कि उसने मेरी ओर देखा तो अर्थपूर्ण किंतु मौक़ा नहीं दिया। लेकिन आश्चर्य यह था कि तमाम उपस्थित विद्वानों में से किसी ने भी वह कृति नहीं पढ़ी थी जिन्हें उस पर विचार प्रस्तुत करने के लिए आमंत्रित किया गया था।
धीरे-धीरे सारे के सारे लोग मेरे सामने खुलते चले गये। यक़ीन मानिए उस लेखिका तथा समीक्षिका के अलावा तीसरा कोई शायद पढ़ा-लिखा नहीं था। सबसे उस समीक्षा को आधार मानकर कुछ प्रशंसाएं और विचार ठोक दिये।
ख़ैर यह भी एक अनुभव हुआ जिसने समझा दिया कि नर्वस होने की कोई ज़रूरत नहीं होती। ज़रूरी नहीं कि पर्वत पत्थरों का ही बना हो, राई का भी हो सकता है। हो सकता है, यह सब जो हुआ, पूर्व नियोजित रहा हो। आयोजक शायद कुछ "नया या हटकर" करना चाहते हों। लेकिन साहब मुझे तो गवारा नहीं था, यह तय है। चाहे किसी को कुछ भी लगे। सोचता हूं उस लेखिका को इस गोष्ठी के बाद खुद को राष्ट्रीय स्तर की लेखिका कहने या समझने में कैसा लगता होगा?
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