सिनेमा और साहित्य - किश्त चार
"गंभीर, सुरचित फिल्में - ऐसी फिल्में जो अंतर्दृष्टि और कल्पनाशीलता के साथ सिनेमा की भाषा का उपयोग करती हैं, हमारी संवेदनाओं को उसी तरह चुनौती देती हैं जैसे पेंटिंग, संगीत और साहित्य की असाधारण कृतियां। यहां तक कि साधारण शिल्प वाली एक फिल्म, जो हमारी भावनाओं पर सीधे प्रभाव डालती है, गहरी समझ की मांग करती है।"
महान फिल्मकार सत्यजीत रे का यह कथन एक स्तर पर विभिन्न कलाओं में एक साम्य तलाशने की राह देता है वहीं, एक परत यह भी खोलता है कि फिल्मों की अपनी एक भाषा होती है। शुरुआती समय में न सही लेकिन समय के साथ सिनेमा ने अपनी एक भाषा गढ़ने का प्रयास किया है जिसके लिए एक समझ का विस्तार हुआ भी है और होना चाहिए भी।
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दूसरी ओर, यदि किसी साहित्यिक कृति पर एक फिल्म बन रही है, तो उसमें महत्वपूर्ण क्या है? साहित्यिक कृति, जिसकी अंतर्वस्तु पर फिल्म आधारित है, या फिल्म, जिसके कारण साहित्य एक अलग माध्यम में प्रवेश करता है? सवाल पेचीदा है और निजी अनुभवों से इसका जवाब खोजने पर संभव है कि उत्तर अलग-अलग मिलें। उत्तर तलाशने की प्रक्रिया में कुछ और प्रश्नों से गुज़रना होता है जैसे कि ऐसी फिल्म को देखने के बाद यदि उस साहित्य को पढ़ा जाये तो पाठक के मन में क्या शब्दों के साथ छवियां चलेंगी? और यदि पहले साहित्य पढ़कर फिर फिल्म देखी जाये तो पाठक के सामने चल रही छवियां क्या उसके अनुभव एवं कल्पनाशीलता को एक संतोषजनक स्तर पर जस्टिफाई करेंगी? साहित्य और सिनेमा के बीच का संबंध ऐसे ही कुछ उलझे प्रश्नों और द्वंद्वों की तरह दिखायी देता है।
सत्यजीत रे ने ही एक व्याख्यान में कहा था -
"एक फिल्म चित्र है, एक फिल्म शब्द है, एक फिल्म नाटक है, एक फिल्म संगीत है, एक फिल्म हज़ारों तरह के अभिव्यंजक श्रव्य व दृश्य विगत है। वर्तमान में एक और बात जोड़नी होगी कि एक फिल्म रंग है..."
वास्तव में, साहित्य और सिनेमा न केवल दो अलग माध्यम हैं बल्कि दोनों के सृजन एवं उद्देश्यों में कई स्तरों पर अंतर हैं। साहित्य का सृजन एक व्यक्ति करता है जबकि सिनेमा अनेक कलाकारों की सामूहिक रचना है। साहित्य सृजन के समय लेखक अपने अनुभव, दृष्टि एवं प्रतिभा को आधार बनाता है जबकि सिनेमा में कुछ कलाकारों का दख़ल होता है जिसकी बागडोर निर्देशक के हाथ होती है। साहित्य सृजन का उद्देश्य लोकमंगल होता है जबकि सिनेमा का उद्देश्य लोकरंजन। साहित्य सृजन के समय किसी प्रकार की बाज़ार चिंता या भावना न्यूनतम प्रभावी होती है जबकि सिनेमा सृजन में अधिकतम।
उपरोक्त संदर्भ में यह समझना भी अनिवार्य है कि पाठ्य माध्यम एवं दृश्य-श्रव्य माध्यम का नैरेटिव, ढांचा और पहुंच अलग-अलग होती है। इस भूमिका के बाद यह तो स्पष्ट है कि साहित्य किसी फिल्म का आधार हो सकता है, फिल्म का पूरा चेहरा नहीं। संभवतः इसी कारण फिल्म की श्रेणियों जैसे व्यावसायिक सिनेमा, कला सिनेमा, पीरियड सिनेमा आदि में अब तक साहित्यिक सिनेमा जैसी किसी श्रेणी की चर्चा नहीं होती है। ऐसी तमाम श्रेणियों में कभी-कभी साहित्य का आश्रय अवश्य लिया जाता है। इस संदर्भ में गुजराती फिल्म समीक्षक बकुल टेलर का कथन समीचीन है –
“साहित्यिक कृतियों पर बनी फिल्म अपने आप अच्छी हो, ऐसा नहीं होता। वास्तविकता यह है कि साहित्यिक कृति का सौन्दर्यशास्त्र और सिनेमा का सौन्दर्यशास्त्र अलग-अलग हैं और सिनेमा सर्जक भी साहित्यकृति के पाठक रूप में साहित्यिक आस्वाद तत्वों पर मुग्ध होकर उनका सिनेमेटिक रूपांतरण किए बगैर आगे बढ़ जाते हैं।“
हिंदोस्तान में जब बोलते हुए सिनेमा की शुरुआत हुई, उससे पहले किसी भाषा का सिनेमा तो बन नहीं रहा था इसलिए उसे हम भारतीय सिनेमा कहते हैं। मूक सिनेमा में अधिकांश स्थानों पर साहित्य का प्रश्रय या आधार दृष्टव्य है। दादासाहेब फालके निर्मित पहली भारतीय फिल्म ‘राजा हरिश्चंद्र’ ही भारत के प्राचीन साहित्य पर आधारित थी और कुछ विद्वान इसे 19वीं सदी के हिंदी साहित्यकार भारतेंदु हरिश्चंद्र लिखित नाटक पर आधारित भी घोषित करते हैं। बहरहाल, यहां से हिंदी साहित्य के सिनेमा के साथ जुड़ाव को स्वीकार कर लिया जाये तो इसके आगे की यात्रा से पहले साहित्य और सिनेमा के बारे में तत्कालीन महत्वपूर्ण घटनाओं एवं परिदृश्य से वाकिफ़ होना ज़रूरी है।
एक ओर, 30 के दशक में साहित्य जगत में ऐतिहासिक चेतना का संचार हो रहा था। मार्क्सवाद और फिर प्रथम विश्व युद्ध के दौरान हुई रूस क्रांति के बाद क्रांतिकारी विचार सामने आ रहे थे। इसका परिणाम यह हुआ कि प्रगतिशील विचार का उदय हुआ। इससे हिंदी, उर्दू सहित तमाम भारतीय भाषाओं के साहित्यकार और कलाकार जुड़े। साहित्य और सिनेमा संबंधी एक और महत्वपूर्ण स्थिति यह थी कि हिंदी के साहित्यकार बहुत कम संख्या में सिनेमा से जुड़े और जो जुड़े भी, उनमें बहुत कम लंबे समय तक संबद्ध रहे। दूसरे शब्दों में कहा जा सकता है कि हिंदी सिनेमा की नींव में बांग्ला, मराठी, उर्दू, पंजाबी भाषा के लेखकों और कलाकारों का नाम लिया जाना चाहिए। दूसरी ओर, सिनेमा निर्माण यानी वित्तीय प्रबंधन उपरोक्त कलाकारों के साथ ही पारसियों के हाथ में रहा। यह शुरुआती स्थिति थी, जो बोलती फिल्मों के आगमन से करीब दो दशक तक प्रभावी रही।
इन स्थितियों एवं घटनाओं के मद्देनज़र हिंदी साहित्य की ओर झुकाव कम होना, शुरुआती फिल्मों पर पारसी थिएटर का प्रभाव होना और कथित हिंदी सिनेमा की भाषा पूरी तरह हिंदी नहीं बल्कि ‘हिंदोस्तानी’ होना स्वाभाविक ही था। वास्तव में, जिसे हिंदी सिनेमा कहा जाता है, वह एक मिली-जुली भाषा यानी हिंदोस्तानी ज़बान का सिनेमा ही है। जब आप उर्दू सिनेमा का इतिहास लिखने बैठेंगे तो उन्हीं फिल्मों का ज़िक्र करेंगे, जिनका हिंदी फिल्मों के रूप में किया जाता है।
तो क्या हिंदी साहित्य को सिनेमा से पूरी तरह ख़ारिज ही समझा जा सकता है? ऐसा नहीं है। 30 के दशक में बोलती फिल्मों की शुरुआत के साथ ही करीब एक दशक तक सिनेमा एक प्रकार से अपने माध्यम को समझने की ही चेष्टा कर रहा था। एक नया माध्यम, नये कलाकार और नयी चुनौतियों से जूझते हुए सिनेमा अपने स्वरूप को परिभाषित एवं स्थापित करने की जद्दोजहद में था। इस समय में मुंशी प्रेमचंद सिनेमा के संपर्क में आये। प्रेमचंद की एक कहानी पर एक फिल्म ‘मिल मज़दूर’ बनी जो उन्हें अपने साहित्य के अनुरूप नहीं लगी। निर्माता एवं अंग्रेज़ी सेंसर पर आरोप लगाते हुए उन्होंने यह तक कह दिया कि “यह प्रेमचंद की हत्या” होने जैसा है। खिन्न होकर वह ज़्यादा समय तक सिनेमा से जुड़े रह नहीं सके।
इसी प्रकार कई और हिंदी साहित्यकारों का जुड़ाव एक-दो फिल्मों तक ही सीमित रह गया। एक अमृतलाल नागर ही थे, जो सिनेमा से लंबे समय तक जुड़े रहे। हालांकि उन्होंने सिनेमा में संवाद एवं पटकथा लेखन तक ही स्वयं को सीमित रखा और साहित्य लेखन को सिनेमा से अलग रखा। बाद में एक नाम रहा कमलेश्वर, जिनका सिनेमा के साथ जुड़ाव उल्लेखनीय रहा। 1948 में उदय शंकर निर्देशित फिल्म ‘कल्पना’ के लिए नागर ने जहां संवाद लेखन किया, वहीं सुमित्रानंदन पंत ने गीत रचे। फिल्म को विश्व स्तर पर सराहना मिली। बावजूद इसके पंत जी भी फिर कभी सिनेमा से नहीं जुड़े। इसी प्रकार भगवतीचरण वर्मा, आचार्य चतुरसेन शास्त्री, पांडेय बेचन उग्र, उपेंद्रनाथ अश्क, फणीश्वरनाथ रेणु जैसे कुछ तत्कालीन साहित्यकारों की एकाध कृति पर फिल्मों का निर्माण हुआ लेकिन हिंदी के साहित्यकारों का लंबा जुड़ाव सिनेमा के साथ रह नहीं पाया।
दूसरी ओर, उर्दू के लेखक मंटो, राजेंदर सिंह बेदी, कृष्णचंदर, ख़्वाजा अहमद अब्बास, कमाल अमरोही, आगा हश्र कश्मीरी, राही मासूम रज़ा, अबरार अलवी आदि सिनेमा से लगातार जुड़े रहे। स्वाभाविक रूप से, हिंदी सिनेमा की भाषा, चरित्र एवं अवधारणा स्थापित करने में इन कलाकारों का योगदान हिंदी साहित्यकारों की अपेक्षा अधिक महत्वपूर्ण रहा है। एक पहलू है लोकभाषाओं के सिनेमा का। भोजपुरी, छत्तीसगढ़ी, राजस्थानी आदि भाषाओं के सिनेमा में यदा-कदा हिंदी साहित्य की करवटें ज़रूर हैं लेकिन दर्शक वर्ग सीमित होने के कारण सिनेमा के स्वर्ण समय में एक तो फिल्में ही कम बनीं, दूसरी इन फिल्मों से भी साहित्यकारों की संबद्धता प्रत्यक्ष नहीं रही।
फिर आता है 70 का दशक। हालांकि कला सिनेमा का एक धरातल 40 के दशक से ही सिनेमा में तैयार हो चुका था जिसकी पूर्वपीठिका के रूप में 30 के दशक में वी. शांताराम एवं अब्बास जैसे कलाकारों की फिल्मों को माना जा सकता है। 70 के दशक में शासन सिनेमा से प्रत्यक्ष रूप में जुड़ चुका था और कला सिनेमा को प्रोत्साहित करने के लिए विभिन्न योजनाएं एवं गतिविधियां होने लगी थीं। राजेंद्र यादव, मन्नू भंडारी, मुक्तिबोध, धर्मवीर भरती जैसे कुछ तत्कालीन हिंदी साहित्यकारों के साहित्य पर फिल्मों का निर्माण हुआ भी लेकिन इन फिल्मों में सिनेमा की अभिव्यंजकता एवं संप्रेषणीयता को लेकर एक विमर्श निरंतर बना रहा। इस समय में एक उम्मीद जागी थी कि अब हिंदी साहित्य का सीधा हस्तक्षेप सिनेमा में संभव है। लेकिन ऐसा फिर नहीं हो सका। एक आलेख में इक़बाल रिज़वी लिखते हैं –
“हिंदी की साहित्यिक कृतियों पर फिल्म न बनने का शोर 60 के दशक में सरकारी वर्ग तक भी पहुँचा। फिल्म वित्त निगम ने आगे बढ़कर सरकारी खर्च पर अनेक ख्याति प्राप्त साहित्यकारों की कृतियों पर फिल्मों का निर्माण कराया। इनमें से अधिकांश फिल्में डिब्बों में बंद हैं। कुछ फिल्में गिने-चुने स्थानों पर रिलीज जरूर हुईं लेकिन वे इतनी नीरस और शुष्क थीं कि सीमित बौद्धिक वर्ग के अलावा किसी ने उनकी चर्चा तक नहीं की। इन फिल्मों को बनाने वाले अधिकतर फिल्मकारों ने फिल्म तकनीक का तो ध्यान रखा, लेकिन दर्शक उनकी प्राथमिकता में कहीं नहीं था।“
अब, दूसरा पक्ष है हिंदी काव्य और सिनेमा का संबंध। हिंदी के मुख्यधारा के लेखकों की ही भांति कवि भी सिनेमा से उसी प्रकार का परहेज़ करते दिखायी दिये। पंडित सुदर्शन, पंडित इंद्र जैसे कुछ गीतकार 30 और 40 के दशक में सक्रिय रहे लेकिन मुख्यधारा के सिनेमा से नहीं जुड़ सके। इस प्रसंग में भी उर्दू के मशहूर शायर ही फिल्मी गीतों के स्तंभ रूप में उभरे। पंडित भरत व्यास, कवि प्रदीप और शैलेंद्र को हिंदी गीतकारों की वह तिकड़ी करार दिया जा सकता है जिसने सिनेमाई गीतों में हिंदी काव्यधारा का सूत्रपात किया। शैलेंद्र की भाषा हिंदी परंपरा की न होकर हिंदोस्तानी के क़रीब रही लेकिन व्यास एवं प्रदीप ने हिंदी गीत परंपरा से सिनेमा को कालजयी रचनाएं प्रदान कीं। इसके बाद एक और उल्लेखनीय नाम गोपालदास नीरज का है।
वस्तुतः हिंदी के गीतकारों ने कुछ अमर रचनाएं हिंदी सिनेमा को अवश्य दीं लेकिन हिंदी सिनेमा के काव्य का कोई स्वरूप या सौंदर्यशास्त्र रचा हो, ऐसा कहना कठिन है। साहिर, शकील, हसरत, मजरूह जैसे गीतकारों ने जो कारनामा इस स्तर पर किया, वह अधिक महत्वपूर्ण रहा है। समय-समय पर कुछ नाम आते रहे और कुछ मरणोपरांत किन्हीं संदर्भों में गूंजते रहे लेकिन हिंदी के मुख्यधारा के साहित्य ने हिंदी के मुख्यधारा के सिनेमा से हमेशा एक दूरी बनाये रखी, यही सच प्रतीत होता है। एक सिरा यह भी है कि साहित्य की दुनिया में फिल्मी लेखन को हिकारत की नज़र से देखा जाता था। यदि किसी कवि ने फिल्मों में गीत लिखे तो उसे साहित्यिक बिरादरी से खदेड़ने की कवायद शुरू हो जाती थी। ऐसे कई उदाहरण हैं। राज कपूर के पहले न्यौते पर शैलेंद्र ने कहा कि “मैं बिकना नहीं चाहता”। उन्हीं शैलेंद्र ने बाद में कहा कि “लो मैं बिकने आ गया”। नीरज ने भी ऐसी ही उधेड़बुन में फिल्मी दुनिया को छोड़ा।
साहित्य की बदलती धाराओं एवं स्थापनाओं के कारण ऐसा हुआ या हिंदी साहित्य के शुद्धतावादी कलात्मक दृष्टिकोण के कारण या सिनेमा को साहित्य का शोषण करने वाला माध्यम मानने के कारण, कारण कुछ भी रहे हों, हुआ यह कि हिंदी साहित्य का सिनेमा से अन्तर्संबंध जिस तरह का अपेक्षित था, वह स्थापित हो नहीं सका। सिनेमा पर लेखकों एवं कवियों की रचनात्मकता का अतिक्रमण या शोषण करने का आरोप एक हद तक जायज़ मालूम होता है और सिनेमा की दुनिया का बाज़ारवाद भी एक कारण प्रतीत होता है जिसने साहित्य जगत में एक उद्विग्नता पैदा की। इस पूरे परिप्रक्ष्य में कहा जा सकता है कि हिंदी साहित्य की परंपरा जितनी समृद्ध एवं गौरवशाली रही है, सिनेमा में उसकी एक चौथाई झलक भी प्रविष्ट नहीं हो सकी।
हिंदी साहित्य और सिनेमा के बीच एक महत्वपूर्ण पहलू का उल्लेख और आवश्यक है और वह है सिने पत्रकारिता। 50 के दशक में सिनेमा से जुड़ी मूल्यपरक पत्रकारिता का विकास हुआ। एक ओर उर्दू पत्रिका ‘शमां’ उल्लेखनीय रही तो वहीं ‘माधुरी’ ने अनेक नूतन परिभाषाएं गढ़ीं। फिल्म लेखकों, कवियों और कलाकारों से संवाद के समानांतर माधुरी ने हिंदी के शीर्ष साहित्यकारों से संवाद बनाया और सिनेमा पर साहित्यकारों की दृष्टि को महत्व दिया। अपने एक लेख में इतिहासकार रविकांत लिखते हैं –
“साहित्य और सिनेमा के बीच सेतु बनाने में माधुरी ने कोई कसर नहीं छोड़ी, हिन्दी को हरेक अर्थ में प्रतिष्ठित करने की भी हर कोशिश इसने की। इसरार करके हिन्दी के दिग्गजों से लेख लिखवाए, हरिवंश राय बच्चन से गीतों पर, पंत से फ़िल्मों की उपादेयता, उनके गुण-दोषों पर और दिनकर को तो बाक़ायदा एक फ़िल्म दिखवाकर उनकी समीक्षात्मक टिप्पणी भी छापी..”
इसके बाद कुछ और पत्रिकाओं ने सिनेमा और साहित्य के तालमेल के कुछ प्रयास किये जिसमें कन्हैयालाल नंदन के संपादन में प्रकाशित होने वाली ‘सारिका’ और ‘दिनमान’ का नाम विशिष्ट है। समय के साथ सिनेमा केंद्रित पत्रिकाएं व्यावसायिक होती चली गयीं और साहित्य का दामन छूट गया।
साहित्यकारों एवं फिल्मकारों के बीच लगातार संवाद होते रहे हैं, हो रहे हैं परन्तु अब तक किसी ऐसे निष्कर्ष पर नहीं पहुंचा जा सका है, जो हिंदी साहित्य और सिनेमा के संबंध को प्रगाढ़ करने के प्रति किसी सकारात्मक बोध का सूचक हो। दोनों माध्यमों को एक-दूसरे को समझने की चेष्टा करने की आवश्यकता एवं अपने-अपने अहंकारों एवं स्वार्थों से परे जाकर समूह बनने की गुंजाइश बनी हुई है। जब तक ऐसा नहीं होगा तब तक होगा यही, कि प्रेमचंद फिल्मी दुनिया छोड़ते रहेंगे और उनके फ़ना होने के सालों बाद कोई सत्यजीत रे आएगा और सिनेमा में प्रेमचंद के साहित्य को पुनर्परिभाषित करने की चेष्टा करेगा।
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