अभिनय-स्वर-सौंदर्य की त्रिमूर्ति : काननबाला-शांता-सुब्बुलक्ष्मी
एफटीआईआई में कुछ साल पहले एक सेमिनार में गुलज़ार साहब को कहते सुना
था कि भारत में खासकर हिन्दी सिनेमा शुरुआती दौर में अपनी एक भाषा गढ़ रहा था। अगर यह
सफर कामयाब हुआ होता तो हम कुछ नज़्में देख रहे होते और कुछ तस्वीरें सुन रहे होते...
सच भी है कि जब-जब सिनेमा ने साहित्य का दामन थामा तब अधिकतर हमें क्लासिक या फिर श्रेष्ठ
फिल्में देखने को मिलीं। हिन्दी सिनेमा के शुरुआती दौर में यह चोली-दामन का साथ था,
जो बाद में छूटता चला गया और धागे उधड़ते चले गये।
आप जानते ही हैं कि सिनेमा ने तीस के दशक की शुरुआत में ही बोलना
शुरू कर दिया था और यहां से हर भाषा के सिनेमा की शुरुआत हुई। इससे पहले का इतिहास
तो भारतीय सिनेमा का ही है। तो हिन्दी सिनेमा के शुरुआती दौर यानी तीस के दशक में तीन
घटनाएं होती हैं जो रह-रहकर याद की जाना चाहिए। एक घटना है शांता आप्टे का अभिनेत्री
के रूप में सिनेमा में पदार्पण। बाल कलाकार के रूप में शांता कुछ फिल्मों में नज़र आयी
थीं लेकिन जब भालजी पेंढरकर निर्देशित मराठी फिल्म श्यामसुदर में शांता नवयुवती के
रूप में दिखीं तो जैसे सिने उद्योग में एक हलचल सी मच गयी।
पहली ही फिल्म से शांता और सफलता एक-दूसरे के पर्याय प्रतीत होने
लगे। श्यामसुंदर को पहली मराठी फिल्म माना जाता है जिसने एक ही सिनेमाघर में सिल्वर
जुबली प्रदर्शन किया। इसके बाद वी. शांताराम ने लगातार तीन फिल्मों में शांता को अभिनेत्री
चुना। प्रभात फिल्म्स के निर्माण में शांताराम ने 1934 में अमृत मंथन का निर्देशन किया
और इस फिल्म से शांता ने हिन्दी सिनेमा में पदार्पण किया। यह हिन्दी की पहली फिल्म
मानी जाती है जिसने सिल्वर जुबली हिट का दर्जा पाया और वेनिस के अंतरराष्ट्रीय फिल्म
उत्सव में स्थान भी। शांता सफलता के शिखर की ओर अग्रसर थीं।
1936 में शांताराम के ही निर्देशन में शांता ने अमर ज्योति में एक
प्रमुख भूमिका निभायी लेकिन 1937 में जब दुनिया न माने रिलीज़ हुई तो एक कभी न भूलने
वाला इतिहास रच गया। इस फिल्म को आज तक फिल्म समीक्षक एक क्लासिक मानते हैं। दुनिया
न माने नारायण हरि आप्टे लिखित उपन्यास ‘न पटणारी गोष्ट’ पर आधारित थी। इस फिल्म की
सफलता का प्रमाण यह है कि शांताराम ने इस हिन्दी फिल्म को मराठी में कुंकू के नाम से
उसी साल बनाया और मराठी में भी यह फिल्म दर्शकों के बीच अत्यंत लोकप्रिय सिद्ध हुई।
ऐसा क्या था इस फिल्म में जो यह तब भी विचारोत्तेजक थी और अब तक
क्लासिक की श्रेणी में शुमार की जाती है? इस फिल्म की कहानी। एक नवयुवती का विवाह एक
उम्रदराज़ व्यक्ति के साथ होता है जिसकी पत्नी का देहांत हो चुका है। लेकिन यह युवती
सामाजिक मर्यादा और परंपरा के खिलाफ उस बूढ़े को अपना पति मानने से इनकार करती है। उसका
संघर्ष उस बूढ़े की सोच बदलता है और अंततः वह बूढ़ा एक प्रकार से उसे बेटी मानकर, उसे
पुनर्विवाह की आज्ञा देकर खुदकुशी कर लेता है। यह नारी सशक्तिकरण के पक्ष में उठने
वाली सिनेमा की पहली दमदार आवाज़ का दस्तावेज़ है। उस समय में समाज की एक प्रचलित कुरीति
के विरुद्ध एक फिल्मकार की जाग्रत चेतना का चित्र सिद्ध हुई फिल्म दुनिया न माने। सिनेमा
के माध्यम का सशक्त उपयोग भी इस फिल्म ने लक्ष्य किया।
यह तो हुई दुनिया न माने और शांता आप्टे की बात। और दिलचस्प और क्या
हुआ? बम्बई से कुछ ही दूर मद्रास में एक और हलचल हुई। दुनिया न माने के प्रदर्शित होने
के एक साल के भीतर ही एक तमिल फिल्म प्रदर्शित हुई सेवासदनम। दुनिया न माने के विषय
पर आधारित के सुब्रमण्यम निर्देशित यह फिल्म अपने अंत यानी क्लाइमेक्स में कुछ अलग
थी लेकिन यह भी समाज की कुरीति के विरुद्ध पुरज़ोर आवाज़ थी। यह फिल्म मुंशी प्रेमचंद
लिखित उपन्यास बाज़ार-ए-हुस्न पर आधारित थी। हालांकि मुंशी जी का यह उपन्यास कुछ साल
पहले प्रकाशित हो चुका था लेकिन फिल्म का प्रभाव भी अद्वितीय रहा। आलोचकों और समीक्षकों
ने न केवल इसे सराहा बल्कि तमिल सिनेमा में इस फिल्म को ऐतिहासिक और टर्निंग प्वाइंट
माना है।
एक और दिलचस्प तथ्य इस घटना से जुड़ा। एमएस सुब्बुलक्ष्मी की बतौर
अभिनेत्री यह पहली फिल्म थी। वही सुब्बुलक्ष्मी जिन्हें सरोजिनी नायडू ने भारत कोकिला
कहा, नेहरू ने संगीत की मलिका, किशोरी अमोनकर ने आठवां सुर और बड़े गुलाम अली ने सुस्वरलक्ष्मी
कहा। वही सुब्बुलक्ष्मी जो भारत रत्न से सम्मानित होने वाली पहली संगीतज्ञ थीं। सेवासदनम
की नायिका के तौर पर उन्हें अनेक प्रशंसाएं मिलीं और इसी का परिणाम था कि उन्होंने
तीन-चार फिल्मों में और अभिनय किया। इनमें से एक फिल्म मीराबाई हिन्दी में भी थी जिसमें
उन्होंने शीर्षक भूमिका की थी।
सुब्बुलक्ष्मी मूलतः गायिका थीं जिन्होंने अभिनय में उपनी उपस्थिति
ऐतिहासिक रूप से दर्ज करवायी और दूसरी ओर शांता आप्टे मूलतः अभिनेत्री थीं जिन्होंने
गायकी में भी अपना एक ऐतिहासिक मुकाम बनाया। जी हां! शांता आप्टे ने गायकी में भी अपना
लोहा मनवाया।
केशवराव भोले के संगीत निर्देशन में शांता ने फिल्म अमृत मंथन में
चार एकल टाइटल्स गाये जिनमें एक ग़ज़ल भी शुमार थी ‘कमसिनी में दिल पे ग़म’। यह हिन्दी
फिल्मों के लिए रिकॉर्ड हुई पहली ग़ज़ल है। दुनिया न माने में शांता ने एचडब्ल्यू लॉंगफेलो
लिखित एक अंग्रेज़ी कविता ‘साम ऑफ लाइफ’ गायी। इसके बाद भी फिल्मों में अभिनय के साथ-साथ
उनकी गायकी का सफर जारी रहा। और जारी रहा शांता और सुब्बुलक्ष्मी दोनों के नाम उपलब्धियों
और सफलताओं के सुनहरे पन्नों का सफर।
शांता आप्टे से जुड़ा एक और रोचक तथ्य पाठकों के काम का हो सकता है।
1941 में तमिल फिल्म सावित्री में शांता ने सुब्बुलक्ष्मी के साथ अभिनय किया जिसमें
सुब्बुलक्ष्मी नारद की भूमिका में दिखीं। 1943 की हिन्दी फिल्म दुहाई में शांता के
साथ सह भूमिका में मलिका-ए-तरन्नुम नूरजहां दिखीं और 1946 की फिल्म सुभद्रा में एक
सहायक भूमिका में लता मंगेशकर ने उनके साथ अभिनय किया। यानी भारत की तीन सर्वश्रेष्ठ
आवाज़ों ने शांता के साथ परदे पर साझेदारी की और साथ ही साथ आवाज़ भी मिलायी।
इस तरह की विलक्षण प्रतिभा की धनी शांता के बारे में कहा जाता है
कि मराठी सिनेमा में उनका प्रभाव उतना ही श्रेयस्कर रहा जितना बंगला सिनेमा में कानन
देवी उर्फ काननबाला का रहा।
मूक सिनेमा से शुरुआत करने वाली और शुरुआत में काननबाला के नाम से
जानी जाने वाली कानन देवी का फिल्मी सफर रोचक, संघर्षपूर्ण और सफल रहा। बाल कलाकार
से मुख्य भूमिकाओं में बतौर नायिका पदार्पण करते ही उनके नाम की धूम से बंगला सिनेमा
के इतिहास के जानकार परिचित हैं। उनकी प्रतिभा और स्टारडम के कारण ही प्रथमेशचंद्र
बरुआ यानी पीसी बरुआ उन्हें अपनी फिल्म देवदास में मुख्य भूमिका में चाहते थे लेकिन
राधा फिल्म्स कंपनी के साथ करार के कारण कानन देवी यह फिल्म नहीं कर सकीं। ऐतिहासिक
और क्लासिक मानी जाने वाली इस फिल्म का हिस्सा न बन पाने का मलाल उन्हें जीवन भर रहा।
हालांकि बाद में बरुआ के साथ उन्होंने कुछ फिल्में ज़रूर कीं जो एक तरह से देवदास न
कर पाने का प्रायश्चित भी था।
न्यू थिएटर्स फिल्म कंपनी के साथ उनकी गायन प्रतिभा भी लोकप्रिय
हुई। बतौर गायिका कानन देवी ने अपना एक अलग सुरीला मुकाम बनाया जिसे फिल्म संगीत के
जानकार और मुरीद आज तक दिलो-जान से पसंद करते हैं। उन्होंने अपने समय के भारतीय सिनेमा
के दिग्गज कलाकारों केएल सहगल, पंकज मलिक, अशोक कुमार, पहाड़ी सान्याल और छबि बिस्वास
आदि के साथ प्रशंसनीय काम किया। एक तरफ उनकी अदाकारी के दीवाने कम नहीं थे तो दूसरी
ओर उनकी आवाज़ के जादू के कई दिल कायल रहे।
कानन देवी के निजी जीवन में उथल-पुथल होती रही। उनकी पहली शादी कामयाब
नहीं रही। ब्रह्म समाज के एक रूढ़िवादी परिवार में शादी के कारण उनके फिल्मों में काम
करने पर आपत्ति होने लगी। अपनी कला और नैसर्गिक प्रतिभा को चुनने के लिए उन्होंने तलाक
लिया और इस घटना को इन शब्दों में प्रस्तुत किया कि “मैं अपने पहले पति की आभारी हूं
जिनसे शादी के कारण पहली बार मुझे सामाजिक मान्यता मिली”। एक ओर शांता और सुब्बुलक्ष्मी
ने अपनी फिल्मों में एक सशक्त नारी का किरदार निभाया वहीं कानन देवी ने निजी जीवन में
इस मिसाल को जीवन्त किया। शांता ने भी प्रभात स्टूडियोज़ के द्वार पर भूख हड़ताल कर और
एक सिने पत्रिका के संपादक बाबूराव पटेल को लताड़कर निजी जीवन में सशक्त नारी के उदाहरण
प्रस्तुत किये थे।
शांता और कानन देवी में एक समानता यह भी रही कि इन्होंने आत्मकथा
लिखी। शांता की आत्मकथा ‘ज़ाउ मी सिनेमात’ तो संभवतः किसी भारतीय फिल्म अभिनेता द्वारा
लिखी गयी पहली आत्मकथा मानी जाती है। वास्तव में, शांता, सुब्बुलक्ष्मी और कानन देवी,
तीनों ही भारतीय कला में अपने योगदान, अपनी उपलब्धियों और अपने प्रभाव के लिए हमेशा
स्मरणीय रहेंगी।
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