बुधवार, नवंबर 15, 2017

ग़ज़ल

हम फ़नकार हैं, तुम पागल कह लो..!


ज़े-हाल-ए-मिस्कीं मकुन तग़ाफ़ुल दुराय नैनाँ बनाए बतियाँ 
कि ताब-ए-हिज्राँ नदारम ऐ जाँ न लेहू काहे लगाए छतियाँ

एक रूह होती है फ़नकार की, जो अपने फ़न के ज़रीये इंसानियत के हक़ में इंसानों को जोड़ने के लिए कोशिशें करती रहती है। कहते हैं हज़रत ख़ुसरो ने फ़न का बेमिसाल नमूना पेश किया इस ग़ज़ल में और ग़ज़ल के हर शेर में तीन भाषाओं को साधा। फ़ारसी, हिन्दी (लोकभाषा) और उर्दू की मिली-जुली शब्दावली में कही हज़रत ख़ुसरो की यह ग़ज़ल आज भी शायरी में अपना मक़ाम रखती है। मैं बात करना चाहता हूं कि ख़ुसरो ने ऐसा क्यूं किया? यानी उनके दिल में क्या आया होगा कि उन्होंने यह प्रयोग किया?


मेरा ख़याल है कि हज़रत ख़ुसरो ने ऐसा सिर्फ़ इसलिए नहीं किया होगा कि वह कई भाषाओं पर अपनी महारत या कमांड साबित करना चाहते होंगे। इसलिए भी नहीं किया होगा कि ऐसा करने से तीन भाषाओं का पाठक वर्ग उन्हें नसीब हो सकेगा। शायद इसलिए भी नहीं किया होगा कि आने वाले ज़माने इस कला-कौशल पर हैरान होते रहें और उन्हें महान समझते रहें। फिर? मेरा ख़याल है कि हज़रत ख़ुसरो दूरदृष्टा रहे होंगे। सूफ़ी तो थे ही तो रोशन इल्हाम और नूर नज़र तो रही ही होगी। उन्होंने समझा होगा कि आने वाले ज़मानों में लोग ज़ुबानों को लेकर लड़ेंगे, झगड़ेंगे और आपस में उलझेंगे। इस उलझन की गिरफ़्त में शायर और अदीब भी आ जाएंगे। ज़ुबानों की ख़ेमेबाज़ी और सियासत होगी। ऐसे माहौल में अदब में, फ़न में एक मिसाल ऐसी होनी चाहिए जो रोशनी दिखाये कि एक साथ कई भाषाओं से मुहब्बत की जा सकती है। इस मुहब्बत की ज़रीये आपस में जुड़ा जा सकता है। इस जुड़ाव के ज़रीये एक मुल्क़ और दुनिया को अपना घर बनाया जा सकता है यानी "वसुधैव कुटुंबकम"।

मुझे हमेशा लगता रहा है कि यह ग़ज़ल भाषा और साहित्य की दुनिया की तरफ़ से पूरी दुनिया को एक बहुत बड़ा संदेश है प्रेम का, पैग़ाम है पज़ीराई का और शायद पहला कलात्मक उल्लेख है भारत की गंगा-जमुनी तहज़ीब के हक़ में। इस सूत्र को समय-समय पर शायरों ने समझा और इस परंपरा से जुड़ते रहे। हिंदोस्तान की शायरी के इतिहास से ऐसी कई मिसालें हाथ लगती हैं जो भाषा से प्रेम के इस पैग़ाम को बार-बार दुहराती रहीं। पत्ता-पत्ता बूटा-बूटा हाल हमारा जाने है, पिया बाज पियाला पिया जाये ना, लाम की मानिंद हैं गेसू मेरे घनश्याम के और न जाने ऐसे कितने मिसरे और शेर आपको मिलेंगे जिन्हें आप उर्दू शायरी के इतिहास में शामिल पाएंगे। एक और मिसाल देखिए। इक़बाल साहब का मशहूर मिसरा -

गोदी में खेलती हैं जिसकी हज़ारों नदियां

इक़बाल साहब शायरी के उस्ताद थे, माहिरे-फ़न और ज़ुबान थे। चाहते तो ऐसा भी कह सकते थे -

गोदी में खेलते हैं जिसके हज़ारों दर्या

न इसमें लय या वज़्न संबंधी कोई समस्या आती है और न ही समझने में भाषा की कोई क्लिष्टता पैदा होती है, फिर इक़बाल साहब ने उर्दू की एक ग़ज़ल में यह हिन्दी का मिसरा क्यूं सजा दिया? समझने वाले समझते हैं कि यह वही दर्स है, उसी रूह का कारनामा है जो जोड़े रखना चाहती है, मुहब्बत का माहौल रचना चाहती है। तो, इस पूरी भूमिका के बाद मैं अर्ज़ यह करना चाहता हूं कि ज़ुबान के नाम पर अपने ज़ह्न में बड़े सख़्त सांचे बना लेना कोई अच्छी बात नहीं है। उर्दू की ग़ज़ल में एक लफ़्ज़ हिंदी का या हिंदी की रचना में एक लफ़्ज़ उर्दू का आने पर अगर उस पर ऐतराज़ किया जाएगा, तो यह दोनों ही भाषाओं के लिए न तो सेहतमंद उपाय है और न ही अदब की जानिब से कोई वाजिब पैग़ाम है।

यह समय वास्तव में, इंसान के प्रकृति से दूर जाने का समय है। कमाल की बात यह है कि प्रकृति के लिए समानार्थी शब्द हिंदी में स्वभाव, उर्दू में कुदरत और अंग्रेज़ी में नेचर हैं, जो सीधे मनुष्य के मन और मूल से जुड़े शब्द हैं। इशारा यह है कि पर्यावरण के बहाने से अपने भीतर झांकें और मंथन करें कि हम अपने मूल, मन या कुदरती दिशा के विपरीत क्यूं जाने लगे हैं। इसका जवाब मिलते ही भाषा, रंग, जाति, धर्म से जुड़े बहुत से मसअले तो अपने आप ही सुलझ सकते हैं।

बात यहां तक बढ़ चुकी है कि अगर ग़ज़ल में एकाध लफ़्ज़ हिंदी का आ जावे तो उसे फ़ौरन हिंदी ग़ज़ल कह दिया जाये और इसके उलट भी यही। मैं यहां डॉ. बशीर बद्र साहब को कोट करना चाहता हूं जो अक्सर कहा करते थे कि ग़ज़ल की अपनी एक ज़बान है और ग़ज़ल को अपनी ही एक ज़बान रचने के सफ़र पर आगे बढ़ने से ही मंज़िल मिल सकती है। यह जो हिंदी ग़ज़ल का बड़ा शोर पिछली कुछ दहाइयों से मचा हुआ है, इसके बारे में फिर कभी विस्तार से बात करूंगा लेकिन इशारा कर दूं कि मेरा स्पष्ट मानना है कि अगर "साये में धूप" के प्रकाशन के समय श्रद्धेय दुष्यंत कुमार जी वह संक्षिप्त भूमिका न लिखी होती तो इस तरह का इतना हंगामा नहीं हुआ होता। बक़ौल ख़ुद दुष्यंत भी, हंगामा खड़ा करना मक़सद नहीं था लेकिन कुछ स्वार्थी सियासी तत्वों की कारगुज़ारियां हैं कि हंगामा ज़्यादा है, सूरत बदलने की कोशिश हाशिये पर है।

उर्दू की दुनिया वाले, जो हिन्दी को और हिन्दी की दुनिया वाले, जो उर्दू को या तो ख़ारिज करते फिरते हैं या अपनी मनगढ़ंत शर्तों के मुताबिक़ अपनाना चाहते हैं, उनसे बहुत इल्तिमास के साथ मैं अर्ज़ यह भी करना चाहता हूं कि जनाब एक ज़ुबान है हिंदोस्तानी। यह कोई विलुप्त हो चुकी चिड़िया नहीं है कि इसे आप दरकिनार कर दें। अगर विलुप्त हो भी रही है तो आप जैसे ही इसके ज़िम्मेदार हैं। और हम जैसे कुछ हैं जो इसको बचाना चाहते हैं, इसे एक पूरी तारीख़ और तहज़ीब के हवाले से और जानदार करना चाहते हैं। आपकी आप जानें, यक़ीन यह है कि इतिहास और आने वाली नस्लें फ़नक़ार कहेंगी हम जैसों को, आप चाहें तो पागल, नासमझ और कमइल्म कह सकते हैं। फ़िलहाल अपने कुछ अशआर के साथ इस वक़्त इजाज़त लेता हूं -

इन्हें उर्दू से है परहेज़ वो हिन्दी से हैं नाराज़
चली आओ ज़बानों सब कुशादा दर हमारे हैं।
लचीले तक नहीं हैं वो बनाये हमने सांचे जो
जो फिट हो जाएं इनमें ख़ुदबख़ुद आकर हमारे हैं।
बड़े बंगलों में रहते हैं बड़े शायर हैं जितने भी
नगर की शान पर बट्टे ये कच्चे घर हमारे हैं।

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