शनिवार, नवंबर 04, 2017

एक ग़ज़ल

तारीख़ में औरत के एहसास के ज़ाविये


भोपाल शायरी के गढ़ के रूप में पहचान बना चुका है और दौरे-हाज़रा में जो शायर सरज़मीन-ए-भोपाल का नाम दुनिया भर में रोशन कर रहे हैं, उनमें से एक हैं मोहतरमा नुसरत मेंहदी। मेंहदी साहिबा को दुनिया भर में मुशायरों में न सिर्फ़ बाइज़्ज़त बुलाया जाता है बल्कि उन्हें चाव से सुना जाता है।



Nusrat Mehdi.
भोपाल के उर्दू अदब में पिछले कुछ वक़्त से एक नाम जो बड़ी तेज़ी के साथ मक़बूल हुआ है, वह है नुसरत मेंहदी। सूबे की उर्दू अकादमी के सचिव का ओहदा संभालने के बाद गुज़रे कुछ सालों में मेंहदी साहिबा ने भोपाल में न केवल शायरी बल्कि उर्दू ज़बान और अदब के हवाले से जिन सरगर्मियों को अंजाम दिया है, उनकी गूंज बहुत दूर तक पहुंची है और पहुंच रही है। बहरहाल, यहां उर्दू अकादमी की सेक्रेट्री नुसरत मेंहदी नहीं बल्कि शायरा नुसरत मेंहदी की एक ग़ज़ल के तआल्लुक से कुछ लाज़िमी पहलुओं पर गुफ़्तगू की हसरत है।

भोपाल के तक़रीबन हर क़ाबिले-ग़ौर मुशायरे, महफ़िल या नशिस्त में अपनी बावक़ार मौजूदगी दर्ज करने वाली मेंहदी साहिबा की एक ताज़ा ग़ज़ल औरत के वजूद और पूरी तारीख़ को चन्द मिसरों में समेटने के लिहाज़ से ख़ास तवज्जो का तक़ाज़ा करती है। अब तक यानी 3 नवंबर 2017 की रात तक, इस ग़ज़ल में कुल सात शेर ख़ुद शायरा की जानिब से मेरी जानकारी में आये हैं, जिनमें से 5 शेर इस सिलसिले में सीधे तौर पर शामिल होते हैं।

उठा रही थीं इक के बाद एक सर तो ये हुआ
कि ख़्वाहिशों की इक बड़ी क़तार मार दी गयी।

मत्ले के बजाय इस ग़ज़ल पर इस शेर से बात शुरू करने की वज्ह यह है कि इस शेर की हैसियत और वुस्अत बहुत ज़्यादा है। मेरे ख़याल से पूरी तारीख़ और हालिया दौर के हवाले से हर औरत का बयान इस शेर में आवाज़ पाता है। यह औरत का मुक़द्दर रहा है या आदमी की हुक़ूमत वाले समाज में औरत के वजूद को कुचलने की साज़िश, इस शेर के पसमंज़र में एक बड़ी, पुरानी और जारी-व-सारी दास्तान सुबकती हुई सी है। अब ग़ज़ल का मत्ला देखिए - 

तो ये हुआ कि फिर अना की जंग हार दी गयी
उदास था कोई तो उसपे जीत वार दी गयी।

हमारा समाज औरत को देवी बना देता है। इफ़्फ़त, क़िरदार, हया, फ़र्ज़, उसूल यानी कि हर तरह से औरत होने के मआनी एक आदर्श के सांचे में क़ैद कर दिये गये हैं। मां, बीवी, बेटी तमाम शक़्लों में औरत से इसी तरह के बर्ताव की उम्मीद की जाती है कि वह बेटे, शौहर या बाप सभी के लिए अपनी ख़ुशी और अना को क़ुर्बान कर दे। अब इस शेर में ज़बान की शाइस्तगी और लफ़्ज़ बरतने का हुनर भी क़ाबिले-दाद है। “तो ये हुआ...” इन अल्फ़ाज़ से मिसरा उठाना अपने आप में एक मायूसी समेटता है। “कि फिर...” ये लफ़्ज़ एक तवील रवायत की तरफ़ इशारा करते हैं। “वार दी गयी...” ये लफ़्ज़ लोकभाषा या हिंदोस्तानी की एक बोली से आते हैं। यानी एक ज़ुल्म को रवायत के तौर पर दर्ज करने के लिए ज़बान की रवायत का ख़याल ख़ूबसूरती से रखा गया है। इस शेर में आप कम अज़ कम दो ज़बानों का उफ़ुक तो तलाश ही सकते हैं।

तमाम उम्र मैंने कोई शर्त ही नहीं रखी
कहा गया गुज़ार दो तो बस गुज़ार दी गयी।

यह शेर उसी क़िरदार को ढोती हुई ज़िंदगी का हवाला देता है जो किताबों और रवाजों की बिना पर औरत के लिए तय कर दिया गया है। ये क़िरदार ढोना औरत की मजबूरी बन गयी है क्यूंकि वक़्त के साथ सोच पत्थर हो चुकी है। आदमी के समाज को औरत की कोई शर्त गवारा ही नहीं। एक और कामयाब शेर। ज़बान के फ़न से लबरेज़। इस शेर के सानी मिसरे में जो लफ़्ज़ है “बस...” इस शेर के पूरे मफ़हूम से मुताल्लिक़ मजबूरी या लाचारी इसी एक लफ़्ज़ की शीशी में बंद कर दी गयी है।

दरअस्ल, यह पूरी ग़ज़ल जौन एलिया के ग़ज़ल के एक मिसरे या एक शेर की ज़मीन का इस्तिफ़ादा है। जौन एलिया का शेर है -

उसकी उमीदे-नाज़ का हमसे ये मान था कि आप
उम्र गुज़ार दीजिए उम्र गुज़ार दी गयी।

इस शेर की ज़मीन से मेंहदी साहिबा ने अपनी ग़ज़ल की ज़मीन तलाश की है जो एक सत्ह पर इस शेर की वुस्अत कही जा सकती है लेकिन अस्ल में, मेंहदी साहिबा की ग़ज़ल इतनी वसीअ है कि जौन साहब के शेर के दायरों के बाहर निकलकर एक बड़ा दायरा नज़्म करती है। मेंहदी साहिबा इसलिए भी मुबारकबाद की हक़दार हैं कि वह अपनी इस ग़ज़ल को सामईन के हवाले करते वक़्त जौन की ज़मीन का ज़िक्र करती हैं और समझने वालों के लिए बात आगे तक लेकर जाती हैं।

खुलेंगे कितने ज़ख़्म और सुलग उठेगी ज़िंदगी
ख़मोशियों की ये परत अगर उतार दी गयी।

अब ये शेर ग़ज़ल में एक इन्क़िलाबी शेर की तरह आता है लेकिन इसकी आंच भड़कते हुए शोलों जैसी नहीं, बल्कि राख में दबी चिंगारी की तरह महसूस होती है। ये एक धमकी से कम सख़्त लहजे की बात है, तक़रीबन चेतावनी जैसी। चूंकि पहला मिसरा एक मुलायम या दर्दनाक मोड़ पर खड़ा कर दिया गया है इसलिए सानी मिसरे की आंच मद्धम हो जाती है। इस शेर को शायद दो मोड़ दिये जा सकते थे, एक दमदार धमकी का तेवर और दूसरे मोड़ से इसे तारीख़ के उन हवालों से वाबस्ता किया जा सकता था जहां औरतों ने बग़ावत की है, सर उठाया है या आवाज़ बुलंद की है। लेकिन, मेंहदी साहिबा ने जिस तर्ज़ को इस शेर में मुनासिब समझा है उसकी वज्ह यह भी हो सकती है कि एक तो औरतों की जानिब से कोई बड़ा इन्क़िलाब मर्दों की दुनिया के ख़िलाफ़ हुआ नहीं है और शायद यह कि औरतें अगर मुख़ालफ़त पर उतारू हो गयीं तो एक समाज का ढांचा टूटेगा और नया बनने में जो वक़्त लगेगा, उस दरमियान एक लंबे वक़्त तक ज़िंदगी सुलगती ही रहेगी।

किताबे-ज़ीस्त खोलकर है नुसरत आज सोच में
सफ़ाई किन ख़ताओं की ये बार-बार दी गयी।

तो इस तरह ग़ज़ल मक़्ते तक पहुंचती है। औरत के दर्द के एक और ज़ाविये को आवाज़ देता यह शेर पुरअसर महसूस होता है। डॉ. नसीम निक़हत हिंदोस्तान की एक और ऐसी शायरा हैं जो इस पूरी तम्हीद में अपने शेरों के हवाले से याद आती हैं। औरत के जज़्बात, एहसास, दर्द और सोच को डॉ. निक़हत ने भी कुछ अशआर में बड़े पुरअसर ढंग से ढाला है। पाकिस्तान की शायरात का ज़िक़्र करूं तो परवीन शाकिर, फ़हमीदा रियाज़ और किश्वर नाहीद का नाम बरबस ही ज़ह्न में उतरता है। जिन शायरात ने औरत के वजूद के मुताल्लिक यादगार शायरी की है, उनमें मेंहदी साहिबा का नाम किस सत्ह पर लिया जा सकता है, यह तो उनके दीवान से गुज़रकर ही कह पाना मुनासिब होगा लेकिन अगर बात सिर्फ़ इस ग़ज़ल की है तो इतना तो यक़ीनी तौर पर कह सकता हूं कि औरत की आवाज़ जो शायरी बनती है या जिस शायरी को औरत की आवाज़ के नाम से आइंदा वक़्तों में याद किया जाएगा, उसमें यह ग़ज़ल शामिल ज़रूर होगी।

अब इस ग़ज़ल के बारे में दीग़र बातें ये भी करता चलूं कि एक तो चूंकि पूरी ग़ज़ल में कहीं औरत लफ़्ज़ सीधे नहीं आया है तो इसके और भी मआनी या तफ़्सीलात पेश की ज़रूर जा सकती हैं, लेकिन यह ग़ज़ल के शेरों में तहदारी की बात है कि एक ही शेर को मुख़्तलिफ़ थीम्स या मुद्दों पर उतारा जा सके। एक बात यह कि इस ग़ज़ल की ज़बान को मैं हिंदोस्तानी ज़बान कहना ज़्यादा मुनासिब समझता हूं बजाय उर्दू कहने के। और यह भी कि इस ग़ज़ल के मिसरों की मुहावरेदानी की वज्ह से एक ख़ुशरंग ज़बान रोशनी में आती है। यह ग़ज़ल एक सत्ह पर रवायती भी है तो दूसरी सत्ह पर ग़ालिबन इसमें जदीदियत की निशानदेही भी है।

मेंहदी साहिबा अपने तरन्नुम के लिए भी ख़ासी मशहूर हैं। यह ग़ज़ल उनसे तरन्नुम में सुनी है इसलिए कह सकता हूं कि चन्द और ग़ज़लों की तरह इस ग़ज़ल में भी उनका तरन्नुम डॉ. बशीर बद्र के तरन्नुम से मुतास्सिर है। इस ग़ज़ल की सिफ़त यह है कि मेंहदी साहिबा से तरन्नुम में इसे सुनें, तहत में सुनें या ख़ुद कहीं भी पढ़ें, यह ग़ज़ल आपके साथ जुड़ जाती है और शायद कुछ मुरीदों की याददाश्त में रह भी जाएगी। आख़िर में इस ग़ज़ल के बाक़ी दो शेर भी आप तक पहुंचाता चलूं जिन पर बात फिर कभी, क्यूंकि अभी जिस मक़ाम और क़ैफ़ियत से इस ग़ज़ल का तब्सरा कर रहा हूं, वहां से इन दो शेरों पर बात कर पाना वाजिब नहीं होगा।

जब उसके लफ़्ज़ कुंद होके बेअसर हो गये
तो फिर ज़बान पर नये सिरे से धार दी गयी।

बुखार सच का उसके सर पे इस क़दर सवार था
कि टोने टोटके से उसकी लू उतार दी गयी।

क्या फ़िक़्रअंगेज़ वाक़या है कि एक रोज़ पहले पढ़ी ख़बर ज़ह्न में करवटें ले रही थी कि साउथ अमेरिका के पेरू में मिस पेरू मुक़ाबले के दौरान शरीक़ मॉडल्स ने रस्म को तोड़ते हुए अपने साइज़ का ब्यौरा देने के राउंड में अपने इलाक़े में होने वाले उन ज़ुल्मों और गुनाहों के आंकड़े रखे, जो औरतों के ख़िलाफ होते हैं। और इसी सोच में डूबा हुआ मैं एक दिन बाद मेंहदी साहिबा की इस ग़ज़ल से रूबरू हुआ, जो आंकड़ों से नहीं, परत-दर-परत घुले एहसासों से तक़रीबन उसी आवाज़ की गूंज है।

आख़िरश, ये ग़ज़ल औरत की तारीख़ या तारीख़ में औरत की जिस ज़मीन पर नुमाइंदगी करती है, वहां किसी मज़हब की औरत, किसी इलाक़े की औरत या किसी ख़ास रंग की औरत की बात बेमानी है। इन शेरों में औरत सिर्फ़ औरत है - यानी ठीक आधी दुनिया।

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