मंगलवार, फ़रवरी 28, 2017

यात्रा

कुफरी से लौटते हुए


बर्फ में रहने के बाद कोई बर्फ से लौट नहीं सकता। बर्फ में आकर्षण होता है और इस आकर्षण में रोमांच के साथ-साथ जोखिम भी। वास्तव में आकर्षण ही जोखिम है और जोखिम में ही आकर्षण है। यही एक स्तर पर जीवन भी है क्योंकि जीवन सपाट नहीं है और न ही अनाकर्षक।

बर्फ़बारी के बाद कुफ़री की एक सुबह। छाया - आकांक्षा

पहली बार बर्फ का अनुभव, बिना किसी विशेष तैयारी के, जीवन भर की स्मृति हो सकता है। कुफरी में बीते कुछ दिनों-कुछ रातों के किस्सों, वहां के अनुभवों और उस शुद्ध प्राकृतिक सौंदर्य का वर्णन हालांकि संभव है, लेकिन यहां अनिवार्य नहीं। पर्यटन के बारे में जानने के लिए कई सूचनाएं अनेक माध्यमों से उपलब्ध हो सकती हैं, किंतु उस अनुभूति के लिए मनुष्य को वहां स्वयं होना ही पड़ेगा। बर्फ की कई परतें होती हैं। बरसती हुई बर्फ, जमी हुई बर्फ, जमी हुई बर्फ पर बरसती हुई बर्फ, हर तरफ बर्फ ही बर्फ और फिर पिघलती हुई बर्फ। उन परतों में एहसासों की तहें खुलती हैं। पंछियों के पंखों की भांति दोनों हाथ खुलते हैं, फिर दोनों मुट्ठियां बंधने लगती हैं, मुट्ठियां दोनों कांखों में दबने लगती हैं, कुछ और नहीं दिखता न ही कुछ और देखने की इच्छा होती है, देर तक वही दृश्य देख मन शून्य हो जाता है किंतु कुछ ही क्षणों में फिर वही दृश्य देखने का लालच होता है।

सिर्फ दो रंग श्वेत एवं हरित। बर्फ और वृक्ष। कभी-कभी तो वृक्षों पर बर्फ का आवरण। दृष्टि के अंतिम छोर पर दिखती हिमालय की शृांखला, वह भी बर्फ से ढंकी हुई। वास्तव में चित्रों और चलचित्रों में देखने से अधिक रोमांचक अनुभव, अधिक सौंदर्य बोध लिये हुए। हृदय में, मन में तथा आत्मा में बर्फ का प्रवेश। कोई चाहे या न चाहे। यह प्रकृति का एक अनोखा रूप है या यों कहिए कि यह प्रकृति का सूक्ष्म रूप है। समुद्र स्थूल रूप है। समुद्र प्रकृति की विशालता का साक्ष्य है, उसका विराट रूप है। पानी के अणुओं का संकुचित या घनीभूत होना बर्फ है। समुद्र मनुष्य के अहंकार को चूर करता है, बर्फ मनुष्य को प्रकृति का प्रतीक होने का गौरव सौंपती है। पृथ्वी की ऊपरी सतह पर ऑक्सीज़न कम होती जाती है, ऐसा कहा जाता है लेकिन बर्फ में ही ऑक्सीज़न है। जो बर्फ से तादात्म्य स्थापित कर लेता है, उसकी सांसें बढ़ जाती हैं। मनुष्य यहां अपने सूक्ष्म रूप को खोज सकता है, उससे जुड़ सकता है। कम से कम उसकी ओर दृष्टि तो मोड़ ही सकता है।

हसन वैली का सच

बर्फ के बहाने अंतर्मन की इस यात्रा की अवधि दिखने में चार-पांच दिन की थी, लेकिन यह लंबे समय से जारी है और अभी और सतत रहेगी। तो, उन अद्भुत चार-पांच दिनों के बाद कुफरी से वापसी हुई। १०-१२ मील दूर शिमला की ओर चले क्योंकि वहां से कालका और फिर दिल्ली के लिए ट्रेन लेना थी। कुफरी में जिन्होंने मन से मेहमाननवाज़ी की, वह मेहता दंपत्ति थे। श्री मेहता हिमाचल प्रशासनिक सेवा के वरिष्ठ अधिकारी हैं और कई पीढिय़ों से हिमाचल के ही वासी हैं। कु$फरी से शिमला तक वह हमारे साथ थे। उन्होंने एक दिलचस्प किस्सा सुनाया। इस एक घंटे के सफर के दौरान कई पर्यटन स्थलों की जानकारी देते हुए वह आधे रास्ते तक पहुंचे और सडक़ किनारे से गहराई में स्थित एक वादी दिखायी और बताया कि इसे हसन वैली कहते हैं।

पर्यटन गाइड पर्यटकों को इस बारे में एक कहानी सुनाते हैं कि किसी ज़माने में इस वादी में एक युवक था, हसन। वह सैलानियों को घोड़े की सैर करवाता था। एक बार वादी में एक युवती आयी और दोनों में प्रेम संबंध प्रगाढ़ हो गया। लेकिन अमीरी और गरीबी की दीवार प्रेम में बाधा बनी और हसन ने स्वयं को छला हुआ अनुभव किया। प्रेम में असफल होने की हताशा में उसने आत्महत्या कर ली। तबसे, इस बिंदु को उसके नाम से जाना जाता है। इस बारे में श्री मेहता ने बताया कि यहां के पुराने बाशिंदे इस सच्चाई से वाकिफ हैं कि यह कहानी मनगढ़ंत है। वास्तव में, लगभग ३५ वर्ष पहले यहां उत्तर प्रदेश से एक युवक आया था जिसका नाम हसन था। काम की तलाश में उसे ड्राइवर की नौकरी मिल गयी। वह पर्यटकों को घुमाने वाला वाहन चालक बन गया और यह उसी का कारनामा था कि वह पर्यटकों को इस बिंदु पर रोककर यह अवास्तविक कहानी सुनाता था और अपने नाम पर नायक का नाम ले, इसे हसन वैली कहने लगा था। समय बीतने के साथ लोग इसे सच ही मानते चले गये क्योंकि यह बिंदु पर्यटकों के लिए मनोरम था और कई गाइड अनजाने में वही कहानी दोहराने लगे। दिलचस्प यह भी है कि हसन जो कहानी सुनाता था, वह उस ज़माने में प्रदर्शित हुए उसके पसंदीदा चलचित्र जब-जब फूल खिले की कहानी से प्रेरित थी। एक और दिलचस्प तथ्य यह है कि प्राकृतिक सौंदर्य से भरपूर कई पर्यटन स्थलों पर कुछ सुसाइड प्वाइंट्स पर इसी तरह की कहानियां सुनायी जाती हैं। केवल पात्रों के नाम और घटनाओं के क्रम के फेरबदल मिलते हैं।

रेल संग्रहालय की कथा - एक विडंबना

हसन वैली और कई पर्यटन स्थलों की जानकारी लेते हुए हम कुफरी से शिमला पहुंचे। चूंकि ट्रेन शाम की थी इसलिए दिन हमें शिमला में बिताना था। माल रोड, ग्लेन आदि पर्यटकों की भीड़ वाले स्थलों पर न जाते हुए हमने दो संग्रहालयों को देखते हुए समय बिताने का निश्चय किया। राज्य संग्रहालय से पहले हमने रेल संग्रहालय के दर्शन किये। यह रेल संग्रहालय शिमला-कालका के रोमांचक एवं मनोहारी रेल ट्रैक से जुड़ी जानकारियों और इतिहास को संजोने के लिए तैयार किया गया है। यहां इस ट्रैक से संबंधित कई पुराने यंत्र एवं सामग्रियों को संरक्षित किया गया है, जो अनायास ही आकर्षक है। इस संग्रहालय का पूरा नाम है - बाबा भलकू शिमला-कालका रेल संग्रहालय। बाबा भलकू कौन? इस संग्रहालय के स्मारक पटल पर दो-चार वाक्यों में बाबा भलकू का विवरण दिया गया है। उसके अनुसार बाबा शिमला के पास ही किसी गहरी वादी के निवासी थे। उनकी दिव्य एवं चमत्कारिक शक्तियों के कारण उन्हें स्थानीय लोग बाबा पुकारते थे। पटल पर यह भी उल्लेख है कि १९वीं सदी के अंतिम दशक से २०वीं सदी के प्रारंभिक वर्षों के बीच जब इस पहाड़ी रास्ते पर अंग्रेज़ी अधिकारियों और अभियंताओं द्वारा यह रेल ट्रैक तैयार किया जा रहा था, तब अनेक स्थानों पर यह उलझन हुई कि यहां किस तरह से रास्ता तैयार किया जाये। विज्ञान और गणित सम्मत कोई हल नहीं मिले। ऐसे में अंग्रेज़ी अफसरों की सहायता बाबा भलकू ने अपनी चमत्कारिक दृष्टि से की और उन्हें मार्ग संबंधी अनेक सुझाव दिये। उनके इस अद्भुत मार्गदर्शन से यह दुरूह कार्य संपन्न हुआ। हालांकि बाबा भलकू के बारे में रेल विभाग के पास कोई प्रामाणिक जानकारी नहीं है। संग्रहालय की देखरेख से जुड़े एक अधिकारी ने पहचान की गोपनीयता की शर्त पर बताया कि स्थानीय लोगों की बातों को आधार मानकर ही बाबा भलकू के नाम पर इस संग्रहालय का नामकरण किया गया है। उनके जीवन एवं इस ट्रैक के निर्माण में उनके द्वारा दिये गये सहयोग से संबंधित संपूर्ण या प्रामाणिक विवरण रेलवे के पास नहीं है।

शिमला रेल संग्रहालय का सूचना पटल। छाया - आकांक्षा


यदि इस कथन को सही माना जाये तो यह विसंगति ही है कि विश्व धरोहरों की सूची में शामिल इस दुरूह ट्रैक के निर्माण के संपूर्ण इतिहास का प्रामाणिक ब्यौरा उपलब्ध नहीं है। निर्माण का श्रेय हासिल करने वाले अंग्रेज़ी अभियंताओं व अधिकारियों के बारे में जानकारियां उपलब्ध हैं, लेकिन जिस भारतीय ने उनका मार्ग प्रशस्त किया, वह अब तक एक पहेली या मनगढ़ंत किंवदंती के रूप में ही प्रकाशित है। बाबा भलकू मनगढ़ंत तो नहीं हो सकते क्योंकि यदि ऐसा होता तो भारत सरकार के सबसे बड़े विभागों में से एक रेलवे, उनके नाम पर एक ऐसे संग्रहालय का नामकरण नहीं करता जो विश्व धरोहर से संबंधित है।

शिमला-कालका मार्ग पर हिंदी प्रचार

शिमला से कालका जाते समय फिर एक बार हिंदी के प्रचार को देखकर संतोष हुआ। इसी रेलमार्ग से आते समय यह सुखद आश्चर्य था। मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश और दिल्ली के रेल स्थानकों पर हिंदी को जो प्रचार और सम्मान प्राप्त नहीं होता, वह इस मार्ग के रेल स्थानकों पर होता है। इस मार्ग के रेल स्थानकों पर विभिन्न पटल लगाये गये हैं जो हिंदी को सम्मानित या प्रचारित करते हैं।

शिमला रेल स्थानक पर हिन्दी प्रचार पटल। छाया - आकांक्षा

हिंदी के साहित्यकारों, चिंतकों एवं भारतीय दार्शनिकों के प्रेरक संदेश भी पटलों पर हिंदी में लिखे गये हैं। ये पटल छोटे आकार के नहीं हैं, ध्यान खींचने योग्य आकार के हैं, जिन पर बड़े-मोटे अक्षरों में स्पष्ट लेख अंकित हैं। रेल स्थानकों के खंभों का यह उपयोग हो सकता है कि वहां पटल लगाकर देश की सांस्कृतिक विरासत और राष्ट्रभाषा का गौरव रेखांकित किया जाये। कहीं-कहीं नाममात्र के लिए शायद ऐसा होता हो, लेकिन देश, विशेषकर हिंदीभाषी क्षेत्रों के अधिकांश प्रमुख रेल स्थानकों पर विभिन्न पटलों पर विज्ञापन अंकित होते हैं, वह भी अधिकतर अंग्रेज़ी में।

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